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			 पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
 "है तो वह ग्वाला ही।" सुदामा हंस पड़े।
 
 "हां! है तो वह ग्वाला ही, तभी तो सारे आर्यवर्त की राजकुमारियां उसके लिए पागल हो उठी हैं।" बाबा की हंसी ने सुदामा की हंसी को और भी तेज कर दिया।
 
 बच्चे खाकर उठ गये। उन्होंने अपने-अपने पत्तल उठाकर बाहर डाल दिये। सदामा पानी लेकर उनके हाथ-मुंह धुलाने लगे। सुशीला ने उस स्थान को गीले कपड़े से पुनः लीप दिया। सुदामा बाहर चारपाइयां बिछा बच्चों को लिटा आये। फिर से पत्तल लगे और बाबा तथा सुदामा खाने बैठे।
 
 "पूरियां तल लो और तुम भी आ जाओ बहू!" बाबा बोले, "एक साथ ही खायेंगे।"
 
 "नहीं बाबा! आप लोग खाइये। मैं बाद में खाऊंगी।" सुशीला बोली, "सबको खिलाये बिना खाने से मेरी तृप्ति नहीं होगी।"
 
 "बड़ा बुरा प्रचलन है।" बाबा बोले, "पहले सब खा लें, तब अन्नपूर्णा खायेगी। उसके लिए चाहे कुछ बचे न बचे।" 
 
 "नहीं बाबा! मेरे लिए बहुत बचेगा।" सुशीला हंस पड़ी, "कम है, इसलिए पहले आपको नहीं खिला रही। रसोई का दायित्व मुझ पर है, इसलिए सबको खिलाकर खाना ही मेरा धर्म है।"
 
 "तू अपनी जगह सच्ची है बेटी!" बाबा बोले, "पर तुम्हारा यह धर्म तुम्हारे शोषण का निमित्त न बने।" सहसा रुककर उन्होंने सुदामा को देखा, "बच्चे सो गये क्या?"
 
 "झगड़ने का स्वर नहीं आ रहा तो सो ही गये होंगे।" सुशीला हंस पड़ी।
 
 भोजन के पश्चात् सुदामा और बाबा कुटिया से बाहर निकल आये।
 
 मौसम खुला हुआ था। न बहुत ठण्ड थी, न गरमी। शरीर हवा के स्पर्श का अनुभव तो करता था, पर हवा चलने का कोई प्रमाण नहीं था। आकाश पर तारे खुलकर झिलमिला रहे थे।
 
 रसोई संभालकर सुशीला बाहर आयी तो उसने पूछा, "इस बार घर से निकले कितना समय हुआ बाबा?"
 
 "वर्ष-भर होने को आया है बेटी!" बाबा का स्वर धीमा था। 
 
 "आपको अपने परिवार की याद नहीं आती?'' सुशीला ने फिर पूछा, "इतने-इतने समय तक आप उनसे अलग कैसे रह लेते हैं?"
 			
						
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- अभिज्ञान
 

 
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