पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सहसा सुदामा का स्वाभिमान जागा। वे अपेक्षा ही क्यों कर रहे हैं? वे याचक के रूप में तो यहां आये ही नहीं थे।...पर भीतर ही भीतर सुदामा के मन में कोई मुस्करा रहा था, "जब तक कुछ मिलने की आशा थी, तब तक स्वाभिमान का कोई प्रश्न ही नहीं उठा; और अब, जब मिलने की सम्भावना नहीं है, तो आपका स्वाभिमान जाग उठा है ...सचमुच बड़े स्वाभिमानी हो...।" सुदामा दाँत पीसकर रह गये।
"अच्छा भाई! अब सोया जाये! कल प्रातः ही यात्रा भी करनी है।" सुदामा बोले।
"पक्का है या कार्यक्रम में परिवर्तन हो सकता है?" कृष्ण ने पूछा, "मैं तो अब भी कह रहा हूं कि जल्दी मत मचाओ। अगले सप्ताह कुछ सैनिक गुल्म उधर जाने वाले हैं। उन्हीं के साथ चले जाना। आराम से पहुंच जाओगे।"
पर सुदामा का मन पूरी तरह उखड़ चुका था। उन्हें कृष्ण के प्रस्ताव में कोई आकर्षण दिखाई नहीं पड़ा। वरन उनके मन में एक भय-सा उग आया था। वे एक सप्ताह यहां ठहरकर क्या करेंगे? कृष्ण से जो बातें होनी थीं, हो गयी हैं। अब नया कुछ नहीं होगा। राज-प्रासादों के-से इस वैभव में उनका अपना आत्मविश्वास कहीं खो गया था। सिवा कृष्ण के, जैसे प्रत्येक व्यक्ति उन्हें याद दिलाता था कि सुदामा इस परिवेश के अंग नहीं हैं। वे बाहरी तत्त्व हैं और बाहर ही रहेंगे।...पर कृष्ण की मित्रता और प्रेम में तो उन्हें कहीं कमी नहीं लगी।...नहीं! कृष्ण ने तो उन्हें अपना सहज सौहार्द्र दिया है। पर कृष्ण के जो गुण हैं, वे ही तो उसके दोष भी हैं। उसके सिद्धान्त और उन सिद्धान्तों के अनुकूल उसके कर्म...ये ही तो कृष्ण के गुण हैं। पर उन सिद्धान्तों में तो कर्म-ही-कर्म हैं, उनमें याचना के लिए तो स्थान ही नहीं है। वहां तो कर्म-सिद्धान्तों और कार्य-कारण के नियमों का निर्मम यन्त्र चल रहा है...उसमें करुणा, दया अथवा ममता के लिए स्थान कहां है। सुदामा ने जो कर्म किये हैं, उनका फल उन्हें मिल ही रहा है; या जो नहीं मिला है, वह मिल ही जायेगा। इनके बीच कृष्ण की मैत्री क्या करेगी।...नहीं अब और रुकना व्यर्थ है।
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