विविध >> देश की बात देश की बातबाबूराव विष्णू पराड़कर
|
4 पाठकों को प्रिय 140 पाठक हैं |
ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना में जीती मरती भारतीय जनता के चीत्कार का दस्तावेज
Desh Ki Baat
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सन् 1904 में ‘देशेर कथा’ शीर्षक से प्रकाशित बांग्ला पुस्तक का हिन्दी अनुवाद देश की बात पहली बार सन् 1908 में मुंबई से तथा उसका परिवर्द्धित संस्करण सन् 1910 में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। यह पुस्तक ब्रिटिश साम्राज्य में गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना में जीती-जागती भारतीय जनता के चीत्कार का दस्तावेज है। मात्र पांच वर्षों में इसके पांच संस्करण की तेरह हजार प्रतियों के प्रकाशन की सूचना से भयभीत अंग्रेज़ों ने सन् 1910 में इस पुस्तक पर पाबंदी लगा दी। भारतीय अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए यहां की कृषि व्यवस्था कारीगरी और उद्योग-धंधों को तहस-नहस करने और भारतीय नागरिक के संबंध में अवमानना भरे वाक्यों का व्यवहार करने की घटनाओं का प्रमाणिक चित्र यहां उपस्थित है। प्रथम प्रकाशन के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में ट्रस्ट द्वारा पुनर्मुद्रित यह पुस्तक, इतिहास और राजनीति के साथ-साथ साहित्य और समाज-शास्त्र में भी रुचि रखने वाले सुधीजनों को चकित करने में आज भी बेमिसाल साबित होगी।
लेखक सखाराम गणेश देउस्कर (1869-1912) भारतीय जन-जागरण के ऐसे विचारक हैं जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल बांग्ला तथा चिंतन-मनन का क्षेत्र इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज एवं साहित्य था। उनके कुछ प्रमुख ग्रंथ हैं: ‘महामति रानाडे’, ‘आनन्दीबाई’, ‘तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित’, ‘कृषकेर सर्वनाश’ आदि।
बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लगभग शताब्दीभर पूर्व इस पुस्तक का अनुवाद किया। सन् 1910 में प्राकशित हिन्दी अनुवाद की पुनर्प्रस्तुति, वृहद भूमिका के साथ मैनेजर पाण्डेय ने की है।
लेखक सखाराम गणेश देउस्कर (1869-1912) भारतीय जन-जागरण के ऐसे विचारक हैं जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल बांग्ला तथा चिंतन-मनन का क्षेत्र इतिहास, अर्थशास्त्र, समाज एवं साहित्य था। उनके कुछ प्रमुख ग्रंथ हैं: ‘महामति रानाडे’, ‘आनन्दीबाई’, ‘तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित’, ‘कृषकेर सर्वनाश’ आदि।
बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लगभग शताब्दीभर पूर्व इस पुस्तक का अनुवाद किया। सन् 1910 में प्राकशित हिन्दी अनुवाद की पुनर्प्रस्तुति, वृहद भूमिका के साथ मैनेजर पाण्डेय ने की है।
एक आंदोलनकारी किताब की कहानी
‘देश की बात’ बांग्ला में लिखी सखाराम गणेश देउस्कर की किताब ‘देशेर कथा’ का हिन्दी अनुवाद है। अनुवादक है हिन्दी के यशस्वी और प्रसिद्ध पत्रकार बाबू राव विष्णु पराड़कर। बांग्ला में देशेर कथा का प्रथम प्रकाशन सन् 1904 में हुआ था। सन् 2004 ‘देशेर कथा’ के प्रकाशन का शताब्दी वर्ष है। सन् 1904 में ‘देशेर कथा’ का प्रकाशन अत्यंत कठिन परिस्थितियों में हुआ है। सखाराम गणेश देउस्कर के लिए ‘देशेर कथा’ जैसी पुस्तक को प्रकाशित कराना एक मुश्किल काम था। इस पुस्तक के प्रकाशन में हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार माधव प्रसाद मिश्र ने बड़ी सहायता की थी।
आरंभ में जिस पुस्तक का प्रकाशन और वितरण एक समस्या थी, वह सन् 1905 में बंग-भंग के विरुद्ध स्वदेशी आंदोलन के आरंभ के साथ ही अपूर्व रूप से लोकप्रिय हुई। माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में लिखा था कि ‘जिस पुस्तक के लागत तक के वसूल होने में लेखक को और मुझे आशंका थी उसकी थोड़े ही दिनों में सब प्रतियां बंट गईं। बंगाल के टुकड़े होते ही वहां स्वदेशी आंदोलन उपस्थित हुआ। जिसमें पुस्तक के प्रदीप्त वाक्यों ने भी अपना प्रभाव दिखलाया। यह कहना तो छोटे मुंह बड़ी बात समझी जाएगी कि स्वदेशी आंदोलन इसी पुस्तक का फल है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन की प्रज्जवलित वह्नि में इसने घृताहुति का सा काम अवश्य किया।
बरीसाल के वीर स्वदेश हितैषी बाबू अश्विनी कुमार दत्त ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्ट्र युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो।’’1 बंग-भंग विरोधी आंदोलन को ‘देशेर कथा’ ने अनेक रूपों में प्रभावित किया, उसे शक्ति और गति दी और इस प्रक्रिया में वह स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणादायी पुस्तक बन गई।
देशेर कथा की अपूर्व लोकप्रियता का अंदाज सन् 1904 से 1908 के बीच उसके प्रकाशन के इतिहास से लगाया जा सकता है। महादेव साहा के अनुसार ‘देशेर कथा’ का एक हजार प्रतियों का पहला संस्करण सन् 1904 में छपा। दो
----------------------------
1. माधव प्रसाद मिश्र, देश की बात का मुखबंध, बंबई, 1908, पृ.6-7
हजार प्रतियों का दूसरा संस्करण सन् 1905 में निकला। पुस्तक की मांग को ध्यान में रखकर ठीक चार महीने बाद ही पांच हजार प्रतियों का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। पुस्तक का दो हजार प्रतियों का चौथा संस्करण सन् 1907 में और तीन हजार प्रतियों का पांचवां संस्करण सन् 1908 में छपा।1 महज पांच वर्षों में पांच संस्करण और तेरह हजार प्रतियां। इस पुस्तक के प्रकाशन के प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि लेखक प्रत्येक संस्करण में कुछ नई सामग्री जोड़ता था, जिससे पुस्तक का आकार बढ़ जाता था, किंतु उसकी कीमत नहीं बढ़ाई जाती थी, बल्कि दो बार घटा दी गई।
‘देशेर कथा’ के लिखे जाने की पृष्ठिभूमि की ओर संकेत करते हुए माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में लिखा था, ‘‘जिस समय यह पुस्तक बांग्ला में लिखी गई थी उस समय बंगाल के टुकड़े नहीं हुए थे, स्वदेशी आंदोलन का विचार भी लोगों के जी में नहीं आया था। लार्ड कर्जन के कुचक्रपूर्ण शासन से लोग शंकित हो चुके थे, पर उनकी मोहमयी निद्रा तब तक भी टूटने नहीं पाई थी। बंगाल के शिक्षित लोग आमोद-प्रमोद में लग रहे थे और कितने ही सौंदर्योपासक ‘मूकाभिनय’ का अपूर्व कौतुक कर कृत्रिम रमणीयता का बाजार खोल रहे थे। उपन्यास और नाटकों में श्रृंगार रस की प्रधानता हो रही थी और बंगाल के बहुत से बड़े आदमियों का समय उसी के आकलन में पूरा हो रहा था। यह किसी को ध्यान भी न था कि उनके देश की कैसी शोच्य दशा हो रही है और आगे कैसा परिवर्तन होनेवाला है।’’2
ऐसे समय में देशेर कथा का लिखा जाना एक वैचारिक विस्फोट की तरह था, जिसने जन-मानस को धक्का देकर चकित करते हुए जगाया। देशेर कथा की अपार लोकप्रियता से अंग्रेजी-राज भयभीत हुआ और 28 सितंबर, 1910 को एक विज्ञप्ति निकालकर उसको जब्त कर दिया गया। ‘देशेर कथा’ पर पाबंदी की खबर 30 सितंबर को कुछ दैनिक अखबारों में छपी। हितवादी और हितवार्ता को छोड़कर किसी अन्य पत्र-पत्रिका ने इस प्रतिबंध का प्रतिवाद नहीं किया। हितवादी-पत्रिका में यह छपा कि पंडित सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ पर पाबंदी इस आधार पर लगाई गयी है कि उसमें ऐसी साम्रगी है जिसको पढ़कर पाठकों के मन में सरकार के प्रति अलगाव का भाव पैदा होगा।3 हितवादी के लेख में सरकार से बहुत से प्रश्न पूछे गए थे, पर सरकार की ओर से उनके उत्तर कभी नहीं दिए गए। ‘देशेर कथा’ के साथ ही देउस्कर की एक और किताब पर भी पाबंदी लगाई थी। वह किताब थी-‘तिलकेर मुकद्दमा।’ जिस समय ‘देशेर कथा’ पर प्रतिबंध
---------------------
1. महादेव प्रसाद साहा, देशेर कथा (बांग्ला), संपादकेर निवेदन; कलकत्ता, 1970, पृ. 4
2. माधव प्रसाद मिश्र, देश की बात : मुखबंध पृ. 5
3. महादेव साहा, देशेर कथा (बांग्ला) संपादकेर निवेदन, पृ. 5
लगा उस समय तक ‘देशेर कथा’ का हिन्दी अनुवाद ‘देश का बात’ से प्रकाशित हो चुका था। हितवादी के लेख में यह भी लिखा गया है कि ‘देश की बात’ पर पाबंदी नहीं लगाई गई है।
सखाराम गणेश देउस्कर ने देश में स्वाधीनता की चेतना के जागरण और विकास के लिए ‘देशेर कथा’ की रचना की थी। यद्यपि उन्होंने कांग्रेस द्वारा संचालित स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन उन्होंने उस आंदोलन की रीति-नीति की आलोचना भी की है। उन्होंने देशेर कथा की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ‘‘हमारे आंदोलन भिक्षुक के आवेदन मात्र है। हमलोगों को दाता की करुणा पर एकांत रूप से निर्भर रहना पड़ता है। यह बात सत्य होते हुए भी राजनीति की कर्तव्य-बुद्धि को उद्बोधित करने के लिए पुन: पुन: चीत्कार के अलावा हमारे पास दूसरे उपाय कहां है।’’1 वस्ततु: ‘देशेर कथा’ गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना में जीती-मरती भारतीय जनता के चीत्कार की प्रामाणिक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।
देशेर कथा के लेखक सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसंबर 1869 को देवघर के पास करौं नामक गांव में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। वे मूलत: मराठी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय उनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर करौं में बस गए थे। सखाराम गणेश देउस्कर ने सन् 1891 में देवघर के आर. मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् 1893 से इसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यहीं वे राजनारायण बसु के संपर्क में आए और अध्यापन के साथ-साथ एक ओर अपनी सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि का विकास करते रहे, दूसरी ओर उसकी अभिव्यक्ति के लिए बांग्ला की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लेख भी लिखते रहे।
सन् 1894 में देवघर में हार्ड नाम का एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट था। उसके अन्याय और अत्याचार से जनता परेशान थी। देउस्कर ने उसके विरुद्ध कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाले हितवादी नामक पत्र में कई लेख लिखे, जिसके परिणामस्वरूप हार्ड ने देउस्कर को स्कूल की नौकरी से निकालने की धमकी दी। उसके बाद देउस्कर जी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता जाकर हितवादी अखबार में प्रूफ रीडर के रूप में काम करने लगे। कुछ समय बाद अपनी असाधारण प्रतिभा और परिश्रम की क्षमता के आधार पर वे हितवादी के संपादक बना दिए गए। लेकिन सन् 1907 में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में जब कांग्रेस का गरम दल और नरम दल में विभाजन हुआ तो हितवादी के मालिक ने देउस्कर से गरम दल
-------------------------------------
1. सखाराम गणेश देउस्कर, देशेर कथा (बांग्ला) भूमिका
और तिलक के विरुद्ध हितवादी में संपादकीय लेख लिखने के लिए कहा। सखाराम तिलक के राजनीतिक विचारों से एकता अनुभव करते थे, इसलिए उन्होंने तिलक के विरुद्ध संपादकीय लेख लिखने से मना कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें हितवादी के संपादक पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद वे कलकत्ता के ही राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के विद्यालय में बांग्ला भाषा तथा भारतीय इतिहास के शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। लेकिन सन् 1910 में जब राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के प्रबंधकगण उन्हें सशंकित दृष्टि से देखने लगे। ऐसी स्थिति में सखाराम ने शिक्षक पद से भी त्यागपत्र दे दिया। बाद में हितवादी के प्रबंधकों ने उनसे पुन: संपादक बनने का अनुरोध किया तो देउस्कर ने उसे स्वीकार कर लिया।
कुछ लोगों के लिए त्याग और संघर्ष जीवन के आदर्श होते हैं, लेकिन सखाराम गणेश देउस्कर की पूरी जिंदगी त्याग और संघर्ष के ताने-बाने से बनी हुई थी। स्वराज्य और स्वतंत्रता का यह योद्धा जीवन भर अपने विचारों के लिए कठिन संघर्ष करता दिखाई देता है। उनका पारिवारिक जीवन भी निरंतर संकटों और संघर्षों के बीच बीता। जब वे पांच वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया, इसलिए उनका पालन-पोषण उनकी विधवा बुआ के हाथों हुआ जिन्होंने सखाराम को मराठी साहित्य की शिक्षा दी। जब ‘देशेर कथा’ को लोकप्रियता के कारण देउस्कर ख्याति के शिखर पर थे, तभी एक ओर उनकी दो पुस्तकों पर सरकारी प्रतिबंध लगा तो दूसरी ओर उनकी पत्नी और एकमात्र पुत्र का निधन हुआ। सन् 1910 के अंतिम दिनों में इन सब आघातों से आहत होकर सखाराम गणेश देउस्कर अपने गांव करौं लौट आए और वहीं रहने लगे। उनको कुल 43 वर्ष का ही जीवन मिला था। 23 नवंबर, 1912 को यह प्रकाश-पुंज सदा के लिए बुझ गया।
दुनिया की अधिकांश महान् प्रतिभाएं अपने आलोक से लोक को चकित करती हुई इसी तरह अल्पायु में ही दुनिया से विदा हो गई हैं।
सखाराम गणेश देउस्कर भारतीय नवजागरण के अन्य निर्माताओं की तरह एक निर्भीक पत्रकार और मौलिक विचारक थे। उनके संपूर्ण चिंतन और लेखन की बुनियादी चिंता देश की पूर्ण स्वाधीनता थी। श्री अरविंद ने लिखा है कि स्वराज्य शब्द का पहला प्रयोग ‘देशेर कथा’ के लेखक सखाराम गणेश देउस्कर ने किया।1 देउस्कर ने पत्रकार के रूप में लेखन की शुरुआत की थी। वे बांग्ला के अधिकांश क्रांतिकारी पत्रिकाओं में लेख लिखते थे। युगांतर पत्रिका के वे नियमित लेखक थे। युगांतर के अलावा उन्होंने साहित्य, भारती, धरनी, साहित्य-संहिता, प्रदीप, बंग-दर्शन, आर्यावर्त्त, वेद व्यास, प्रतिभा आदि पत्रिकाओं में भारत के इतिहास, संस्कृति, साहित्य आदि से संबंधित बहुत सारे लेख लिखे, जिनका उद्देश्य भारतीय जनता को अपने अतीत और वर्तमान का ज्ञान कराना था। इतिहास, साहित्य और राजनीति उनके प्रिय विषय थे।
सखाराम गणेश देउस्कर के ग्रंथों और निबंधों की सूची बहुत लंबी है। डॉ. प्रभुनारायण विद्यार्थी ने एक लेख में देउस्कर की रचनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया है। उनके प्रमुख ग्रंथ है महामति रानाडे (1901), झासीर राजकुमार (1901), बाजीराव (1902), आनन्दी बाई (1903), शिवाजीर महत्व (1903), शिवाजीर शिक्षा (1904), शिवाजी (1906), देशेर कथा (1904), देशेर कथा (परिशिष्ट) (1907), कृषकेर सर्वनाश (1904), तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित (1908), आदि। इन पुस्तकों के साथ-साथ इतिहास, धर्म, संस्कृति और मराठी साहित्य से संबंधित उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
देउस्कर भारतीय जनजागरण के ऐसे विचारक हैं जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल भारतीयता का अद्भुत संगम है। वे महाराष्ट्र और बंगाल के नवजागरण के बीच सेतु के समान हैं। उनका प्रेरणा-स्रोत महाराष्ट्र है, पर वे लिखते बांग्ला में हैं। अपने मूल से अटटू लगाव और वर्तमान से गहरे जुड़ाव का संकेत उनके देउस्कर नाम में दिखाई देता है, जो देउस और करौं के योग से बना है।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि अंग्रेजीराज द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण के अभियान के दौरान अनुवाद की भूमिका का पिछले तीन-चार दशकों में अंग्रेजी में जैसा विश्लेषण हुआ है वैसा स्वाधीनता आंदोलन के समय राष्ट्रीय अस्मिता की तलाश के प्रयास और उसके विकास के लिए देशी भाषाओं में हुए अनुवादों के महत्व का विवेचन नहीं हुआ है। देशी भाषाओं में प्राय: तीन तरह के अनुवाद हुए हैं। एक तो अंग्रेजी ग्रंथों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद, दूसरे संस्कृत के ग्रंथों का आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद और तीसरे आधुनिक भारतीय भाषाओं की रचनाओं का अनुवाद। हिन्दी में इन तीनों तरह के अनुवादों के कार्य बड़े पैमाने पर हुए हैं। भारत में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्र की कल्पना और धारणा के विकास में अनुवादों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
वैसे तो प्रत्येक अनुवाद में आत्मसातीकरण की प्रक्रिया काम करती हैं, लेकिन औपनिवेशिक अनुवाद ने भारतीय समाज, कानून, इतिहास, संस्कृति, साहित्य, परंपरा और चेतना को आत्मसात करने का बड़े पैमाने पर प्रयत्न किया था। भारत में जब नवजागरण की शुरुआत हुई, तब भारत का शिक्षित समुदाय एक विचित्र स्थिति का सामना कर रहा था। 18वीं और 19वीं सदियों में भारतविदों द्वारा भारतीय पाठों के अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में जो अनुवाद हुए थे वे यूरोप वालों के लिए हुए थे, लेकिन अधिकांश भारतीय शिक्षित लोग इन अनूदित पाठों को ही भारतीय कानून, दर्शन और साहित्य आदि के ज्ञान का मूल स्रोत मान रहे थे। यही नहीं, वे उन पाठों के माध्यम से भारतविदों द्वारा निर्मित भारत, भारतीयता, भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास संबंधी विचार-विमर्श तथा आख्यान को प्रामाणिक मानकर ग्रहण कर रहे थे, क्योंकि वे अनुवादकों की दृष्टि, पद्धति और पाठों को स्वाभाविक समझ रहे थे। इस प्रक्रिया से भारत की जो पहचान, छवि या अस्मिता निर्मित हुई वह एक प्रकार से अनूदित अस्मिता थी। वह एकांतिक और अनुकरणपरक भी थी और उससे निकला राष्ट्रवाद भी वैसा ही था। आजकल उस औपनिवेशिक अनुवाद में व्यक्त और निहित विचारधारा का विखंडन करते हुए उसकी यूरोप केंद्रित प्रकृति की पहचान हो रही है।
भारतीय नवजागरण की चेतना के निर्माण और प्रसार में, विभिन्न जातीयताओं के बीच संबंधों के विकास और एक अखिल भारतीय दृष्टि के उभार में अनुवाद के योगदान का अभी ठीक से अध्ययन और मूल्यांकन नहीं हुआ है। भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण के अधिकांश निर्माता महत्वपूर्ण अनुवादक भी थे। हिन्दी नवजागरण के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल के अनुवाद विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। उपनिवेशवादियों ने अनुवाद को भारतीय परंपरा और मानस पर कब्जा करने का साधन बनाया था तो भारतीय नवजागरण के विचारकों ने अनुवाद को अपनी परंपरा की मुक्ति और स्वत्व की पहचान का माध्यम बनाया। भारतीय लेखक अनुवाद को औपनिवेशिक प्रभावों के विरुद्ध प्रतिरोध के साधन के रूप में विकसित कर रहे थे। साथ ही वे आधुनिक चिंतन और ज्ञान-विज्ञान से भारतीय समाज को परिचित कराने के लिए भी अनुवाद का काम कर रहे थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने संस्कृत के पांच, बांग्ला के एक और अंग्रेजी के एक नाटक का अनुवाद किया था। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जान स्टुअर्ट मिल की पुस्तक लिबर्टी का स्वाधीनता नाम से अनुवाद किया था, जिसका पहला संस्करण सन् 1907 में, दूसरा 1912 में और तीसरा संस्करण 1921 में छपा था। रामचंद्र शुक्ल के अनुवादों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जर्मन वैज्ञानिक अर्न्स्ट हैकल की पुस्तक ‘रिडिल ऑफ यूनीवर्स’ का विश्व प्रपंच नाम से अनुवाद।
हिन्दी नवजागरण के दौरान हिन्दी में सबसे अधिक अनुवाद बांग्ला से हुआ; रचनात्मक साहित्य का और राजनीतिक-सामाजिक चिंतन भी पुस्तकों का भी। स्वत्व की पहचान के लिए अन्य की समझ आवश्यक है; स्व और पर के द्वैत के रूप में ही नहीं, दोनों के बीच केवल अंतर के रूप में भी नहीं, बल्कि द्वंद्वात्मक रूप में। इस दृष्टि से सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद का विशेष महत्व है। इसमें भारत की पराधीनता के यथार्थ की जटिल समग्रता और स्वाधीनता की अदम्य आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। इस पुस्तक के अनुवाद और हिन्दी पाठकों के बीच इसके प्रसार ने स्वदेशी की भावना जगाने और राष्ट्रीय चेतना को व्यापक बनाने में अनुपम भूमिका निभाई है।
हिन्दी में ‘देशेर कथा’ के अनुवाद की कहानी बहुत दिलचस्प है। माधव प्रसाद मिश्र ने ‘देशेर कथा’ के बांग्ला में प्रकाशन में लेखक की मदद की थी। उन्होंने पहले संस्करण के प्रकाशित होते ही उसका हिन्दी में अनुवाद प्रारंभ कर दिया था। उसके कुछ अंशों का अपना अनुवाद कलकत्ता की एक हिन्दी पत्रिका वैश्योपकार में छपवाया भी था, किंतु उस समय पूरी पुस्तक का अनुवाद न हो सका। बाद में अमृत लाल चक्रवर्ती ने ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद का काम पूरा किया। उस समय अमृत लाल चक्रवर्ती श्री वेंकटेश्वर समाचार नामक पत्रिका के संपादक थे। सन् 1908 में ‘देश की बात’ नाम से ‘देशेर कथा’ का पहला हिन्दी अनुवाद बंबई से प्रकाशित हुआ, जिसकी सुचिंतित भूमिका माधव प्रसाद मिश्र ने लिखी है। ‘देशेर कथा’ का यह अनुवाद हिन्दी में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। श्री वेंकटेश्वर समाचार अपने ग्राहकों को कुछ पुस्तकें उपहार के रूप में दिया करता था, उनमें एक पुस्तक ‘देश की बात’ भी थी। हिन्दी क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सत्यभक्त जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि ‘देश की बात’ परम देशभक्त सखाराम गणेश देउस्कर लिखित बंगाली भाषा के ‘देशेर कथा’ का अनुवाद था। इस पुस्तक ने हमको आरंभ में देशभक्ति की पर्याप्त प्रेरणा दी इसमें संदेह नहीं।
हिन्दी में देश की बात को लोकप्रियता के स्वरूप का अनुमान इस बात से होता है कि माधव प्रसाद मिश्र के भाई और अपने समय के जाने माने कवि राधाकृष्ण मिश्र ने ‘देश की बात’ पर एक कविता लिखी थी। उस कविता का एक अंश माधव प्रसाद मिश्र ने ‘देश की बात’ के मुखबंध के आरंभ में उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है :
आरंभ में जिस पुस्तक का प्रकाशन और वितरण एक समस्या थी, वह सन् 1905 में बंग-भंग के विरुद्ध स्वदेशी आंदोलन के आरंभ के साथ ही अपूर्व रूप से लोकप्रिय हुई। माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में लिखा था कि ‘जिस पुस्तक के लागत तक के वसूल होने में लेखक को और मुझे आशंका थी उसकी थोड़े ही दिनों में सब प्रतियां बंट गईं। बंगाल के टुकड़े होते ही वहां स्वदेशी आंदोलन उपस्थित हुआ। जिसमें पुस्तक के प्रदीप्त वाक्यों ने भी अपना प्रभाव दिखलाया। यह कहना तो छोटे मुंह बड़ी बात समझी जाएगी कि स्वदेशी आंदोलन इसी पुस्तक का फल है, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि इस आंदोलन की प्रज्जवलित वह्नि में इसने घृताहुति का सा काम अवश्य किया।
बरीसाल के वीर स्वदेश हितैषी बाबू अश्विनी कुमार दत्त ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्ट्र युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो।’’1 बंग-भंग विरोधी आंदोलन को ‘देशेर कथा’ ने अनेक रूपों में प्रभावित किया, उसे शक्ति और गति दी और इस प्रक्रिया में वह स्वदेशी आंदोलन की प्रेरणादायी पुस्तक बन गई।
देशेर कथा की अपूर्व लोकप्रियता का अंदाज सन् 1904 से 1908 के बीच उसके प्रकाशन के इतिहास से लगाया जा सकता है। महादेव साहा के अनुसार ‘देशेर कथा’ का एक हजार प्रतियों का पहला संस्करण सन् 1904 में छपा। दो
----------------------------
1. माधव प्रसाद मिश्र, देश की बात का मुखबंध, बंबई, 1908, पृ.6-7
हजार प्रतियों का दूसरा संस्करण सन् 1905 में निकला। पुस्तक की मांग को ध्यान में रखकर ठीक चार महीने बाद ही पांच हजार प्रतियों का तीसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। पुस्तक का दो हजार प्रतियों का चौथा संस्करण सन् 1907 में और तीन हजार प्रतियों का पांचवां संस्करण सन् 1908 में छपा।1 महज पांच वर्षों में पांच संस्करण और तेरह हजार प्रतियां। इस पुस्तक के प्रकाशन के प्रसंग में एक उल्लेखनीय बात यह भी है कि लेखक प्रत्येक संस्करण में कुछ नई सामग्री जोड़ता था, जिससे पुस्तक का आकार बढ़ जाता था, किंतु उसकी कीमत नहीं बढ़ाई जाती थी, बल्कि दो बार घटा दी गई।
‘देशेर कथा’ के लिखे जाने की पृष्ठिभूमि की ओर संकेत करते हुए माधव प्रसाद मिश्र ने सन् 1908 में लिखा था, ‘‘जिस समय यह पुस्तक बांग्ला में लिखी गई थी उस समय बंगाल के टुकड़े नहीं हुए थे, स्वदेशी आंदोलन का विचार भी लोगों के जी में नहीं आया था। लार्ड कर्जन के कुचक्रपूर्ण शासन से लोग शंकित हो चुके थे, पर उनकी मोहमयी निद्रा तब तक भी टूटने नहीं पाई थी। बंगाल के शिक्षित लोग आमोद-प्रमोद में लग रहे थे और कितने ही सौंदर्योपासक ‘मूकाभिनय’ का अपूर्व कौतुक कर कृत्रिम रमणीयता का बाजार खोल रहे थे। उपन्यास और नाटकों में श्रृंगार रस की प्रधानता हो रही थी और बंगाल के बहुत से बड़े आदमियों का समय उसी के आकलन में पूरा हो रहा था। यह किसी को ध्यान भी न था कि उनके देश की कैसी शोच्य दशा हो रही है और आगे कैसा परिवर्तन होनेवाला है।’’2
ऐसे समय में देशेर कथा का लिखा जाना एक वैचारिक विस्फोट की तरह था, जिसने जन-मानस को धक्का देकर चकित करते हुए जगाया। देशेर कथा की अपार लोकप्रियता से अंग्रेजी-राज भयभीत हुआ और 28 सितंबर, 1910 को एक विज्ञप्ति निकालकर उसको जब्त कर दिया गया। ‘देशेर कथा’ पर पाबंदी की खबर 30 सितंबर को कुछ दैनिक अखबारों में छपी। हितवादी और हितवार्ता को छोड़कर किसी अन्य पत्र-पत्रिका ने इस प्रतिबंध का प्रतिवाद नहीं किया। हितवादी-पत्रिका में यह छपा कि पंडित सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ पर पाबंदी इस आधार पर लगाई गयी है कि उसमें ऐसी साम्रगी है जिसको पढ़कर पाठकों के मन में सरकार के प्रति अलगाव का भाव पैदा होगा।3 हितवादी के लेख में सरकार से बहुत से प्रश्न पूछे गए थे, पर सरकार की ओर से उनके उत्तर कभी नहीं दिए गए। ‘देशेर कथा’ के साथ ही देउस्कर की एक और किताब पर भी पाबंदी लगाई थी। वह किताब थी-‘तिलकेर मुकद्दमा।’ जिस समय ‘देशेर कथा’ पर प्रतिबंध
---------------------
1. महादेव प्रसाद साहा, देशेर कथा (बांग्ला), संपादकेर निवेदन; कलकत्ता, 1970, पृ. 4
2. माधव प्रसाद मिश्र, देश की बात : मुखबंध पृ. 5
3. महादेव साहा, देशेर कथा (बांग्ला) संपादकेर निवेदन, पृ. 5
लगा उस समय तक ‘देशेर कथा’ का हिन्दी अनुवाद ‘देश का बात’ से प्रकाशित हो चुका था। हितवादी के लेख में यह भी लिखा गया है कि ‘देश की बात’ पर पाबंदी नहीं लगाई गई है।
सखाराम गणेश देउस्कर ने देश में स्वाधीनता की चेतना के जागरण और विकास के लिए ‘देशेर कथा’ की रचना की थी। यद्यपि उन्होंने कांग्रेस द्वारा संचालित स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन किया, लेकिन उन्होंने उस आंदोलन की रीति-नीति की आलोचना भी की है। उन्होंने देशेर कथा की भूमिका में स्पष्ट लिखा है कि ‘‘हमारे आंदोलन भिक्षुक के आवेदन मात्र है। हमलोगों को दाता की करुणा पर एकांत रूप से निर्भर रहना पड़ता है। यह बात सत्य होते हुए भी राजनीति की कर्तव्य-बुद्धि को उद्बोधित करने के लिए पुन: पुन: चीत्कार के अलावा हमारे पास दूसरे उपाय कहां है।’’1 वस्ततु: ‘देशेर कथा’ गुलामी की जंजीरों में जकड़ी और शोषण की यातना में जीती-मरती भारतीय जनता के चीत्कार की प्रामाणिक और प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।
देशेर कथा के लेखक सखाराम गणेश देउस्कर का जन्म 17 दिसंबर 1869 को देवघर के पास करौं नामक गांव में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। वे मूलत: मराठी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय उनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर करौं में बस गए थे। सखाराम गणेश देउस्कर ने सन् 1891 में देवघर के आर. मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् 1893 से इसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यहीं वे राजनारायण बसु के संपर्क में आए और अध्यापन के साथ-साथ एक ओर अपनी सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि का विकास करते रहे, दूसरी ओर उसकी अभिव्यक्ति के लिए बांग्ला की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लेख भी लिखते रहे।
सन् 1894 में देवघर में हार्ड नाम का एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट था। उसके अन्याय और अत्याचार से जनता परेशान थी। देउस्कर ने उसके विरुद्ध कलकत्ता से प्रकाशित होनेवाले हितवादी नामक पत्र में कई लेख लिखे, जिसके परिणामस्वरूप हार्ड ने देउस्कर को स्कूल की नौकरी से निकालने की धमकी दी। उसके बाद देउस्कर जी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता जाकर हितवादी अखबार में प्रूफ रीडर के रूप में काम करने लगे। कुछ समय बाद अपनी असाधारण प्रतिभा और परिश्रम की क्षमता के आधार पर वे हितवादी के संपादक बना दिए गए। लेकिन सन् 1907 में सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में जब कांग्रेस का गरम दल और नरम दल में विभाजन हुआ तो हितवादी के मालिक ने देउस्कर से गरम दल
-------------------------------------
1. सखाराम गणेश देउस्कर, देशेर कथा (बांग्ला) भूमिका
और तिलक के विरुद्ध हितवादी में संपादकीय लेख लिखने के लिए कहा। सखाराम तिलक के राजनीतिक विचारों से एकता अनुभव करते थे, इसलिए उन्होंने तिलक के विरुद्ध संपादकीय लेख लिखने से मना कर दिया। परिणामस्वरूप उन्हें हितवादी के संपादक पद से त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद वे कलकत्ता के ही राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के विद्यालय में बांग्ला भाषा तथा भारतीय इतिहास के शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए। लेकिन सन् 1910 में जब राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के प्रबंधकगण उन्हें सशंकित दृष्टि से देखने लगे। ऐसी स्थिति में सखाराम ने शिक्षक पद से भी त्यागपत्र दे दिया। बाद में हितवादी के प्रबंधकों ने उनसे पुन: संपादक बनने का अनुरोध किया तो देउस्कर ने उसे स्वीकार कर लिया।
कुछ लोगों के लिए त्याग और संघर्ष जीवन के आदर्श होते हैं, लेकिन सखाराम गणेश देउस्कर की पूरी जिंदगी त्याग और संघर्ष के ताने-बाने से बनी हुई थी। स्वराज्य और स्वतंत्रता का यह योद्धा जीवन भर अपने विचारों के लिए कठिन संघर्ष करता दिखाई देता है। उनका पारिवारिक जीवन भी निरंतर संकटों और संघर्षों के बीच बीता। जब वे पांच वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया, इसलिए उनका पालन-पोषण उनकी विधवा बुआ के हाथों हुआ जिन्होंने सखाराम को मराठी साहित्य की शिक्षा दी। जब ‘देशेर कथा’ को लोकप्रियता के कारण देउस्कर ख्याति के शिखर पर थे, तभी एक ओर उनकी दो पुस्तकों पर सरकारी प्रतिबंध लगा तो दूसरी ओर उनकी पत्नी और एकमात्र पुत्र का निधन हुआ। सन् 1910 के अंतिम दिनों में इन सब आघातों से आहत होकर सखाराम गणेश देउस्कर अपने गांव करौं लौट आए और वहीं रहने लगे। उनको कुल 43 वर्ष का ही जीवन मिला था। 23 नवंबर, 1912 को यह प्रकाश-पुंज सदा के लिए बुझ गया।
दुनिया की अधिकांश महान् प्रतिभाएं अपने आलोक से लोक को चकित करती हुई इसी तरह अल्पायु में ही दुनिया से विदा हो गई हैं।
सखाराम गणेश देउस्कर भारतीय नवजागरण के अन्य निर्माताओं की तरह एक निर्भीक पत्रकार और मौलिक विचारक थे। उनके संपूर्ण चिंतन और लेखन की बुनियादी चिंता देश की पूर्ण स्वाधीनता थी। श्री अरविंद ने लिखा है कि स्वराज्य शब्द का पहला प्रयोग ‘देशेर कथा’ के लेखक सखाराम गणेश देउस्कर ने किया।1 देउस्कर ने पत्रकार के रूप में लेखन की शुरुआत की थी। वे बांग्ला के अधिकांश क्रांतिकारी पत्रिकाओं में लेख लिखते थे। युगांतर पत्रिका के वे नियमित लेखक थे। युगांतर के अलावा उन्होंने साहित्य, भारती, धरनी, साहित्य-संहिता, प्रदीप, बंग-दर्शन, आर्यावर्त्त, वेद व्यास, प्रतिभा आदि पत्रिकाओं में भारत के इतिहास, संस्कृति, साहित्य आदि से संबंधित बहुत सारे लेख लिखे, जिनका उद्देश्य भारतीय जनता को अपने अतीत और वर्तमान का ज्ञान कराना था। इतिहास, साहित्य और राजनीति उनके प्रिय विषय थे।
सखाराम गणेश देउस्कर के ग्रंथों और निबंधों की सूची बहुत लंबी है। डॉ. प्रभुनारायण विद्यार्थी ने एक लेख में देउस्कर की रचनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया है। उनके प्रमुख ग्रंथ है महामति रानाडे (1901), झासीर राजकुमार (1901), बाजीराव (1902), आनन्दी बाई (1903), शिवाजीर महत्व (1903), शिवाजीर शिक्षा (1904), शिवाजी (1906), देशेर कथा (1904), देशेर कथा (परिशिष्ट) (1907), कृषकेर सर्वनाश (1904), तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित (1908), आदि। इन पुस्तकों के साथ-साथ इतिहास, धर्म, संस्कृति और मराठी साहित्य से संबंधित उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
देउस्कर भारतीय जनजागरण के ऐसे विचारक हैं जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल भारतीयता का अद्भुत संगम है। वे महाराष्ट्र और बंगाल के नवजागरण के बीच सेतु के समान हैं। उनका प्रेरणा-स्रोत महाराष्ट्र है, पर वे लिखते बांग्ला में हैं। अपने मूल से अटटू लगाव और वर्तमान से गहरे जुड़ाव का संकेत उनके देउस्कर नाम में दिखाई देता है, जो देउस और करौं के योग से बना है।
यह देखकर आश्चर्य होता है कि अंग्रेजीराज द्वारा भारत के उपनिवेशीकरण के अभियान के दौरान अनुवाद की भूमिका का पिछले तीन-चार दशकों में अंग्रेजी में जैसा विश्लेषण हुआ है वैसा स्वाधीनता आंदोलन के समय राष्ट्रीय अस्मिता की तलाश के प्रयास और उसके विकास के लिए देशी भाषाओं में हुए अनुवादों के महत्व का विवेचन नहीं हुआ है। देशी भाषाओं में प्राय: तीन तरह के अनुवाद हुए हैं। एक तो अंग्रेजी ग्रंथों का विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनुवाद, दूसरे संस्कृत के ग्रंथों का आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद और तीसरे आधुनिक भारतीय भाषाओं की रचनाओं का अनुवाद। हिन्दी में इन तीनों तरह के अनुवादों के कार्य बड़े पैमाने पर हुए हैं। भारत में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान राष्ट्र की कल्पना और धारणा के विकास में अनुवादों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
वैसे तो प्रत्येक अनुवाद में आत्मसातीकरण की प्रक्रिया काम करती हैं, लेकिन औपनिवेशिक अनुवाद ने भारतीय समाज, कानून, इतिहास, संस्कृति, साहित्य, परंपरा और चेतना को आत्मसात करने का बड़े पैमाने पर प्रयत्न किया था। भारत में जब नवजागरण की शुरुआत हुई, तब भारत का शिक्षित समुदाय एक विचित्र स्थिति का सामना कर रहा था। 18वीं और 19वीं सदियों में भारतविदों द्वारा भारतीय पाठों के अंग्रेजी तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं में जो अनुवाद हुए थे वे यूरोप वालों के लिए हुए थे, लेकिन अधिकांश भारतीय शिक्षित लोग इन अनूदित पाठों को ही भारतीय कानून, दर्शन और साहित्य आदि के ज्ञान का मूल स्रोत मान रहे थे। यही नहीं, वे उन पाठों के माध्यम से भारतविदों द्वारा निर्मित भारत, भारतीयता, भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास संबंधी विचार-विमर्श तथा आख्यान को प्रामाणिक मानकर ग्रहण कर रहे थे, क्योंकि वे अनुवादकों की दृष्टि, पद्धति और पाठों को स्वाभाविक समझ रहे थे। इस प्रक्रिया से भारत की जो पहचान, छवि या अस्मिता निर्मित हुई वह एक प्रकार से अनूदित अस्मिता थी। वह एकांतिक और अनुकरणपरक भी थी और उससे निकला राष्ट्रवाद भी वैसा ही था। आजकल उस औपनिवेशिक अनुवाद में व्यक्त और निहित विचारधारा का विखंडन करते हुए उसकी यूरोप केंद्रित प्रकृति की पहचान हो रही है।
भारतीय नवजागरण की चेतना के निर्माण और प्रसार में, विभिन्न जातीयताओं के बीच संबंधों के विकास और एक अखिल भारतीय दृष्टि के उभार में अनुवाद के योगदान का अभी ठीक से अध्ययन और मूल्यांकन नहीं हुआ है। भारतीय नवजागरण और हिन्दी नवजागरण के अधिकांश निर्माता महत्वपूर्ण अनुवादक भी थे। हिन्दी नवजागरण के लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी और रामचंद्र शुक्ल के अनुवाद विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। उपनिवेशवादियों ने अनुवाद को भारतीय परंपरा और मानस पर कब्जा करने का साधन बनाया था तो भारतीय नवजागरण के विचारकों ने अनुवाद को अपनी परंपरा की मुक्ति और स्वत्व की पहचान का माध्यम बनाया। भारतीय लेखक अनुवाद को औपनिवेशिक प्रभावों के विरुद्ध प्रतिरोध के साधन के रूप में विकसित कर रहे थे। साथ ही वे आधुनिक चिंतन और ज्ञान-विज्ञान से भारतीय समाज को परिचित कराने के लिए भी अनुवाद का काम कर रहे थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने संस्कृत के पांच, बांग्ला के एक और अंग्रेजी के एक नाटक का अनुवाद किया था। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जान स्टुअर्ट मिल की पुस्तक लिबर्टी का स्वाधीनता नाम से अनुवाद किया था, जिसका पहला संस्करण सन् 1907 में, दूसरा 1912 में और तीसरा संस्करण 1921 में छपा था। रामचंद्र शुक्ल के अनुवादों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जर्मन वैज्ञानिक अर्न्स्ट हैकल की पुस्तक ‘रिडिल ऑफ यूनीवर्स’ का विश्व प्रपंच नाम से अनुवाद।
हिन्दी नवजागरण के दौरान हिन्दी में सबसे अधिक अनुवाद बांग्ला से हुआ; रचनात्मक साहित्य का और राजनीतिक-सामाजिक चिंतन भी पुस्तकों का भी। स्वत्व की पहचान के लिए अन्य की समझ आवश्यक है; स्व और पर के द्वैत के रूप में ही नहीं, दोनों के बीच केवल अंतर के रूप में भी नहीं, बल्कि द्वंद्वात्मक रूप में। इस दृष्टि से सखाराम गणेश देउस्कर की पुस्तक ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद का विशेष महत्व है। इसमें भारत की पराधीनता के यथार्थ की जटिल समग्रता और स्वाधीनता की अदम्य आकांक्षा की अभिव्यक्ति है। इस पुस्तक के अनुवाद और हिन्दी पाठकों के बीच इसके प्रसार ने स्वदेशी की भावना जगाने और राष्ट्रीय चेतना को व्यापक बनाने में अनुपम भूमिका निभाई है।
हिन्दी में ‘देशेर कथा’ के अनुवाद की कहानी बहुत दिलचस्प है। माधव प्रसाद मिश्र ने ‘देशेर कथा’ के बांग्ला में प्रकाशन में लेखक की मदद की थी। उन्होंने पहले संस्करण के प्रकाशित होते ही उसका हिन्दी में अनुवाद प्रारंभ कर दिया था। उसके कुछ अंशों का अपना अनुवाद कलकत्ता की एक हिन्दी पत्रिका वैश्योपकार में छपवाया भी था, किंतु उस समय पूरी पुस्तक का अनुवाद न हो सका। बाद में अमृत लाल चक्रवर्ती ने ‘देशेर कथा’ के हिन्दी अनुवाद का काम पूरा किया। उस समय अमृत लाल चक्रवर्ती श्री वेंकटेश्वर समाचार नामक पत्रिका के संपादक थे। सन् 1908 में ‘देश की बात’ नाम से ‘देशेर कथा’ का पहला हिन्दी अनुवाद बंबई से प्रकाशित हुआ, जिसकी सुचिंतित भूमिका माधव प्रसाद मिश्र ने लिखी है। ‘देशेर कथा’ का यह अनुवाद हिन्दी में अत्यंत लोकप्रिय हुआ। श्री वेंकटेश्वर समाचार अपने ग्राहकों को कुछ पुस्तकें उपहार के रूप में दिया करता था, उनमें एक पुस्तक ‘देश की बात’ भी थी। हिन्दी क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सत्यभक्त जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा कि ‘देश की बात’ परम देशभक्त सखाराम गणेश देउस्कर लिखित बंगाली भाषा के ‘देशेर कथा’ का अनुवाद था। इस पुस्तक ने हमको आरंभ में देशभक्ति की पर्याप्त प्रेरणा दी इसमें संदेह नहीं।
हिन्दी में देश की बात को लोकप्रियता के स्वरूप का अनुमान इस बात से होता है कि माधव प्रसाद मिश्र के भाई और अपने समय के जाने माने कवि राधाकृष्ण मिश्र ने ‘देश की बात’ पर एक कविता लिखी थी। उस कविता का एक अंश माधव प्रसाद मिश्र ने ‘देश की बात’ के मुखबंध के आरंभ में उद्धृत किया है, जो इस प्रकार है :
पाठकगण ! निज हृदय खोलकर, पढ़ो देश अपने की बात,
निर्दयता से हुआ किस तरह पुण्यभूमि भारत का घात।
शोक सिंधु में डूब न रहना, रखना मन में भारी धीर,
वही वीर जननी का जाया, हरै सदा जो उसकी पीर।
निर्दयता से हुआ किस तरह पुण्यभूमि भारत का घात।
शोक सिंधु में डूब न रहना, रखना मन में भारी धीर,
वही वीर जननी का जाया, हरै सदा जो उसकी पीर।
इस कविता का शेष अंश श्री नारायण चतुर्वेदी ने अपनी पु्स्तक ‘आधुनिक हिन्दी का आदिकाल’ में अपनी याददाश्त से उद्धृत किया है।
‘देशेर कथा का दूसरा हिन्दी अनुवाद हिन्दी में प्रसिद्ध पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया था, जो सन् 1910 में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ था। अपने अनुवाद की प्रस्तावना में पराड़कर जी ने लिखा है कि माधव प्रसाद मिश्र तथा अमृत लाल चक्रवर्ती द्वारा किया गया अनुवाद मूल पुस्तक के पहले तीन संस्करणों का था, लेकिन चौथे संस्करणों में ग्रंथकार ने अपनी मूल पुस्तक में बहुत ही अधिक फेरफार किया। इसी से उक्त हिन्दी संस्करण कई अंशों में अपूर्ण रह गया है। इसीलिए देउस्कर जी ने मुझे ‘देशेर कथा’ का अनुवाद करने की आज्ञा दी। पराड़कर जी द्वारा अनूदित ‘देश की बात’ की एक विशेषता यह भी है कि इसमें हिन्दी पाठकों के काम की अनेक नई बातें दी गई हैं, जो बांग्ला पुस्तक में नहीं है। इसलिए यह पुस्तक मूल बांग्ला से भी बड़ी हो गई है। बांग्ला ‘देशेर कथा’ के चौथे संस्करण से सन् 1910 में प्रकाशित ‘देश की बात’ का तुलनात्मक अध्ययन करने पर देउस्कर जी के ज्ञान की व्यापकता और उनके अखिल भारतीय दृष्टिकोण के रूप में स्पष्ट बोध होगा।
‘देशेर कथा का दूसरा हिन्दी अनुवाद हिन्दी में प्रसिद्ध पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया था, जो सन् 1910 में कलकत्ते से प्रकाशित हुआ था। अपने अनुवाद की प्रस्तावना में पराड़कर जी ने लिखा है कि माधव प्रसाद मिश्र तथा अमृत लाल चक्रवर्ती द्वारा किया गया अनुवाद मूल पुस्तक के पहले तीन संस्करणों का था, लेकिन चौथे संस्करणों में ग्रंथकार ने अपनी मूल पुस्तक में बहुत ही अधिक फेरफार किया। इसी से उक्त हिन्दी संस्करण कई अंशों में अपूर्ण रह गया है। इसीलिए देउस्कर जी ने मुझे ‘देशेर कथा’ का अनुवाद करने की आज्ञा दी। पराड़कर जी द्वारा अनूदित ‘देश की बात’ की एक विशेषता यह भी है कि इसमें हिन्दी पाठकों के काम की अनेक नई बातें दी गई हैं, जो बांग्ला पुस्तक में नहीं है। इसलिए यह पुस्तक मूल बांग्ला से भी बड़ी हो गई है। बांग्ला ‘देशेर कथा’ के चौथे संस्करण से सन् 1910 में प्रकाशित ‘देश की बात’ का तुलनात्मक अध्ययन करने पर देउस्कर जी के ज्ञान की व्यापकता और उनके अखिल भारतीय दृष्टिकोण के रूप में स्पष्ट बोध होगा।
---------------------------------------------------
1. सत्यभक्त, भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना, मथुरा, पृ. 26
2. श्री नारायण चतुर्वेदी आधुनिक हिन्दी का आदिकाल (1957-1908) पृ. 212
|
लोगों की राय
No reviews for this book