सामाजिक >> आदमी और जंगल आदमी और जंगलउमाकांत शर्मा
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असमिया उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारत की अन्यान्य क्षेत्रीय भाषाओं के उपन्यासों की तरह ही असमिया उपन्यास
का जन्म भी उन्नीसवीं शताब्दी में ही हुआ। हाँ, असमिया गद्य-साहित्य का
इतिहास इससे पुराना है। ईस्वी सन् की सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में
असमिया गद्य में ‘कथा भागवत्’ और ‘कथा गीता’ की
रचना हुई थी। सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में रचित अहोम
‘बुरजी’ ग्रंथों में इतिहास की घटनाओं का वर्णन करने के लिए
एक खास तरह का सरल और टकसाली गद्य व्यवहृत किया गया था।
आधुनिक असमिया कथा-साहित्य का जन्म बैपिस्ट मिशनरियों द्वारा रचित नीति कथात्मक कहानियों में हुआ। उन्नसवीं शताब्दी के मध्य में शिवसागर शहर में अवस्थित उनलोगों के अपने छापे खाने में मुद्रित ‘अरुणोदय’ नामक पहली असमिया पत्रिका (1846) में अमेरिकन बैपटिस्ट मिशनरियों की रचनाओं के अलावा भी उस समय के कई प्रख्यात असमिया लेखकों की चिट्ठी-पत्री और लेख प्रकाशित हुए थे। सन् 1826 की ‘इयांदबू’ संधि के बाद अंग्रेजों ने असम को क्रमशः अपने अधीन करके बंगाल प्रेसीडेंसी में शामिल कर लिया। फलतः 1993 पर्यंत असम की सरकारी भाषा (राजभाषा) और शिक्षा का माध्यम बंगला बनी रही।
उस समय के असमिया लेखक असमिया और बंगला दोनों भाषाओं में रचना कर लेते थे। हरिराम ढेकियाल फुकन रचित ‘आसाम बुरंजी’ (1829) आधुनिक बंगला गद्य में लिखित प्रथम इतिहास ग्रंथ माना जाता है। हालाँकि उन्नीसवीं शती के मध्य में असम में एक सुविकसित गद्य का प्रचलन हो चुका था, उपन्यास-साहित्य का विकास बहुत बाद में हुआ। पद्मावती देवी फुकननी लिखित ‘सुधम्मीर’ उपाख्यान’ (1884) यद्यपि पहला असमिया उपन्यास माना जाता है। पर इसमें उपन्यास के मूल तत्व नहीं मिलते। इसे तो नीति कथा की कोटि में ही रखा जा सकता है। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में कलकत्ता पढ़ने गए कई असमिया छात्रों ने ही सही मायने में असमिया भाषा के उपन्यास की रचना की। आधुनिक असमिया साहित्य की विविध विधाओं में निपुण समझे जाने वाले इन चंद छात्रों के ही प्रयास से ही कई असमिया उपन्यासों की रचना हुई। रजनीकान्त बरदलै, पद्मनाथ गोहांइबरुआ, लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ आदि द्वारा लिखे इस प्रथम युग के असमिया उपन्यासों में प्रायः सबके सब ऐतिहासिक उपन्यास थे। अंग्रेजों के असम आगमन के ठीक पहले असम के इतिहास की पृष्ठभूमि पर ये उपन्यास रचे गए थे। मोवामरिया विद्रोह, मान (बर्मा) आक्रमण और उनके फलस्वरुप असम में दिखाई पड़ने वाले राजनीतिक संकट और सामाजिक अस्थिरता के चित्रण खासतौर पर रजनीकांत बरदलै के उपन्यासों में उजागर हुए हैं। उल्लेखनीय है कि इन उपन्यासों में असमिया मध्यवित्त जीवन के चित्रण मुखरित नहीं हुए हैं। लेकिन चूँकि बरदलै, बेजबरुआ, गोहांइगबरुआ इत्यादि लेखक नव गठित एक अत्यंत छोटे, पर प्रभावशाली शिक्षित मध्यवित्त वर्ग के प्रतिनिधि, स्वरुप थे इसलिए सामंती उच्चवर्ग अथवा देहाती जीवन के लिए चरित्रों का चित्रण करते समय इन उपन्यासों में मध्यवित्त मूल्यबोध के प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित हैं।
यह मूल्यबोध पश्चिम की विक्टोरिया युगीन विचारधारा से भी कुछ हद तक प्रभावित था, क्योंकि उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रचलित अंग्रेजी भाषा-साहित्य के पाठ्यक्रम में विक्टोरिया युगीन विचारधारा से भी कुछ हद तक प्रभावित था, क्योंकि उस समय कलकत्ता विश्व-विद्यालय में प्रचलित अंग्रेंजी भाषा-साहित्य के पाठ्यक्रम में विक्टोरिया युगीन इंगलैंड के बौद्धिक जगत के मूल्यबोध का प्रभाव सुस्पष्ट दिखाई पड़ता है। नारी चरित्र-चित्रण और स्त्री-पुरुष की प्रेम-कहानियों के वर्णन में इस तरह के मध्यवित्तीय मूल्यबोध की प्रभाव विशेष रूप से दिखलाई पड़ता है। परंतु चूंकि उन्नीसवीं शती के अंत तक असम में शहरी मध्यवित्त वर्ग किसी गिनती में नहीं था, उपन्यासों में मध्यवित्त जीवन का चित्रण बहुत बाद में देखने को मिलता है।
उपन्यास कला की दृष्टि से प्रथम युग के असमिया उपन्यासों में यद्यपि कोई नवीनता नहीं दिखलाई पड़ती, तथापि विषयवस्तु की दृष्टि से राष्ट्रीय चेतना का प्रस्फुटन इन उपन्यासों में भी दृष्टिगोचर होता है। असम के गौरवमय अतीत का रोमंथन कर उपन्यासकारों ने पराधीन असम के लिए एक आशामय भविष्य का सपना प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।
बीसवीं शती के दूसरे दशक से असमिया उपन्यासों की विषयवस्तु और चरित्र-चित्रण की दिशा में कुछ नवीनता दिखलाई पड़ती है। स्वाधीनता आंदोलन और समाज-सुधार के गांधी-जी के आदर्श से अनुप्राणित होकर दंडिनाथ कलिता (1890-1955) और देवचन्द्र तालुकदार (1900-1967) जैसे दो-एक उपन्यासकारों ने कई सामाजिक उपन्यासों की रचना की। लेकिन 1945 में प्रकाशित विरंचिकुमार बरुआ के ‘जीवनर बाटक’ नामक उपन्यास ने ही असमिया उपन्यास साहित्य को परिपक्व अवस्था में पहुंचाया। कथा-विन्यास, भाषा-शैली आदि प्रत्येक क्षेत्र में इस उपन्यास ने सफलता प्राप्त की। स्वतंत्रता की दहलीज पर रचित इस उपन्यास के बाद अनेक असमिया लेखकों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से असमिया उपन्यास की एक सशक्त परंपरा गढ़ने का सफल प्रयास किया। इन लेखकों में योगेश दास, सैयद अब्दुल मलिक, वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य, चंद्रप्रसाद सैकिया, नवकांत बरुआ, लक्ष्मीनंदन बरा, होमेन बरगोहांइ, निरुपमा बरगोहांइ, देवेन आचार्य, इंदिरा गोस्वामी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त अधिकतर लेखकों के उपन्यासों की एक ध्यातव्य विशेषता है, गंभीर सामाजिक चेतना-बोध। विविध राजनीतिक घटनाओं और विचारधाराओं द्वारा अनुप्रेरित होकर इन लेखकों ने अपने उपन्यासों के जरिए नाना प्रकार के सामाजिक अंतर्द्वंद्व दिखाने की चेष्टा की है। राष्ट्रीय आंदोलन, स्वराज, देश विभाजन, द्वितीय विश्वयुद्ध, जापानी आक्रमण इत्यादि जिन घटनाओं ने असमिया लोगों के जीवन में परिवर्तन घटाया, उन घटनाओं, या आदर्शों को अधिकतर लेखकों ने अपनी रचना की बुनियाद के रूप में ग्रहण किया। वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य के ‘मृत्युंजय’, देवेन आचार्य के ‘जंगम’, योगेश दास के ‘डाबर आरु नाइ’, उमाकांत शर्मा के ‘रंगा रंगा तेज’ और ‘चिमचांगर दुटा पार’ इत्यादि उपन्यासों में हमें ऐसी घटनाओं और आदर्शों का संघर्ष देखने को मिलता है। इसके अलावा, स्वतंत्र्योत्तर युग के असमिया उपन्यासों में असम के विविध-सांस्कृतिक अस्तित्व के संबंध में एक नई जागरूकता परिलक्षित होती है। इन उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं में असम की विभिन्न जातियों-जनजातियों की समस्याओं और आशा-आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने का जैसा प्रयास किया, उससे यह बात प्रमाणित होती है कि आधुनिक काल में असमिया साहित्य की स्वकीय सत्ता की रक्षा के लिए असम और इसके पास-पड़ोस के विभिन्न समुदायों को साहित्य का वर्ण्य-विषय बनाना ही होगा।
वीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य के ‘इयारूइंगम’ (1960) में नगा समाज में दिखाई पड़नेवाली नई राजनीति चेतना का सशक्त प्रकाशन, उन्हीं के ‘प्रतिपद’ में डिगबोई शोधनागार के श्रमिक आंदोलन की कहानी, उमाकांत शर्मा के ‘चिरचांगर दुटि पार’ (1965) में देश विभाजन के बाद असम में आए जनजातीय शरणार्थियों की दुरवस्था की कथा, योगश दास के ‘डाबर आरु नाइ’ (1955), विरंचिकुमार बरुआ के ‘सेउजी पातर काहिनी’ (1958), उमाकांत शर्मा के ‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ आदि उपन्यासों में चित्रित चाय श्रमिकों को जीवन की कहानियां इस नई जागरूकता के दृष्टांत हैं। इसके अलावा भी, लुम्मेर डाइ, रं-बं-तेरां आदि अनेक नए लेखकों ने अपने-अपने जनजातीय समाजों से वर्ण्य-विषय लेकर असमिया भाषा में उपन्यासों की रचना की है।
‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ (आदमी और जंगल) उपन्यास से मुक्त प्रमुख धारा का प्रवर्तन किया है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी षड्यंत्र की चक्की में पड़कर कुछ सर्वहारा लोग किस तरह परिश्रम और प्रेम के बीच असम की धरती पर स्थायी रूप से अपने आत्मविश्वास और लुप्त अस्तित्व को फिर से पाने में समर्थ हुए, उसी की मर्मस्पर्शी कहानी इस उपन्यास में प्रस्तुत की गई है। चाय श्रमिकों के असम आगमन की हृदय-विदारक कहानी ने उन्नीसवीं शताब्दी के असम और बंगाल के विद्वत् समाज पर गंभीर प्रभाव डाला था। इस कहानी का आरंभ उन्नीसवीं शती के तीसरे दशक में हुआ, जब असम के जंगलों में चाय के पौधे की खोज के बाद व्यवसायिक आधार पर चाय की खेती करने का निश्चय अंग्रेजों ने किया, उस समय असम में सस्ते दर पर मजदूर मिलना संभव न था, क्योंकि असम के अधिकांश क्षेत्र में जमींदारी प्रथा प्रचलित नहीं थी। जिसके फलस्वरूप यहां भूमिहीन किसानों की संख्या नगण्य थी। इसीलिए चाय बगीचा चलाने के लिए आवश्यक बहुसंख्यक मजदूरों की तलाश में अंग्रेज खेतीहरों ने बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश और दक्षिण भारत तक भी लोगों को भेजा।
बगीचा मालिकों के ये एजेंट तरह-तरह की धूर्त्ततापूर्ण बातों से गरीब लोगों को फुसलाकर ‘कुली डिपो’ में पकड़ लाते और ‘एग्रिमेन्ट (जिसे मजदूर ‘गिरमिट’ कहते) की शर्तों को नहीं जानते थे। दस्तावेज में लिखे नियम कानून की बात कुछ भी न जानने के कारण एक बार असम आने के बाद उनकी अवस्था बंधुआ गुलाम की तरह हो गई थी। जिस समय इंगलैंड में श्रमिक लोग प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित होकर मालिकों से अपने प्राप्य अधिकार छीन रहे थे, उस समय असम के चाय-बगीचों में अंग्रेज साम्राज्यवादी श्रमिकों को जिन्दा रहने लायक न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित रखने में लज्जा का अनुभव नहीं करते थे। इस अत्याचार की बात जब उस समय बंगाल के प्रबुद्ध विद्वत् समाज को मालूम हुई, तब चारों ओर प्रतिवाद की लहर फैल गई। सन् 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में स्थापित ‘इंडियन एसोसिएशन’ नामक संगठन ने लार्ड रिपन की सरकार के पास एक अर्जी दी, जिसमें देश के एक भाग से दूसके भाग में मजदूर चालान करने के लिए सरकार ने ब्रिटिश संसद में जो बिल प्रस्तुत करना चाहा था, उनका तीव्र विरोध किया गया। लेकिन वाइसराय की काउंसिल के भारतीय सदस्यों द्वारा विरोध करने पर भी वह बिल सन् 1882 में ‘इनलैंड एमिग्रेशन ऐक्ट’ के रूप में गृहीत हुआ। इस बीच कलकत्ता के राष्ट्रीयता वादी संवाददाताओं में इस बात के लिए खलबली मच गई थी। प्रसिद्ध ब्रह्म समाजी शिक्षाविद् और समाजसुधारक द्वारकानाथ गांगुली द्वारा संपादित ‘संजीवनी’ नामक पत्रिका में असम के चाय बगीचों के मजदूरों के दु:ख-दुर्दशा के विषय में एक प्रतिवेदन प्रकाशित होने के बाद कलकत्ता में अनेक सार्वजनिक सभाएं हुईं, जिनमें सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की ओजस्वी वक्तृताओं ने श्रोताओं को उद्वेलित कर दिया था।
इन घटनाओं का प्रभाव असम में कुछ देर से पड़ा, क्योंकि साधारण असमिया लोग चाय बगीचे के जीवन के विषय में कुछ खास जान नहीं पाए थे। बगीचे के मजदूरों और आस-पास के असमिया लोगों के बीच प्रेम सद्भाव पैदा न हो जाए, इस पर बगीचे के मालिकों की कड़ी नज़र थी। हां, कलकत्ता में रहने वाले असमिया विधार्थी इस विषय में बहुत जागरूक हो गए थे। सन् 1886-87 में कलकत्ते से प्रकाशित ‘मौ’ नामक एक असमिया पत्रिका में संपादक बलिनारायण बरा ने जब ‘चाह बागानर कुलि’ शीर्षक लेख में बंगाल के संवाददाताओं की कठोर भाषा में अलोचना करके यह अभियोग लगाया कि उनलोगों ने मजदूरों के दुख-दुर्दशा की बात अतिरंजित करके लिखी है, तब लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ आदि कई असमिया छात्रों ने पत्रिका के संपादक के मत के विरोध में कठोर भाषा में प्रतिवाद किया।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि उस समय के शिक्षित असमिया युवकों में सामाजिक जागरूकता का भाव पैदा हो चुका था। लेकिन इसका प्रकाशन साहित्य में देरी से हुआ। इस दिशा में बंगाल के लेखक, विशेष कर ब्रह्मसमाजी, अगुवा थे। उन्नीसवीं शती के अंत में रामकुमार विद्यारत्न नामक प्रसिद्ध ब्रह्म समाज प्रचारक ने असम के इस छोर से उस छोर तक भ्रमण करके एक तथ्यपूर्ण यात्रा-वृतांत लिखने के अलावा भी ‘कुलिकाहिनी’ नाम से एक उपन्यास भी प्रकाशित किया। इस उपन्यास में असम के चाय-मजदूरों के दुख-दुर्दशा की कहानी अत्यंत साहसपूर्वक वर्णित है। दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय नामक एक अन्य बंग लेखक के ‘चा-कर-दर्पण’ नाटक और ‘कुलि काहिनी’ का स्थान औपनिवेशिक युग के भारत के प्रतिवादी साहित्य के इतिहास में अन्यतम है।
स्वतंत्रता के ठीक बाद वामपंथी आदर्श के प्रभाव से असमिया साहित्य में भी बगीचों के श्रमिकों के जीवन की पृष्ठभूमि पर अनेक असमिया उपन्यास लिखे गए। उमाकांत शर्मा का ‘एजाक मानुह एखन अरण्य’, सन् 1986 में प्रकाशित होने पर भी नि:संदेह उसी परंपरा की प्रगतिशील धारा की रचना है। एक विचारोत्तेजक कहानीकार के रूप में चालीस के दशक से ही उमाकांत शर्मा असमिया साहित्य जगत् में प्रवेशकर शर्मा ने जीवन की गंभीर उपलब्धि और अनुभव का भंडार लेकर उपन्यास-जगत् में प्रवेश किया। उनके ‘उरन्त मेघर छां’ (1960), ‘रंगा-रंगा तेज’ (1968), ‘चिमचांगर दुटा पार’ (1965) और ‘भारंड पक्षीर जाक’ (1992) असमिया साहित्य में अनमोल अवदान हैं। प्रत्येक उपन्यास में उनके कथा-विकास का कौशल, भाषा का काव्य-सौष्ठव और समाज-चेतना की निर्मल प्रभा दृष्टिगोचर होते हैं।
‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ (1986) में असम के चाय श्रमिक समुदाय के क्रमिक परिवर्तन का चित्र उपस्थित करने की चेष्टा की गई है। सन् 1886 में श्रमिकों के असम में प्रथम आगमन से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन के समय तक का संपूर्ण कालखंड उपन्यास में समेटा गया है। बंगाल के ‘कुली डिपो’ में अवर्णनीय अत्याचार-यंत्रणा के बाद श्रमिकों को किस तरह जहाज में ठूंस कर असम लाया गया, उसकी एक हृदय-विदारक कहानी उपन्यास के पहले भाग में वर्णित है। लेकिन इस दुख-यातना के बीच भी आपस के प्रेम-सद्भाव और समझदारी ने किस तरह लोगों को एक नया अस्तित्व प्रदान किया, यह उपलब्धि भी कहानी के माध्यम से उद्भासित हुई है। इस उपन्यास की सबसे महत्वपूर्ण बात है लेखक द्वारा गृहीत सकारात्मक दृष्टिकोण।
पहले चार अध्यायों के बाद जब मजदूर असम के रूपहीजान बगीचा में जाते हैं, उसके बाद से ही उपन्यास का सारा वातावरण बदल जाता है-मानो असम की मिट्टी और जलवायु में वेदना हरण शक्ति है। रूपही नदी की मुक्त जलधारा, चांदनी का भयंकर और महिमामय रूप – इन सबने मजदूरों के जीवन की सूखी नदी में जैसे नवजीवन की लहर पैदा कर दी। पांचवे अध्याय के बाद से ही परिश्रम और प्रेम और मजदूर एक नया आत्म- विश्वास और आत्म-सम्मान तलाश लेते हैं। लेखक ने इस उपन्यास में समन्वय की दृष्टि अपनाई हैं, उन्होंने कथा को एक विशेष दिशा में अग्रसर करने में सहायता की है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों की विविधवर्णी संस्कृति अपने साथ लाकर इन श्रमिकों ने असम की मिट्टी में किस तरह एक नई संस्कृति रच डाली, उसे ही दिखाने का प्रयास इसमें किया गया है। लेखक ने उपन्यास में कहा है, ‘कितनी दूर से लोग यहां आए ! बंगाल तो नजदीक है, लेकिन मद्रास ? छोटा-नागपुर ? बिहार, उड़ीसा ? एक प्रकार से सारा देश ही यहां आकर इकट्ठा हो गया है। यह तो ऊपर की बात है, धरती के ऊपर की बात। सरस्वती नदी की बात जानते हो ? गंगा और यमुना तो देखोगे, पर सरस्वती नहीं। सरस्वती जमीन के अंदर से बहती हुई गंगा-यमुना में मिल गई है।... मानो वह पाताल का संगम है। ऊपर-नीचे एक ही संगम।’ (पृ. 325-26)
लेखक ने उपन्यास में चाय-बगीचों की विभिन्न जातियों-उपजातियों की अपनी-अपनी संस्कृतियों के अस्तित्व पर बल न दे, सांस्कृतिक समन्वय का एक ही चित्र प्रस्तुत किया है। मजदूरों के नाच-गान, पूजा-अर्चना सबके माध्यम से प्रस्फुटित स्वत: स्फूर्त आनंद और जीवनी शक्ति का आभास उपस्थित करते हुए लेखक ने नाच-गानों के वैविध्य पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं की। ठीक उसी तरह, लेखक ने सजग होकर यह दिखाना चाहा है कि किस तरह असमिया संस्कृति, खासकर महापुरुषिया वैष्णव कितना आगे बढ़ पाया है, यह संदेहजनक होने पर भी लेखक की समन्वयकारी मनीषा ने उसे एक आदर्श समाज की तस्वीर रखने के लिए अनुप्रेरित किया, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। उसी तरह, लेखक ने अनेक आदर्श चरित्रों की सृष्टि करके उनके माध्यम से दिखाना चाहा है कि कैसे पहले के सभी लोग अविश्वास-विद्वेष भूलकर असमिया समाज मजदूरों के नजदीक आता गया। कविगुरु रवीन्द्रनाथ के ‘भारत-तीर्थ’ कविता के महान् आदर्श को ही जैसे उमाकांत शर्मा ने अपने इस उपन्यास में प्रति ध्वनित किया है: ‘भारत का इतिहास!... कहां का आदमी कहां जाता, कहां का आदमी कहां आता !... यह सचमुच विचित्र देश है। बाहर से आने के कुछ दिन बाद से ही, सब एक साथ मिलजुलकर काम करते, खाते-पीते, सोते-जागते सोचते यह देश हमारा है।’ (पृ.310)
‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ में वर्णित घटनाक्रम सन् 1886 से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन का परिपक्वावस्था तक का है। गांधी और आजादी की बातें मजदूरों को सुनने को मिलती हैं, लेकिन देशव्यापी आंदोलन में उनका प्रत्यक्ष भाग लेना असंभव था। इधर बगीचों में मजदूर संघों की स्थापना के साथ-ही-साथ श्रमिकों के बीच राजनीतिक चेतना तीव्रतर होती जाती है। बगीचों में अस्पताल खुलते, स्कूल खुलते और महिलाओं में भी एक नई जागृति आती है। मजदूर लड़कियां स्कूल जाने लगती हैं और उच्च शिक्षा के प्रति उनलोगों का आकर्षण बढ़ता है। मजदूर का लड़का डॉक्टरी भी पढ़ने लगता है। ऐसे ही उत्साहपूर्ण परिवेश में उपन्यास की समाप्ति होती है। पर उपन्यास पढ़ने के बाद आज के पाठक के मन में एक प्रश्न बार-बार उभरेगा: आजादी की अर्द्धशताब्दी के बाद भी असम के चाय-श्रमिकों के जीवन में लेखक के काल्पनिक परिवर्तन का सूर्योदय हो पाया है ? जिनलोगों की मिहनत के फलस्वरूप असम की धरती में विपुल ऐश्वर्य उत्पादित हो रहा है, वे लोग उस ऐश्वर्य का एक कण भी उपभोग कर पा रहे हैं?
आधुनिक असमिया कथा-साहित्य का जन्म बैपिस्ट मिशनरियों द्वारा रचित नीति कथात्मक कहानियों में हुआ। उन्नसवीं शताब्दी के मध्य में शिवसागर शहर में अवस्थित उनलोगों के अपने छापे खाने में मुद्रित ‘अरुणोदय’ नामक पहली असमिया पत्रिका (1846) में अमेरिकन बैपटिस्ट मिशनरियों की रचनाओं के अलावा भी उस समय के कई प्रख्यात असमिया लेखकों की चिट्ठी-पत्री और लेख प्रकाशित हुए थे। सन् 1826 की ‘इयांदबू’ संधि के बाद अंग्रेजों ने असम को क्रमशः अपने अधीन करके बंगाल प्रेसीडेंसी में शामिल कर लिया। फलतः 1993 पर्यंत असम की सरकारी भाषा (राजभाषा) और शिक्षा का माध्यम बंगला बनी रही।
उस समय के असमिया लेखक असमिया और बंगला दोनों भाषाओं में रचना कर लेते थे। हरिराम ढेकियाल फुकन रचित ‘आसाम बुरंजी’ (1829) आधुनिक बंगला गद्य में लिखित प्रथम इतिहास ग्रंथ माना जाता है। हालाँकि उन्नीसवीं शती के मध्य में असम में एक सुविकसित गद्य का प्रचलन हो चुका था, उपन्यास-साहित्य का विकास बहुत बाद में हुआ। पद्मावती देवी फुकननी लिखित ‘सुधम्मीर’ उपाख्यान’ (1884) यद्यपि पहला असमिया उपन्यास माना जाता है। पर इसमें उपन्यास के मूल तत्व नहीं मिलते। इसे तो नीति कथा की कोटि में ही रखा जा सकता है। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्द्ध में कलकत्ता पढ़ने गए कई असमिया छात्रों ने ही सही मायने में असमिया भाषा के उपन्यास की रचना की। आधुनिक असमिया साहित्य की विविध विधाओं में निपुण समझे जाने वाले इन चंद छात्रों के ही प्रयास से ही कई असमिया उपन्यासों की रचना हुई। रजनीकान्त बरदलै, पद्मनाथ गोहांइबरुआ, लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ आदि द्वारा लिखे इस प्रथम युग के असमिया उपन्यासों में प्रायः सबके सब ऐतिहासिक उपन्यास थे। अंग्रेजों के असम आगमन के ठीक पहले असम के इतिहास की पृष्ठभूमि पर ये उपन्यास रचे गए थे। मोवामरिया विद्रोह, मान (बर्मा) आक्रमण और उनके फलस्वरुप असम में दिखाई पड़ने वाले राजनीतिक संकट और सामाजिक अस्थिरता के चित्रण खासतौर पर रजनीकांत बरदलै के उपन्यासों में उजागर हुए हैं। उल्लेखनीय है कि इन उपन्यासों में असमिया मध्यवित्त जीवन के चित्रण मुखरित नहीं हुए हैं। लेकिन चूँकि बरदलै, बेजबरुआ, गोहांइगबरुआ इत्यादि लेखक नव गठित एक अत्यंत छोटे, पर प्रभावशाली शिक्षित मध्यवित्त वर्ग के प्रतिनिधि, स्वरुप थे इसलिए सामंती उच्चवर्ग अथवा देहाती जीवन के लिए चरित्रों का चित्रण करते समय इन उपन्यासों में मध्यवित्त मूल्यबोध के प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित हैं।
यह मूल्यबोध पश्चिम की विक्टोरिया युगीन विचारधारा से भी कुछ हद तक प्रभावित था, क्योंकि उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रचलित अंग्रेजी भाषा-साहित्य के पाठ्यक्रम में विक्टोरिया युगीन विचारधारा से भी कुछ हद तक प्रभावित था, क्योंकि उस समय कलकत्ता विश्व-विद्यालय में प्रचलित अंग्रेंजी भाषा-साहित्य के पाठ्यक्रम में विक्टोरिया युगीन इंगलैंड के बौद्धिक जगत के मूल्यबोध का प्रभाव सुस्पष्ट दिखाई पड़ता है। नारी चरित्र-चित्रण और स्त्री-पुरुष की प्रेम-कहानियों के वर्णन में इस तरह के मध्यवित्तीय मूल्यबोध की प्रभाव विशेष रूप से दिखलाई पड़ता है। परंतु चूंकि उन्नीसवीं शती के अंत तक असम में शहरी मध्यवित्त वर्ग किसी गिनती में नहीं था, उपन्यासों में मध्यवित्त जीवन का चित्रण बहुत बाद में देखने को मिलता है।
उपन्यास कला की दृष्टि से प्रथम युग के असमिया उपन्यासों में यद्यपि कोई नवीनता नहीं दिखलाई पड़ती, तथापि विषयवस्तु की दृष्टि से राष्ट्रीय चेतना का प्रस्फुटन इन उपन्यासों में भी दृष्टिगोचर होता है। असम के गौरवमय अतीत का रोमंथन कर उपन्यासकारों ने पराधीन असम के लिए एक आशामय भविष्य का सपना प्रस्तुत करने की चेष्टा की है।
बीसवीं शती के दूसरे दशक से असमिया उपन्यासों की विषयवस्तु और चरित्र-चित्रण की दिशा में कुछ नवीनता दिखलाई पड़ती है। स्वाधीनता आंदोलन और समाज-सुधार के गांधी-जी के आदर्श से अनुप्राणित होकर दंडिनाथ कलिता (1890-1955) और देवचन्द्र तालुकदार (1900-1967) जैसे दो-एक उपन्यासकारों ने कई सामाजिक उपन्यासों की रचना की। लेकिन 1945 में प्रकाशित विरंचिकुमार बरुआ के ‘जीवनर बाटक’ नामक उपन्यास ने ही असमिया उपन्यास साहित्य को परिपक्व अवस्था में पहुंचाया। कथा-विन्यास, भाषा-शैली आदि प्रत्येक क्षेत्र में इस उपन्यास ने सफलता प्राप्त की। स्वतंत्रता की दहलीज पर रचित इस उपन्यास के बाद अनेक असमिया लेखकों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से असमिया उपन्यास की एक सशक्त परंपरा गढ़ने का सफल प्रयास किया। इन लेखकों में योगेश दास, सैयद अब्दुल मलिक, वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य, चंद्रप्रसाद सैकिया, नवकांत बरुआ, लक्ष्मीनंदन बरा, होमेन बरगोहांइ, निरुपमा बरगोहांइ, देवेन आचार्य, इंदिरा गोस्वामी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त अधिकतर लेखकों के उपन्यासों की एक ध्यातव्य विशेषता है, गंभीर सामाजिक चेतना-बोध। विविध राजनीतिक घटनाओं और विचारधाराओं द्वारा अनुप्रेरित होकर इन लेखकों ने अपने उपन्यासों के जरिए नाना प्रकार के सामाजिक अंतर्द्वंद्व दिखाने की चेष्टा की है। राष्ट्रीय आंदोलन, स्वराज, देश विभाजन, द्वितीय विश्वयुद्ध, जापानी आक्रमण इत्यादि जिन घटनाओं ने असमिया लोगों के जीवन में परिवर्तन घटाया, उन घटनाओं, या आदर्शों को अधिकतर लेखकों ने अपनी रचना की बुनियाद के रूप में ग्रहण किया। वीरेंद्र कुमार भट्टाचार्य के ‘मृत्युंजय’, देवेन आचार्य के ‘जंगम’, योगेश दास के ‘डाबर आरु नाइ’, उमाकांत शर्मा के ‘रंगा रंगा तेज’ और ‘चिमचांगर दुटा पार’ इत्यादि उपन्यासों में हमें ऐसी घटनाओं और आदर्शों का संघर्ष देखने को मिलता है। इसके अलावा, स्वतंत्र्योत्तर युग के असमिया उपन्यासों में असम के विविध-सांस्कृतिक अस्तित्व के संबंध में एक नई जागरूकता परिलक्षित होती है। इन उपन्यासकारों ने अपनी रचनाओं में असम की विभिन्न जातियों-जनजातियों की समस्याओं और आशा-आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करने का जैसा प्रयास किया, उससे यह बात प्रमाणित होती है कि आधुनिक काल में असमिया साहित्य की स्वकीय सत्ता की रक्षा के लिए असम और इसके पास-पड़ोस के विभिन्न समुदायों को साहित्य का वर्ण्य-विषय बनाना ही होगा।
वीरेंद्रकुमार भट्टाचार्य के ‘इयारूइंगम’ (1960) में नगा समाज में दिखाई पड़नेवाली नई राजनीति चेतना का सशक्त प्रकाशन, उन्हीं के ‘प्रतिपद’ में डिगबोई शोधनागार के श्रमिक आंदोलन की कहानी, उमाकांत शर्मा के ‘चिरचांगर दुटि पार’ (1965) में देश विभाजन के बाद असम में आए जनजातीय शरणार्थियों की दुरवस्था की कथा, योगश दास के ‘डाबर आरु नाइ’ (1955), विरंचिकुमार बरुआ के ‘सेउजी पातर काहिनी’ (1958), उमाकांत शर्मा के ‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ आदि उपन्यासों में चित्रित चाय श्रमिकों को जीवन की कहानियां इस नई जागरूकता के दृष्टांत हैं। इसके अलावा भी, लुम्मेर डाइ, रं-बं-तेरां आदि अनेक नए लेखकों ने अपने-अपने जनजातीय समाजों से वर्ण्य-विषय लेकर असमिया भाषा में उपन्यासों की रचना की है।
‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ (आदमी और जंगल) उपन्यास से मुक्त प्रमुख धारा का प्रवर्तन किया है। ब्रिटिश साम्राज्यवादी षड्यंत्र की चक्की में पड़कर कुछ सर्वहारा लोग किस तरह परिश्रम और प्रेम के बीच असम की धरती पर स्थायी रूप से अपने आत्मविश्वास और लुप्त अस्तित्व को फिर से पाने में समर्थ हुए, उसी की मर्मस्पर्शी कहानी इस उपन्यास में प्रस्तुत की गई है। चाय श्रमिकों के असम आगमन की हृदय-विदारक कहानी ने उन्नीसवीं शताब्दी के असम और बंगाल के विद्वत् समाज पर गंभीर प्रभाव डाला था। इस कहानी का आरंभ उन्नीसवीं शती के तीसरे दशक में हुआ, जब असम के जंगलों में चाय के पौधे की खोज के बाद व्यवसायिक आधार पर चाय की खेती करने का निश्चय अंग्रेजों ने किया, उस समय असम में सस्ते दर पर मजदूर मिलना संभव न था, क्योंकि असम के अधिकांश क्षेत्र में जमींदारी प्रथा प्रचलित नहीं थी। जिसके फलस्वरूप यहां भूमिहीन किसानों की संख्या नगण्य थी। इसीलिए चाय बगीचा चलाने के लिए आवश्यक बहुसंख्यक मजदूरों की तलाश में अंग्रेज खेतीहरों ने बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश और दक्षिण भारत तक भी लोगों को भेजा।
बगीचा मालिकों के ये एजेंट तरह-तरह की धूर्त्ततापूर्ण बातों से गरीब लोगों को फुसलाकर ‘कुली डिपो’ में पकड़ लाते और ‘एग्रिमेन्ट (जिसे मजदूर ‘गिरमिट’ कहते) की शर्तों को नहीं जानते थे। दस्तावेज में लिखे नियम कानून की बात कुछ भी न जानने के कारण एक बार असम आने के बाद उनकी अवस्था बंधुआ गुलाम की तरह हो गई थी। जिस समय इंगलैंड में श्रमिक लोग प्रगतिवादी विचारधारा से प्रभावित होकर मालिकों से अपने प्राप्य अधिकार छीन रहे थे, उस समय असम के चाय-बगीचों में अंग्रेज साम्राज्यवादी श्रमिकों को जिन्दा रहने लायक न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित रखने में लज्जा का अनुभव नहीं करते थे। इस अत्याचार की बात जब उस समय बंगाल के प्रबुद्ध विद्वत् समाज को मालूम हुई, तब चारों ओर प्रतिवाद की लहर फैल गई। सन् 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में स्थापित ‘इंडियन एसोसिएशन’ नामक संगठन ने लार्ड रिपन की सरकार के पास एक अर्जी दी, जिसमें देश के एक भाग से दूसके भाग में मजदूर चालान करने के लिए सरकार ने ब्रिटिश संसद में जो बिल प्रस्तुत करना चाहा था, उनका तीव्र विरोध किया गया। लेकिन वाइसराय की काउंसिल के भारतीय सदस्यों द्वारा विरोध करने पर भी वह बिल सन् 1882 में ‘इनलैंड एमिग्रेशन ऐक्ट’ के रूप में गृहीत हुआ। इस बीच कलकत्ता के राष्ट्रीयता वादी संवाददाताओं में इस बात के लिए खलबली मच गई थी। प्रसिद्ध ब्रह्म समाजी शिक्षाविद् और समाजसुधारक द्वारकानाथ गांगुली द्वारा संपादित ‘संजीवनी’ नामक पत्रिका में असम के चाय बगीचों के मजदूरों के दु:ख-दुर्दशा के विषय में एक प्रतिवेदन प्रकाशित होने के बाद कलकत्ता में अनेक सार्वजनिक सभाएं हुईं, जिनमें सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की ओजस्वी वक्तृताओं ने श्रोताओं को उद्वेलित कर दिया था।
इन घटनाओं का प्रभाव असम में कुछ देर से पड़ा, क्योंकि साधारण असमिया लोग चाय बगीचे के जीवन के विषय में कुछ खास जान नहीं पाए थे। बगीचे के मजदूरों और आस-पास के असमिया लोगों के बीच प्रेम सद्भाव पैदा न हो जाए, इस पर बगीचे के मालिकों की कड़ी नज़र थी। हां, कलकत्ता में रहने वाले असमिया विधार्थी इस विषय में बहुत जागरूक हो गए थे। सन् 1886-87 में कलकत्ते से प्रकाशित ‘मौ’ नामक एक असमिया पत्रिका में संपादक बलिनारायण बरा ने जब ‘चाह बागानर कुलि’ शीर्षक लेख में बंगाल के संवाददाताओं की कठोर भाषा में अलोचना करके यह अभियोग लगाया कि उनलोगों ने मजदूरों के दुख-दुर्दशा की बात अतिरंजित करके लिखी है, तब लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ आदि कई असमिया छात्रों ने पत्रिका के संपादक के मत के विरोध में कठोर भाषा में प्रतिवाद किया।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि उस समय के शिक्षित असमिया युवकों में सामाजिक जागरूकता का भाव पैदा हो चुका था। लेकिन इसका प्रकाशन साहित्य में देरी से हुआ। इस दिशा में बंगाल के लेखक, विशेष कर ब्रह्मसमाजी, अगुवा थे। उन्नीसवीं शती के अंत में रामकुमार विद्यारत्न नामक प्रसिद्ध ब्रह्म समाज प्रचारक ने असम के इस छोर से उस छोर तक भ्रमण करके एक तथ्यपूर्ण यात्रा-वृतांत लिखने के अलावा भी ‘कुलिकाहिनी’ नाम से एक उपन्यास भी प्रकाशित किया। इस उपन्यास में असम के चाय-मजदूरों के दुख-दुर्दशा की कहानी अत्यंत साहसपूर्वक वर्णित है। दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय नामक एक अन्य बंग लेखक के ‘चा-कर-दर्पण’ नाटक और ‘कुलि काहिनी’ का स्थान औपनिवेशिक युग के भारत के प्रतिवादी साहित्य के इतिहास में अन्यतम है।
स्वतंत्रता के ठीक बाद वामपंथी आदर्श के प्रभाव से असमिया साहित्य में भी बगीचों के श्रमिकों के जीवन की पृष्ठभूमि पर अनेक असमिया उपन्यास लिखे गए। उमाकांत शर्मा का ‘एजाक मानुह एखन अरण्य’, सन् 1986 में प्रकाशित होने पर भी नि:संदेह उसी परंपरा की प्रगतिशील धारा की रचना है। एक विचारोत्तेजक कहानीकार के रूप में चालीस के दशक से ही उमाकांत शर्मा असमिया साहित्य जगत् में प्रवेशकर शर्मा ने जीवन की गंभीर उपलब्धि और अनुभव का भंडार लेकर उपन्यास-जगत् में प्रवेश किया। उनके ‘उरन्त मेघर छां’ (1960), ‘रंगा-रंगा तेज’ (1968), ‘चिमचांगर दुटा पार’ (1965) और ‘भारंड पक्षीर जाक’ (1992) असमिया साहित्य में अनमोल अवदान हैं। प्रत्येक उपन्यास में उनके कथा-विकास का कौशल, भाषा का काव्य-सौष्ठव और समाज-चेतना की निर्मल प्रभा दृष्टिगोचर होते हैं।
‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ (1986) में असम के चाय श्रमिक समुदाय के क्रमिक परिवर्तन का चित्र उपस्थित करने की चेष्टा की गई है। सन् 1886 में श्रमिकों के असम में प्रथम आगमन से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन के समय तक का संपूर्ण कालखंड उपन्यास में समेटा गया है। बंगाल के ‘कुली डिपो’ में अवर्णनीय अत्याचार-यंत्रणा के बाद श्रमिकों को किस तरह जहाज में ठूंस कर असम लाया गया, उसकी एक हृदय-विदारक कहानी उपन्यास के पहले भाग में वर्णित है। लेकिन इस दुख-यातना के बीच भी आपस के प्रेम-सद्भाव और समझदारी ने किस तरह लोगों को एक नया अस्तित्व प्रदान किया, यह उपलब्धि भी कहानी के माध्यम से उद्भासित हुई है। इस उपन्यास की सबसे महत्वपूर्ण बात है लेखक द्वारा गृहीत सकारात्मक दृष्टिकोण।
पहले चार अध्यायों के बाद जब मजदूर असम के रूपहीजान बगीचा में जाते हैं, उसके बाद से ही उपन्यास का सारा वातावरण बदल जाता है-मानो असम की मिट्टी और जलवायु में वेदना हरण शक्ति है। रूपही नदी की मुक्त जलधारा, चांदनी का भयंकर और महिमामय रूप – इन सबने मजदूरों के जीवन की सूखी नदी में जैसे नवजीवन की लहर पैदा कर दी। पांचवे अध्याय के बाद से ही परिश्रम और प्रेम और मजदूर एक नया आत्म- विश्वास और आत्म-सम्मान तलाश लेते हैं। लेखक ने इस उपन्यास में समन्वय की दृष्टि अपनाई हैं, उन्होंने कथा को एक विशेष दिशा में अग्रसर करने में सहायता की है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों की विविधवर्णी संस्कृति अपने साथ लाकर इन श्रमिकों ने असम की मिट्टी में किस तरह एक नई संस्कृति रच डाली, उसे ही दिखाने का प्रयास इसमें किया गया है। लेखक ने उपन्यास में कहा है, ‘कितनी दूर से लोग यहां आए ! बंगाल तो नजदीक है, लेकिन मद्रास ? छोटा-नागपुर ? बिहार, उड़ीसा ? एक प्रकार से सारा देश ही यहां आकर इकट्ठा हो गया है। यह तो ऊपर की बात है, धरती के ऊपर की बात। सरस्वती नदी की बात जानते हो ? गंगा और यमुना तो देखोगे, पर सरस्वती नहीं। सरस्वती जमीन के अंदर से बहती हुई गंगा-यमुना में मिल गई है।... मानो वह पाताल का संगम है। ऊपर-नीचे एक ही संगम।’ (पृ. 325-26)
लेखक ने उपन्यास में चाय-बगीचों की विभिन्न जातियों-उपजातियों की अपनी-अपनी संस्कृतियों के अस्तित्व पर बल न दे, सांस्कृतिक समन्वय का एक ही चित्र प्रस्तुत किया है। मजदूरों के नाच-गान, पूजा-अर्चना सबके माध्यम से प्रस्फुटित स्वत: स्फूर्त आनंद और जीवनी शक्ति का आभास उपस्थित करते हुए लेखक ने नाच-गानों के वैविध्य पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत महसूस नहीं की। ठीक उसी तरह, लेखक ने सजग होकर यह दिखाना चाहा है कि किस तरह असमिया संस्कृति, खासकर महापुरुषिया वैष्णव कितना आगे बढ़ पाया है, यह संदेहजनक होने पर भी लेखक की समन्वयकारी मनीषा ने उसे एक आदर्श समाज की तस्वीर रखने के लिए अनुप्रेरित किया, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। उसी तरह, लेखक ने अनेक आदर्श चरित्रों की सृष्टि करके उनके माध्यम से दिखाना चाहा है कि कैसे पहले के सभी लोग अविश्वास-विद्वेष भूलकर असमिया समाज मजदूरों के नजदीक आता गया। कविगुरु रवीन्द्रनाथ के ‘भारत-तीर्थ’ कविता के महान् आदर्श को ही जैसे उमाकांत शर्मा ने अपने इस उपन्यास में प्रति ध्वनित किया है: ‘भारत का इतिहास!... कहां का आदमी कहां जाता, कहां का आदमी कहां आता !... यह सचमुच विचित्र देश है। बाहर से आने के कुछ दिन बाद से ही, सब एक साथ मिलजुलकर काम करते, खाते-पीते, सोते-जागते सोचते यह देश हमारा है।’ (पृ.310)
‘एजाक मानुह एखन अरण्य’ में वर्णित घटनाक्रम सन् 1886 से लेकर स्वतंत्रता आंदोलन का परिपक्वावस्था तक का है। गांधी और आजादी की बातें मजदूरों को सुनने को मिलती हैं, लेकिन देशव्यापी आंदोलन में उनका प्रत्यक्ष भाग लेना असंभव था। इधर बगीचों में मजदूर संघों की स्थापना के साथ-ही-साथ श्रमिकों के बीच राजनीतिक चेतना तीव्रतर होती जाती है। बगीचों में अस्पताल खुलते, स्कूल खुलते और महिलाओं में भी एक नई जागृति आती है। मजदूर लड़कियां स्कूल जाने लगती हैं और उच्च शिक्षा के प्रति उनलोगों का आकर्षण बढ़ता है। मजदूर का लड़का डॉक्टरी भी पढ़ने लगता है। ऐसे ही उत्साहपूर्ण परिवेश में उपन्यास की समाप्ति होती है। पर उपन्यास पढ़ने के बाद आज के पाठक के मन में एक प्रश्न बार-बार उभरेगा: आजादी की अर्द्धशताब्दी के बाद भी असम के चाय-श्रमिकों के जीवन में लेखक के काल्पनिक परिवर्तन का सूर्योदय हो पाया है ? जिनलोगों की मिहनत के फलस्वरूप असम की धरती में विपुल ऐश्वर्य उत्पादित हो रहा है, वे लोग उस ऐश्वर्य का एक कण भी उपभोग कर पा रहे हैं?
-तिलोत्तमा मिश्र
प्रथम अध्याय
एक
सन् अठारह सौ छियासी की बारह जून को तुलसी गोलंदो पहुंचा। वह अपने पिता
बान्हा, मां और दो दीदियों के साथ आया था। उस समय उसकी उम्र भी मात्र बारह
साल की थी। इसीलिए उसका पूरा का पूरा परिवार कहां जा रहा है, इसके बारे
में उसे कुछ भी ज्ञान न था। उसे केवल मालूम था कि वे बहुत दूर जाएंगे।
वहां पहुंचने में कई दिन लगेंगे। पिछले चार दिन, चार रात वे रेलगाड़ी में
ही बैठे हैं। जाने और कितने दिन लगेंगे ?
रेलगाड़ी के चार डिब्बों में अनगिनत लोग हैं। लड़के-लड़की, छोटे बच्चे–सब कोई छह-सात सौ लोग होंगे। रेल के केवल चार डिब्बों में इतने लोग कैसे समा गए और गोलंदो स्टेशन पहुंच गए, वह समझ ही नहीं पा रहा था। स्टेशन पर उतरकर उसे ऐसा महसूस हुआ कि चार दिनों के बाद आज पहली बार वह सांस ले पाया है। वह जिस डिब्बे में आया उसमें दो सौ लोग थे। कंधे से जांघ तक लाल फीता लटकाए दफादार1 ने जोर से चिल्लाते और गाली-गलौज करते, हाथ के डंडे से दो-एक प्रहार करते भिन्न-भिन्न स्टेशनों पर सैकड़ों लोगों को ठेलकर डिब्बे के अंदर ठूंस दिया था। अंदर लोग जहां जगह पाते बैठते, लुढ़कते, खाने के लिए ललचते, खड़े होते, बेड़ से टिकते, गोद-कंधे-पीठ पर शिशु और छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों को लिए पछताते हुए आ रहे थे। एक दिन बाद ही डिब्बे के अंदर एक भयंकर बदबू आने लगी थी, जो धीरे-धीरे तेज और असह्य होती चली गई। इतने लोगों के लिए केवल एक शौचालय बेमानी है, लेकिन उस एकमात्र शौचालय में भी लोग घुसे हुए थे। उनके कपड़े-लत्ते बड़े गंदे थे। कपड़ों में चिपकी गंदगी कपड़ों से भी ज्यादा मोटी थी। दो स्टेशन बाद ही तुलसी ने उल्टी कर दी थी। उल्टी लोगों की देह पर ही पड़ी थी क्योंकि तिल धरने की जगह न थी कि खिड़की से सिर बाहर कर पाता। लोगों ने उसे गालियां दी थीं। उसके बाप बान्हा ने उसे दो तमाचे भी जड़ दिए थे।
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1.कुलियों का सरदार
क्या पता, तमाचा खाने के कारण ही उसकी उल्टी बंद हो गई थी ! एक दिन बाद तो उसका अभ्यास हो गया था। पाखाना-पेशाब से सराबोर पोशाक की बदबू – उसने सबको पचा लिया। यहां तक कि उसने उसी सड़ी बदबू में ही सत्तू भी खाया और पानी भी पिया।
सुबह लगभग सात सौ लोग गोलंदा स्टेशन पर उतरे। मर्द, औरत, बुजुर्ग, बूढ़े, लड़के-लड़कियां, नंग-धडंग बच्चे-सभी उतरे। गोलंदो स्टेशन। गोलंदो में ही उनका शिविर है-कुली डिपो। उस कुली डिपो में उन्हें कितने दिन रहना पड़ेगा, उसके बारे में उनमें से किसी को भी कुछ पता नहीं। संभव है केवल तीन दिन, नहीं तो एक या दो सप्ताह अथवा एक या दो महीने। रेल और आगे नहीं जाती। उन्हें अगली यात्रा या तो नाव से करनी है या जहाज से।
इस पार गोलंदो और सुदूर उस पार चांदपुर और बीच में पद्मा और मेधना ! जून महीने की पद्मा-मेधना ! नदी नहीं, महासमुद्र ! विशाल और सीमाहीन ! पद्मा-मेधना के तट पर असंख्य पाल नौकाएं बंधी रहतीं और गोलंदो स्टेशन की भीगी-ठंडी मिट्टी पर जहां-तहां सैकड़ों लोग बिखरे पड़े रहते। सुबह जिस तरह नदियों की लहरें थम जाती हैं, उसी तरह लोगों की सांस-उसांस भी थम सी गई है। यदि कहीं एक टुकड़ा समतल जमीन मिल जाए तो वे शायद वहीं अनंत काल तक पड़े रहें।
सूरज के डूबने से पहले ही वे लोग स्टेशन के नज़दीक ही डिपो में गए। वे लोग चाय-बगीचे के कुली हैं, उन्हीं के लिए है कुली डिपो। जहाज या नाव की व्यवस्था होने तक वे उसी डिपो में रहेंगे। उसके बाद एक नई यात्रा जल मार्ग से।
डिपो के अंदर घुसते ही तुलसी के नथुने सिकुड़ गए। केवल एक क्षण के लिए, क्योंकि डिपो के अंदर संपूर्ण मनुष्य एक भी नहीं है। मानो असंख्य हाथ, असंख्य पांव, असंख्य पेटवाला एक ही आदमी कोलाहल कर रहा है। पुरुष-स्त्री, लड़के-लड़कियां इत्यादि अब उसी के अंग-प्रत्यंग हैं, मानो वह किसी दूसरे लोक का प्राणी हो। डिपो के चारों ओर टूटे-फूटे टिन के बेड़े हैं, बीच में बिना बेड़े का टिन की छावनी का एक घर और बाकी खुली जगह। खुली-जगह कीचड़ और गंदगी से अटी-पटी। सैकड़ो लोगों की चहलकदमी से कीचड़ लोगों के बदन से चिपक गया है। पैर से लेकर कमर तक कीचड़ ही कीचड़। उन लोगों को वहीं पर रहना है, खाना और सोना है। अब तक टिन की छावनी तले उनका खाना पकने लगा है। दफादार लोग चावल और नमक का प्रबंध करते और महिलाएं अपने-अपने परिवार का खाना पकातीं।
शाम को अंधेरा होने से पहले तुलसी का खाना खत्म हुआ। कई लोग अंधेरा होने के बाद भी खाते रहे। कीचड़ पर और शिशुओं की रुलाई के बीच एक हजार लोगों का खाना एक ही समय पर पूरा होना असंभव है। कई सरदार-दफादार इस छोर से उस छोर तक अलग-अलग निगरानी करते रहे, गाली-गलौज करते रहे और बेंत से मारते-पीटते भी रहे। अत: चावल ठीक से न सीझने पर भी लोग देरी नहीं कर सकते थे। पांच सरदार, दस मिट्टी के तेल के लैंप और एक हजार लोग-यही है उनका कुली डिपो। तुलसी इत्यादि चार नंबरी अर्थात चार नंबर सरदार के कुली हैं।
तुलसी को लोभ हुआ कि नदी ठीक से देखें। सुबह दूर से ही उसने नदी देखी थी, स्टेशन से थोड़ी दूरी पर। जहाँ नजर जाती, पानी ही पानी। मानो नदी उफन कर क्रमश: पृथ्वी के ऊपर आ रही है। लेकिन तुलसी के जाने का कोई उपाय नहीं। बेड़ के बाहर दिखाई पड़ने पर सरदार डंड़े से मार-मारकर उसकी पीठ की खाल उधेड़ डालेगा। पैरों के दबाव से सख्त हो गए कीचड़ पर बैठकर उसने चारों ओर देखा। अंधेरे में कुछ भी साफ दिखाई नहीं दे रहा। हां, वह अपने बाप को देख रहा है। वहां से थोड़ी दूर पर घुटने पर सिर रखकर बहुत देर से उसका बाप वैसे का वैसा बैठा है। उसकी पीठ के ऊपर-नीचे होने से यह समझा जा सकता है कि वह जोर से सांस-उसांस ले रहा है। संभव है, परिश्रम से थक जाने के कारण अथवा किसी क्रोध या क्षोभ से। उसकी मां की गोद में कोई बच्चा नहीं है। आश्चर्य है कि तुलसी के बाद उसे कोई बच्चा नहीं। अंधेरे में भी वह अपनी मां के काले-काले दागों से गोदना गोदाए चेहरे को देख सकता है। अपनी दोनों दीदियों को साफ-साफ न देख पाने पर भी वह जानता है कि वे दोनों मां के पास ही लोगों के बीच मिली हुई हैं। बड़ी दीदी के कपड़े का लाल आंचल वह देख भी पा रहा है।
तुलसी को याद है उसकी बड़ी दीदी की साड़ी का पाड़ लाल है और छोटी का काला। दोनों के पास केवल एक-एक साड़ी ही है, जैसे कि उसके पास केवल एक ही हाफ-पैंट है। दोनों दीदियों की एक-एक कुर्ती, मां की एक कुर्ती, उसके और उसके बाप के पास एक-एक गंजी। बस इतना ही। मां और दीदियों की साड़ियां कम अरज की हैं, घुटने से काफी ऊपर ही रहती हैं। वे बैठती हैं सावधानी से, खासकर दोनों दीदियां। फिर भी सौ-सौ लोग यदि एक के ऊपर एक रह रहे हैं, तो आदमी के लाज-संकोच की बात निरर्थक और घृणा खत्म हो जाती है।
वहां इकट्ठे लोगों को तुलसी नहीं पहचानता। उसके नजदीक ही असंख्य लोग हैं, सब एक ही तरह के हैं, एक जैसा कपड़ा है, एक जैसी आंखें, मुंह, गंदे कीचड़ में सने एक जैसे पांव, लंबे और काले नाखूनवाली एक जैसी अंगुलियां। उनमें से प्रत्येक को अलग-अलग पहचानने की कोई जरूरत भी नहीं है। वे सब एक ही बगीचे के कुली हैं। एक नंबरी, दो नंबरी, तीन नंबरी, चार नंबरी, पांच नंबरी। वह चार नंबर सरदार को पहचानता है। छोटा, ठिगना, काला, पेटू, सिर पर लाल पगड़ी बांधे एक आदमी। भयंकर क्रोध। बाकी सरदारों को भी उसने देखा है। देखा जाए तो सरदार लोग भी एक ही जैसे हैं। सभी दफादार हैं, सभी एक जैसे हैं। हां, वे कुलियों जैसे नहीं हैं। सरदार उनके साथ नहीं रहते, उनके साथ नहीं खाते।
रेलगाड़ी के चार डिब्बों में अनगिनत लोग हैं। लड़के-लड़की, छोटे बच्चे–सब कोई छह-सात सौ लोग होंगे। रेल के केवल चार डिब्बों में इतने लोग कैसे समा गए और गोलंदो स्टेशन पहुंच गए, वह समझ ही नहीं पा रहा था। स्टेशन पर उतरकर उसे ऐसा महसूस हुआ कि चार दिनों के बाद आज पहली बार वह सांस ले पाया है। वह जिस डिब्बे में आया उसमें दो सौ लोग थे। कंधे से जांघ तक लाल फीता लटकाए दफादार1 ने जोर से चिल्लाते और गाली-गलौज करते, हाथ के डंडे से दो-एक प्रहार करते भिन्न-भिन्न स्टेशनों पर सैकड़ों लोगों को ठेलकर डिब्बे के अंदर ठूंस दिया था। अंदर लोग जहां जगह पाते बैठते, लुढ़कते, खाने के लिए ललचते, खड़े होते, बेड़ से टिकते, गोद-कंधे-पीठ पर शिशु और छोटे-छोटे लड़के-लड़कियों को लिए पछताते हुए आ रहे थे। एक दिन बाद ही डिब्बे के अंदर एक भयंकर बदबू आने लगी थी, जो धीरे-धीरे तेज और असह्य होती चली गई। इतने लोगों के लिए केवल एक शौचालय बेमानी है, लेकिन उस एकमात्र शौचालय में भी लोग घुसे हुए थे। उनके कपड़े-लत्ते बड़े गंदे थे। कपड़ों में चिपकी गंदगी कपड़ों से भी ज्यादा मोटी थी। दो स्टेशन बाद ही तुलसी ने उल्टी कर दी थी। उल्टी लोगों की देह पर ही पड़ी थी क्योंकि तिल धरने की जगह न थी कि खिड़की से सिर बाहर कर पाता। लोगों ने उसे गालियां दी थीं। उसके बाप बान्हा ने उसे दो तमाचे भी जड़ दिए थे।
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1.कुलियों का सरदार
क्या पता, तमाचा खाने के कारण ही उसकी उल्टी बंद हो गई थी ! एक दिन बाद तो उसका अभ्यास हो गया था। पाखाना-पेशाब से सराबोर पोशाक की बदबू – उसने सबको पचा लिया। यहां तक कि उसने उसी सड़ी बदबू में ही सत्तू भी खाया और पानी भी पिया।
सुबह लगभग सात सौ लोग गोलंदा स्टेशन पर उतरे। मर्द, औरत, बुजुर्ग, बूढ़े, लड़के-लड़कियां, नंग-धडंग बच्चे-सभी उतरे। गोलंदो स्टेशन। गोलंदो में ही उनका शिविर है-कुली डिपो। उस कुली डिपो में उन्हें कितने दिन रहना पड़ेगा, उसके बारे में उनमें से किसी को भी कुछ पता नहीं। संभव है केवल तीन दिन, नहीं तो एक या दो सप्ताह अथवा एक या दो महीने। रेल और आगे नहीं जाती। उन्हें अगली यात्रा या तो नाव से करनी है या जहाज से।
इस पार गोलंदो और सुदूर उस पार चांदपुर और बीच में पद्मा और मेधना ! जून महीने की पद्मा-मेधना ! नदी नहीं, महासमुद्र ! विशाल और सीमाहीन ! पद्मा-मेधना के तट पर असंख्य पाल नौकाएं बंधी रहतीं और गोलंदो स्टेशन की भीगी-ठंडी मिट्टी पर जहां-तहां सैकड़ों लोग बिखरे पड़े रहते। सुबह जिस तरह नदियों की लहरें थम जाती हैं, उसी तरह लोगों की सांस-उसांस भी थम सी गई है। यदि कहीं एक टुकड़ा समतल जमीन मिल जाए तो वे शायद वहीं अनंत काल तक पड़े रहें।
सूरज के डूबने से पहले ही वे लोग स्टेशन के नज़दीक ही डिपो में गए। वे लोग चाय-बगीचे के कुली हैं, उन्हीं के लिए है कुली डिपो। जहाज या नाव की व्यवस्था होने तक वे उसी डिपो में रहेंगे। उसके बाद एक नई यात्रा जल मार्ग से।
डिपो के अंदर घुसते ही तुलसी के नथुने सिकुड़ गए। केवल एक क्षण के लिए, क्योंकि डिपो के अंदर संपूर्ण मनुष्य एक भी नहीं है। मानो असंख्य हाथ, असंख्य पांव, असंख्य पेटवाला एक ही आदमी कोलाहल कर रहा है। पुरुष-स्त्री, लड़के-लड़कियां इत्यादि अब उसी के अंग-प्रत्यंग हैं, मानो वह किसी दूसरे लोक का प्राणी हो। डिपो के चारों ओर टूटे-फूटे टिन के बेड़े हैं, बीच में बिना बेड़े का टिन की छावनी का एक घर और बाकी खुली जगह। खुली-जगह कीचड़ और गंदगी से अटी-पटी। सैकड़ो लोगों की चहलकदमी से कीचड़ लोगों के बदन से चिपक गया है। पैर से लेकर कमर तक कीचड़ ही कीचड़। उन लोगों को वहीं पर रहना है, खाना और सोना है। अब तक टिन की छावनी तले उनका खाना पकने लगा है। दफादार लोग चावल और नमक का प्रबंध करते और महिलाएं अपने-अपने परिवार का खाना पकातीं।
शाम को अंधेरा होने से पहले तुलसी का खाना खत्म हुआ। कई लोग अंधेरा होने के बाद भी खाते रहे। कीचड़ पर और शिशुओं की रुलाई के बीच एक हजार लोगों का खाना एक ही समय पर पूरा होना असंभव है। कई सरदार-दफादार इस छोर से उस छोर तक अलग-अलग निगरानी करते रहे, गाली-गलौज करते रहे और बेंत से मारते-पीटते भी रहे। अत: चावल ठीक से न सीझने पर भी लोग देरी नहीं कर सकते थे। पांच सरदार, दस मिट्टी के तेल के लैंप और एक हजार लोग-यही है उनका कुली डिपो। तुलसी इत्यादि चार नंबरी अर्थात चार नंबर सरदार के कुली हैं।
तुलसी को लोभ हुआ कि नदी ठीक से देखें। सुबह दूर से ही उसने नदी देखी थी, स्टेशन से थोड़ी दूरी पर। जहाँ नजर जाती, पानी ही पानी। मानो नदी उफन कर क्रमश: पृथ्वी के ऊपर आ रही है। लेकिन तुलसी के जाने का कोई उपाय नहीं। बेड़ के बाहर दिखाई पड़ने पर सरदार डंड़े से मार-मारकर उसकी पीठ की खाल उधेड़ डालेगा। पैरों के दबाव से सख्त हो गए कीचड़ पर बैठकर उसने चारों ओर देखा। अंधेरे में कुछ भी साफ दिखाई नहीं दे रहा। हां, वह अपने बाप को देख रहा है। वहां से थोड़ी दूर पर घुटने पर सिर रखकर बहुत देर से उसका बाप वैसे का वैसा बैठा है। उसकी पीठ के ऊपर-नीचे होने से यह समझा जा सकता है कि वह जोर से सांस-उसांस ले रहा है। संभव है, परिश्रम से थक जाने के कारण अथवा किसी क्रोध या क्षोभ से। उसकी मां की गोद में कोई बच्चा नहीं है। आश्चर्य है कि तुलसी के बाद उसे कोई बच्चा नहीं। अंधेरे में भी वह अपनी मां के काले-काले दागों से गोदना गोदाए चेहरे को देख सकता है। अपनी दोनों दीदियों को साफ-साफ न देख पाने पर भी वह जानता है कि वे दोनों मां के पास ही लोगों के बीच मिली हुई हैं। बड़ी दीदी के कपड़े का लाल आंचल वह देख भी पा रहा है।
तुलसी को याद है उसकी बड़ी दीदी की साड़ी का पाड़ लाल है और छोटी का काला। दोनों के पास केवल एक-एक साड़ी ही है, जैसे कि उसके पास केवल एक ही हाफ-पैंट है। दोनों दीदियों की एक-एक कुर्ती, मां की एक कुर्ती, उसके और उसके बाप के पास एक-एक गंजी। बस इतना ही। मां और दीदियों की साड़ियां कम अरज की हैं, घुटने से काफी ऊपर ही रहती हैं। वे बैठती हैं सावधानी से, खासकर दोनों दीदियां। फिर भी सौ-सौ लोग यदि एक के ऊपर एक रह रहे हैं, तो आदमी के लाज-संकोच की बात निरर्थक और घृणा खत्म हो जाती है।
वहां इकट्ठे लोगों को तुलसी नहीं पहचानता। उसके नजदीक ही असंख्य लोग हैं, सब एक ही तरह के हैं, एक जैसा कपड़ा है, एक जैसी आंखें, मुंह, गंदे कीचड़ में सने एक जैसे पांव, लंबे और काले नाखूनवाली एक जैसी अंगुलियां। उनमें से प्रत्येक को अलग-अलग पहचानने की कोई जरूरत भी नहीं है। वे सब एक ही बगीचे के कुली हैं। एक नंबरी, दो नंबरी, तीन नंबरी, चार नंबरी, पांच नंबरी। वह चार नंबर सरदार को पहचानता है। छोटा, ठिगना, काला, पेटू, सिर पर लाल पगड़ी बांधे एक आदमी। भयंकर क्रोध। बाकी सरदारों को भी उसने देखा है। देखा जाए तो सरदार लोग भी एक ही जैसे हैं। सभी दफादार हैं, सभी एक जैसे हैं। हां, वे कुलियों जैसे नहीं हैं। सरदार उनके साथ नहीं रहते, उनके साथ नहीं खाते।
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