उपन्यास >> न आने वाला कल न आने वाला कलमोहन राकेश
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तेजी से बदलते जीवन तथा व्यक्ति तथा उनकी प्रतिक्रियाओं पर आधारित उपन्यास...
न आनेवाला कल
त्यागपत्र देने का निश्चय मैंने अचानक ही किया था। उसी तरह जैसे एक दिन अचानक शादी करने का निश्चय कर लिया था। मगर स्कूल में किसी को इस पर विश्वास नहीं था।
मुझे कई दिनों से अपने अन्दर बहुत गर्मी महसूस हो रही थी। छः हज़ार नौ सौ फुट की ऊँचाई, शुरू नवम्बर के दिन, फिर भी नसों में एक आग-सी तपती रहती थी। सूखे होंठों की पपड़ियाँ रोज़ छील-छील कर उतारता था, पर सुबह सोकर उठने तक वैसी ही पपड़ियाँ फिर जम जाती थीं। कई बार सोचा था कि जाकर कर्नल बत्रा को दिखा लूँ, लेकिन इस ख्याल से टाल दिया था कि वह फिर से बात को हँसी में न उड़ा दे। उस बार सात महीने पहले, जब रात को सोते में मुझे अपनी साँस घुटती महसूस होने लगी थी, तो वह दिल और फेफड़ों की पूरी जाँच करने के बाद मुस्करा दिया था। बोला था, ‘‘तुम्हें बीमारी असल में कुछ नहीं है। अगर है तो सिर्फ इतनी ही कि तुम अपने को बीमार माने रहना चाहते हो। इसका इलाज भी सिर्फ एक ही है। खूब घूमा करो, डटकर खाया करो और सोने से पहले चुटकलों की कोई किताब पढ़ा करो।’’
मुझे इस पर बहुत गुस्सा आया था। उस गुस्से में ही मैंने रात को देर-देर तक जागकर अपने को ठीक कर लिया था। स्कूल से त्यागपत्र देने की बात मैंने उस बार भी सोची थी। पर तब मैं अपने से निश्चित कर सकने की स्थिति में नहीं था। जब तक शोभा घर में थी, मैं अपने निर्णय से सब कुछ करने की बात करता हुआ भी वास्तव में हर निर्णय उस पर छोड़े रहता था। यह एक तरह का खेल था जो मैं अपने साथ खेलता था, अपना स्वाभिमान बनाए रखने के लिए। वह क्या चाहेगी, पहले से ही सोचकर उसे अपनी इच्छा के रूप में चला देने की कोशिश करता था। शोभा इस खेल को समझती न हो, ऐसा नहीं था। वह बल्कि यह कहकर इसका मजा भी लेती थी, ‘‘मुझे पता था तुम यही चाहोगे। छः महीने साथ रहकर इतना तो मैं तुम्हें जान ही गई हूँ।’’ यूँ हो सकता है वह सचमुच ऐसा ही सोचती हो। मैं उसे उत्तर न देकर बात बदल देता था। मन में बहुत कुढ़न पैदा होती थी, तो उसे अपने स्वाभिमान की कीमत समझकर सह जाता था।
मुझे कई दिनों से अपने अन्दर बहुत गर्मी महसूस हो रही थी। छः हज़ार नौ सौ फुट की ऊँचाई, शुरू नवम्बर के दिन, फिर भी नसों में एक आग-सी तपती रहती थी। सूखे होंठों की पपड़ियाँ रोज़ छील-छील कर उतारता था, पर सुबह सोकर उठने तक वैसी ही पपड़ियाँ फिर जम जाती थीं। कई बार सोचा था कि जाकर कर्नल बत्रा को दिखा लूँ, लेकिन इस ख्याल से टाल दिया था कि वह फिर से बात को हँसी में न उड़ा दे। उस बार सात महीने पहले, जब रात को सोते में मुझे अपनी साँस घुटती महसूस होने लगी थी, तो वह दिल और फेफड़ों की पूरी जाँच करने के बाद मुस्करा दिया था। बोला था, ‘‘तुम्हें बीमारी असल में कुछ नहीं है। अगर है तो सिर्फ इतनी ही कि तुम अपने को बीमार माने रहना चाहते हो। इसका इलाज भी सिर्फ एक ही है। खूब घूमा करो, डटकर खाया करो और सोने से पहले चुटकलों की कोई किताब पढ़ा करो।’’
मुझे इस पर बहुत गुस्सा आया था। उस गुस्से में ही मैंने रात को देर-देर तक जागकर अपने को ठीक कर लिया था। स्कूल से त्यागपत्र देने की बात मैंने उस बार भी सोची थी। पर तब मैं अपने से निश्चित कर सकने की स्थिति में नहीं था। जब तक शोभा घर में थी, मैं अपने निर्णय से सब कुछ करने की बात करता हुआ भी वास्तव में हर निर्णय उस पर छोड़े रहता था। यह एक तरह का खेल था जो मैं अपने साथ खेलता था, अपना स्वाभिमान बनाए रखने के लिए। वह क्या चाहेगी, पहले से ही सोचकर उसे अपनी इच्छा के रूप में चला देने की कोशिश करता था। शोभा इस खेल को समझती न हो, ऐसा नहीं था। वह बल्कि यह कहकर इसका मजा भी लेती थी, ‘‘मुझे पता था तुम यही चाहोगे। छः महीने साथ रहकर इतना तो मैं तुम्हें जान ही गई हूँ।’’ यूँ हो सकता है वह सचमुच ऐसा ही सोचती हो। मैं उसे उत्तर न देकर बात बदल देता था। मन में बहुत कुढ़न पैदा होती थी, तो उसे अपने स्वाभिमान की कीमत समझकर सह जाता था।
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