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रंगभूमि

प्रेमचंद

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :560
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4414
आईएसबीएन :81-237-4554-0

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रंगभूमि पुस्तक का कागजी संस्करण...

Rangbhoomi

कागजी संस्करण

कथा सम्राट प्रेमचंद (1880-1936) का पूरा साहित्य, भारत के आम जनमानस की गाथा है। विषय, मानवीय भावना और समय के अनंत विस्तार तक जाती इनकी रचनाएँ इतिहास की सीमाओं को तोड़ती हैं, और कालजयी कृतियों में गिनी जाती हैं। रंगभूमि (1924-1925) उपन्यास ऐसी ही कृति है। नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मध्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है। परतंत्र भारत की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक समस्याओं के बीच राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण यह उपन्यास लेखक के राष्ट्रीय दृष्टिकोण को बहुत ऊँचा उठाता है।

देश की नवीन आवश्यकताओं, आशाओं की पूर्ति के लिए संकीर्णता और वासनाओं से ऊपर उठकर निःस्वार्थ भाव से देश सेवा की आवश्यकता उन दिनों सिद्दत से महसूस की जा रही थी। रंगभूमि की पूरी कथा इन्हीं भावनाओं और विचारों में विचरती है। कथानायक सूरदास का पूरा जीवनक्रम, यहाँ तक कि उसकी मृत्यु भी, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की छवि लगती है। सूरदास की मृत्यु भी समाज को एक नई संगठन-शक्ति दे गई। विविध स्वभाव, वर्ग, जाति, पेशा एवं आय वित्त के लोग अपने-अपने जीवन की क्रीड़ा इस रंगभूमि में किये जा रहे हैं। और लेखक की सहानुभूति सूरदास के पक्ष में बनती जा रही है। पूरी कथा गाँधी दर्शन, निष्काम कर्म और सत्य के अवलंबन को रेखांकित करती है। यह संग्रहणीय पुस्तक कई अर्थों में भारतीय साहित्य की धरोहर है।

रंगभूमि
1

शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएं और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने गरीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस-पास गरीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पांडेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहां न शहरी दीपकों की ज्योति पहुंचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल स्रोतों का प्रवाह। सड़क के किनारे छोटे-छोटे बनियों और हलवाइयों की दुकानें हैं, और उनके पीछे कई इक्केवाले, गाड़ीवान, ग्वाले और मजदूर रहते थे। दो-चार बिगड़े सफेदपोशों के भी हैं, जिन्हें उनकी हीनावस्था ने शहर से निर्वासित कर दिया है। इन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार रहता है, जिसे लोग सूरदास कहते हैं। भारतवर्ष में अंधे आदमियों के लिए न नाम की जरूरत होती है। न काम की। सूरदास उनका बना बनाया नाम है, और भीख मांगना बना बनाया काम है। उनके गुण और स्वभाव भी जगत्-प्रसिद्ध हैं-गाने-बजाने में विशेष रुचि, हृदय में विशेष अनुराग, अध्यात्म और भक्ति में विशेष प्रेम, उनके स्वाभाविक लक्षण हैं। बाह्य दृष्टि बंद और अंतर्दृष्टि खुली हुई।

सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था। उसे दैव ने कदाचित् भीख मांगने ही के लिए बनाया था। वह नित्यप्रति लाठी टेकता हुआ पक्की सड़क पर आ बैठता और राहगीरों की जान की खैर मनाता। ‘दाता! भगवान तुम्हारा कल्यान करें-’ यही उसकी टेक थी, और इसी को वह बार-बार दुहराता था। कदाचित वह इसे लोगों की दया प्रेरणा का मंत्र समझता था। पैदल चलने वालों को वह अपनी जगह पर बैठे-बैठे दुआएं देता था। लेकिन जब कोई इक्का आ निकलता, तो वह उसके पीछे दौड़ने लगता, और बग्घियों के साथ तो उसके पैरों में पर लग जाते थे। किंतु हवा-गाड़ियों को वह अपनी शुभेच्छाओं से परे समझता था। अनुभव ने उसे शिक्षा हवा दी थी कि हवा-गाड़ियां किसी की बातें नहीं सुनतीं। प्रातःकाल से संध्या तक उसका समय शुभकानाओं ही में कटता था। यहां तक कि माघ-पूस की बदली और वायु तथा जेठ-वैशाख की लू-लपट में भी उसे नागा न होता था।

कार्तिक का महीना था। वायु में सुखद शीतलता आ गई थी। संध्या हो चुकी थी। सूरदास अपनी जगह पर मूर्तिवत बैठा हुआ किसी इक्के या बग्घी के आशाप्रद शब्द पर कान लगाए था। सड़क के दोनों ओर पेड़ लगे हुए थे। गाड़ीवानों ने उनके नीचे गाड़ियां ढील दीं। उनके पछाईं बैल टाट के टुकड़ों पर खली और भूसा खाने लगे। गाड़ीवानों ने भी उपले जला दिए। कोई चादर पर आटा गूंधता था, कोई गोल-गोल बाटियां बनाकर उपलों पर सेंकता था।

किसी को बरतनों की जरूरत न थी। सालन के लिए घुइएं का भुरता काफी था। और इस दरिद्रता पर भी उन्हें कुछ चिंता नहीं थी, बैठे बाटियां सेंकते और गाते थे। बैलों के गले में बंधी हुई घंटियां मजीरों का काम दे रही थीं। गनेस गाड़ीवान ने सूरदास से पूछा-क्यों भगत, ब्याह करोगे ?
सूरदास ने गर्दन हिलाकर कहा कहीं है डौल ?
गनेस-हां, है क्यों नहीं। एक गांव में एक सुरिया है, तुम्हारी ही जात बिरादरी की है, कहो तो बातचीत पक्की करूं ? तुम्हारी बरात में दो दिन मजे से बाटियां लगें।
सूरदास-कोई जगह बताते, जहां धन मिले, और इस भिखमंगी से पीछा छूटे। अभी अपने ही पेट की चिंता है, तब एक अंधी की और चिंता हो जाएगी। ऐसी बेड़ी पैर में नहीं डालता बेड़ी ही है, तो सोने की तो हो।

गनेस-लाख रुपए की मेहरिया न पा जाओगे। रात को तुम्हारे पैर दबाएगी, सिर में तेल डालेगी, तो एक बार फिर जवान हो जाओगे। ये हड्डियां न दिखाई देंगी। सूरदास-तो रोटियों का सहारा भी जाता रहेगा। ये हड्डियां देखकर ही तो लोगों को दया आ जाती है। मोटे आदमियों को भीख कौन देता है ? उल्टे और ताने मिलते हैं।
गनेस-अजी नहीं, वह तुम्हारी सेवा भी करेगी और तुम्हें भोजन भी देगी। बेचन साह के यहां तेलहन झाड़ेगी तो चार आने रोज पाएगी।
सूरदास-तब तो और भी दुर्गति होगी। घरवाली की कमाई खाकर किसी को मुंह दिखाने लायक भी न रहूंगा।
सहसा एक फिटन आती हुई सुनाई दी। सूरदास लाठी टेककर उठ खड़ा हुआ। यही उसकी कमाई का समय था। इसी समय शहर के रईस और महाजन हवा खाने आते थे। फिटन ज्यों ही सामने आई, सूरदास उसके पीछे ‘दाता ! भगवान तुम्हारा कल्यान करें’ कहता हुआ दौड़ा।

फिटन में सामने की गद्दी पर मि. जॉन सेवक और उनकी पत्नी मिसेज जॉन सेवक बैठी हुई थीं। दूसरी गद्दी पर उनका जवान लड़का प्रभु सेवक और छोटी बहन सोफ़िया सेवक थी। जॉन सेवक दुहरे बदन के गोरे-चिट्टे आदमी थे। बुढ़ापे में भी चेहरा लाल था। सिर और दाढ़ी के बाल खिचड़ी हो गए थे, पहनावा अंगरेजी था, जो उन पर खूब खिलता था। मुख आकृति से गरूर और आत्मविश्वास झलकता था। मिसेज सेवक को काल गति ने अधिक सताया था। चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई थीं, और उसके हृदय की संकीर्णता टपकती थी, जिसे सुनहरा ऐनक भी न छिपा सकता था। प्रभु सेवक की मसें भीग रही थीं, छरहरा डील इकहरा बदन, निस्तेज मुख, आंखों पर ऐनक चेहरे पर गंभीरता और विचार का गाढ़ा रंग नजर आता था। आंखों से करुणा की ज्योति सी निकली पड़ती थी। वह प्रकृति सौंदर्य का आनंद उठाता हुआ जान पड़ता था। मिस सोफ़िया बड़ी-बड़ी रसीली आंखोंवाली, लज्जाशील युवती थी। देहअति कोमल, माने पंचभूतों की जगह पुष्पों से उसकी सृष्टि हुई हो। रूप अति सौम्य, मानो लज्जा और विनय मूर्तिमान हो गए हों। सिर से पांव तक चेतना ही चेतना थी। जड़ का कहीं आभास तक न था।

सूरदास फिटन के पीछे दौड़ता चला आता था। इतनी दूर तक और इतने वेग से कोई मंजा हुआ खिलाड़ी भी न दौड़ सकता था। मिसेज सेवक ने नाक सिकोड़कर कहा-इस दुष्ट की चीख ने तो कान के परदे फाड़ डाले। क्या यह दौड़ता ही चला जाएगा ?

मि. जॉन सेवक बोले इस देश के सिर से यह बला न जाने कब टलेगी ? जिस देश में भीख मांगना लज्जा की बात न हो, यहां तक कि सर्वश्रेष्ठ जातियां भी जिसे अपनी जीवन-वृत्ति बना लें, जहाँ महत्माओं का एकमात्र यही आधार हो, उसके उद्धार में अभी शताब्दियों की देर है।

प्रभु सेवक-यहां यह प्रथा प्राचीन काल से चली आती है। वैदिक काल में राजाओं के लड़के भी गुरुकुलों में विद्या लाभ करते समय भीख मांग कर अपना और अपने गुरु का पालन करते थे। ज्ञानियों और ऋषियों के लिए यह कोई अपमान की बात न थी, किंतु वे लोग माया-मोह से मुक्त रहकर ज्ञान प्राप्ति के लिए दया का आश्रय लेते थे। उस प्रथा का अब अनुचित व्यवहार किया जा रहा है। मैंने यहां तक सुना है कि कितने ही ब्राह्मण, जो जमींदार हैं, घर से खाली हाथ मुकदमे लड़ने चलते हैं, दिन-भर कन्या के विवाह के बहाने या किसी संबंधी की मृत्यु का हीला करके भीख मांगते हैं, शाम को नाज बेचकर पैसे खड़े कर लेते हैं, पैसे जल्द रुपए बन जाते हैं, और अंत में कचहरी के कर्मचारियों और वकीलों की जेब में चले जाते हैं।
मिसेज सेवक-साईस, इस अंधे से कह दो, भाग जाए, पैसे नहीं हैं।
सोफ़िया-नहीं मामा पैसे हों तो दे दीजिए। बेचारा आधे मील सै दौड़ा आ रहा है, निराश हो जाएगा। उसकी आत्मा को कितना दुःख होगा।

मां-तो उससे किसने दौड़ने को कहा था ? उसके पैरों में दर्द होता होगा।
सोफ़िया नहीं, अच्छी मामा, कुछ दे दीजिए, बेचारा कितना हांफ रहा है। प्रभु सेवक ने जेब से केस निकाला; किंतु तांबे या निकिल का कोई टुकड़ा न निकला और चांदी का कोई सिक्का देने में मां के नाराज होने का भय था। बहन से बोले, सोफी, खेद हैं, पैसे नहीं निकले। साईस, अंधे से कह दो, धीरे-धीरे गोदाम तक चला आए; वहां शायद पैसे मिल जाएं।

किंतु सूरदास को इतना संतोष कहां ? जानता था, गोदाम पर कोई भी मेरे लिए खड़ा न रहेगा ? कहीं गाड़ी आगे बढ़ गई, तो इतनी मेहनत बेकार हो जाएगी। गाड़ी का पीछा न छोड़ा, पूरे एक मील तक दौड़ता चला गया। यहां तक कि गोदाम आ गया और फिटन रुकी। सब लोग उतर पड़े। सूरदास भी एक किनारे खड़ा हो गया, जैसे वृक्षों के बीच में खड़ा हो। हांफते-हांफते बेदम हो रहा था।
मि. जॉन सेवक ने यहां चमड़े की आढ़त रखी थी। ताहिर अली नाम का एक व्यक्ति उसका गुमाश्ता था बरामदे में बैठा हुआ था। साहब को देखते ही उसने उठकर सलाम किया।

जॉन सेवक ने पूछा-कहिए खां साहब, चमड़े की आमदनी कैसी है ?
ताहिर-हुजूर, अभी जैसी होनी चाहिए, वैसी तो नहीं है; मगर उम्मीद है कि आगे अच्छी होगी।
जॉन सेवक- कुछ दौड़ धूप कीजिए, एक जगह बैठे रहने से काम न चलेगा। आसपास के देहातों में चक्कर कीजिए। मेरा इरादा है कि म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन साहब से मिलकर यहां एक शराब और ताड़ी की दुकान खुलवा दूं।
तब आस-पास के चमार यहां रोज आएंगे, और आपको उनसे मेल-जोल करने का मौका मिलेगा। आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता। मुझी को देखिए, ऐसा शायद ही कोई दिन जाता होगा, जिस दिन शहर के दो-चार धनी-मानी पुरुषों से मेरी मुलाकात न होती हो। दस हजार की भी एक पालिसी मिल गई, तो कई दिनों की दौड़-धूप ठिकाने लग जाती है।

ताहिर हुजूर, मुझे खुद फिक्र है। क्या जानता नहीं हूं कि मालिक को चार पैसे का नफा न होगा, तो वह यह काम करेगा ही क्यों ? मगर हुजूर ने मेरी जो तनख्वाह मुकर्रर की है, उसमें गुजारा नहीं होता। बीस रुपए का तो गल्ला भी काफी नहीं होता, सब जरूरतें अलग। अभी आपसे कुछ कहने की हिम्मत तो नहीं पड़ती; मगर आपसे न कहूं, तो किससे कहूं ?
जॉन सेवक-कुछ दिन काम कीजिए, तरक्की होगी न ! कहां है आपका हिसाब-किताब ? लाइए, देखूं।

यह कहते हुए जॉन सेवक बरामदे में एक टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गए। मिसेज सेवक कुर्सी पर बैठीं। ताहिर अली ने हिसाब बही सामने लाकर रख दी। साहब उसकी जांच करने लगे। दो-चार पन्ने उलट पलटकर देखने के बाद नाक सिकोड़कर बोले-अभी आपको हिसाब-किताब लिखने का सलीका नहीं है, उस पर आप कहते हैं, तरक्की कर दीजिए। हिसाब आइना जैसा होना चाहिए; यहां तो कुछ पता नहीं चलता कि आपने कितना माल खरीदा, और कितना माल रवाना किया।
खरीदार को प्रति खाता एक आना दस्तूरी मिलती है, वह कहीं दर्द ही नहीं है; ताहिर क्या उसे भी दर्ज कर दूं ?
जॉन सेवक-क्यों, वह मेरी आमदनी नहीं है ?
ताहिर मैंने तो समझा कि वह मेरा हक है।

जॉन सेवक हरगिज नहीं, मैं आप पर गबन का मामला चला सकता हूं।
(त्योरियां बदलकर) मुलाजिमों का हक है ! खूब ! आपका हक तनख्वाह, इसके सिवा आपको कोई हक नहीं है।
ताहिर हुजूर, अब आइंदा ऐसी गलती न होगी।
जॉन सेवक-अब तक आपने इस मदमें जो रकम वसूल की है, वह आमदनी में दिखाइए। हिसाब किताब के मामले में मैं जरा भीरिआयत नहीं करता।

ताहिर-हुजूर, बहुत छोटी रकम होगी।
जॉन सेवक-कुछ मुजायका नहीं, एक ही पाई सहीं; वह सब आपको भरनी पड़ेगी। अभी वह रकम छोटी है, कुछ दिनों में उसकी दाता सैकड़ों तक पहुंच जाएगी। उस रकम से मैं यहां एक संडे स्कूल खोलना चाहता हूं। समझ गए ? मेम साहब की यह बड़ी अभिलाषा है। अच्छा चलिए, वह जमीन कहां है जिसका आपने जिक्र किया था ?

गोदाम के पीछे की ओर एक विस्तृत मैदान था। यहां आस-पास के जानवर चरने आया करते थे। जॉन सेवक यह जमीन लेकर यहां सिगरेट बनाने का एक कारखाना खोलना चाहते थे। प्रभु सेवक को इसी व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा था। जॉन सेवक के साथ प्रभु सेवक और उनकी माता भी जमीन देखने चलीं। पिता और पुत्र ने मिलकर जमीन का विस्तार नापा। कहां कारखाना होगा, कहां गोदाम, कहां दफ्तर कहां मैनेजर का बंगला, कहां श्रमजीवियों के कमरे, कहां कोयला रखने की जगह और कहां से पानी आएगा, इन विषयों पर दोनों आदमियों में देर तक बातें होती रहीं। अंत में मिस्टर सेवक ने ताहिर अली से पूछा-यह किसकी जमीन है ?
ताहिर-हुजूर, यह तो ठीक नहीं मालूम, अभी चलकर यहां किसी से पूछ लूंगा, शायद नायकराम पंडा की हो।
साहब-आप उससे यह जमीन कितने में दिला सकते हैं ?
ताहिर-मुझे तो इसमें भी शक है कि वह इसे बेचेगा भी।

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