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ग्यारह सपनों का देश

लक्ष्मी चन्द्र जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 441
आईएसबीएन :9788126309313

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धर्मवीर भारती, उदय शंकर भट्ट, रांगेय राघव, आदि बहुचर्चित दस लेखकों की साहित्यिक कृतित्व का उत्कृष्ट संकलन

Gyarah Sapnon ka Desh A Hindi Book By Laxmi Chandra Jain - ग्यारह सपनों का देश - लक्ष्मी चन्द्र जैन

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सपनों की सृष्टि

‘ग्यारह सपनों का देश’ हिन्दी साहित्य का पहला सहयोगी उपन्यास है जिसके संयोजन और सफल समापन को धर्मवीर भारती, उदय शंकर भट्ट, रांगेय राघव,अमृतलाल नागर, इलाचंद्र जोशी, राजेन्द्र यादव, मुद्राराक्षस, लक्ष्मी चन्द्र जैन, प्रभाकर माचवे, कृष्णा सोबती जैसे दस उत्कृष्ट लेखकों के साहित्यिक कृत्तित्व का योगदान प्राप्त हुआ है। इस सहयोगी रचना के माध्यम से दस लेखकों ने एक स्वप्न को कल्पना और शैली की अनेक रंगीनियाँ दी हैं। उपन्यास आदि से अन्त तक रोचक है क्योंकि प्रत्येक अध्याय का अपना निजी चमत्कार है।
इस कृति की एक विशेष महत्ता है। अपने-अपने अध्याय की कल्पना के तानेबाने बुनते समय प्रत्येक लेखक की क्या दृष्टि रही है और सृजन की समस्याओं का किसने क्या समाधान किस रूप में प्रस्तुत किया है-इस सारी प्रक्रिया का प्रत्यक्ष परिचय भी आपको लेखकों के उन वक्तव्यों में मिलेगा जो उपन्यास के साथ प्रकाशित किये जा रहे हैं।
प्रस्तुत है हिन्दी की यह बहु-चर्चित, बहु-प्रशंसित निराली रचना का अद्यतन संस्करण।

सम्पादकीय

‘ग्यारह सपनों का देश’ ऐसा उपन्यास है जो कथानक की दृष्टि से भी रोचक है, और प्रयोग की दृष्टि से भी। दस लेखकों ने ‘ज्ञानोदय’ में धारावाहिक रूप से ग्यारह अध्याय लिख कर हिन्दी के इस पहले सफल सहयोगी उपन्यास का सृजन किया, यह तथ्य तो महत्त्वपूर्ण है ही; विशेष महत्ता इस बात की है कि इनमें से अधिकांश लेखकों ने उपन्यास के अपने-अपने अध्याय की सृजन-प्रक्रिया और उपन्यास के सृजन की समस्याओं पर प्रकाश डाला है। उनके वक्तव्य इस उपन्यास के साथ जा रहे हैं।
सहयोगी उपन्यास के लिए अध्याय लिखना एक प्रकार की समस्याओं से जूझना है, उपन्यास के लिए लेखक-बन्धुओं से अध्याय लिखवाना दूसरे प्रकार की। मेरा वास्ता दोनों प्रकार की समस्याओं से पड़ा है, इसलिए मुझे इस सम्बन्ध में कुछ विशेष कहना है।

हिन्दी के लिए सहयोगी उपन्यास की कल्पना नयी नहीं थी, क्योंकि ‘प्रतीक’ में प्रकाशित ‘बारह खम्भा’ का प्रयोग सामने था। वह प्रयोग इस दृष्टि से असफल रहा कि उपन्यास पूरा नहीं हो पाया था। यह बात भी सामने थी, तो क्या ‘ज्ञानोदय’ प्रारम्भ में ही हताश हो जाए ? संयोग की बात, जिन दिनों इस योजना के अनेक पहलुओं पर विचार चल रहा था, हिन्दी के एक प्रसिद्ध और सफल लेखक कार्यालय में पधारे। बात तय हो गयी कि ‘ज्ञानोदय’ सहयोगी उपन्यास, ‘ग्यारह सपनों का देश’ की घोषणा कर दें; निश्चिन्त रहे; पहला अध्याय वह स्वयं लिखेंगे और ऐसी भूमिका देंगे कि अन्य सहयोगी लेखक लिखने के लिए विवश हो जाएँ। घोषणा कर दी गयी। प्रेस में मैटर देने का समय जब निकट आ पहुँचा तो चिट्ठी गयी, तार गया, तार गये, आया कुछ नहीं-न अध्याय, न उत्तर। जरूर उन बन्धु की कुछ ऐसी ही मजबूरी रही होगी। किन्तु, ‘ज्ञानोदय’ अपने पाठकों के आगे क्या कैफियत पेश करे ? इस तरह सहयोगी उपन्यास की पहली समस्या-लेखक के अनिश्चय की घाटियाँ-सम्पादक का सरदर्द बन गयी।

वह तो धर्मवीर भारती आड़े वक्त पर काम आ गये। जिस संकटपूर्ण स्थिति में, जितनी शीघ्रता और सफलता के साथ अपना अध्याय उन्होंने भेजा, वह अपने आप में एक मार्मिक संस्मरण है-नहीं तो हमें उपन्यास का आरम्भ स्थगित करना पड़ता या शायद संकल्प ही छोड़ देना पड़ता।

उपन्यास के नियोजन में इस तरह की और भी कठिनाइयाँ सामने आयीं। एक स्थिति में प्रभाकर माचवे ने सहारा दिया, दूसरी में कृष्णा सोबती ने और तीसरी स्थिति में जब और कुछ सम्भव न हुआ, तो अध्याय मुझे लिखना पड़ा था। मूल योजना में मेरा नाम नहीं था। प्रत्येक स्थिति ने, प्रत्येक लेखक ने उपन्यास को नया मोड़ दिया और बहुत कुछ अकल्पित सामने आया। भारती ने कब सोचा था कि मीनल गर्भवती होकर इस प्रकार के त्रास सहेगी और यह एक स्थित सारे उपन्यास को नये आयामों में, नये परिप्रेक्ष्य में, ला पटकेगी (भले-बुरे की बात मैं नहीं कहता) ! माचवे का अध्याय हाथ में आया तो हम लोगों में-‘ज्ञानोदय’ के सहयोगियों में-एक सनसनी-सी फैल गयी क्योंकि प्रारम्भ का ही वाक्य था-‘और मीनल गर्भवती हो गयी’। आगे पढ़ने की हिम्मत न हुई। यह कल्पना उसी श्रेणी की लगी जिसमें ‘बारह खम्भा’ के पात्रों को ट्रक में बैठाकर नदी में डुबा देने की बात सोची गयी थी। आज तटस्थ दृष्टि से सोचने पर लगता है कि यदि ‘बारह खम्भा’ के पात्र सचमुच उस तरह नेस्तनाबूद हो जाते तो इसे मात्र मनोरंजक शरारत मानकर बात को आयी-गयी कर दिया गया होता। पर, ‘ग्यारह सपनों का देश’ की मीनल कुछ इस तरह अवतरित हुई थी, उसका चरित्र कुछ इस तरह विकसित हुआ था और उसकी संवेदनाओं के चित्रण में प्रत्येक लेखक का कुछ अपना इतना आत्मीय आ गया था कि इस भावुक और हठीली युवती के आत्म सम्मान को इस स्तर के आत्मदाह की परिणति में लाना बहुसंखयक पाठकों को और उपन्यास के अनेक सहयोगियों को नहीं रुचा, इससे उन्हें धक्का लगा। हममें ऐसे भी थे जिन्हें यद्यपि माचवे के प्रारम्भिक वाक्य ने क्षुब्ध किया किन्तु बाद में सारा अध्याय पढ़ने पर वे उस प्रकार की कल्पना के प्रति विद्रोही न रह पाये।

वास्तव में स्वतन्त्र वैयक्तिक ढंग से लिखे गये और सहयोगी आधार पर लिखे गये उपन्यास में सबसे बड़ा अन्तर यही है कि जहाँ एकाकी लेखक समूची कथावस्तु और सारे पात्रों के क्रिया-कलापों में ऐसी संगतियों का सायास निर्वाह करता है जो कथा के उद्देश्य कथ्य के प्रभाव और रचना के धरातल के अनुकूल रहे, वहाँ सहयोगी उपन्यास के लेखक अपने से पहले की भूमिका के प्रति तो सचेष्ट रहते हैं, कथा के भविष्य के प्रति उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं रहती। चूँकि कथा का वर्तमान उनके हाथ में है और जो कुछ उन्हें कहना है, उसके लिए मात्र वही अवसर उनके पास है, इसलिए वे पात्र के नैसर्गिक और सहज विकास को प्रमुखता न देकर, समग्रता के प्रति उदासीन होकर, केवल अपने विचारों को अपने कव्य को और समस्याओं के तारतम्य के प्रति अपने दृष्टिकोण को उपस्थित कर देते हैं। सृजन की समस्याओं के सम्बन्ध में सहयोगियों के जो वक्तव्य यहाँ प्रकाशित हो रहे हैं, उनसे एक बात स्पष्ट है कि जहाँ एक लेखक दूसरे लेखक के अमुक अध्याय या अमुक स्थिति को गलत या असफल समझता है, वहाँ वह लेखक स्वयं अपने अध्याय को अनेक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, युक्तियुक्त और सफल समझता है। उनके इस आग्रह में सचाई नहीं है, ऐसा मानना उनकी ईमानदारी में सन्देह करना होगा। इसलिए निष्कर्ष यह निकलता है कि अपनी-अपनी दृष्टि से सभी ठीक हैं-आलोचक भी और लेखक भी, जब कि सहयोगियों में सभी कोई आलोचक भी हैं और लेखक भी।

सबसे पहले माचवे की बात लें। उपन्यास के नाजुक और ‘शौकिंग’ मर्मस्थल के सर्जक या ‘सर्जन’ वही हैं। वह लिखते हैं :
‘‘पहले ही वाक्य में मैंने पाठकों का स्वप्न भंग किया और कहा कि समस्या को सीधे मुँह पकड़ो।–वह यह कि एक स्त्री है, निराधार है, गर्भवती है। उसके दुःख की कारण-सरणिका अन्वेषण व्यर्थ है; मुख्य प्रश्न उसके दुःख को दूर करने का है। लोग चाहते थे, हलके-हलके रंगों में कुहरिल रोमाण्टिक वातावरण बना ही रहता तो क्या बिगड़ता....कोई ऐसा क्षण ही न आता जिसे अस्तित्ववादी परिभाषा में ‘एंगाजे’ कहते हैं। मैं वह क्षण लाना चाहता था, स्थानाभाव था; मैंने उसे पोस्टर शैली में, बहुत शौकिंग ढंग से प्रस्तुत किया।’’
राजेन्द्र यादव का दावा है कि सबसे सही और परिमाणतः ‘सबसे सफल सपना’ उन्हीं का था, यद्यपि उनके विचार से सबने मिल-मिलाकर उपन्यास को लक्ष्य-च्युत कर दिया। ‘‘मीनल को मैंने (राजेन्द्र यादव) मध्यवर्गीय, शिक्षित, अविवाहिता, कुण्ठाग्रस्त नारी के रूप में लिया।...कुण्ठिता नारी क्या है-इसे मैंने दिखाया ‘खुले पंख, टूटे डैने’ में।’’
रांगेय राघव का कहना है कि भारती की दी हुई मूल वृत्ति को, उन्होंने न केवल युग के साथ उभारा बल्कि सामाजिक पहलू में उसका विभिन्न व्यक्तित्वों में प्रकटीकरण करके ‘हिन्दी साहित्य को नयी चीज दी’-वह था रोहित !

मुद्राराक्षस की मान्यता है कि उपन्यास को ठीक राह पर ले आने का श्रेय उनका है क्योंकि राजेन्द्र यादव ने रोहित की मृत्यु की कल्पना करके और सद्यःवियुक्ता प्रेमिका मीनल को विपिन के साथ अभिसार का अवसर देकर उपन्यास को गलत सपनों के रथ पर चढ़ा दिया था। प्रेम-व्यापार के दो न्युक्लिअसों (मीनल-रोहित; मीनल-विपिन) को तोड़ना जरूरी हो गया; इसलिए रोहित को जिलाना पड़ा और इसे जिलाने के लिए डाकू चेतसिंह की घटना की कल्पना की गयी। यदि यह सब न किया जाता तो उपन्यास अपनी प्रयोग-परीक्षण की भूमि को छोड़कर मात्र कथा-पूर्ति की ओर अग्रसर हो जाता।
प्रश्न यह है कि यदि प्रत्येक अंश अपने आप में महत्त्वपूर्ण और सफल है (जैसाकि हर लेखक का दावा है और उस दावे में काफी दम है), और यदि प्रत्येक लेखक ने उपन्यास की अपने से पूर्व की भूमिका को झुठलाया नहीं है, निभाया है, तो फिर समूचा उपन्यास सफल क्यों न माना जाए ? शायद हुआ यह है कि प्रत्येक सहयोगी लेखक अपने-अपने दावे और दृष्टिकोण का विशेषज्ञ होने के कारण और दूसरे लेखक को अपनी विचार-सरणि और अपने दृष्टिकोण से भिन्न पाकर, अंशतः ही सही, असहिष्णु हो गया है; और सृजन की समस्याओं से सम्बन्धित इन व्यक्तियों को पढ़नेवाला पाठक चकित है कि इतना उग्र मतभेद क्यों ? फिर भी, यह बात ठीक है कि ‘ग्यारह सपनों का देश’ का प्रत्येक अध्याय अपने आप में रोचक या विचारोत्तेजक या विक्षोभक है और बहुसंख्यक पाठकों ने उपन्यास को और वक्तव्यों को रुचि से पढ़ा है। मैं अपनी बात कहता हूँ, समूचा उपन्यास पढ़ने पर अब मुझे नहीं लगता कि उपन्यास बेतुका है या असफल है या ‘बोरिंग’ है, या सभी दृष्टियों का समाहार नहीं हो रहा है। कहीं-कहीं ‘इम्बैंलेंस’ और असन्तुलन जरूर है। वह होना भी था, जबकि लेखकों के सामने कोई पूर्वनिश्चित कथानक नहीं था, दिशा नहीं थी। यही उपन्यास की विशेषता थी और यही लेखकों के अपने-अपने परीक्षणों और अभिव्यक्ति की खुली क्षमताओं के प्रयोगों का अवसर भी। दृष्टिकोण की इस प्राथमिकता के सन्दर्भ में उपन्यास अवश्य सफल हुआ है। पाठकों को पढ़ने में रस आया, यह आनुषंगिक फल ‘ज्ञानोदय’ की प्रमुख उपलब्धि रही।

लेखकों ने अपने-अपने वक्तव्य यथास्थान दिये हैं। अपने अध्याय के सम्बन्ध में मैं यहाँ ही लगे हाथ कुछ कह दूँ। कहने लायक कोई बहुत बड़ी बात या बड़ा दावा नहीं है। अपने अध्याय की कल्पना मुझे जिस दृष्टिकोण से करनी पड़ी उसका सम्बन्ध उपन्यास के ‘मिकैनिज्म’ (यान्त्रिक गठन) से है। उपन्यास के पाँचवे अध्याय-‘जीवन की खोज’ में इलाचन्द्र जोशी दो नये पात्र ले आये, श्यामली और उसका उच्छृंखल प्रेमी-एक शिकारी। जोशी जी ने उस व्यक्ति को नाम तक नहीं दिया। मुझे लगता है कि जोशी जी इन पात्रों को दो दृष्टियों से लाये-एक तो इसलिए कि भटके हुए हरीन्द्र को ‘जीवन की खोज’ में नियुक्त करना उन्हें वांछनीय लगा। जोशी जी की दृष्टि में और फ्रायड से प्रभावित युग के सभी मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में जीवन की खोज सेक्स की खोज है। हरीन्द्र रोमांस कहाँ खोजे ? मीनल कुन्तल आदि के घर से तो वह निकलकर भागा ही था। इसलिए श्यामली को जोशी जी ने खड़ा किया। रोमांस का व्यापार यदि कोई ‘कॉम्पलेक्स’ पैदा न करे, कोई गाँठ न कसे, किन्ही वर्जनाओं और कुण्ठाओं को न उभारे तो वह ‘आधुनिक’ और युक्तिसंगत नहीं बन पाता। इसलिए जोशी जी ने दिखाया कि श्यामली जितने ही सरल किन्तु उद्गम भाव से अपने प्रेमी के प्रति समर्पित होती चली जा रही है, भूखा हरीन्द्र उतना ही अन्दर से बुभुक्षु होता चला जाता है। एक दिन भोली किन्तु निडर श्यामली अपने रँगीले प्रेमी के साथ भाग जाती है। स्वामी जी-हरीन्द्र भी-अपना आसन वहाँ से उच्छेद कर देते हैं। पहाड़ों का वातावरण वहाँ के गीत, वहाँ का तारुण्य, वहाँ का जादू जोशी जी की प्रिय भूमिकाएँ हैं, इसलिए उन्होंने बड़े सुन्दर, सजीव और अनुभूत वातावरण में रोमाण्टिक चित्र अंकित किये। अब तमाशा यह कि आगे जिन दो लेखकों ने अपने अध्याय लिखे-राजेन्द्र यादव और मुद्राराक्षस ने-वे श्यामली और उसके प्रेमी को भूल गये; या शायद उनकी समझ ही में न आया कि उपन्यास के प्रधान पात्रों की व्यग्र और भावाकुल स्थिति में इन पार्श्व-पात्रों को कहाँ खपाएँ। मेरे सामने समस्या यह थी कि अपना आठवाँ अध्याय लिखते हुए भी यदि इनमें दो पात्रों को अब नहीं उठाता हूँ तो फिर आगे के बचे तीन अध्यायों में इन्हें कोई नहीं छुएगा और जो हाल मिसेज वर्मा और विपिन का हुआ, वह इनका भी होगा।

इन्हें उठाकर मूलपात्रों के साथ जोड़ना, एक और कठिन समस्या थी क्योंकि सात अध्यायों तक उपन्यास परीक्षण और प्रयोगों की भूमियाँ पार करता चला जा रहा था-कहीं ‘अनिश्चय की घाटियाँ’ थीं, कहीं न मिली मृत्यु और पक्षी की बेचैनी’ थी, कहीं ‘गुहा मानव चला गया’ था, कहीं ‘राहों का बिखराव’ था, कहीं ‘जीवन की खोज’-यात्रा थी, कहीं ‘खुले पंख, टूटे डैने थे और कहीं समूचा ही उपन्यास ‘गलत सपनों के रथ’ पर उड़ा चला जा रहा था। इतना आकुल-व्याकुल जीवन-व्यापार दिग्दिगन्त में फैला-पसरा चल रहा था कि ठहराव, चैन और विश्राम की कल्पना ही दुःस्वप्न लगने लगी थी। फिर भी मैंने साहस किया और ‘सिमटती मंजिलें’ सार्थक बनाने के लिए मीनल और श्यामली को एक जगह लाया। बड़ी मुश्किल थी। कहाँ पहाड़ की अपढ़, मुग्ध श्यामली, कहाँ यह शिक्षिता, आधुनिका, समस्याग्रस्त मीनल। और फिर, यह निहायत ही ऊत, ऊलजलूल छैला हरजस (यह नाम मुझे देना पड़ा, ऐसा भला-सा नाम मैंने कैसे दिया ?-इसका क्या करूँ ?) मीनल के साथ इसकी क्या तुक ? खैर, मैंने जो किया, जैसा किया, पाठकों के सामने है।

खण्ड-खण्ड अध्यायों के पाठक (और लेखक भी, एक-दूसरे की) समस्याओं को क्या पूरी तरह समझ पाते हैं ? मैंने ही यादव, रांगेय राघव, माचवे और मुद्राराक्षस को पूरी तरह तब समझा जब उनके वक्तव्य पढ़ लिये। मीनल, श्यामली, हरजस जब एक जगह आ गये-वह रेल-यात्रा में ही आसानी से एक जगह आ सकते थे-फिर जो कुछ घटा, वह परिस्थितियों को देखते हुए पात्रों के आन्तरिक गठन और उनके संस्कारों को देखते हुए, कथा के प्रवाह और मंजिल की ओर बढ़ते हुए कथानक की आवश्यकताओं को देखते हुए सहज भाव से घटा है, या वह सहज भाव से घटित होता जाये यह प्रयत्न किया है। घटनाएँ कुछ और भी रूप ले सकती थीं, किन्तु मैं नहीं चाहता था कि मीनल अधिक भटके और श्यामली बम्बई के आवारा हलके़ के लोगों के षड्यन्त्रों का शिकार बने। इन दोनों पात्रों में अपने चरित्र की एक विशेष दृढ़ता, एक विशेष निर्मलता थी, जिसे मैं पराजित नहीं देखना चाहता था। बम्बई की झाँकियाँ दिखाकर भी, उनसे इन पात्रों को असम्पृक्त रख सका, केवल इसलिए कि ये बड़े अच्छे पात्र मुझे मिले थे; किन्तु असम्पृक्ति अपने आप में कोई उपादेय तत्त्व नहीं है, यह सबक मुझे माचवे जी ने सिखाना चाहा। यदि कृष्ण सोबती और भारती अन्तिम अध्यायों को न सँभालते तो यह सबक कितना महँगा पड़ता, इसे मैं समझता हूँ। आशा करता हूँ, सहयोगी लेखक और पाठक भी समझेंगे।
उपन्यास का पहला अध्याय पेश करते हुए भारती ने भूमिका-रूप में लिखा था :

‘‘राष्ट्र के नवनिर्माण की समस्या आज ज्वलन्त समस्या है। लेखक के लिए नवनिर्माण का अर्थ अन्ततोगत्वा देश की चेतना के निर्माण का है।....इस अध्याय में समस्या और स्थितियों की ओर संकेत देकर ही छोड़ दिया है कि अन्य सहयोगियों के लिए अपना कहने और मेरे कहे को संशोधित करने का पूरा स्कोप रहे।’’
आप इसे क्या कहेंगे कि उपन्यास पूरा भी हो सका और कहने और संशोधन करने का स्कोप भी बना रह गया !
खैर, यह सब किस्सेबाजी है। असली किस्सा तो स्वयं उपन्यास है। उसे पढि़ए।
-लक्ष्मीचन्द्र जैन

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आदिम अग्नि और अनिश्चय की घाटियाँ

 

वह पतली-दुबली पहाड़ी नदी है जो दो मील पहले रास्ते में मिली थी। मुश्किल से दस गज चौड़ी, झाड़-झंखाड़, लतरों और पत्थरों से ढँकी हुई। पर यहाँ आकर जो रूप उसने धारण किया है, उसकी तो कल्पना ही नहीं होती थी। दो फर्लांग ऊपर उसने अकस्मात् मोड़ लिया कि सारे पठार को जैसे बीच से चीरकर फेंक दिया। ठोस चिकनी ग्रैनाइट की विशालकाय चट्टानें, लाखों बरस से धूप में भुनी हुई, पुराने किलों की सैकड़ों फीट ऊँची दीवारों की तरह पथरीले कगारे, दरारों में उगे हुए सैकड़ों साल पुराने बूढ़े दरख्त और पत्थरों पर अजगरों की तरह चिपकी हुई टेढ़ी-मेढ़ी चित्तीदार जड़ें। और उन्हीं जड़ों के सहारे मीनल उतरी थी-धीरे-धीरे। और जिसे घेरकर पानी बह रहा था, ऐसे एक ढोंके पर आकर बैठ गयी थी-चुपचाप, सबसे अलग। राह में दिनभर जीप की लोहे की कड़ी सीट पर सीधे बैठे-बैठे उसकी कमर दुखने लगी थी। यहाँ आकर उसने एक गहरी साँस ली; बदन को ढीला छोड़ दिया और कुहनियों के बल धनुषाकार लेटकर निरुद्देश्य नीचे कुण्ड के शान्त जल में देखने लगी। उसके चेहरे की रेखाकृति धुँधली थी और उसकी काली रोली की बिन्दी तो बिलकुल साफ पानी में तैर गयी थी। पर वह अपने को नहीं देख रही थी-(मीनल की यही बात तो बहुत कम लोग जान पाये थे।

उसने सदा अपने पार देखा और अपने को निरन्तर खोती गयी दूसरों में) वह देख रही थी अपने चेहरे को छाया के भी पार। और नीले सफेद फूलोंवाली गाँठदार जलघास की एक लम्बी अकेली नाजुक टहनी धीरे-धीरे जल में हिल रही थी, जिसके आसपास रुपहली मछलियों का एक जोड़ा पानी में फुदक रहा था-कभी-कभी एक दूसरे की गति को काटता, कभी तेजी से कुलाचें भरता और फिर साथ-साथ तैरने लगता। कुछ क्षण वह चुपचाप देखती रही उन दोनों चंचल प्यार भरी- मछलियों को, और फिर, जैसी उसकी आदत है, उन्हें अपनी कल्पना के नाम देने शुरू किये। यह जो बायेंवाली मछली है न, चुलबुली-सी; यह है उसकी कुन्तल-प्यारी, चंचल, लापरवाह और साथवाले हैं उसके शोभन दा-सदा-सदा-सदा उसकी कुन्तल के प्यार में बँधे हुए। (और आप क्या जानते हैं ? पहले भला शोभन दा के बारे में यह ऐसे सोच सकती थी ! अब जो उनसे पटर-पटर बोल लेती है और कभी-कभी कुन्तल से उनके ममताभरे झगड़ों में मनमानी सरपंची भी कर लेती है-पहले भला शोभन दा से कोई बोल तो ले। ना बाबा ! किसकी शामत आयी है) सो ये दोनों मछलियाँ तो हुई कुन्तल और शोभन, और यह तारों जैसे छोटे-छोटे सफेद फूलों वाली जलघास की अकेली टहनी कौन है ?...यह है तारों जैसे छोटे-छोटे सफेद फूलोंवाली जलघास की अकेली टहनी कौन है ?...यह है मीनल ! मीनल ! मिनी, मृणाल मेहता-अपने कुन्तल-शोभन की मीनल !
‘‘मीऽऽनल !’’ कुन्तल का बाकी स्वर कगारे के ऊपर से लहराता हुआ।

कहाँ है कुन्तल ? वह क्या है जामुन के नीचे! दूर से तो दीख रही है! छोटी गुड़िया-सी।
दूर से ही उसने हाथ हिलाया और पुकारकर बोली, ‘‘चलो उठो वहाँ से ! चाय बन गयी।’’
मीनल अलसाती हुई उठी। अभी वह उठना नहीं चाहती थी, पर कुन्तल वहाँ अकेले काम में लगी होगी, सो वह उठी। कुण्ड से निकलकर बहती हुई एक पतली धार में अपने नन्हे उजले पाँव भिगोये, आँचल का छोर भिगोकर आँखों पर फेरा और चल दी।

ऊपर शीशम का एक पेड़ था, जिसकी बगल में एक बहुत बड़ी चट्टान कछुए की विशाल पीठ-सी उभर आयी थी। उस पर एक दरी पड़ी थी जिस पर सिर्फ दो जने बैठे थे: कुन्तल और शोभन दा का घुम्मकड़ दोस्त गुप्ता। शोभन दा किसी पगडण्डी पर घूमने निकल गये थे और रोहित अपनी गाड़ी लेकर पास की तहसील के हेड क्वार्टर में किसी एस.डी.ओ.से मिलने चला गया था। गुप्ता को इधर कुछ दिनों से हाथ देखने की सनक सवार हुई थी, सो वह कुन्तल का हाथ देख रहा था। हाथ देखकर आज तक उसने किसी को कुछ भी ठीक नहीं बताया था, पर ऐसी अनोखी भविष्यवाणी करता था वह कि कुन्तल हर हफ्ते उसे हाथ जरूर दिखाती थी। ‘‘गुप्ता भाई साहब, हाथ नहीं देखिएगा ?’’ और गुप्ता भाई साहब जमकर बैठ गये। और क्या मजाल कि जी ऊबे ! जी तो तब ऊबे जब एक ही ठीक-ठीक बात हर बार बात बताई जाय। पर जब हर हफ्ते बिलकुल नयी बात बताई जाय जिसका पिछले हफ्ते की बात से कोई मेल न हो तो कभी ज्योतिष की ताजगी में कमी आ ही नहीं सकती। ऐसा ही था गुप्ता का ज्योतिष। पर मीनल गुप्ता की इन बातों से ऊब चुकी थी। कुन्तल ने बैठे-बैठे ही बताया कि स्टोव बुझ गया है, चाय थर्मस में है।

मीनल ने गिलास में चाय निकाली और पेड़ के तने से टिककर धीरे-धीरे चाय पीने लगी। वह थक गयी थी और शिथिल मन से धीरे-धीरे चाय पीना उसे अच्छा लग रहा था। गुप्ता की बातें उसके कान में पड़ रही थीं, उसे ऐसी लग रही थीं जैसे पास की डाल पर कोई पाखी बैठा कुछ बोल रहा हो-भविष्य नियति, सुख दुःख...शब्द...शब्द... जिनका अर्थ वह जानती ही नहीं, न जानना चाहती है-बस चुपचाप सुनती है, सिर्फ इसलिए कि उससे दृश्य का सूनापन और उदासी कुछ घटती हुई मालूम पड़ती है। मात्र इतनी उन बातों की सार्थकता है-बाकी सब निरर्थक है, निर्रथक। पता नहीं नियति कुछ है या नहीं; आगे क्या है, क्या हो ? इस पर मीनल ने बहुत सोचा है और वह किसी नजीजे पर नहीं पहुँची और इसीलिए अब उसने अपने को अनिश्चय की एक हल्की-गुनगुनी नदी में अलसाकर छोड़ दिया है और बहती जा रही है-आयासहीन, दिशाहीन, अवधिहीन।

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