धर्म एवं दर्शन >> पंचामृत पंचामृतसंतोष गर्ग
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परम पूज्य स्वामियों के प्रवचनों से संकलित अमृतमयी दिव्य सूक्तियां....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी बात
पंचामृत देते समय देवपूजक अर्थात पुजारी जिस मंत्र का उच्चारण करता है,
उसका अर्थ है-अकाल मृत्यु का हरण करने वाले और समस्त रोगों के विनाशक,
श्रीविष्णु का चरणोदक पीकर पुनर्जन्म नहीं होता। दूसरे शब्दों में,
श्रद्धापूर्वक पंचामृत का पान करने वाला मनुष्य संसार में समस्त ऐश्वर्यों
को प्राप्त करता हुआ शरीरपात के बाद जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता
है। यह पंचामृत का माहात्म्य है। गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, शर्करा और मधु के
सम्मिश्रण में रोग निवारण गुण विद्यमान होते हैं, यह पुष्टिकारक है,
चिकित्सा शास्त्र की मान्यता है यह। लेकिन जब यह देवमूर्ति का स्पर्श करता
है तो मुक्ति प्रदाता हो जाता है-यह आध्यात्मिक सत्य है।
यही बात संसार की समस्त वस्तुओं के साथ है। जब संसारी व्यक्ति के मुख से ‘शब्द’ निकलता है तो उससे मेरा-तेरा का विस्तार हो जाता है। इसका प्रतिफल है-दुख, आपका और विपत्ति। परंतु जब यह ‘शब्द’ महापुरुषों के हृदय से करुणासिक्त होकर अभिव्यक्ति पाता है तो प्रवचन हो जाता है- उपदेश हो जाता है। इसी संदर्भ में ‘शब्द’ को ब्रह्म कहा गया है। अधिकारी शिष्य के हृदय रूपी सीप में गुरुमुख से निकले शब्द स्वाति नक्षत्र में आकाश से सीप में गिरी वर्षा की एक साधारण बूंद की तरह प्रतिफलित होते हैं तब वह बूंद शुभ्र और अनमोल मोती बन जाती है। इसी को सदग्रंथों और संत-महापुरुषों ने सत्संग कहा है। जैसे सीप का संग बूंद के नाम-रूप और स्वभाव को मूलत: बदल देता है, वैसा ही परिवर्तन ‘सत्संग’ से होता है।
‘श्रीरामचरित मानस’ के सुंदरकाण्ड में लंकिनी द्वारा कहा गया यह सत्य-यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग एवं अपवर्ग के समस्त सुखों को रख दिया जाए और दूसरे पलड़े पर एक पल सत्संग से प्राप्त सुख को तो सत्संग से प्राप्त सुख का पलड़ा भारी होगा-सत्संग के माहात्म्य का ही बखान है। सत्य और असत्य की तुलना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार स्वप्नकाल की करोड़ों की संपत्ति जाग्रत अवस्था के एक पैसे के सामने अर्थहीन है, उसी प्रकार परमसत्य के मात्र एक क्षण के सुख के समक्ष समस्त सांसारिक सुख व्यर्थ हैं। वे सुख चाहे इस लोक के हों या अन्य स्वर्गादि लोकों के, किसी भी तरह से उनकी तुलना परमसत्य के सुख से नहीं की जा सकती।
बदलते समय के साथ-साथ ‘सत्संग’ के बाहरी ढांचे में परिवर्तन हुए हैं। ‘केबल संस्कृति’ के कारण आप अपने मन के अनुसार जिसका भी चाहें, उसका प्रवचन घर बैठे सुन सकते हैं। ‘स्प्रिच्युअल चैनल्स’ पर सबके कार्यक्रम सुनिश्चित हैं। यह बात सही है कि गुरु या प्रशिक्षक के समक्ष बैठकर सुनने का लाभ इससे नहीं मिलता लेकिन श्रव्य और दृश्य को सुनना-देखना पुस्तक का स्वाध्याय करने से ज्यादा सुरुचिकर है। इसे भी साधक श्रोता को स्वाध्याय का ही एक अंश मानना चाहिए।
मैं मूलत: कोई लेखिका नहीं हूँ। महापुरुषों के वचनों को सुनना मुझे अच्छा लगता है। महापुरुषों का कथन है कि श्रवण के बाद मनन भी करो। मैंने अनुभव किया कि सुनते समय जो अच्छा लगता है और हृदय को स्पर्श करता है वह कुछ पल बीतते ही तेज हवाओं द्वारा उड़ाए गए बादलों की तरह बिखरकर न जाने कहां लुप्त हो जाता है। इसलिए मैंने अपनी डायरी पर उन विचारों को लिखना शुरू किया जिनमें मुझे जीवन के समझने और उसे निखारने के सूत्र मिले। विचार महापुरुषों के हैं लेकिन इन्हें समझाने के लिए मैंने अपनी भाषा दी है। इसलिए वाक्यों में दोष आ जाना स्वाभाविक है। यह भी संभव है कि अनेक स्थानों पर मैं कथ्य में सही शब्द भी न दे पाई होऊं। लेकिन यदि उसे दो-चार बार पढ़ा जाए तो वह अनगढ़ वाक्य उस ओर अवश्य संकेत करेगा जिसे मैंने शब्दों में बाँधने की कोशिश की है।
इस संकलन को जब मैंने अपने सद्गुरुदेव स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के कर कमलों में अवलोकनार्थ रखा तो वे मुस्कराए। मौन सराहना थी शायद यह उनकी। मेरे अनुरोध पर पूज्य स्वामी जी ने शीर्षक के बारे में विचार करके बताने का आश्वासन दिया। बाद में उन्होंने इस संकलन का नाम ‘पंचामृत’ रखा। एक प्रभु प्रेमी ने अनुभव से इस नाम का खुलासा करते हुए बताया कि चार महापुरुषों के दिव्य वचनों को पांचवी बार मैंने संकलित किया है, इसलिए स्वामी जी ने पुस्तक का यह नाम दिया।
अपना संकलन जब मैंने श्री विनय गुप्ता को भेजा तो उन्होंने प्रकाशन की सहमित दे दी। यह भी महापुरुषों की कृपा का ही परिणाम है।
यह संकलन प्रकाशित हो, इसके पीछे मेरा एक ही स्वार्थ है। मैं चाहती हूँ कि जिस प्रकार ये छोटे-छोटे वाक्य मेरे जीवन में एक आदर्श संत महापुरुष की तरह मुझे भटकावों से मुक्त करते हैं, उसी तरह आप भी इनसे प्रेरणा पाएँ और अपने सन्मार्ग को प्रशस्त करें। यदि ऐसा होता है तो मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानूंगी।
इस पुस्तक के प्रकाशन में श्री गंगाप्रसाद शर्मा का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने न सिर्फ मुझे यह पुस्तक लिखने के लिए उत्साहित किया अपितु इसे संवारने, तराशने में भी मेरी बहुत सहायता की।
अंत में, मैं उन महापुरुषों के श्रीचरणों से भी क्षमा याचना करती हूँ जिनके अनमोल वचनों को मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसा कलेवर देने का प्रयास किया। ऐसा प्रयास भी उनकी कृपा का ही प्रतिफल है। यह प्रयास उन्हीं के श्रीचरणों में समर्पित है।
यही बात संसार की समस्त वस्तुओं के साथ है। जब संसारी व्यक्ति के मुख से ‘शब्द’ निकलता है तो उससे मेरा-तेरा का विस्तार हो जाता है। इसका प्रतिफल है-दुख, आपका और विपत्ति। परंतु जब यह ‘शब्द’ महापुरुषों के हृदय से करुणासिक्त होकर अभिव्यक्ति पाता है तो प्रवचन हो जाता है- उपदेश हो जाता है। इसी संदर्भ में ‘शब्द’ को ब्रह्म कहा गया है। अधिकारी शिष्य के हृदय रूपी सीप में गुरुमुख से निकले शब्द स्वाति नक्षत्र में आकाश से सीप में गिरी वर्षा की एक साधारण बूंद की तरह प्रतिफलित होते हैं तब वह बूंद शुभ्र और अनमोल मोती बन जाती है। इसी को सदग्रंथों और संत-महापुरुषों ने सत्संग कहा है। जैसे सीप का संग बूंद के नाम-रूप और स्वभाव को मूलत: बदल देता है, वैसा ही परिवर्तन ‘सत्संग’ से होता है।
‘श्रीरामचरित मानस’ के सुंदरकाण्ड में लंकिनी द्वारा कहा गया यह सत्य-यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग एवं अपवर्ग के समस्त सुखों को रख दिया जाए और दूसरे पलड़े पर एक पल सत्संग से प्राप्त सुख को तो सत्संग से प्राप्त सुख का पलड़ा भारी होगा-सत्संग के माहात्म्य का ही बखान है। सत्य और असत्य की तुलना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार स्वप्नकाल की करोड़ों की संपत्ति जाग्रत अवस्था के एक पैसे के सामने अर्थहीन है, उसी प्रकार परमसत्य के मात्र एक क्षण के सुख के समक्ष समस्त सांसारिक सुख व्यर्थ हैं। वे सुख चाहे इस लोक के हों या अन्य स्वर्गादि लोकों के, किसी भी तरह से उनकी तुलना परमसत्य के सुख से नहीं की जा सकती।
बदलते समय के साथ-साथ ‘सत्संग’ के बाहरी ढांचे में परिवर्तन हुए हैं। ‘केबल संस्कृति’ के कारण आप अपने मन के अनुसार जिसका भी चाहें, उसका प्रवचन घर बैठे सुन सकते हैं। ‘स्प्रिच्युअल चैनल्स’ पर सबके कार्यक्रम सुनिश्चित हैं। यह बात सही है कि गुरु या प्रशिक्षक के समक्ष बैठकर सुनने का लाभ इससे नहीं मिलता लेकिन श्रव्य और दृश्य को सुनना-देखना पुस्तक का स्वाध्याय करने से ज्यादा सुरुचिकर है। इसे भी साधक श्रोता को स्वाध्याय का ही एक अंश मानना चाहिए।
मैं मूलत: कोई लेखिका नहीं हूँ। महापुरुषों के वचनों को सुनना मुझे अच्छा लगता है। महापुरुषों का कथन है कि श्रवण के बाद मनन भी करो। मैंने अनुभव किया कि सुनते समय जो अच्छा लगता है और हृदय को स्पर्श करता है वह कुछ पल बीतते ही तेज हवाओं द्वारा उड़ाए गए बादलों की तरह बिखरकर न जाने कहां लुप्त हो जाता है। इसलिए मैंने अपनी डायरी पर उन विचारों को लिखना शुरू किया जिनमें मुझे जीवन के समझने और उसे निखारने के सूत्र मिले। विचार महापुरुषों के हैं लेकिन इन्हें समझाने के लिए मैंने अपनी भाषा दी है। इसलिए वाक्यों में दोष आ जाना स्वाभाविक है। यह भी संभव है कि अनेक स्थानों पर मैं कथ्य में सही शब्द भी न दे पाई होऊं। लेकिन यदि उसे दो-चार बार पढ़ा जाए तो वह अनगढ़ वाक्य उस ओर अवश्य संकेत करेगा जिसे मैंने शब्दों में बाँधने की कोशिश की है।
इस संकलन को जब मैंने अपने सद्गुरुदेव स्वामी अवधेशानंद गिरि जी के कर कमलों में अवलोकनार्थ रखा तो वे मुस्कराए। मौन सराहना थी शायद यह उनकी। मेरे अनुरोध पर पूज्य स्वामी जी ने शीर्षक के बारे में विचार करके बताने का आश्वासन दिया। बाद में उन्होंने इस संकलन का नाम ‘पंचामृत’ रखा। एक प्रभु प्रेमी ने अनुभव से इस नाम का खुलासा करते हुए बताया कि चार महापुरुषों के दिव्य वचनों को पांचवी बार मैंने संकलित किया है, इसलिए स्वामी जी ने पुस्तक का यह नाम दिया।
अपना संकलन जब मैंने श्री विनय गुप्ता को भेजा तो उन्होंने प्रकाशन की सहमित दे दी। यह भी महापुरुषों की कृपा का ही परिणाम है।
यह संकलन प्रकाशित हो, इसके पीछे मेरा एक ही स्वार्थ है। मैं चाहती हूँ कि जिस प्रकार ये छोटे-छोटे वाक्य मेरे जीवन में एक आदर्श संत महापुरुष की तरह मुझे भटकावों से मुक्त करते हैं, उसी तरह आप भी इनसे प्रेरणा पाएँ और अपने सन्मार्ग को प्रशस्त करें। यदि ऐसा होता है तो मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानूंगी।
इस पुस्तक के प्रकाशन में श्री गंगाप्रसाद शर्मा का बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने न सिर्फ मुझे यह पुस्तक लिखने के लिए उत्साहित किया अपितु इसे संवारने, तराशने में भी मेरी बहुत सहायता की।
अंत में, मैं उन महापुरुषों के श्रीचरणों से भी क्षमा याचना करती हूँ जिनके अनमोल वचनों को मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसा कलेवर देने का प्रयास किया। ऐसा प्रयास भी उनकी कृपा का ही प्रतिफल है। यह प्रयास उन्हीं के श्रीचरणों में समर्पित है।
सदगुरु चरण रज
-संतोष गर्ग
जीवन दर्शन
स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि जी का प्रादुर्भाव सन् 1932 में आगरा नगरी में
हुआ। स्वामी जी की आध्यात्मिक क्षमता ने उन्हें 27 वर्ष की अल्पायु में ही
भानपुरा पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य पद पर आसीन किया किंतु इस पद की
प्रतिष्ठा से बंधे रहना उन्हें रास नहीं आया। वे 9 वर्ष के बाद समन्वय
सेवा और सत्संग के मौलिक दर्शन के प्रचार-प्रसार में तल्लीन हो गए।
भारत भ्रमण के दौरान स्वामी जी ने अनुभव किया कि अभी तक देश में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ धार्मिक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना का समन्वित दर्शन हो सके। इसी उद्देश्य से उन्होंने पतित-पावनी भगवती भागीरथी गंगा के तट (सप्त ऋषियों की इस तपोभूमि को सप्त-सरोवर के नाम से भी जाना जाता है) पर सात मंजिला ‘भारत माता मंदिर’ का निर्माण करवाया। प्रतिवर्ष लाखों लोग इस मंदिर के दर्शन करके अध्यात्म, संस्कृति, राष्ट्र और शिक्षा संबंधी विचारों की चेतना प्राप्त करते हैं। यह भारत का प्रथम मंदिर है जिसमें दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए लिफ्ट लगी हुई है।
स्वामी जी का अंतर्मन सदैव मानव जाति के कल्याण के लिए व्यथित रहता है। एक निवेदित परिव्राजक के रूप में आपने विश्व के लगभग 70 देशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। स्वामी जी द्वारा स्थापित भारत माता मंदिर एवं समन्वय सेवा ट्रस्ट की ओर से अन्नक्षेत्र, नि:शुल्क चल-चिकित्सालय, फिजियोथेरेपी, सेंटर, गोशाला, छात्रावास, हरिजन, आदिवासी एवं वनवासी सेवा, पुस्तकालय और वाचनालय, समन्वय पुरस्कार, प्रकाशन तथा वृद्धाश्रम आदि अनेक सेवा-संस्थाएँ चल रही हैं।
स्वामी जी भारतीय संस्कृति के ऐसे शिखर पुरुष हैं, जिनमें भारत का प्राचीन गौरव वैदिक महर्षियों की दिव्य वाणी तथा आधुनिक युग के निर्माता स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ का समन्वित व्यक्तित्व अनुस्यूत है। अंतर्नुभूति के आधार पर स्वामी जी कहते हैं-‘‘प्रवचन मेरा व्यवसाय नहीं है। प्रवचन के समय मैं आप सबके भीतर बैठे नारायण के दर्शन करता हूँ।’’
भारत भ्रमण के दौरान स्वामी जी ने अनुभव किया कि अभी तक देश में ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ धार्मिक सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना का समन्वित दर्शन हो सके। इसी उद्देश्य से उन्होंने पतित-पावनी भगवती भागीरथी गंगा के तट (सप्त ऋषियों की इस तपोभूमि को सप्त-सरोवर के नाम से भी जाना जाता है) पर सात मंजिला ‘भारत माता मंदिर’ का निर्माण करवाया। प्रतिवर्ष लाखों लोग इस मंदिर के दर्शन करके अध्यात्म, संस्कृति, राष्ट्र और शिक्षा संबंधी विचारों की चेतना प्राप्त करते हैं। यह भारत का प्रथम मंदिर है जिसमें दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए लिफ्ट लगी हुई है।
स्वामी जी का अंतर्मन सदैव मानव जाति के कल्याण के लिए व्यथित रहता है। एक निवेदित परिव्राजक के रूप में आपने विश्व के लगभग 70 देशों में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया। स्वामी जी द्वारा स्थापित भारत माता मंदिर एवं समन्वय सेवा ट्रस्ट की ओर से अन्नक्षेत्र, नि:शुल्क चल-चिकित्सालय, फिजियोथेरेपी, सेंटर, गोशाला, छात्रावास, हरिजन, आदिवासी एवं वनवासी सेवा, पुस्तकालय और वाचनालय, समन्वय पुरस्कार, प्रकाशन तथा वृद्धाश्रम आदि अनेक सेवा-संस्थाएँ चल रही हैं।
स्वामी जी भारतीय संस्कृति के ऐसे शिखर पुरुष हैं, जिनमें भारत का प्राचीन गौरव वैदिक महर्षियों की दिव्य वाणी तथा आधुनिक युग के निर्माता स्वामी विवेकानंद और स्वामी रामतीर्थ का समन्वित व्यक्तित्व अनुस्यूत है। अंतर्नुभूति के आधार पर स्वामी जी कहते हैं-‘‘प्रवचन मेरा व्यवसाय नहीं है। प्रवचन के समय मैं आप सबके भीतर बैठे नारायण के दर्शन करता हूँ।’’
धर्म और अध्यात्म
धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति कभी असंतुष्ट नहीं होता। क्योंकि उसे
मालूम है कि जितनी उसकी क्षमता है, उतना प्राप्त हो गया है।
आज धर्म तथा राष्ट्र की हानि हो रही है। हम स्वार्थी हो रहे हैं हमें इस बात की चिंता है कि मेरा घर, बालक तथा परिवार अच्छा रहे। परंतु यह भाव भी तो आना चाहिए कि हमारा समाज और राष्ट्र अच्छा रहे।
सूर्यदेव का धर्म है-उष्णता प्रदान करना। उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि आज के व्यक्ति धर्म का पालन नहीं करते, अतएव उन पर आक्रोश व्यक्त करने के लिए मैं भी अपने धर्म का परित्याग कर दूं। इसी प्रकार चंद्रमा अपनी शीतलता का धर्म, जल तरलता का धर्म, पृथ्वी गंध का धर्म तथा पवन स्पर्श का धर्म परित्याग नहीं करते जिनसे हमें जीवन मिलता है। कहने का आशय यह है कि परमात्मा द्वारा प्रदत्त पंचभूत कभी अपने धर्म का परित्याग नहीं करते बल्कि वे जीव का रक्षण करते हैं।
यदि मानव भगवान को प्राप्त करने के लिए आतुर हो तो वह सन्मार्ग पर चलता हुआ श्रेय को प्राप्त कर लेता है।
धर्म मनुष्य का सहयोगी, साथी और मार्गदर्शक है कितुं आध्यात्मिकता इससे ऊंची अवस्था है। वह इन सबसे एवं धर्म-अधर्म से ऊपर उठाती है तथा भाव-समाधि में पहुंचाती है।
यदि सुख-सुविधा के अवसरों पर ही धर्माचरण किया जाए और प्रतिकूल अवसरों पर इसका पालन न किया जाए तो वह धर्माचरण की कसौटी पर सफल नहीं माना जा सकता।
धर्म का पालन करने से मानव की साधारण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह महान भय से तर जाता है। परंतु धर्म का पालन जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा है, क्योंकि हमारी कामनाएँ विपरीत और विकराल होने के साथ-साथ बलवती भी होती हैं।
धर्म की व्यावहारिकता का परिचय अहं भाव के शून्य-समर्पण में ही है। यह समर्पण समाज के प्रति प्रारंभ होता है और उसका पर्यवसान परम तत्व पर होता है।
मनुष्य की प्रकृति में परिवर्तन अध्यात्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। यदि ऐसी उपलब्धि वंदनीय न होती तो लोग रत्नाकर को कभी महर्षि वाल्मीकि के रूप में नहीं देख पाते।
मिथ्यावाद का आश्रय लेने वाला व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। वह अपने गंतव्य को भी नहीं प्राप्त कर पाता।
यहां तो जन्म से ही माता की घुट्टी में धर्म पिलाया जाता है। यदि किसी बालक की जिह्वा पर ईश्वर का नाम लिख दिया जाए तो वह धर्म को कैसे भूल सकता है ?
धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। उन्हें कोई नहीं हिला सकता। धर्म का मालिक कोई व्यक्ति नहीं, स्वयं परमात्मा है। जो जिसका मालिक होता है उसे उस वस्तु की चिंता अवश्य रहती है।
अध्यात्मवादी जो कुछ प्राप्त करेगा वह समाज में वितरित कर देगा।
जो ताप से तप्त हो, वही छाया का महत्व समझ सकता है। यदि आज के भौतिकतावाद और कंटकाकीर्ण जीवन में शांति पानी हो तो अध्यात्म के कल्पवृक्ष के नीचे आना होगा।
अध्यात्म में संवाद बहुत उपयोगी है। जहां संवाद होता है वहां तत्काल प्रश्नों के उत्तर मिलते चले जाते हैं। संवाद पारिवारिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और सामाजिक जीवन में भी बहुत उपयोगी है।
धर्म एक बंधन है। एक ओर हमारी संस्कृति यह कहती है कि बंधन से मुक्ति की ओर चलो और दूसरी ओर आचार्य कहते हैं कि धर्म का बंधन स्वीकार करें। धर्म का बंधन स्वीकार करने से मुक्ति का द्वार खुलता है, इसलिए वह बंधन भी प्रशंसनीय है। जिस बंधन से मानव-जीवन में उच्छ्रंखलता आती हो, वह निश्चित रूप से उसे गर्त में गिराएगी।
आज धर्म तथा राष्ट्र की हानि हो रही है। हम स्वार्थी हो रहे हैं हमें इस बात की चिंता है कि मेरा घर, बालक तथा परिवार अच्छा रहे। परंतु यह भाव भी तो आना चाहिए कि हमारा समाज और राष्ट्र अच्छा रहे।
सूर्यदेव का धर्म है-उष्णता प्रदान करना। उन्होंने यह कभी नहीं सोचा कि आज के व्यक्ति धर्म का पालन नहीं करते, अतएव उन पर आक्रोश व्यक्त करने के लिए मैं भी अपने धर्म का परित्याग कर दूं। इसी प्रकार चंद्रमा अपनी शीतलता का धर्म, जल तरलता का धर्म, पृथ्वी गंध का धर्म तथा पवन स्पर्श का धर्म परित्याग नहीं करते जिनसे हमें जीवन मिलता है। कहने का आशय यह है कि परमात्मा द्वारा प्रदत्त पंचभूत कभी अपने धर्म का परित्याग नहीं करते बल्कि वे जीव का रक्षण करते हैं।
यदि मानव भगवान को प्राप्त करने के लिए आतुर हो तो वह सन्मार्ग पर चलता हुआ श्रेय को प्राप्त कर लेता है।
धर्म मनुष्य का सहयोगी, साथी और मार्गदर्शक है कितुं आध्यात्मिकता इससे ऊंची अवस्था है। वह इन सबसे एवं धर्म-अधर्म से ऊपर उठाती है तथा भाव-समाधि में पहुंचाती है।
यदि सुख-सुविधा के अवसरों पर ही धर्माचरण किया जाए और प्रतिकूल अवसरों पर इसका पालन न किया जाए तो वह धर्माचरण की कसौटी पर सफल नहीं माना जा सकता।
धर्म का पालन करने से मानव की साधारण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वह महान भय से तर जाता है। परंतु धर्म का पालन जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा है, क्योंकि हमारी कामनाएँ विपरीत और विकराल होने के साथ-साथ बलवती भी होती हैं।
धर्म की व्यावहारिकता का परिचय अहं भाव के शून्य-समर्पण में ही है। यह समर्पण समाज के प्रति प्रारंभ होता है और उसका पर्यवसान परम तत्व पर होता है।
मनुष्य की प्रकृति में परिवर्तन अध्यात्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। यदि ऐसी उपलब्धि वंदनीय न होती तो लोग रत्नाकर को कभी महर्षि वाल्मीकि के रूप में नहीं देख पाते।
मिथ्यावाद का आश्रय लेने वाला व्यक्ति कभी सुख का अनुभव नहीं कर सकता। वह अपने गंतव्य को भी नहीं प्राप्त कर पाता।
यहां तो जन्म से ही माता की घुट्टी में धर्म पिलाया जाता है। यदि किसी बालक की जिह्वा पर ईश्वर का नाम लिख दिया जाए तो वह धर्म को कैसे भूल सकता है ?
धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। उन्हें कोई नहीं हिला सकता। धर्म का मालिक कोई व्यक्ति नहीं, स्वयं परमात्मा है। जो जिसका मालिक होता है उसे उस वस्तु की चिंता अवश्य रहती है।
अध्यात्मवादी जो कुछ प्राप्त करेगा वह समाज में वितरित कर देगा।
जो ताप से तप्त हो, वही छाया का महत्व समझ सकता है। यदि आज के भौतिकतावाद और कंटकाकीर्ण जीवन में शांति पानी हो तो अध्यात्म के कल्पवृक्ष के नीचे आना होगा।
अध्यात्म में संवाद बहुत उपयोगी है। जहां संवाद होता है वहां तत्काल प्रश्नों के उत्तर मिलते चले जाते हैं। संवाद पारिवारिक जीवन, राष्ट्रीय जीवन और सामाजिक जीवन में भी बहुत उपयोगी है।
धर्म एक बंधन है। एक ओर हमारी संस्कृति यह कहती है कि बंधन से मुक्ति की ओर चलो और दूसरी ओर आचार्य कहते हैं कि धर्म का बंधन स्वीकार करें। धर्म का बंधन स्वीकार करने से मुक्ति का द्वार खुलता है, इसलिए वह बंधन भी प्रशंसनीय है। जिस बंधन से मानव-जीवन में उच्छ्रंखलता आती हो, वह निश्चित रूप से उसे गर्त में गिराएगी।
सत्संग
मात्र एक क्षण के श्रवण-सत्संग की फलश्रुति सात स्वर्ग और मोक्ष
के
सम्मिलित सुख से भी अधिक महिमावान है।
सत्संग की भी गंगा होती है। जो लोग गंगा में न नहा सकें, वे सत्संग की गंगा में स्नान करें। सत्संग की गंगा में स्नान करने से पाप, ताप और दैन्य-सभी नष्ट हो जाते हैं।
हीरा तथा अन्य वस्तुएं बाहरी हैं जो टूट सकती हैं या चुराई जा सकती है। परंतु सत्संग मन के अंदर रहता है।
सत्संगी स्वभाव बनाने की बुद्धि विकसित करें। इससे उच्च विचारों का उद्भव होगा तथा नए-नए अर्थ पैदा होंगे। आप स्वत: सोचने लगेंगे कि ऐसे विचार कभी नहीं आए, क्योंकि चिंतन की शक्ति आप में भी है।
बुद्धि की पेटिका में सत्संग से प्राप्त महान रत्नों को भली-भांति सुरक्षित रखें। उसकी किरणों से आपका जीवन पथ आलोकित हो उठेगा।
सत्संग का लाभ यह है कि हम देश की मिटटी का मूल्य जानें। भगवान राम और श्रीकृष्ण ने देश की माटी का महत्व जाना परंतु हमने इस महत्व को विस्मृत कर दिया है।
सत्संग श्रेष्ठ वस्तु है। इससे हमारा विवेक जागता है और चिंतन की धारा बदल जाती है। यदि ऐसे अवसर पर आप कुछ खो दें तो समझिए कि आप पर प्रभु की कृपा हो रही है।
यदि सत्संग करते-करते मन राम के साथ रम जाए, श्रीकृष्ण के साथ रमण करने लगे, शंकर के साथ रहने लगे और शक्ति का अनुभव होने लगे तो वहां हम सबकुछ भूल जाते हैं।
सत्संग की भी गंगा होती है। जो लोग गंगा में न नहा सकें, वे सत्संग की गंगा में स्नान करें। सत्संग की गंगा में स्नान करने से पाप, ताप और दैन्य-सभी नष्ट हो जाते हैं।
हीरा तथा अन्य वस्तुएं बाहरी हैं जो टूट सकती हैं या चुराई जा सकती है। परंतु सत्संग मन के अंदर रहता है।
सत्संगी स्वभाव बनाने की बुद्धि विकसित करें। इससे उच्च विचारों का उद्भव होगा तथा नए-नए अर्थ पैदा होंगे। आप स्वत: सोचने लगेंगे कि ऐसे विचार कभी नहीं आए, क्योंकि चिंतन की शक्ति आप में भी है।
बुद्धि की पेटिका में सत्संग से प्राप्त महान रत्नों को भली-भांति सुरक्षित रखें। उसकी किरणों से आपका जीवन पथ आलोकित हो उठेगा।
सत्संग का लाभ यह है कि हम देश की मिटटी का मूल्य जानें। भगवान राम और श्रीकृष्ण ने देश की माटी का महत्व जाना परंतु हमने इस महत्व को विस्मृत कर दिया है।
सत्संग श्रेष्ठ वस्तु है। इससे हमारा विवेक जागता है और चिंतन की धारा बदल जाती है। यदि ऐसे अवसर पर आप कुछ खो दें तो समझिए कि आप पर प्रभु की कृपा हो रही है।
यदि सत्संग करते-करते मन राम के साथ रम जाए, श्रीकृष्ण के साथ रमण करने लगे, शंकर के साथ रहने लगे और शक्ति का अनुभव होने लगे तो वहां हम सबकुछ भूल जाते हैं।
प्रभु कृपा
ईश्वर ही सारे संसार के रंगमंच का
निदेशक है। वह किसी को साधु बनाता है,
किसी को विरक्त बनाता है, किसी को गृहस्थ बनाता है और किसी को वैज्ञानिक
या डॉक्टर बनाता है।
परमात्मा का स्मरण करने से उसकी प्रसन्नता की एक धारा हमारी ओर चल पड़ेगी। हमारी प्रसन्नता को परमात्मा की प्रसन्नता का थोड़ा सा अंश मिल जाएगा। हमारी प्रसन्नता और ईश्वर की प्रसन्नता एक हो जाएगी। पिता-पुत्र की प्रसन्नता एक हो जाएगी। आप यह कह सकेंगे कि मैं भी परमात्मा का हूँ। जो उसका है, वह मेरा है।
हम पूर्व जन्म में क्या थे और कहां थे-यदि यह बात कोई बता दे तो प्रतिशोध लेने के लिए नाना प्रकार के उपाय सोचने लगेंगे। हमारी शांति भंग हो जाएगी। लेकिन यह ईश्वर का बहुत बड़ा अनुग्रह है वरदान है कि पूर्व जन्म के कोई संबंध हमारे स्मरण में नहीं आते।
परमात्मा का स्मरण करने से उसकी प्रसन्नता की एक धारा हमारी ओर चल पड़ेगी। हमारी प्रसन्नता को परमात्मा की प्रसन्नता का थोड़ा सा अंश मिल जाएगा। हमारी प्रसन्नता और ईश्वर की प्रसन्नता एक हो जाएगी। पिता-पुत्र की प्रसन्नता एक हो जाएगी। आप यह कह सकेंगे कि मैं भी परमात्मा का हूँ। जो उसका है, वह मेरा है।
हम पूर्व जन्म में क्या थे और कहां थे-यदि यह बात कोई बता दे तो प्रतिशोध लेने के लिए नाना प्रकार के उपाय सोचने लगेंगे। हमारी शांति भंग हो जाएगी। लेकिन यह ईश्वर का बहुत बड़ा अनुग्रह है वरदान है कि पूर्व जन्म के कोई संबंध हमारे स्मरण में नहीं आते।
उपासना
परमात्मा को किसी भी रूप में पूजा
जा सकता है। संपन्न व्यक्तियों को
पूजा के लिए बहुत सा धन चाहिए परंतु निर्धन बलहीन और अशिक्षित व्यक्ति
अपने परमात्मा को अपनी झोप़डी के सामने ही एक पत्थर को सिंदूर से रंग कर
उसमें भगवान की कल्पना कर लेता है।
समाज और राष्ट्र सेवा की भावना भी हमारी प्रार्थना में आनी चाहिए।
जो लोग जिस इष्ट की उपासना करते हैं, उसमें कोई भिन्नना नहीं है। यह एक ही स्थान पर पहुंचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। आदि शंकराचार्य ने पांच उपासनाएं प्रचलित की थीं-शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश और सूर्य की। किसी दूसरे को दुख पहुंचाए बिना अपने इष्ट का पूजा करने का सभी को अधिकार है।
सही दृष्टि से समझकर किया गया छोटा-सा कार्य भी पूजा बन सकता है।
यदि परमात्मा को साथ जोड़ते हुए संसार और उसकी वस्तुओं का उपभोग करें तो ईश्वर का प्रसाद बन जाएंगे। शरीर का प्रत्येक अवयव तथा प्रत्येक इंद्रिय ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाएगी।
हम नित्य भोजन करते हैं, वस्त्र पहनते हैं, निद्रा लेते हैं और जीवन का व्यवहार चलाते हैं। जब ये समस्त कार्य नित्य करते हैं, तब प्रार्थना भी नित्य होनी चाहिए। यदि प्रार्थना नहीं तो भोजन भी नहीं। भोजन से स्थूल शरीर स्वस्थ रहता है और प्रार्थना से अंतः शरीर पुष्ट होता है।
प्रार्थना केवल प्रार्थना नहीं, वह त्रिदेव स्वरूप है। प्रार्थना सृजनात्मक चिंतन देती है और हमारा रक्षण करती है, इसलिए वह ब्रह्मा तथा विष्णु स्वरूप है प्रार्थना बुरे विचारों एवं बुरे चिंतन को समाप्त कर देती है। इसलिए वह शिव स्वरूप है।
शस्त्र रखने वाले की अपेक्षा प्रार्थना करने वाला व्यत्ति कहीं अधिक सुरक्षित है। प्रार्थना में शिशु भाव निहित होता है और शिशु की सुरक्षा उसके माता-पिता अर्थात परमात्मा करते हैं।
जब किसी के प्रति प्रीति जागती है तो प्रतीति होने लगती है हां प्रीति और प्रतीति दोनों एक साथ मिल जाती हैं वहां निष्ठा जागती है। जहां निष्ठा होती है वहां सत्कर्म करने का विचार उत्पन्न होता है। जब सत्कर्म होने लगता है, तब जन्म जीवन बनने की ओर अग्रसर हो जाता है।
कीर्तन के दो स्वरूप हैं-पहला, नाम कीर्तन और दूसरा, गुण-कीर्तन। गुण-कीर्तन को कथा कहते हैं जबकि नाम-कीर्तन में परमात्मा के नाम का कीर्तन किया जाता है।
जब आप ईश्वर का स्मरण करने बैठें तो अपनी सत्ता का विस्मरण कर दें और परमेश्वर की शाश्वत सत्ता का ध्यान करें।
जगत और जगदीश्वर में केवल इतना ही अंतर है-जगत बांधता है जबकि जगदीश्वर छुड़ाता है। यदि जगत में जगदीश्वर का भाव हो जाए तो जगत भी बंधन का कारण नहीं रहता।
जीवन में गंगा की लहरों की भांति-निरंतर अपने अपने आराध्य को छूने की उत्कट अभिलाषा जगानी चाहिए। यह तभी संभव है जब ईश्वर के चरित्रों को आप स्नेहपूर्वक पढ़ें, सुनें और समझने की चेष्टा करें।
जिसके जीवन में चरण हैं, उसके जीवन का आचरण शुद्ध होगा। अत: हाथ कर्म में और मन परमात्मा के चरणों में तल्लीन रहना चाहिए।
जो लोग सतत प्रीतिपूर्वक परमात्मा का स्मरण करते हैं, परमात्मा उनमें बुद्धियोग देता है। जो लोग मानसिक रूप से परमात्मा के प्रति समर्पित होते हैं और अपनी इंद्रियों को भी संयम के साथ उसमें अर्पित कर देते हैं, उनका उद्धार स्वयं परमात्मा करते हैं।
समाज और राष्ट्र सेवा की भावना भी हमारी प्रार्थना में आनी चाहिए।
जो लोग जिस इष्ट की उपासना करते हैं, उसमें कोई भिन्नना नहीं है। यह एक ही स्थान पर पहुंचने के भिन्न-भिन्न मार्ग हैं। आदि शंकराचार्य ने पांच उपासनाएं प्रचलित की थीं-शिव, शक्ति, विष्णु, गणेश और सूर्य की। किसी दूसरे को दुख पहुंचाए बिना अपने इष्ट का पूजा करने का सभी को अधिकार है।
सही दृष्टि से समझकर किया गया छोटा-सा कार्य भी पूजा बन सकता है।
यदि परमात्मा को साथ जोड़ते हुए संसार और उसकी वस्तुओं का उपभोग करें तो ईश्वर का प्रसाद बन जाएंगे। शरीर का प्रत्येक अवयव तथा प्रत्येक इंद्रिय ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाएगी।
हम नित्य भोजन करते हैं, वस्त्र पहनते हैं, निद्रा लेते हैं और जीवन का व्यवहार चलाते हैं। जब ये समस्त कार्य नित्य करते हैं, तब प्रार्थना भी नित्य होनी चाहिए। यदि प्रार्थना नहीं तो भोजन भी नहीं। भोजन से स्थूल शरीर स्वस्थ रहता है और प्रार्थना से अंतः शरीर पुष्ट होता है।
प्रार्थना केवल प्रार्थना नहीं, वह त्रिदेव स्वरूप है। प्रार्थना सृजनात्मक चिंतन देती है और हमारा रक्षण करती है, इसलिए वह ब्रह्मा तथा विष्णु स्वरूप है प्रार्थना बुरे विचारों एवं बुरे चिंतन को समाप्त कर देती है। इसलिए वह शिव स्वरूप है।
शस्त्र रखने वाले की अपेक्षा प्रार्थना करने वाला व्यत्ति कहीं अधिक सुरक्षित है। प्रार्थना में शिशु भाव निहित होता है और शिशु की सुरक्षा उसके माता-पिता अर्थात परमात्मा करते हैं।
जब किसी के प्रति प्रीति जागती है तो प्रतीति होने लगती है हां प्रीति और प्रतीति दोनों एक साथ मिल जाती हैं वहां निष्ठा जागती है। जहां निष्ठा होती है वहां सत्कर्म करने का विचार उत्पन्न होता है। जब सत्कर्म होने लगता है, तब जन्म जीवन बनने की ओर अग्रसर हो जाता है।
कीर्तन के दो स्वरूप हैं-पहला, नाम कीर्तन और दूसरा, गुण-कीर्तन। गुण-कीर्तन को कथा कहते हैं जबकि नाम-कीर्तन में परमात्मा के नाम का कीर्तन किया जाता है।
जब आप ईश्वर का स्मरण करने बैठें तो अपनी सत्ता का विस्मरण कर दें और परमेश्वर की शाश्वत सत्ता का ध्यान करें।
जगत और जगदीश्वर में केवल इतना ही अंतर है-जगत बांधता है जबकि जगदीश्वर छुड़ाता है। यदि जगत में जगदीश्वर का भाव हो जाए तो जगत भी बंधन का कारण नहीं रहता।
जीवन में गंगा की लहरों की भांति-निरंतर अपने अपने आराध्य को छूने की उत्कट अभिलाषा जगानी चाहिए। यह तभी संभव है जब ईश्वर के चरित्रों को आप स्नेहपूर्वक पढ़ें, सुनें और समझने की चेष्टा करें।
जिसके जीवन में चरण हैं, उसके जीवन का आचरण शुद्ध होगा। अत: हाथ कर्म में और मन परमात्मा के चरणों में तल्लीन रहना चाहिए।
जो लोग सतत प्रीतिपूर्वक परमात्मा का स्मरण करते हैं, परमात्मा उनमें बुद्धियोग देता है। जो लोग मानसिक रूप से परमात्मा के प्रति समर्पित होते हैं और अपनी इंद्रियों को भी संयम के साथ उसमें अर्पित कर देते हैं, उनका उद्धार स्वयं परमात्मा करते हैं।
भक्ति
जो व्यक्ति परमात्मा का निष्ठावान सेवक होता
है, वह उसकी अचिंत्य लीलाओं
को देखकर मोह में नहीं पड़ता।
मनुष्य यह अनुभव करे कि यदि वह बंधा है तो केवल ईश्वर के चरणों में। इस विश्वास के दृढ़ होने पर ही वह मुक्त हो सकेगा।
जो भक्त का अपराध करता है, वह ईश्वर के रोष में जल जाता है।
नाम में इतनी आकर्षण शक्ति है कि नामी स्वत: खिंचकर चला आता है। परमात्मा का नाम एक या दो बार नहीं हमेशा जपना चाहिए।
जो ईश्वर की शरण में रहता है, उसे ग्रहों की चिंता नहीं रहती।
जब कोई सहायता नहीं करता, तब ईश्वर ही अपनाता है। वह इतना दयालु है कि जीवन पर करुणा किए बिना रह ही नहीं सकता।
आप जब तक यह मानते हैं कि ‘मैं कुछ हूँ’ और ‘मेरे पास कुछ है’ तब तक ईश्वर आपसे दूर रहता है। लेकिन जैसे ही यह ममत्व छूट जाता है तथा भावना आती है कि ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ और ‘मेरा कोई अस्तित्व नहीं है’, वैसे ही परमात्मा दौड़ा चला आता है।
ईश्वर का क्रोध भी एक महान् वरदान के समान होता है। यदि कोई मनुष्य आत्महत्या करने के लिए अमृतकुंड में कूद पड़े तो वह भी वैसे अमृतत्व प्राप्त करेगा, जैसे कोई जान-बूझकर अमर होने के लिए अमृत का सेवन करता है। अमृत का स्वभाव यह है कि जो कोई उसका स्पर्श करे, वह उसको अमृतत्व प्रदान करता है।
परमात्मा को केवल प्रेम प्रिय है। यही जानने योग्य है। जानकारी बहुत हो सकती है, ज्ञान नहीं। जानकारी के क्षेत्र बहुत से हैं, ज्ञान के नहीं। जब जानकारी के क्षेत्र से लौटकर मानव ज्ञान के क्षेत्र में अपने को प्रतिष्ठित करेगा, तब ज्ञान और प्रेम-दोनों के समन्वय से मानव जीवन में एक आभा, एक शांति तथा एक शाश्वत प्रेम की धारा बहेगी।
इस संसार में मात्र परमात्मा का गुणगान करने से भवसागर को बड़ी ही सरलतापूर्वक पार किया जा सकता है।
यदि अपने मन रूपी भ्रमर को ईश्वर के चरणों में स्थापित कर दो तो जैसे भ्रमर कमल में बंद हो जाता है, वैसे ही यह मन भी प्रभु के चरण-कमल में बंद होकर अपनी चंचलता से मुक्त हो जाएगा।
अंधेरा पहले भी था, आज भी है, कालिमा पहले भी थी, आज भी है और बुराई पहले भी थी, आज भी है, इसीलिए तो वेद तमसो मा ज्योतिर्गमय का व्याख्यान करते हैं। प्रकाश की ओर जाना ही वास्तव में करणीय है।
जब तक मानव के मन में प्रीति नहीं जगती, तब तक उसकी भक्ति भी मशीन के समान क्रिया करती है। मशीन की तरह किया गया कार्य मशीन ही हो जाता है। इसलिए भक्ति का प्रीति के साथ संयोग होना चाहिए।
मनुष्य यह अनुभव करे कि यदि वह बंधा है तो केवल ईश्वर के चरणों में। इस विश्वास के दृढ़ होने पर ही वह मुक्त हो सकेगा।
जो भक्त का अपराध करता है, वह ईश्वर के रोष में जल जाता है।
नाम में इतनी आकर्षण शक्ति है कि नामी स्वत: खिंचकर चला आता है। परमात्मा का नाम एक या दो बार नहीं हमेशा जपना चाहिए।
जो ईश्वर की शरण में रहता है, उसे ग्रहों की चिंता नहीं रहती।
जब कोई सहायता नहीं करता, तब ईश्वर ही अपनाता है। वह इतना दयालु है कि जीवन पर करुणा किए बिना रह ही नहीं सकता।
आप जब तक यह मानते हैं कि ‘मैं कुछ हूँ’ और ‘मेरे पास कुछ है’ तब तक ईश्वर आपसे दूर रहता है। लेकिन जैसे ही यह ममत्व छूट जाता है तथा भावना आती है कि ‘मैं कुछ नहीं हूँ’ और ‘मेरा कोई अस्तित्व नहीं है’, वैसे ही परमात्मा दौड़ा चला आता है।
ईश्वर का क्रोध भी एक महान् वरदान के समान होता है। यदि कोई मनुष्य आत्महत्या करने के लिए अमृतकुंड में कूद पड़े तो वह भी वैसे अमृतत्व प्राप्त करेगा, जैसे कोई जान-बूझकर अमर होने के लिए अमृत का सेवन करता है। अमृत का स्वभाव यह है कि जो कोई उसका स्पर्श करे, वह उसको अमृतत्व प्रदान करता है।
परमात्मा को केवल प्रेम प्रिय है। यही जानने योग्य है। जानकारी बहुत हो सकती है, ज्ञान नहीं। जानकारी के क्षेत्र बहुत से हैं, ज्ञान के नहीं। जब जानकारी के क्षेत्र से लौटकर मानव ज्ञान के क्षेत्र में अपने को प्रतिष्ठित करेगा, तब ज्ञान और प्रेम-दोनों के समन्वय से मानव जीवन में एक आभा, एक शांति तथा एक शाश्वत प्रेम की धारा बहेगी।
इस संसार में मात्र परमात्मा का गुणगान करने से भवसागर को बड़ी ही सरलतापूर्वक पार किया जा सकता है।
यदि अपने मन रूपी भ्रमर को ईश्वर के चरणों में स्थापित कर दो तो जैसे भ्रमर कमल में बंद हो जाता है, वैसे ही यह मन भी प्रभु के चरण-कमल में बंद होकर अपनी चंचलता से मुक्त हो जाएगा।
अंधेरा पहले भी था, आज भी है, कालिमा पहले भी थी, आज भी है और बुराई पहले भी थी, आज भी है, इसीलिए तो वेद तमसो मा ज्योतिर्गमय का व्याख्यान करते हैं। प्रकाश की ओर जाना ही वास्तव में करणीय है।
जब तक मानव के मन में प्रीति नहीं जगती, तब तक उसकी भक्ति भी मशीन के समान क्रिया करती है। मशीन की तरह किया गया कार्य मशीन ही हो जाता है। इसलिए भक्ति का प्रीति के साथ संयोग होना चाहिए।
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