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अमृत गंगा

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4390
आईएसबीएन :81-310-0108-3

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जीवन को दिव्य और पावन बनाने वाले अलौकिक उपदेश

Amrit Ganga a hindi book by Swami Avdheshanand Giri - अमृत गंगा -

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

अमृत आयु को बढ़ा जरूर देता है लेकिन मृत्यु के भय को समाप्त नहीं कर पाता। देवताओं को भी अपमान और पराजय रूपी मृत्यु समान कष्ट का भय सदैव बना रहता है। पुराणों में इंद्रादि से संबंधित कथाओं को पढ़ने से इसकी पुष्टि होती है।
परीक्षित की कथा जिन्होंने पढ़ी-सुनी होगी, वे भलीभांति जानते हैं कि परीक्षित ने स्वर्गलोक में प्राप्त होने वाले अमृत का पान नहीं किया था, फिर भी वह अमर हो गया। उसमें से मृत्यु का भय सदा-सदा के लिए चला गया। वह परीक्षित, जो मृत्यु से बुरी तरह भयभीत था, कालसर्प तक्षक के समक्ष अपने दाहिने पैर का अंगूठा बढ़ाकर कहता है कि ‘काट लो मुझे अब, तुम्हारे दंश के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली मृत्यु का अब मुझे बिलकुल भय नहीं है।’

श्रीमद्भागवत के माहात्म्य में कहा गया है कि देवता अमृतकलश लेकर महर्षि व्यास के पास आए। उन्होंने महर्षि से कहा कि वे अमृतकलश ले लें और उन्हें भक्ति रस प्रधान उत्कृष्टतम भागवत कथा का पान कराएं। महर्षि ने मना कर दिया। देवताओं ने अमृत के बदले जो कथा सुनने की इच्छा प्रकट की, इससे संकेत मिलता है कि अध्यात्म का पावन रस अमृत से भी ज्यादा मूल्यवान है।

रामचरित मानस के सुंदरकांड में लंकिनी का श्री हनुमान जी के प्रति कहा गया यह वचन अतिशयोक्ति नहीं है, जीवन का परम यथार्थ है। उससे सत्संग की अलौकिक महिमा का पता चलता है। लंकिनी ने कहा-
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला इक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग।।
ऐसा ही प्रसंग सुकरात के जीवन से जुड़ा हुआ है। कहते हैं जब सुकरात को विष दिया गया तो अपने पास मिलने आए शिष्यवर्ग से वे जीवन से संबंधित विभिन्न प्रश्नों की चर्चा में संलग्न हो गए। शिष्य जानते थे कि अब इस महान विचारक के दर्शन न हो पाएंगे, इसलिए जो पूछा जा सकता है पूछ लिया जाए। कारावास का अंगरक्षक यह सब देख रहा था। उसने सुकरात से निवेदन किया कि वे मौन रहें, बोलें नहीं, नहीं तो विष का असर कम हो जाएगा और उन्हें फिर से विष देना पड़ेगा, जिससे असहनीय पीड़ा होगी। सुकरात ने मुस्कराकर कहा, कोई बात नहीं, तुम अपना काम करो और मुझे अपना काम करने दो। तुम जिस साधारण-सी लगने वाली बेकार की बातचीत समझ रहे हो, वह जीवन से सभी दुखों को खींचकर बाहर फेंकने वाली परमन औषधि है। यही वह अमृत है जो मनुष्य को दीर्घायु ही नहीं बनाता उसे अमरता की अनुभूति भी करा देता है-उसके बाद वह मनुष्य कभी नहीं मरता है। उसके लिए मृत्यु शब्द निरर्थक हो जाता है.

म. मं. जूनापीठाधीश्वर श्री स्वामी अवधेशानंद जी महाराज द्वारा दिए गए उपदेश अमृत तुल्य हैं। जब वे अनवरत धारा की तरह उनके मुखारविंद से प्रवाहित होते हैं तो लगता है मां पतित पावनी भागीरथी की पावन-स्वच्छ धारा में हम स्नान कर रहे हैं। यह स्नान भय तप्त हृदयों के संतापों की ऊष्मा को हर कर परम शांति देने वाला है।

मैंने महाराजश्री द्वारा विभिन्न अवसरों पर दिए प्रवचनों को सरल भाषा में, संक्षिप्त रूप में आप श्रद्धालु-जिज्ञासु पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मुझे पूरा विश्वास है कि इस प्रवचन संग्रह को पढ़ने के बाद जहां आपकी कई शंकाओं का सहज समाधान होगा, वहीं यह आपके बुद्धि पटल पर जीवन के यथार्थ की एक स्पष्ट झलक भी देगा।
आपको अपने जीवन में अभ्युदय और निःश्रेयस, दोनों की ही प्राप्ति हो, यही मेरी हार्दिक शुभकामनाएं हैं।
गंगा प्रसाद शर्मा
तुमसे भूल हुई है। तुम गलत जगह आ गए हो। मृत्यु के बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता, इसलिए मैं नहीं बता पाऊंगा कि वह क्या है। उसके बारे में पूछे गए सभी प्रश्न अनुत्तरित रहेंगे मेरे पास। इसके लिए जाओ उसके पास जिसने मृत्यु का अनुभव किया हो, जो मरा हो। मैंने कभी जन्म नहीं लिया, इसलिए कभी मरा भी नहीं। मैं अजन्मा हूं ! मैं अमर हूं, अविनाशी हूं ! मैं तुम्हें इन्हीं की जानकारी दे सकता हूं। तुम भी अमर हो, अजन्मा हो। मृत्यु कभी तुम्हारा स्पर्श नहीं कर सकती।
वेदांत तीर्थ

(1)

जिन खोजा तिन पाइयां

ब्रह्मज्ञानी शेख जीलानी द्वारा शुरू की गई कादरी सूफी परंपरा के प्रसिद्ध विद्वान और कोमल हृदयी संत साईं इनायत शाह कादरी लाहौर के अपने बगीचे में बागवानी कर रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि पेड़ों से आम के पके फल टपकने लगे। वे समझ गए कि यह चमत्कार उस अल्हड़ युवक का है जिसने ‘बिस्मिल्लाह’ कहकर पेड़ों की ओर देखा था। वह कोई साधारण नहीं वरन आध्यात्मिक दृष्टि से संपन्न युवक था।

संत साईं इनायत शाह कादरी ने उस युवक से पूछा-क्यों जवान ! ये आम क्यों तोड़े हैं ? यह सुनकर युवक की मुराद पूरी हो गई। वह यही चाहता था कि साईंजी का ध्यान उसकी ओर जाए। वह नम्रता से बोला-साईं ! मैं न तो पेड़ पर चढा़ और न ही कंकड़ फेंका, फिर मैंने तुम्हारे फल कैसे तोड़े ? साईं इनायत शाह कादरी ने युवक पर दृष्टि डाली और बोले-अरे, तू चोर भी है और चतुर भी। खैर, जाने दे आम की बात और बता कि तेरा नाम क्या है ? तू चाहता क्या है ? युवक कृतकृत्य हो गया और बोला-मेरा नाम बुल्ला है। मैं रब को पाना चाहता हूं। इतना कहकर बुल्लेशाह साईंजी के चरणों को चूमने लगे। इस पर साईं इनायत कहकर बुल्लेशाह साईंजी के चरणों को चूमने लगे। इस पर साईं इनायत शाह कादरी ने हंसकर कहा-अरे, तू नीचे क्यों गिरता है। ऊपर उठ और मेरी तरफ देख।

साईं की खोज में कसूर से लाहौर आए बुल्लेशाह उठे और जब उन्होंने इनायत शाह कादरी की ओर देखा तो उनकी कृपादृष्टि से निहाल हो गए। साईं अत्यंत सहज भाव से बोले-रब को क्या पाना ? इधर से उखाड़ना, उधर लगाना। इस प्रकार उस युवक बुल्लेशाह को गुरु-दीक्षा मिल गई। वह जीवन में इसी गुरु मंत्र को सिद्ध करके स्वयं सिद्ध हो गए।
चित्तवृत्ति को जगत में से उखाड़कर एवं वापस खींचकर परमात्मा के चरणों में समर्पित करने, एकाग्र करने अथवा लगा देने से ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है। मनुष्य-जीवन का सार-सर्वस्व उसकी चेतना है जो मूलतः ब्राह्मी चेतना अथवा स्वयं ब्रह्म का चैतन्य है। जब तक यह चेतना सुख की खोज में भटकती है तब तक हमें यह जगत मिलता-छिनता रहता है। स्थायी सुख, शांति और समाधान नहीं प्राप्त होता। ऐसे में वह भटकाव न तो मंद पड़ता है और न ही समाप्त होता है।
इसके विपरीत वह अत्याधिक व्यग्र और उग्र होता जाता है। अंततः व्यक्ति उसी में रमे रहकर प्राण त्याग देता है तथा जन्म-मृत्यु के चक्रव्यूह में फंसा रहता है। इस जंजाल से मुक्ति होने का एक ही उपाय है-चेतना को जगत की ओर से हटाकर अपने शाश्वत, अनंत तथा अक्षर सच्चिदानंद स्वरूप में रोप देना। साईं इनायत शाह ने शिष्य बुल्लेशाह की यही कृपा बख्शी थी।

यहां इस बात का विशेष रूप से ध्यान दें कि यदि चेतना का यह रोपण बुद्धि के स्तर तक सीमित रहा तो उससे आत्मज्ञान का प्रकाश नहीं प्राप्त होगा। काम तब बनेगा जब चेतना जगत और उसके व्यक्तियों, विचारों, व्यवसायों, विषयों एवं भोगों की ओर से न जाए। यहां से हटाकर वहां रोपने पर पौधों, को सींचना पड़ता है अन्यथा रस के अभाव में वे कुम्हला जाते हैं साईं इनायत शाह जहां वाणी के माध्यम से बुल्लेशाह की चेतना को जगत में से उखाड़कर परम चैतन्य में रोप रहे थे, वहीं उनके नेत्रों से प्रेम की सरस्वती उमड़ रही थी। उन्होंने बुल्लेशाह की चेतना को उस मधुर रस से आप्लावित कर दिया। इस प्रकार गुरु द्वारा शिष्य की चेतना में रोपा गया ज्ञान का बिरवा पल्लवित, पुष्पित तथा फलों से युक्त होकर आज तक खड़ा है।

प्रेम-प्रीति का अर्थ है-दुई की समाप्ति अर्थात जीवात्मा का आत्मा में और आत्मा का परमात्मा में विलय। यह है गुरु रामकृष्ण परमहंस और शिष्य विवेकानंद अर्थात आत्मा एवं परमात्मा के बीच आध्यात्मिक रोमांस, जहां द्वैत भाव पूरी तरह मिट जाता है। अज्ञान और ज्ञान, सत् और असत् अथवा विद्या और अविद्या-दोनों विलीन हो जाते हैं। इसके स्थान पर मात्र रह जाता है-एकात्मा भाव, शुद्ध चैतन्य और समग्र जड़-चेतन।

सृष्टि के प्रति करुणा की रस धारा के अजस्त्र प्रवाह में अवगाहन करने पर जीवात्मा की चेतना का समूचा कलुष धुल जाता है। यह है परमपुरुष एवं माया तथा गुरु और शिष्य के मिलन की मधुर यामिनी जिसमें अंधकार नहीं रह जाता। ऐसे साहचर्य द्वारा चेतना के गर्भ से आत्मज्ञान नामक पुत्र एवं भक्ति नाम की पुत्री का जन्म होता है। आत्मज्ञान चेतना की रक्षा करता है-जगत के प्रलोभनों के आक्रमणों से और भक्ति, भगवद् भक्ति एवं गुरु भक्ति जीवन में रस का संचार करती है।
यह भक्ति अनुरक्त करती है-भक्त को भगवान में और भगवान को भक्त में, गुरु को शिष्य में और शिष्य को गुरु में अथवा इनायत शाह को बुल्लेशाह और बुल्लेशाह को इनायत शाह में। यदि गुरु ने तनिक मुंह मोड़ लिया तो बुल्लेशाह ने नवविवाहिता की तरह हाथों में मेहंदी रचाई और सिर गुंथवाकर गुरु के चरणों में जा पड़े। आत्मज्ञान के पथ पर पथिक माया को अपने सिर का बोझ मानता है क्योंकि उसे भोगा नहीं, ढोया जाता है।

जो कुछ उसे नहीं मिला वह उसकी कामना नहीं करता, उसे मांगता नहीं और उसका अभाव भी नहीं महसूस करता। इसके लिए वह ईश्वर को धन्यवाद देता है, क्योंकि ईश्वर जिसे अपनी ओर खींचता है, उसकी ओर से माया का पाश भी खींच लेता है। इसे भक्त अपना सौभाग्य समझता है। उसे जो कुछ माया मिली अथवा नहीं मिली-उन दोनों में से अपनी चेतना को बाहर खींचकर गुरु के माध्यम से ईश्वर के भीतर रोप देता है।

यह है सकारात्मक दृष्टि और सकारात्मक साधना। इसमें त्याग और तपस्या की भावना नहीं रहती वरन उपलब्धि तथा परमात्मा के साथ एकाकार होने की चेतना रहती है। अंततोगत्वा वह भावना भी उसी में समाकर शांत हो जाती है। गुरु वही है जो स्वयं इनायत शाह हो। इनायत का अर्थ है-कृपा, करुणा और रस धारा जो उपजती है निर्व्याज प्रेम से। यह शिष्य के जीवात्मा आत्मा को को आत्मा-परमात्मा अथवा नित्य चैतन्य तथा परमानंद की ओर ले जाती है।
गुरु की कृपा से ईश्वर मिलता है और ईश्वर की कृपा से गुरु। ईश्वर जिसे प्यार करता है, उसे गुरु के द्वार पर पहुंचा देता है और गुरु जिसे प्यार करता है, उसे ईश्वर के द्वार पहुँचा देता है। गुरु शिष्य को और शिष्य गुरु को तथा आत्मा परमात्मा को और परमात्मा आत्मा को खोजकर अपने भीतर समा लेता है। यही है अद्वैत। जिसे खोजेंगे, उसे ही पाएंगे। जगत को खोजने पर जगत और आत्मा को खोजने पर परमात्मा मिल जाता है।

(2)

सहज-सरल जीवन

एक युवक किसी सन्यासी के पास गया। उसके चेहरे पर निराशा झलक रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वह जीवन से टूट चुका हो। उसने अपनी समस्या प्रस्तुत करते हुए कहा-महात्मा जी ! मैं अपने माता-पिता की इकलौती संतान हूं। मेरे घर में धन-वैभव की कमी नहीं है। सुख-सुविधा के सभी साधन हैं। मुझे उच्च शिक्षा दी गई है। फिर भी मेरा जीवन सहज, स्वस्थ और आनंदमय नहीं है। मैंने कारण खोजने की बहुत कोशिश की मगर कोई सूत्र हाथ नहीं लगा। कृपया मेरा मार्ग दर्शन कीजिए।

संन्यासी ने युवक पर निगाह डाली और उसे आश्वस्त करते हुए अपने पास बैठाया, फिर उसने पहला वाक्य यह कहा-तुम सहज होकर जीना सीखो। युवक ने कहा-महात्मा जी ! मेरी यही समस्या है कि मैं जितना सहज होकर जीने का प्रयास करता हूं, उतना ही असहज बन जाता हूं। संन्यासी ने कहा-सहज होने के लिए प्रयास करने की नहीं, प्रयास छोड़ने की जरूरत है। अन्यथा जीवन सहज नहीं, समस्या बना रहेगा।

यह समस्या सिर्फ एक युवक की नहीं है। हजारों युवक ऐसी ही समस्या से आक्रांत हैं। उन्हें ऐसा अनुभव होता है कि उनका जीवन अंधेरी रात के समान है। वे प्रतीक्षा कर रहे हैं, उस क्षण की जब उनके जीवन में उजली भोर का उदय हो और सुबह की इस प्रतीक्षा में वे अपने जीवन को एक किनारे धरकर अशांत अवस्था में बैठे हुए हैं।
प्रश्न सबका एक ही है कि स्वप्न को सच में प्रकट करने के लिए किस मार्ग का सहारा लिया जाए ? जीवन को सहज और आनंदमय बनाने की प्रक्रिया क्या है ? इस संदर्भ में संतों, धर्माचार्यों, ऋषियों एवं विचारकों ने जीवन के विक्षिप्त या दुखमय बनने का कारण जीवन की अस्वाभाविकता बताया है। व्यक्ति जितना असहज या अस्वाभाविक रहता है, वह उतना ही दुखी होता है। दुख को भोगने के लिए उसे बाहर से कुछ जुटाने की जरूरत नहीं पड़ती। उसके भीतर जो कुछ है, वही पर्याप्त है-उसे दुख देने के लिए। यदि व्यक्ति तो उस अनुभूति को बदल सकता है। वह उस अनुभूति को ऐसा मोड़ दे सकता है जिससे दुख का लवलेश ही मिट जाए।

दुनिया में बहुत से लोग ऐसे भी होते हैं जो आज की परिधि में नहीं रहते। वे अतीत के साथ जुड़कर जीते हैं या भविष्य की कल्पनाओं में बंधे रहते हैं। ऐसे लोग भी सहज और आनंदमय जीवन नहीं जी सकते। क्योंकि वे दूरस्थ तथा संदिग्ध काम शुरू कर देते हैं जिनकी सफलता उनके वश की बात नहीं होती। काम की असफलता से उनके मन में निराशा तथा परेशानी बढ़ती है। इस कारण वे काम को बीच में ही छोड़ देते हैं।

एक असफलता अन्य दस प्रकार की असफलताओं की जननी बनती है। जो काम वे लोग कर सकते हैं, उनमें भी उनका मन नहीं लगता। फलतः निराश होकर उन्हें अपना काम छोड़ना पड़ता है। जिस प्रकार संदिग्ध कार्य व्यक्ति को असफल कर देते हैं, उसी प्रकार अस्थिर मानसिकता भी कार्य में सफल नहीं होने देती। इसके अलावा जो लोग केवल दूसरों के अनुकरण के आधार पर काम शुरू करते हैं तथा अपनी क्षमता, योग्यता एवं परिवेश को नहीं पहचानते; वे भी अपने जीवन में सफल नहीं होते। इसीलिए आनंदमय जीवन नहीं जी पाते। दूसरी वास्तविकता यह है कि कोई व्यक्ति पूर्ण नहीं होता। अगर वह अपनी अपूर्णता को स्वीकार कर ले और उसे यथार्थ मानकर अपने आपको संतुलित रखे तो वह असहज नहीं हो सकता।
अध्यात्म की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है-सहजता और सरलता। इसीलिए आध्यात्मिक व्यक्ति का जीवन एक ऐसी खुली किताब की तरह होता है जिसे कोई भी और कभी भी पढ़ सकता है। अतएव जो व्यक्ति जितना दिखावा करे, उसे उतना ही अधिक आध्यात्मिकता से दूर समझना चाहिए।
-आचार्य वेदांत तीर्थ

(3)

योग द्वारा अज्ञान का नाश

प्रत्येक जीव जाने-अनजाने में मुक्ति की कामना करता है और इसी ओर उसकी गति भी होती है। भारतीय दर्शन में मोक्ष को परम पुरुषार्थ कहा गया है जबकि धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ हैं। नदियां छोटे-छोटे लक्ष्य में आत्मसात करती हुई आगे बढ़ती हैं और अंत में समुद्र में मिल जाती हैं। पुरुषार्थ द्वारा तृप्ति नहीं प्राप्त होती। व्यवहार में देखा गया है कि एक लक्ष्य प्राप्त करने के बाद फिर दूसरे को प्राप्त करने का प्रयास शुरू हो जाता है-मरु मरीचिका की तरह। इस प्रकार लक्ष्यों-उपलक्ष्यों की यह श्रृंखला तब तक चलती रहती है, जब तक वासना का क्षय नहीं हो जाता।

यही स्थिति परम पुरुषार्थ मोक्ष की है। यह परम सिद्धि है जिसकी प्राप्ति अद्वैत ज्ञान से होती है। शास्त्रों में इस सिद्धि को प्राप्त करने के अनेक मार्ग बताए गए हैं। इन पद्धतियों का जातीय नाम योग अर्थात अपने को अपनी वास्तविकता से जोड़ना है। योग की सभी प्रणालियों का लक्ष्य अपने अज्ञान का नाश करना और आत्मा को अपने स्वरूप की पुनर्स्थापना में रत करना है।

योग का पहला स्वरूप है-कर्मयोग। इसके द्वारा हम अपने मन को शुद्ध तथा निर्मल करते हैं। शुभ-अशुभ कर्म करने पर वैसा ही परिणाम मिलेगा। कर्म केवल शरीर से संबद्ध है, आत्मा से नहीं। कर्मयोग यह सिखाता है कि समस्त कर्म उसके फलों की इच्छा से मुक्त होकर किए जाने चाहिए। जो लोग कर्म और कर्मफल पर विश्वास करते हैं, उनके लिए कर्मयोग परमावश्यक है। इसकी साधना से व्यक्ति कर्तापन के एहसास से धीरे-धीरे मुक्त होने लगता है। यही उसके अंतःकरण की शुद्धता है।
योग का दूसरा स्वरूप है-भक्तियोग। भक्ति या पूजा अथवा किसी रूप में प्रेम करना मनुष्य के लिए सबसे सरल, सुखद तथा स्वाभाविक मार्ग है। भक्ति का आलंबन ईश्वर है। एक कर्ता और आलंबन के बिना प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम का आलंबन एक ऐसी प्राणी होना चाहिए जो हमारे प्रेम का प्रतिदान दे सके। प्रेम का आलंबन वही हो सकता है जिसमें आपको अपने संपूर्ण आदर्श का दर्शन होता हो। ऐसा ईश्वर के अलावा अन्य कौन हो सकता है। ऐसे में प्रेम सारे भय का निराकरण कर देता है।
योग का तीसरा स्वरूप है-राजयोग। उसकी संगति इन योगों में प्रत्येक से हो जाती है। यह धार्मिक जिज्ञासा का यथार्थ उपकरण है। उसके मुख्य अंग प्राणायम, ध्यान और धारणा हैं। किसी गुण से प्राप्त कोई प्रतीकात्मक नाम ‘ऊँ’ या अन्य पवित्र शब्द इसमें बड़े सहायक होते हैं। इन पवित्र नामों का जप करते हुए उनके अर्थ की धारणा करना राजयोग का मुख्य अभ्यास है।

चौथा योग ज्ञानयोग कहलाता है। यह तीन अंगों में बंटा है। पहला, इस सत्य का श्रवण करना कि आत्मा ही मात्र वास्तविक है और बाकी सब माया है। दूसरा, इस दर्शन पर सभी दृष्टिकोणों से मनन करना। तीसरा, इसके आगे सारे तर्क-वितर्कों को वर्जित करके सत्य की अनुभूति प्राप्त करना।
इस अनुभूति को इस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है कि ब्रह्म ही सत्य है और बाकी सब मिथ्या। इसके अलावा भोग की समस्त इच्छा का त्याग, मन एवं इंद्रियों का संयम तथा मुक्त होने की तीव्र आकांक्षा भी होनी चाहिए। आत्मा को सदैव उसके वास्तविक स्वरूप का स्मरण कराते रहना ही इस योग का मार्ग है। यह योग सबसे कठिन है, इसीलिए सर्वोच्च है। इसे बहुत से लोग बुद्धि द्वारा ग्रहण कर लेते हैं लेकिन उसकी सिद्धि नहीं कर पाते।
‘श्रीमद्भगवद् गीता’ में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग को हितकर बताते हुए कहा है कि इससे मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति होता है। उन्होंने सांख्ययोग और कर्मयोग को एक माना है। वे कहते हैं कि जो व्यक्ति इन दोनों में से किसी भी एक में अच्छी तरह स्थित हो जाता है, उसे दोनों का फल प्राप्त होता है। जो स्थान ज्ञान योगियों को प्राप्त होता है, वही स्थान कर्म योगियों को भी मिलता है।
-अशोक कुमार ओझा

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