धर्म एवं दर्शन >> साधना पथ साधना पथस्वामी अवधेशानन्द गिरि
|
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जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के सुगम मार्ग
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
साधना पथ
जीवन की परम उपलब्धि को प्राप्त करने की सरल राहें
अध्यात्म की यात्रा स्थूल से सूक्ष्म की है। स्थूल से सूक्ष्म दोनों ही
स्थितियों में भ्रम की संभावना रहती है। इसीलिए जहां इस यात्रा में
विशिष्ट समझ की जरूरत होती है, वहीं यह भी जरूरी हो जाता है कि इसे किसी
मार्गदर्शक की देखरेख में तय किया जाए। साधना के बहिरंग साधनों के सही-गलत
का निरीक्षण तो ऐसा आचार्य भी कर सकता है जो श्रोत्रिय हो, अर्थात् जिसने
शास्त्रों का अध्ययन और चिंतन किया हो, लेकिन आंतरिक साधना-यात्रा के
परीक्षण के लिए ऐसे सद्गुरु की कृपा आवश्यक होती है जो श्रोत्रिय और
ब्रह्मनिष्ठ दोंनो ही हो, जो सत्य के बारे में जानता हो, और जिसने उसका
साक्षात्कार किया हो। ऐसे महापुरुष को नमन करते हुए कहा गया है—
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मैं श्री गुरवे नमः।।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मैं श्री गुरवे नमः।।
वेदांत ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठसाधना आत्मतत्व को जानने के प्रयास को कहा
गया है। साध्य आत्मज्ञान ही तो है। साध्य सदैव सबके पास है, बस उस प्राप्त
को जानने के लिए ही समस्त साधनाएं हैं।
यह पुस्तक म.मं. श्रद्धेय अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों का सार रूप है। पढ़ते समय आपको लगेगा, मानो किसी अलौकिक लोक से आई बयार आपके मन को संताप मुक्त कर रही है। इससे उस शांति की झलक भी आपको मिलेगी जिसकी जन्म-जन्मांतरो से आपको तलाश है।
यह पुस्तक म.मं. श्रद्धेय अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों का सार रूप है। पढ़ते समय आपको लगेगा, मानो किसी अलौकिक लोक से आई बयार आपके मन को संताप मुक्त कर रही है। इससे उस शांति की झलक भी आपको मिलेगी जिसकी जन्म-जन्मांतरो से आपको तलाश है।
संत : अर्थ, परिभाषा एवं लक्षण
हिंदी में ‘संत’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में मिलता
है—1.सामान्य अथवा व्यापक अर्थ में 2.रूढ़ अथवा संकुचित अर्थ
में।
व्यापक रूप में संत का तात्पर्य है—पवित्रात्मा, परोपकारी,
सदाचारी।
‘हिंदी शब्द सागर’ में संत का अर्थ दिया गया
है—साधु,
त्यागी, महात्मा, ईश्वर भक्त धार्मिक पुरुष। ‘मानक हिंदी
कोष’
में संत शब्द को ‘संस्कृत संत’ से निष्पन्न मानते हुए
उसका
अर्थ किया गया है—1. साधु, संन्यासी, विरक्त या त्यागीपुरुष,
सज्जन,
महात्मा 2.परम धार्मिक और साधु व्यक्ति। ‘आप्टे’ के
कोश में
संत शब्द के दस अर्थ मिलते हैं जिनमें मुख्य हैं—सदाचारी,
बुद्धिमान, विद्वान, साधु, पवित्रात्मा आदि।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘संत शब्द’ संस्कृत के सन् का बहुवचन है। सन् शब्द भी अस्भुवि (अस=होना) धातु से बने हुए ‘सत’ शब्द का पुर्लिंग रूप है जो ‘शतृ’ प्रत्यय लगाकर प्रस्तुत किया जाता है और जिसका अर्थ केवल ‘होनेवाला’ या ‘रहने वाला’ हो सकता है। इस प्रकार ‘संत’ शब्द का मौलिक अर्थ ‘शुद्ध अस्तित्व’ मात्र का बोधक है। डॉ. पीतांबरदत्त बड़थवाल के अनुसार ‘संत’ शब्द की संभवतः दो प्रकार की व्युत्पत्ति हो सकती है। या तो इसे पालिभाषा के उस ‘शांति’ शब्द से निकला हुआ मान सकते हैं जिसका अर्थ निवृत्ति मार्गी या विरागी होता है अथवा यह उस ‘सत’ शब्द का बहुवचन हो सकता है जिसका प्रयोग हिंदी में एकवचन जैसा होता है और इसका अभिप्राय एकमात्र सत्य में विश्वास करने वाला अथवा उसका पूर्णतः अनुभव करने वाला व्यक्ति समझा जाता है इसके अतिरिक्त ‘संत’ शब्द की व्युत्पत्ति शांत, शांति, सत् आदि से भी बताई गई है। कुछ विद्वानों ने इसे अंग्रेजी के शब्द सेंट (Saint) समानार्थक उसका हिंदी रूपांतर सिद्ध करने का प्रयास किया है। ‘तैत्तरीय उपनिषद’ में इसका प्रयोग ‘एक’ एवं अद्वितीय परमतत्व के लिए भागवत में इसका प्रयोग ‘पवित्रता’ के अर्थ में किया गया है और बताया गया है कि संसार को पवित्र करने वाले तीर्थों को भी संत पवित्र करने वाले होते हैं। एक अन्य विद्वान मुनिराम सिंह ने ‘पहाड़दोहा’ में संत को ‘निरंजन’ अथवा ‘परमतत्व’ का पर्याय माना है। कबीरदास के अनुसार जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, ईश्वर से प्रेम करता है और विषयों से असंपृक्त रहता है, वही संत है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से ‘संत शब्द’ संस्कृत के सन् का बहुवचन है। सन् शब्द भी अस्भुवि (अस=होना) धातु से बने हुए ‘सत’ शब्द का पुर्लिंग रूप है जो ‘शतृ’ प्रत्यय लगाकर प्रस्तुत किया जाता है और जिसका अर्थ केवल ‘होनेवाला’ या ‘रहने वाला’ हो सकता है। इस प्रकार ‘संत’ शब्द का मौलिक अर्थ ‘शुद्ध अस्तित्व’ मात्र का बोधक है। डॉ. पीतांबरदत्त बड़थवाल के अनुसार ‘संत’ शब्द की संभवतः दो प्रकार की व्युत्पत्ति हो सकती है। या तो इसे पालिभाषा के उस ‘शांति’ शब्द से निकला हुआ मान सकते हैं जिसका अर्थ निवृत्ति मार्गी या विरागी होता है अथवा यह उस ‘सत’ शब्द का बहुवचन हो सकता है जिसका प्रयोग हिंदी में एकवचन जैसा होता है और इसका अभिप्राय एकमात्र सत्य में विश्वास करने वाला अथवा उसका पूर्णतः अनुभव करने वाला व्यक्ति समझा जाता है इसके अतिरिक्त ‘संत’ शब्द की व्युत्पत्ति शांत, शांति, सत् आदि से भी बताई गई है। कुछ विद्वानों ने इसे अंग्रेजी के शब्द सेंट (Saint) समानार्थक उसका हिंदी रूपांतर सिद्ध करने का प्रयास किया है। ‘तैत्तरीय उपनिषद’ में इसका प्रयोग ‘एक’ एवं अद्वितीय परमतत्व के लिए भागवत में इसका प्रयोग ‘पवित्रता’ के अर्थ में किया गया है और बताया गया है कि संसार को पवित्र करने वाले तीर्थों को भी संत पवित्र करने वाले होते हैं। एक अन्य विद्वान मुनिराम सिंह ने ‘पहाड़दोहा’ में संत को ‘निरंजन’ अथवा ‘परमतत्व’ का पर्याय माना है। कबीरदास के अनुसार जिसका कोई शत्रु नहीं है, जो निष्काम है, ईश्वर से प्रेम करता है और विषयों से असंपृक्त रहता है, वही संत है।
निरबैरी निहकामना, साई सेतीनेह।
विषया सूं न्यारा रहै, संतन के अंग एह।।
विषया सूं न्यारा रहै, संतन के अंग एह।।
संत कवि दूलनदास संतों को उपवन के पुष्प समान मानते हैं। जिस प्रकार उपवन
का एक पुष्प दूसरे से कोई अंतर नहीं रखता और सर्वत्र सुगंधित विकीर्ण करता
है वैसे ही संत अमृतमयी वाणी से धरा-धाम पर सुख-शांति लाता है।
दुलन साधु सब एक हैं बाग फूल समतूल।
कोई कुदरती सुबास है और धूल-धूल के फूल।।
कोई कुदरती सुबास है और धूल-धूल के फूल।।
पलटूदास संत को तीर्थों से भी अधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। वे कहते
हैं—
पलटू तीरथ को चला, बीचे मिलियो संत।
एक मुक्ति के कारने, मिल गई मुक्ति अनंत।।
एक मुक्ति के कारने, मिल गई मुक्ति अनंत।।
वार्ता साहित्य में ‘संत’ शब्द का प्रयोग अनेक बार
आया है।
नैमिषारण्य में जिन शौनक ऋषि तथा उनके साथ के अट्ठासी सहस्र ऋषि-मुनियों
ने दीर्घकालीन सत्र किया था, वे सब संत कोटि के ही प्राणी थे किंतु इन सभी
कवियों की अपेक्षा गोस्वामी तुलसी दास ने सर्वाधिक विस्तार से और व्यापक
रूप में संतों का लक्षण-निरूपण किया है। रामचरितमानस बालकांड, अरण्यकांड
और उत्तरकांड में संतों के संबंध में विस्तार से चर्चा की गई है। बालकांड
के प्रारंभ में संत-असंत, लक्षण-निरूपण में उन्होंने संत को
‘खल’ अथवा ‘असज्जन’ का
विपरीतार्थक माना है। उनके
अनुसार संत का चरित्र कपास के समान शुभ्र, नीरस, (सांसारिक रसों से
विरक्त) विशद (उज्ज्वल, निर्विकार) और गुणमय होता है। वे स्वयं कष्ट सहकर
दूसरों के कष्टों का निवारण करते हैं। संत इस संसार में जंगमतीर्थ सदृश
होते हैं, जो सर्वत्र सदैव सभी प्राणियों को सुलभ रहते हैं तथा उनके
क्लेश, कष्टों का निवारण करते हैं। उनकी दृष्टि में सभी प्राणी एक समान
होते हैं। वे सभी का केवल हित ही करते हैं, अहित किसी का नहीं करते। जैसे
हाथों में रखे हुए पुष्प दोनों हाथों को समान रूप से सुगंधि प्रदान करते
हैं, वे दाहिने बाएं का भेद नहीं करते। संत और सज्जन में मुख्य भेद यह
होता है कि संत का वियोग दुखदायी होता है और असंत का मिलन। एक कमल के समान
सुखद होता है दूसरा जोंक के समान शोषक। एक अमृत के समान जीवन रक्षक होता
है और दूसरा विष के समान प्राणनाशक। इसी प्रकार अरण्यकांड में
श्रीराम-संवाद के माध्यम से संतों का लक्षण-निरूपण किया गया है। नारद
प्रश्न करते हैं—
संतन के लच्छन रघुवीरा।
कहहुं नाथभव भंजन भीरा।।
कहहुं नाथभव भंजन भीरा।।
और इसके उत्तर में श्रीराम कहते हैं कि संत वह है जिसने षट विकारों (काम,
क्रोध, लोभ, मद, मोह, मत्सर आदि) पर विजय प्राप्त कर ली हो, जो निष्पाप और
निष्काम हो, सांसारिक वैभव से विरक्त, इच्छारहित और नियोगी हो, दूसरे का
सम्मान करने वाला मदहीन हो, अपने गुणों के श्रवण करने में संकोच करता हो
और दूसरों के गुण-श्रवण में आनंदित होता हो, कभी नीति का परित्याग न करता
हो, सभी प्राणियों में प्रेम-भाव रखता हो। श्रद्धा, क्षमा, दया, विरति,
विवेक आदि का पुंज हो। रामचरित मानस के ही उत्तरकांड में श्रीराम-भरत के
संवाद-रूप में संतों के लक्षणों पर पुनः विस्तृत प्रकाश डाला गया है। भरत
जिज्ञासा करते हैं कि—
संत-असंत भेज बिलगाई।
प्रनतपाल मौहि कहहु बुझाई।।
प्रनतपाल मौहि कहहु बुझाई।।
और उत्तर में श्रीराम बताते हैं कि—
संतन के संतन से लच्छन सुन भ्राता। अगनित श्रुति पुरान विख्याता।।
संत-असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटई परशु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।
विषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।
कोमल चित्त दीनन्ह पर दाया। मन वचन क्रम मम भगति अमाया।।
सबहिं मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम ममते प्रानी।।
विगत काम मम नाम परायन। संति विरति विनती मुदितायन।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयित्रा।।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।
संत-असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटई परशु मलय सुनु भाई। निज गुन देई सुगंध बसाई।।
विषय अलंपट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।।
कोमल चित्त दीनन्ह पर दाया। मन वचन क्रम मम भगति अमाया।।
सबहिं मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम ममते प्रानी।।
विगत काम मम नाम परायन। संति विरति विनती मुदितायन।।
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयित्रा।।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात संत संतत फुर।।
यही नहीं, मानस तथा अन्य ग्रंथों में गोस्वामी जी ने संतों के वैशिष्ट्य
के संबंध में अन्य कई स्थानों पर अपने विचार को अभिव्यक्त किया है,
जैसे—
सत्रु न काहु करि गनै, मित्र गनै नहिं काहि।
तुलसी यह मत संत कौ, चालै समता माहि।
तुलसी यह मत संत कौ, चालै समता माहि।
(वैराग्य संदीपनी)
मधुकरि सरसि संत गुर ग्राही।
(मानस, बालकांड)
संत हृदय जस निर्बलबारी।
(मानस, अरण्यकांड)
उमा संत कइ इहहि बड़ाई।
मंद करत जो करत भलाई।।
मंद करत जो करत भलाई।।
(सुंदरकांड)
संत विटप सरित गिरिधरनी।
परहित हेतु सबन्ह के करनी।।
परहित हेतु सबन्ह के करनी।।
(उत्तरकांड)
गोस्वामी जी की यह भी मान्यता है कि परम प्रभु संतों और देवताओं के कार्य
निमित्त मानव शरीर धारण करते हैं संतों का दर्शन भगवद् अनुग्रह से ही होता
है। दरिद्रता सबसे बड़ा दुख है और संत-समागम के समान कोई सुख नहीं है।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
संत मिलन सम सुख जग नाहीं।।
(उत्तरकांड)
श्रोता व वक्ता
धर्म सभा सभ्य पुरुषों की होती है। जहां सभा में लड़ाई-झगड़े आदि होते
हैं, उसे हम सभी नहीं कह सकते। सभा श्रोता व वक्ता दोनों के आचरण पर
निर्भर करती है। उत्तम श्रोता वही होता है जो किसी भी सभा में अनुशासन का
पूरा पालन कर और मौन रूप बैठकर वक्ता की बात को सुने। खाली बात को सुनने
से ही काम नहीं चलता। अच्छा श्रोता जो सुनता है, उसे अपने हृदय में उतार
लेता है और फिर उस पर मनन-चिंतन करता है।
वक्ता की वाणी से उसकी विद्वता, आचरण से उसकी संस्कारिता, व्यवहार से उसका स्वभाव, खानपान से धार्मिक विवेक और संगति से उसके गुण-दोष का सहज ही पता चल जाता है। विद्वान अपनी बात इस ढंग से प्रस्तुत करता है कि सभा में कोई अनावश्यक विवाद खड़ा नहीं हो पाता जो कहता है, उस पर स्वयं पर भी आचरण करता है। उसकी वाणी को सुनकर श्रोताओं का हित होता है तथा उन्हें परम आनंद की प्राप्त होती है।
धर्म सभी में वक्ता को अपने गुणों की उच्चता का परिचय देना आवश्यक है। वही वक्ता श्रोताओं पर अपना प्रभाव डाल सकता है जो विद्वान होने के साथ-साथ अपने ग्रंथों का ज्ञाता हो तथा अपने चरित्र पर अडिग हो। निर्भीकता तथा स्थिरता उसके व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने में सहायक होती है। वाणी बोलकर स्वयं को अथवा उसे सुनकर श्रोताओं के आनंद की प्राप्ति नहीं हुई तो वाक-श्रम व्यर्थ ही नहीं हुआ, अहितकर भी हुआ। हिंदी कवि की यह सूक्ति यथार्थ है, जिसमें वक्ता को मधुर शब्दों में यह परामर्श दिया गया है कि मन के दुराव को दूर रखकर ऐसी वाणी बोलें जिसे सुनकर श्रोताओं के हृदय शीतलता से तृप्त हो सकें।
वक्ता की वाणी से उसकी विद्वता, आचरण से उसकी संस्कारिता, व्यवहार से उसका स्वभाव, खानपान से धार्मिक विवेक और संगति से उसके गुण-दोष का सहज ही पता चल जाता है। विद्वान अपनी बात इस ढंग से प्रस्तुत करता है कि सभा में कोई अनावश्यक विवाद खड़ा नहीं हो पाता जो कहता है, उस पर स्वयं पर भी आचरण करता है। उसकी वाणी को सुनकर श्रोताओं का हित होता है तथा उन्हें परम आनंद की प्राप्त होती है।
धर्म सभी में वक्ता को अपने गुणों की उच्चता का परिचय देना आवश्यक है। वही वक्ता श्रोताओं पर अपना प्रभाव डाल सकता है जो विद्वान होने के साथ-साथ अपने ग्रंथों का ज्ञाता हो तथा अपने चरित्र पर अडिग हो। निर्भीकता तथा स्थिरता उसके व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने में सहायक होती है। वाणी बोलकर स्वयं को अथवा उसे सुनकर श्रोताओं के आनंद की प्राप्ति नहीं हुई तो वाक-श्रम व्यर्थ ही नहीं हुआ, अहितकर भी हुआ। हिंदी कवि की यह सूक्ति यथार्थ है, जिसमें वक्ता को मधुर शब्दों में यह परामर्श दिया गया है कि मन के दुराव को दूर रखकर ऐसी वाणी बोलें जिसे सुनकर श्रोताओं के हृदय शीतलता से तृप्त हो सकें।
‘‘ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।’’
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।’’
प्रकाशक
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