बहुभागीय पुस्तकें >> ज्ञानदीपक प्रथम भाग ज्ञानदीपक प्रथम भागश्रीरामकिंकर जी महाराज
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जड़-चेतन की वास्तविकता
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्रीराम: शरणं मम ।।
हमारे महाराजश्री
प्रस्तुत पुस्तक ‘‘युग तुलसी’’ या तुलसीदास की
दास की दूसरी आत्मा पूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वह विशिष्ट रचना है,
जो अब तक प्रकाशित साहित्य में अनुपलब्ध थी।
1 नवम्बर सन् 1924 को नर्मदा तट पर बसे मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में महाराजश्री का प्राकट्य हुआ। 9 अगस्त सन् 2002 की संध्या को उनके उस संकल्प की पूर्णाहुति हुई, जो वे अपने प्रवचनों में अक्सर कहते थे, कि ‘‘रामकथा तो मेरी श्वाँस है’’ अर्थात् चलेंगे तो दोनों साथ, ठहरेंगे तो दोनों साथ। नर्मदा और सरयू के इस सम्पुट में वे अबाध रूप से प्रवाहित रहे। उन्होंने रामकथा को लोक और वेद के दो किनारों के बीच इस तरह प्रवाहित किया कि किसी भी पक्ष को आहत नहीं होने दिया।
प्रारम्भिक 19 वर्ष की अवस्था से लेकर 78 वर्ष की अवस्था के बीच उन्होंने लगभग 84 ग्रन्थों की रचना की। उनका साहित्य या तो उन श्रोताओं के लिये है, जो वक्ताओं की मनोभूमि और भावभूमि से ऊपर उठे हुए हैं, अथवा उन वक्ताओं के लिये है, जो श्रोताओं की मनोभूमि और भावभूमि से अपने को श्रेष्ठ मानकर कुछ कहते सुनाते हैं।
लगभग 54 वर्षों तक महाराजश्री के हाथ में वह माइक था, जिसकी आवाज सागर पर जाती थी, वे मंच थे जिसे विद्वता की प्राकट्य-स्थली माना जाता है। श्रोताओं के रूप में वह वर्ग था जो पूरे समाज का नेतृत्व करता है। इतनी उपलब्धियों से तनिक भी प्रभावित न होकर जिन्होंने स्वयं को अर्पित सभी मालाएँ तुलसीदास जी की सुकीर्त मूर्ति को चढ़ा दीं, कि यह सब गोस्वामी जी कहना चाहते हैं, या फिर गोस्वामी जी का कहने का तात्पर्य यह है। समझ नहीं आता जब सब कुछ गोस्वामी जी का है, तो उनका क्या कार्य था, और यदि सब कुछ कार्य इन्होंने ही किया तो गोस्वामी जी ने क्या लिखा। गोस्वामी जी और महाराजश्री एक ही भावधारा के दो तट हैं जिसमें आचमन करने, दर्शन करने और स्नान करने का फल एक ही है।
उनका चिन्तन स्वतंत्रता के नाम पर न तो पागलखाने में रहता था और न मर्यादा के नाम पर जेलखाने में। क्योंकि दोनों स्थान एक-एक तरह की पराधीनता को स्वीकार करते हैं। पर इन दोनों के बीच में वह घर होता है, जहां पर स्वतंत्रता के लिए बाहर और परतंत्रता के लिए अन्दर चिटकनी लगी रहती है। धर्म का व्याख्याता जब आस्तिकता के साथ-साथ इतना सामाजिक और इतना व्यावहारिक हो तो धर्म स्वाभाविक रूप से मर्मयुक्त होगा, और जीवनोपयोगी भी होगा। इसके अभाव में व्यक्ति यदि धर्म की व्याख्या करता है तो वह किसी एक कटघरे में है। पर महाराजश्री ने अपने पूरे जीवनकाल में धर्म के किसी सन्दर्भ को भी अव्यावहारिक और अनुपयोगी नहीं होने दिया।
एक संदर्भ में मैं यह सुनकर दंग रह गया, जब मैंने उनसे प्रवचन में यह सुना कि पाप और पुण्य दो अलग वस्तुएँ नहीं हैं, अपितु सही जगह पर उपयोग करने से ही वह पुण्य की संज्ञा से विभूषित हो जाता है और गलत जगह पर उपयोग करने से पाप की संज्ञा से कलंकित। एक बार उन्होंने कहा, भगवान राम ने अपने पूरे लीलाकाल में किसी भी पात्र में कोई परिवर्तन नहीं किया। गजब बात है कोई परिवर्तन नहीं किया और ‘‘रामराज्य’’ बना दिया ? यहीं पर तो बात समझने की है, कि भगवान राम ने कैसे ‘‘रामराज्य’’ बना दिया ? महाराजश्री कहते हैं, श्रीराम के परिकर जिस पात्र के व्यक्तित्व में विशेषता थी उसका सही समय पर सही उपयोग करके ही वे ऐसा कर सके। मानसिक रूप से विक्षेप में वे ही लोग तो जाते हैं, जो परिवर्तन करना चाहते हैं पर करना नहीं जानते, जो छेनी से बटन टाँकते हैं और सुई से दीवार तोड़ते हैं, वे और क्या करेंगे ? महाराजश्री के प्रवचन में व्यक्ति के अन्दर ठहराव आता है, और उसके अन्दर एक क्रान्ति भावना आती है, वह यह महसूस करता है कि जीवन में सफलता या जीवन के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करने के लिये जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता थी वे सब मेरे पास होते हुए भी मैं हीन भावना से ग्रसित हूँ। आपने यदि उनको पढ़ा है, उनको सुना है और उनको देखा है, तो आपको समाधान मिला होगा, दिशा मिली होगी और धन्यता मिली होगी। और यदि यह नहीं मिला तो न सुना, न पढ़ा और न देखा।
‘‘कृपा’’ शब्द कितना छोटा सा है और कौन नहीं चाहता कृपा। पर जो कृपा चाहते हैं क्या आप समझते हैं उनको कृपा प्राप्त नहीं हुई ? वस्तुत: ऐसा तब होता है जब प्रत्येक व्यक्ति कृपा की व्याख्या को अपनी कामनाओं के फ्रेम में मढ़कर देखना चाहता है। कृपा इतनी व्यापक वस्तु है, जिसको किसी फ्रेम के घेरे में बाँधा नहीं जा सकता। महाराजश्री ने कृपा के स्वरूप को जिस रूप में अपने जीवन में स्वीकार किया वह वही रूप था जिस रूप में पार्वती ने शंकर जी को प्राप्त किया। भगवान शंकर विश्वास हैं। सबलोग अपने को विश्वासी मानते हैं पर असली विश्वासी होने के लिये पहले पार्वती-रूपी श्रद्धा बनना पड़ेगा। क्योंकि श्रद्धा के अभाव में शिव को वह विकराल रूप जो अर्धनग्न, साँप और बिच्छुओं से युक्त बैल की सवारी पर सुशोभित था ऐसे शिव में भी व्यक्ति को अशिव रूप ही दिखायी पड़ेगा, और यह भी सम्भव है, बल्कि इसकी ही सम्भावना अधिक है कि जो अशिव हो उसी में शिव दिखने लगे। और आप उसे अन्धविश्वास के कारण होने वाला धोखा मानें। यह धोखा अन्धविश्वास के कारण नहीं अपितु वास्तविक श्रद्धा के अभाव में होता है। महाराजश्री ने उस काल रूप शिव में भी उसी कृपा का दर्शन किया जो लोगों को अमंगल का कारण लगती है। धन्य थे वे और उनकी श्रद्धा।
मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि यदि आपको जीवन को सर्वतोभावेन स्वस्थ्य और शांत रखना है, तो प्रगति की बात बाद में करिए, पहले गति का निर्णय कर लीजिए। लक्ष्य बाद में मिलेगा पहले मार्ग समझ लीजिए। और ऐसी दिशा में और दृष्टि आपको पूज्य महाराजश्री ने अपने साहित्य में भर-भर कर परोसी है।
उनके चिन्तन का एक वैशिष्ट्य ये भी है कि वे न तो केवल देखने की बात कहते हैं और न ही न देखने की। उन्होंने तो ये कहा कि कब देखो और कैसे देखो। वे केवल सृष्टि बदलने की बात ही नहीं अपितु सृष्टि न बदले तो दृष्टि बदलना भी आवश्यक मानते हैं। उनका कहना है कि जितना दिन में गतिमान होना आवश्यक है रात्रि में निद्रा भी उतनी ही आवश्यक है। महाराजश्री का साहित्य वह ज्ञान दीपक है जो हमें प्रकाश देता रहेगा। क्योंकि उनका प्रकाश अर्जित सामग्रियों से सम्बद्ध न होकर मणि का प्रकाश है और वह मणि भगवत् विश्वास और शरणागति की है। ग्रहण तो तब लगता है जब पूर्णिमा आती है। जिन्होंने अपने जीवन में कभी भी अपने में पूर्णता देखी ही नही तो उनके सुयश और उनके कार्य ग्रहण से ग्रसे नहीं जायेंगे।
रामायणम् ट्रस्ट के द्वारा सत्साहित्य के प्रकाशन के माध्यम से वो सेवा हो रही है जो महत्वपूर्ण और चिरंजीवी है। आध्यात्मिक प्रकाश का संबंध किसी धर्म विशेष से नहीं वो तो ऐसा अमृत है जो पियेगा अमर हो जायेगा। किसी को कपड़े सिलाकर दे दिये कभी न कभी फटेंगे और अगली बार तो उसे स्वयं ही सिलाना है। कब तक आप दाता बने रहेंगे और कब तक वह माँगने वाला? आध्यात्मिक विद्या वह वस्तु है जिसको देने के बाद देने वाला और पाने वाला दोनों धन्य हो जाते हैं। देनेवाले में देने का अहंकार नहीं रहता और पाने वाले में दीनता का अभाव हो जाता है। मेरी दृष्टि को देनेवाला यह साहित्य सबसे बड़ा धर्मादा है।
1 नवम्बर सन् 1924 को नर्मदा तट पर बसे मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में महाराजश्री का प्राकट्य हुआ। 9 अगस्त सन् 2002 की संध्या को उनके उस संकल्प की पूर्णाहुति हुई, जो वे अपने प्रवचनों में अक्सर कहते थे, कि ‘‘रामकथा तो मेरी श्वाँस है’’ अर्थात् चलेंगे तो दोनों साथ, ठहरेंगे तो दोनों साथ। नर्मदा और सरयू के इस सम्पुट में वे अबाध रूप से प्रवाहित रहे। उन्होंने रामकथा को लोक और वेद के दो किनारों के बीच इस तरह प्रवाहित किया कि किसी भी पक्ष को आहत नहीं होने दिया।
प्रारम्भिक 19 वर्ष की अवस्था से लेकर 78 वर्ष की अवस्था के बीच उन्होंने लगभग 84 ग्रन्थों की रचना की। उनका साहित्य या तो उन श्रोताओं के लिये है, जो वक्ताओं की मनोभूमि और भावभूमि से ऊपर उठे हुए हैं, अथवा उन वक्ताओं के लिये है, जो श्रोताओं की मनोभूमि और भावभूमि से अपने को श्रेष्ठ मानकर कुछ कहते सुनाते हैं।
लगभग 54 वर्षों तक महाराजश्री के हाथ में वह माइक था, जिसकी आवाज सागर पर जाती थी, वे मंच थे जिसे विद्वता की प्राकट्य-स्थली माना जाता है। श्रोताओं के रूप में वह वर्ग था जो पूरे समाज का नेतृत्व करता है। इतनी उपलब्धियों से तनिक भी प्रभावित न होकर जिन्होंने स्वयं को अर्पित सभी मालाएँ तुलसीदास जी की सुकीर्त मूर्ति को चढ़ा दीं, कि यह सब गोस्वामी जी कहना चाहते हैं, या फिर गोस्वामी जी का कहने का तात्पर्य यह है। समझ नहीं आता जब सब कुछ गोस्वामी जी का है, तो उनका क्या कार्य था, और यदि सब कुछ कार्य इन्होंने ही किया तो गोस्वामी जी ने क्या लिखा। गोस्वामी जी और महाराजश्री एक ही भावधारा के दो तट हैं जिसमें आचमन करने, दर्शन करने और स्नान करने का फल एक ही है।
उनका चिन्तन स्वतंत्रता के नाम पर न तो पागलखाने में रहता था और न मर्यादा के नाम पर जेलखाने में। क्योंकि दोनों स्थान एक-एक तरह की पराधीनता को स्वीकार करते हैं। पर इन दोनों के बीच में वह घर होता है, जहां पर स्वतंत्रता के लिए बाहर और परतंत्रता के लिए अन्दर चिटकनी लगी रहती है। धर्म का व्याख्याता जब आस्तिकता के साथ-साथ इतना सामाजिक और इतना व्यावहारिक हो तो धर्म स्वाभाविक रूप से मर्मयुक्त होगा, और जीवनोपयोगी भी होगा। इसके अभाव में व्यक्ति यदि धर्म की व्याख्या करता है तो वह किसी एक कटघरे में है। पर महाराजश्री ने अपने पूरे जीवनकाल में धर्म के किसी सन्दर्भ को भी अव्यावहारिक और अनुपयोगी नहीं होने दिया।
एक संदर्भ में मैं यह सुनकर दंग रह गया, जब मैंने उनसे प्रवचन में यह सुना कि पाप और पुण्य दो अलग वस्तुएँ नहीं हैं, अपितु सही जगह पर उपयोग करने से ही वह पुण्य की संज्ञा से विभूषित हो जाता है और गलत जगह पर उपयोग करने से पाप की संज्ञा से कलंकित। एक बार उन्होंने कहा, भगवान राम ने अपने पूरे लीलाकाल में किसी भी पात्र में कोई परिवर्तन नहीं किया। गजब बात है कोई परिवर्तन नहीं किया और ‘‘रामराज्य’’ बना दिया ? यहीं पर तो बात समझने की है, कि भगवान राम ने कैसे ‘‘रामराज्य’’ बना दिया ? महाराजश्री कहते हैं, श्रीराम के परिकर जिस पात्र के व्यक्तित्व में विशेषता थी उसका सही समय पर सही उपयोग करके ही वे ऐसा कर सके। मानसिक रूप से विक्षेप में वे ही लोग तो जाते हैं, जो परिवर्तन करना चाहते हैं पर करना नहीं जानते, जो छेनी से बटन टाँकते हैं और सुई से दीवार तोड़ते हैं, वे और क्या करेंगे ? महाराजश्री के प्रवचन में व्यक्ति के अन्दर ठहराव आता है, और उसके अन्दर एक क्रान्ति भावना आती है, वह यह महसूस करता है कि जीवन में सफलता या जीवन के चरमोत्कर्ष को प्राप्त करने के लिये जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता थी वे सब मेरे पास होते हुए भी मैं हीन भावना से ग्रसित हूँ। आपने यदि उनको पढ़ा है, उनको सुना है और उनको देखा है, तो आपको समाधान मिला होगा, दिशा मिली होगी और धन्यता मिली होगी। और यदि यह नहीं मिला तो न सुना, न पढ़ा और न देखा।
‘‘कृपा’’ शब्द कितना छोटा सा है और कौन नहीं चाहता कृपा। पर जो कृपा चाहते हैं क्या आप समझते हैं उनको कृपा प्राप्त नहीं हुई ? वस्तुत: ऐसा तब होता है जब प्रत्येक व्यक्ति कृपा की व्याख्या को अपनी कामनाओं के फ्रेम में मढ़कर देखना चाहता है। कृपा इतनी व्यापक वस्तु है, जिसको किसी फ्रेम के घेरे में बाँधा नहीं जा सकता। महाराजश्री ने कृपा के स्वरूप को जिस रूप में अपने जीवन में स्वीकार किया वह वही रूप था जिस रूप में पार्वती ने शंकर जी को प्राप्त किया। भगवान शंकर विश्वास हैं। सबलोग अपने को विश्वासी मानते हैं पर असली विश्वासी होने के लिये पहले पार्वती-रूपी श्रद्धा बनना पड़ेगा। क्योंकि श्रद्धा के अभाव में शिव को वह विकराल रूप जो अर्धनग्न, साँप और बिच्छुओं से युक्त बैल की सवारी पर सुशोभित था ऐसे शिव में भी व्यक्ति को अशिव रूप ही दिखायी पड़ेगा, और यह भी सम्भव है, बल्कि इसकी ही सम्भावना अधिक है कि जो अशिव हो उसी में शिव दिखने लगे। और आप उसे अन्धविश्वास के कारण होने वाला धोखा मानें। यह धोखा अन्धविश्वास के कारण नहीं अपितु वास्तविक श्रद्धा के अभाव में होता है। महाराजश्री ने उस काल रूप शिव में भी उसी कृपा का दर्शन किया जो लोगों को अमंगल का कारण लगती है। धन्य थे वे और उनकी श्रद्धा।
मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ कि यदि आपको जीवन को सर्वतोभावेन स्वस्थ्य और शांत रखना है, तो प्रगति की बात बाद में करिए, पहले गति का निर्णय कर लीजिए। लक्ष्य बाद में मिलेगा पहले मार्ग समझ लीजिए। और ऐसी दिशा में और दृष्टि आपको पूज्य महाराजश्री ने अपने साहित्य में भर-भर कर परोसी है।
उनके चिन्तन का एक वैशिष्ट्य ये भी है कि वे न तो केवल देखने की बात कहते हैं और न ही न देखने की। उन्होंने तो ये कहा कि कब देखो और कैसे देखो। वे केवल सृष्टि बदलने की बात ही नहीं अपितु सृष्टि न बदले तो दृष्टि बदलना भी आवश्यक मानते हैं। उनका कहना है कि जितना दिन में गतिमान होना आवश्यक है रात्रि में निद्रा भी उतनी ही आवश्यक है। महाराजश्री का साहित्य वह ज्ञान दीपक है जो हमें प्रकाश देता रहेगा। क्योंकि उनका प्रकाश अर्जित सामग्रियों से सम्बद्ध न होकर मणि का प्रकाश है और वह मणि भगवत् विश्वास और शरणागति की है। ग्रहण तो तब लगता है जब पूर्णिमा आती है। जिन्होंने अपने जीवन में कभी भी अपने में पूर्णता देखी ही नही तो उनके सुयश और उनके कार्य ग्रहण से ग्रसे नहीं जायेंगे।
रामायणम् ट्रस्ट के द्वारा सत्साहित्य के प्रकाशन के माध्यम से वो सेवा हो रही है जो महत्वपूर्ण और चिरंजीवी है। आध्यात्मिक प्रकाश का संबंध किसी धर्म विशेष से नहीं वो तो ऐसा अमृत है जो पियेगा अमर हो जायेगा। किसी को कपड़े सिलाकर दे दिये कभी न कभी फटेंगे और अगली बार तो उसे स्वयं ही सिलाना है। कब तक आप दाता बने रहेंगे और कब तक वह माँगने वाला? आध्यात्मिक विद्या वह वस्तु है जिसको देने के बाद देने वाला और पाने वाला दोनों धन्य हो जाते हैं। देनेवाले में देने का अहंकार नहीं रहता और पाने वाले में दीनता का अभाव हो जाता है। मेरी दृष्टि को देनेवाला यह साहित्य सबसे बड़ा धर्मादा है।
मैथलीशरण
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