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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> कृपा और पुरुषार्थ

कृपा और पुरुषार्थ

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :125
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4362
आईएसबीएन :00000

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जीवन में कृपा और पुरुषार्थ का स्वरूप.....

Krapa Aur Purusarth

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्री राम: शरणं मम।।
कृपा शब्द मेरे लिए केवल शब्द मात्र नहीं है। वह ऐसा महामन्त्र है, जिसने मुझे धन्य बना दिया है और उसे बार-बार दुहराते हुए मुझे पुनरुक्ति का बोध ही नहीं होता है। कृपा के साथ मुझे एक शब्द जोड़ना अत्यन्त प्रिय है, जिसे प्रेममूर्ति श्री भरत ने प्रभु के समक्ष कहा था-
नाथ न मोहि संदेह कछु सपनेहु सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहिं कृपानंद संदोह।।

कृपा की आवश्यकता किसे नहीं है ? किन्तु सभी सिद्धान्तों में उसके साथ कुछ-न-कुछ जोड़ा ही जाता है। ज्ञानी को ज्ञान-दीप प्रज्वलित करने के लिए जो उपकरण चाहिए उसमें सर्वप्रथम श्रद्धा की आवश्यकता है और वह श्रद्धा की गाय प्रभु की कृपा से ही प्राप्त होती है।
सात्त्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।
जो हरि कृपा हृदय बस आई।।

पर गाय मिल जाने पर भी उसे सत्कर्म का चारा तो चाहिए ही और यह ज्ञान के साधक को पुरुषार्थ करने के लिए प्रेरित करना है।
कर्म-सिद्धान्त में मनुष्य शरीर की प्राप्ति को भगवत् कृपा के रूप  में ही स्वीकार किया गया है।

कबहुँक कर करुना नर देहि।
देही ईस बिन हेतु सनेही।।

भले ही यह मानव शरीर ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ हो, किन्तु साधन ही उसका मूल लक्ष्य है।
‘साधन धाम मोक्ष कर द्वारा’ शक्ति सिद्धान्त में कृपा को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। किन्तु वहाँ भी साधना की आवश्कता का प्रतिपादन तो किया ही गया है और वह भी स्वयं के श्रीमुख से।

भगति कै साधन कहऊँ बखानी।
सुगम पंथ मोहि पावइ प्रानी।।

इसलिए इन तीनों सिद्धान्तों में कृपा और पुरुषार्थ शब्द स्वयं इसी सत्य की ओर इंगित करता है और जब कृपा और पुरुषार्थ पर प्रवचन प्रस्तुत किया जा रहा हो तब ‘केवल कृपा’ शब्द वहाँ अनुपयुक्त सिद्ध हो सकता है। ऐसी स्थिति में मैं श्री भरतजी महाराज के ‘केवल कृपा’ शब्द को क्यों इतना अधिक महत्त्व दे रहा हूँ।
यह बड़ी विचित्र-सी बात होगी कि एक ओर तो मैं कृपा के साथ पुरुषार्थ शब्द को अनिवार्य बता रहा हूँ। तब भला ‘केवल’ शब्द के मेरे इस आग्रह के पीछे एक विशेष कारण है। उसे एक दृष्टान्त के रूप में ही देना चाहूँगा कि मनुष्य के शरीर के साथ जिन-अवस्थाओं का वर्णन किया गया है, उसमें किशोर, युवा, वृद्ध से कुछ-न-कुछ आशा तो की ही जाती है। किन्तु एक अवस्था ऐसी है जहाँ पर उससे कोई आशा नहीं रखी जाती। वह है ‘शिशु-अवस्था’।

अत: यों कह सकते हैं कि माता-पिता की आवश्यकता सभी अवस्थाओं में विद्यमान रहती है, किन्तु बालक के लिए तो ‘केवल’ शब्द का ही प्रयोग किया जा सकता है। उसे तो ‘केवल’ माँ की कृपा ही प्राप्त होती है। वह उस समय की सारी क्रियाओं के लिए माँ पर ही आश्रित है। इस अर्थ में अपने आपको एक ऐसे शिशु के रूप में देखता हूँ जिसके जीवन में केवल प्रभु की कृपा ही सब कुछ है। किन्तु व्यासासन पर बैठकर जो व्याख्या की जाती है, वहाँ पर ‘केवल’ शब्द सार्थक सिद्ध नहीं होगा क्योंकि तब उपदेश की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। उपदेश तो कुछ करने की प्रेरणा देने के लिए ही दिया जाता है। इसलिए इस पुरुषार्थ और कृपा के सामंजस्य की बात करना ही युक्तियुक्त है। कृपालु प्रभु ने अपनी कृपा से जिस व्यासासन पर मुझे आसीन किया है, उसमें वही अनिवार्य है जो प्रवचनों में कहा गया है।

ग्रन्थ छपने से पहले जो मुझे प्रतीक चिह्न मिला उसमें धनुष बना हुआ था। मैंने उसमें बाण जोड़ने की आवश्यकता समझी, शायद यह धनुष और बाण मेरे लिए ‘कृपा और पुरुषार्थ’ का सबसे श्रेष्ठ प्रतीक है। धनुष कृपा है और बाण पुरुषार्थ। बाण सक्रिय दिखाई देता है। लक्ष्य-भेद भी उसी के द्वारा किया जाता है। इसी में बाण की सार्थकता है। पुरुषार्थ का उद्देश्य भी तो जीवन के लक्ष्य को पूरा करना है और बाण स्वयं अपनी क्षमता से गतिशील नहीं हो सकता उसे तो चलानेवाला योद्धा जिस दिशा में भेजना चाहता है उसी दिशा में प्रेरित कर देता है और पुरुषार्थ के पीछे वह कृपा ही तो है जो व्यक्ति के जीवन में सक्रियता के रूप में दिखाई देती है। इसलिए कृपा के धनुष और पुरुषार्थ के बाण को ही मैंने प्रतीक चिह्न के रूप में चुना।
श्री हनुमानजी की लंका-यात्रा को गोस्वामी तुलसीदासजी ने इसी रूप में देखा। उन्होंने श्री हनुमान जी की तुलना श्री राम के बाण से की।
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एहि भाँति चलेउ हनुमाना।।

सब कुछ हनुमानजी ही करते हुए प्रतीत हो रहे हैं। इसीलिए जब प्रभु ने उनसे प्रश्न किया कि तुमने लंका जलाने जैसा कठिन कार्य कैसे सम्पन्न किया। तब श्री हनुमानजी ने प्रभु के प्रताप की महिमा की ओर ही संकेत किया-

नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।।

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछु मोरि प्रभुताई।।

स्वयं गोस्वामी तुलसीदासजी की विनय-पत्रिका में अनगिनत बार कृपा शब्द का उपयोग किया गया है।
रामकिंकर


।। श्री राम: शरणं मम ।।
प्रवेश


प्रस्तुत प्रसंग ‘कृपा और पुरुषार्थ’ तो केन्द्र मात्र है। इस ग्रन्थ में महाराजश्री ने कृपा और पुरुषार्थ जैसे प्रतिद्वन्द्वी शब्दों पर जिस प्रकार अश्रुतपूर्व एवं सामंजस्यपूर्ण विचार व्यक्त किए हैं, उनका वैशिष्ट्य और गौरव तो आपको इसे पढ़ने के पश्चात् स्वत: ही हो जाएगा।
यह प्रसंग रामकृष्ण मिशन, विवेकानन्द, आश्रम, रायपुर में विवेकानन्द जयन्ती के अवसर पर वहाँ के सचिव परम श्रद्धेय स्वामी श्री सत्यरूपानन्दजी के द्वारा चुना गया था। उन्होंने महाराजश्री के कक्ष में आकर अपनी सहज जिज्ञासु वृत्ति से महाराजश्री से निवेदन किया कि ‘महाराज, हम लोगों को बरसों साधना करते हो गए पर अभी तक हम लोग कृपा के स्वरूप तथा पुरुषार्थ की सीमा का अर्थ नहीं समझ पाए।’ उनका कहना था कि आपके चिन्तन में समाधान अवतरित होते हैं, साथ ही अन्त:करण में द्वन्द्वों का समूलोच्छेदन होता है तो मैं आपसे यही निवेदन करूँगा कि इस वर्ष के प्रवचन का विषय आप कृपा और पुरुषार्थ रखें।

महाराजश्री भौतिक अर्थों में रामचरितमानस के ऐसे मर्मज्ञ वक्ता हैं जिनके लेखन और कथन में किसी भी पक्ष का असन्तुलन अथवा अतिरेक जैसे विकारों का स्पर्श नहीं होता। वे तुलसीदासजी की बात को सिद्ध करने के लिए किसी अन्य ग्रन्थ अथवा वैज्ञानिक कसौटी पर युक्तियुक्त सिद्ध करने के लिए मोहताज नहीं हैं। उनका मानना है कि मनुष्य जीवन, चाहे वह किसी वर्ण अथवा सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखनेवाला हो, ऐसी कोई भौतिक या आध्यात्मिक समस्या नहीं है जिसका उद्धरण गोस्वामी तुलसीदासजी ने मानस में आए पात्रों के क्रिया-कलापों अथवा घटनाक्रम के माध्यम से समाधान की दिशा तक न पहुँचा दिया हो।

महाराजश्री की भाषा और शैली की विशेषता है कि वे किसी राष्ट्र, जाति, वर्ग या दलगत भावनाओं को उभारकर कभी भी अपने भाषण को उत्तेजक और समसामयिक बनाकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने की चेष्टा कदापि नहीं करते। जिस बात को न जाने कितने मंचों के माध्यम से उत्तेजकता के स्वर में उद्देश्यहीन भावनाओं के आधार पर ऊँचे-ऊँचे स्वरों से बखान किया जाता है। भगवान् श्री राम ने उनको और उनसे परे आदर्शों को अपने जीवन की तनिक भी विशेषता न मानकर चरितार्थ कर दिखाया है।

महाराजश्री अपने प्रवचनों में ऐसे-ऐसे सूत्र इतनी सहजता से देते हैं जिसमें कर्त्तृत्त्व का अंग स्पर्श भी नहीं होता, ऐसा कोई व्यक्ति या समाज भी नहीं हो सकता जिसको रामचरितमानस में वर्णित सामाजिक मर्यादा, श्रीराम का शील-सौजन्य, उनके जीवन की नीति, प्रीति, स्वार्थ और परमार्थ एवं प्राणीमात्र पर कृपा की आवश्यकता न हो। यह बात अलग है कि कोई अपने मत और मान्यताओं में जकड़कर राम और राम-राज्य के आदर्श न मानकर अपनी भावानात्मक आस्था के केन्द्र से जोड़कर उसका समर्थन करे। पर ये मूल्य अकाट्य थे, हैं और रहेंगे। अर्थात् राम थे, हैं और रहेंगे।
मुझे विश्वास है कि पाठकों को यह पुस्तक अनेक द्वन्द्वों से निकालकर स्वतन्त्र चिन्तन और उज्जवल निष्कर्ष देगी। मेरा पाठकों से निवेदन है कि वे न केवल स्वयं इन विचारों को पढ़कर धन्य हों, अपितु अन्यों को भी धन्य बनाकर पुण्य के भागी बनें।
-मैथिलीशरण


।। श्री राम: शरणं मम ।।
कृतज्ञता


‘रामायणम् ट्रस्ट’ की स्थापना के पीछे एक प्रमुख सद्उद्देश्य था, कि तुलसी साहित्य पर महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा व्यक्त मीमांसा का अधिकाधिक लोगों को लाभ देना। मेरी दृष्टि में समाज को दृष्टि देने की सेवा से बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती, और वह क्षमता महाराजश्री की चिन्तन-शैली में सहज है। निर्भर इस पर करता है कि हम अपनी दृष्टि के ऊपर किसी रंग का चश्मा न लगा लें, क्योंकि जब हम किसी धारणा या मान्यता को पहले से ही आरोपित कर देते हैं, तो सामनेवाली वस्तु का स्वरूप हमारे द्वारा आरोपित धारणा के आधार पर दिखाई देने लग जाता है।

महाराजश्री ने अपने वक्तव्य में कहा है कि ‘राचमचरितमानस’ नाम बड़ा मार्मिक है, यह राम का चरित्र तो है ही, साथ ही इसकी विशेषता है कि यह ‘मानस’ भी है, अर्थात् मन की समस्याओं का समाधान इसके द्वारा होता है।
समस्याएँ दो प्रकार की होती हैं-एक तो बाहरी समस्याएँ, जिसका समाधान शासन के द्वारा समाज की सुव्यवस्था देने के लिए किया ही जाता है। पर यदि सूक्ष्मता से किसी घटना की व्याख्या करें, तो हम पाएँगे, कि क्रिया के रूप में बाहर घटना बाद में घटती है, संकल्प के रूप में व्यक्ति के अन्त:करण में वह बुराई पहले आती है, जिसको अवसर पाकर व्यक्ति साकार रूप देता है, जिसे हम मानस रोग कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में समाधान की आवश्यकता बाहर की तुलना में अन्दर अधिक है। ‘रामचरितमानस’ में मनुष्य के ‘मानस’ को स्वच्छ और स्वस्थ बनाने की प्रक्रिया का सुन्दर विधान बताया गया है।
परम पूज्य प्रात:स्मरणीय श्री महाराजजी के चिन्तन ने भारतीय वाङ्मय को विपुल ‘साहित्य’ अर्पित किया है, जो मानव जाति की महानतम् सेवा है, जिससे लोकदृष्टि से व्यक्ति न जाने कितने अपराधों और सामाजिक बुराइयों से बचता हुआ, परमार्थ को प्राप्त कर सकता है।

महाराजश्री ने ‘तुलसी साहित्य’ को तुलसी की ही धारणा के अनुसार, उसमें आनेवाले प्रत्येक पात्र की, और उसके द्वारा होनेवाली प्रत्येक क्रिया-प्रतिक्रिया की आध्यात्मिक व्याख्या के द्वारा, जीवन-मूल्यों को एक स्वस्थ और सम्पूर्ण समाधान दिया है। उनका मानना है कि यदि रामराज्य जीवन का चरम लक्ष्य या अभीष्ट है, तो रामायण की सारी घटनाओं में हमें अपना जीवन देखना पड़ेगा, और तब हम देखेंगे कि वे सारे पात्र हमारे जीवन में हैं, जो रामायण में दिखाई पड़ते हैं। उनमें से किन-किनको मरना चाहिए, किनका रक्त बहना चाहिए तथा किनको मूर्छित होना चाहिए, और इतना ही नहीं रामराज्य की स्थापना के लिए किन पात्रों को जीवित रहना चाहिए, यह एक क्रमिक व्यवस्था है।
महाराजश्री के साहित्य एवं वाणी में रामायण और रामराज्य से तादात्मय स्थापित कर देने की अद्वितीय क्षमता है, जो ‘बुध’ और ‘जन’ तथा ‘बुद्धि’ और ‘हृदय’ सभी को समान रूप से आकर्षित करती है।

श्री पुरुषोत्तम सिंघानिया महाराजश्री के कृपापात्र शिष्य हैं। उनकी यह भावना श्लाघनीय है कि इस प्रकार के साहित्य का प्रकाशन अबाध रूप से चलते रहना चाहिए, ताकि आज की विघटनकारी जीवन-शैली में व्यक्ति के जीवन में अमृत तत्त्व की स्थापना हो सके। मैं भगवान् से प्रार्थना करता हूँ, कि उन पर और उनके परिवार पर प्रभु और गुरुदेव की कृपा सदा बरसती रहे।
परम पूज्यपाद महाराजश्री के प्रकाशन में लेखन, पुनर्लेखन अथवा सम्पादन जैसी भूमिका में यदि आप लोगों में से कोई हमें सहयोग करना चाहें, तो कृपया निम्ननिखित पते पर पत्र द्वारा हमसे संपर्क करने का कष्ट करें।
-मैथिलीशरण
‘रामायणम् आश्रम्’
परिक्रमा मार्ग, जानकी घाट,
श्रीराम अयोध्या-224123(उ.प्र.)
दूरभाषः05278-32152


।। श्री राम: शरणं मम ।।
प्रथम पुष्प


परम श्रद्धेय पूज्य श्री स्वरूपानन्दजी महाराज, उपस्थित समस्त सन्तों और ब्रह्मचारियों को मैं शत-शत नमन करता हूँ। आप सब जो यहाँ इस पावन आश्रम में एकत्र हुए हैं, भगवत् कथा-श्रवण के लिए, आपका स्वागत है। प्रभु की कृपा से अनेक वर्षों से यह सौभाग्य मिलता रहा है कि आपके समक्ष यहाँ आकर राम-कथा से जुड़े हुए जो सन्देश और संकेत हैं उन पर कुछ चर्चा करता रहा हूँ। परम श्रद्धेय स्वामीजी ने अभी जिस प्रश्न की ओर संकेत किया, वह प्रश्न और सच तो यह है कि उस प्रश्न का उन्होंने स्वरूप भी प्रस्तुत कर दिया। उसका समाधान भी उसमें छिपा हुआ है। पर उनका यह आदेश है इसलिए रामचरितमानस की कृपा और पुरुषार्थ पर क्या दृष्टि है, इस पर कुछ कहने की चेष्टा करूँगा। मुझे आशा है कि आप एकाग्रता और शान्ति से सुनेंगे। आप इतने वर्षों से मुझे सुनते रहे हैं इसलिए किसी तरह के मनोरंजन की आशा मुझसे नहीं करेंगे, पर आप पूरी तन्मयता से, जो बात कही जा रही है उसे सुनने का कष्ट करेंगे, कृपा करेंगे।

भगवान् श्रीराम ने रामचरितमानस में विविध प्रसंगों में अनेक उपदेश दिए हैं, पर उनमें भिन्नता है। उनमें कुछ बातें तो ऐसी हैं जिनमें साम्य है, किन्तु कुछ में भिन्नता है। इसका तात्पर्य क्या है ? इसका अभिप्राय यही है कि कोई भी उपदेश प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान रूप से उपयोगी नहीं होता। मानो प्रत्येक व्यक्ति जैसे देखने में रूप और आकृति में अलग-अलग हैं, बुद्धि और स्वभाव में अलग-अलग हैं, उसी तरह से यह स्वाभाविक है कि कोई उपदेश यदि सामने वाले के लिए उपयुक्त न हो तो वह चाहे किना भी उत्कृष्ट क्यों न हो, उसके जीवन के लिए वह कल्याणकारी सिद्ध नहीं होगा। इस पर एक बड़े महत्त्व की बात, जिस पर आपकी दृष्टि गई होगी या जानी चाहिए कि भगवान् श्रीराम जब किसी विशिष्ट साधक के लिए उपदेश देते हैं तो वह एक प्रसंग है। जैसे उन्होंने लक्ष्मण के प्रश्न के उत्तर में लक्ष्मणजी को उपदेश दिया, शबरी के प्रसंग में भगवान् श्रीराम ने शबरी को उपदेश दिया। हनुमानजी के प्रसंग में प्रभु ने संक्षेप में हनुमानजी को उपदेश दिया। ये उपदेश व्यक्ति-विशेष को सामने रखकर दिए गए हैं। किन्तु ‘मानस’ में एक ऐसा उपदेश है जो व्यक्ति के सन्दर्भ में न होकर सारे समाज को सामने रखकर दिया गया है।

आप उत्तरकाण्ड में पढ़ते हैं कि जब प्रभु श्री राघवेन्द्र अयोध्या के सिंहासन पर समासीन होते हैं वहाँ रामराज्य का बड़ा दिव्य और अनोखा वर्णन है। उस प्रसंग में भगवान् श्री राघवेन्द्र अयोध्यावासियों को आमन्त्रित करते हैं। राजा यों तो आदेश देता है और यदि कोई राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है तो उसे दण्ड भी मिलता है। किन्तु प्रभु ने यह जो वाक्य कहे वह आदेश नहीं और उसे आदेश न कहें तो पूरी तरह से उपदेश भी नहीं कह सकते क्योंकि भगवान् श्री राघवेन्द्र ने स्पष्ट रूप से अयोध्या के नागरिकों को एक भाई के रूप में, एक मित्र के रूप में सम्बोधित किया। उस सम्बोधन में भगवान् श्री राघवेन्द्र ने जो उपदेश दिए हैं उसमें कोई व्यक्ति विशेष उनके समक्ष नहीं है। वहाँ पर भी भगवान ने छूट दे दी है। उपदेश में छूट होती है। आप सुनते हैं, उसमें आपको जो प्रिय लगता है या आपको लगता है कि आप इसे कर सकते हैं उतना आप करते है। इसलिए भगवान् श्रीराम ने अयोध्यावासियों से कहा कि मैं जो उपदेश तुम्हें देने जा रहा हूँ-‘कहहुँ करहु जो तुमहि सुहाई।’’ मैं तो कह ही रहा हूँ पर उसमें तुम्हें जो अच्छा लगे वह ग्रहण करो। और यहाँ भी प्रभु ने बात कह दी। वक्ता को यदि टोक दें तो यह परम्परा सही नहीं मानी जाती, पर प्रभु ने कहा कि यदि मेरी वाणी के द्वारा कोई वाक्य, ऐसा हो जो सही न लगे, नीति के विरूद्ध लगे तो आप टोक दें। आप भय छोड़कर मुझे रोक सकते हैं-

जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजुह भय बिसराई।।7/42/6

यह जो सन्देश, उपदेश प्रभु ने समस्त प्रजा को सामने रखककर दिया। वह ऐसा उपदेश है जो अधिकांश लोगों के लिए है। जो अपवाद हैं उनकी बात जाने दें, उनके लिए भगवान् अलग उपदेश देते हैं। वह एक बड़े महत्त्व का सूत्र है। उसमें साधना और कृपा को लेकर प्रभु ने जो वाक्य कहा वह बड़े महत्व का है। यह जो शरीर मनुष्य को प्राप्त हुआ है इसकी तुलना में प्रभु ने जो कहा उसे आपने पढ़ा या सुना होगा। प्रभु ने कहा-मित्रों ! यह मनुष्य का शरीर बड़े भाग्य से मिला हुआ है-साधन धाम मोच्छ कर द्वारा।‘’ यह शरीर साधना का धाम है। इस पर आप ध्यान दे तो बात बड़ी सरलता से समझ में आती है कि आप अपने रहने के लिए जो घर बनाते हैं या कोई बना-बनाया घर भी आपको   रहने के लिए मिल जाए, यह बात भी हो सकती है। घर बनाते समय आपको इस बात का ध्यान रहता है कि इसमें कौन-सी सुविधाएँ हमें चाहिए। यदि घर में सभी वस्तुएं हैं तो आपके लिए कोई समस्या नहीं है और यदि कोई कमी होती है तो आप उसे तोड़-फोड़कर उस घर को ऐसा रूप देते हैं कि जिसमें आप अच्छी तरह रह सकें।


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