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मानस रोग भाग 1

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4349
आईएसबीएन :000

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अन्तःकरण की समस्याओं का सम्पूर्ण समाधान.....

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Manas Rog (1)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

प्रस्तुत पुस्तक ‘मानस-रोग’ को मिलाकर 4 भागों में प्रकाशित होगी। इसके तीन खण्ड इस समय तैयार होकर आपके समक्ष हैं। इस श्रृंखला का एक खण्ड ‘मानस चिकित्सा’ नाम से प्रकाशित हुआ था। ये प्रवचन ‘रामकृष्ण मिशन’, विवेकन्नद आश्रम, रायपुर में हुए थे। ब्रह्मलीन स्वामी श्री आत्मानन्दजी महाराज न केवल एक श्रेष्ठ वक्ता थे अपितु वे उतने ही उच्चकोटि के श्रोता भी थे। बार-बार तत्कालीन श्रोता समाज को सम्बोधित करते हुए कहते थे। कि ये प्रवचन मेरी साधना हैं। साथ ही वे मानव के उन प्रसंगों को प्रवचन के लिए मेरे सक्षम चुनते थे। जो प्रवचन परम्परा से बिलकुल भिन्न होते थे।

‘मानस-रोग’ प्रसंग रामचरितमानस के उन गम्भीरतम प्रसंगों में से एक हैं जिनकी चर्चा प्रायः कथा–मंचों से होने की परम्परा नहीं रही है। रायपुर आश्रम में नौ-नौ के पाँच सत्रों में 45 प्रवचन इस विषय पर हुए थे। स्वामी महाराज की तो इच्छा थी कि लगातार एक वर्ष तक रायपुर में रहकर मैं इस विषय पर प्रवचन करूँ। पर मेरी व्यस्तता और लगातार बने कार्यक्रमों की कतार में उनका यह प्रस्ताव तो मैं पूर्ण नहीं कर सका, पर पाँच वर्षों तक एक ही विषय को लेकर प्रभु ने कुछ अनोखी चर्चा अवश्य कराई।

कागभुशुण्डिजी के द्वारा पक्षिराज गरुण को सम्पूर्ण रामकथा सुनाने के बाद भुशुण्डिजी ने जब गरुड़जी से कहा कि यदि आप और भी कुछ सुनना चाहते हैं तो बताइए तब गरुड़जी ने कागभुशिण्डजी से सात प्रश्न किए। जिनमें अन्तिम प्रश्न है कि मानस रोग कहहु समुझाई ‘मानस-रोग’ क्या हैं और उनके लक्षण और चिकित्सा क्या है ? इन प्रश्नों के पीछे गोस्वामीजी की महती और कल्याणकारी भावना थी। मानो वे रामकथा को व्यक्ति के जीवन से जोड़ना चाहते थे। सब कुछ सुन लेने के पश्चात भी उन्हें यह लगा कि रामचरित मानस केवल एक मनोरंजन का साधन और बुद्धि-विलास बनकर ही न रह जाए, अपितु इसमें मानस का जुड़ना भी आवश्यक है। तभी यह पूर्ण रामचरितमानस होगा।

जिस प्रकार अनेक प्रकार के पदार्थों के रहते हुए भी व्यक्ति यदि शरीर से स्वस्थ्य नहीं है तो उनका भोग वह नहीं कर सकता, क्योंकि स्वस्थता के अभाव में वह किये हुए भोजन को पचा ही नहीं सकेगा। और शरीर को किए हुए भोजन का लाभ तभी मिलता है जब वह पूर्ण रूप से पच जाए। इसी प्रकार यदि व्यक्ति का मन स्वस्थ्य नहीं है, मानस-रोगों से ग्रस्त है तो रामचरितमानस में वर्णित पात्रों और उनके चरित्र की व्याख्या को सांसारिक व्याख्या के रूप में ही देखेगा। परिणाम होगा कि उसके जीवन में उस कथा का कोई भी लाभ नहीं होगा। क्योंकि इस कथा के नायक श्रीराम तत्वतः ब्रह्म हैं। और वे लोककल्याण के लिए नर जैसी लीला कर रहे हैं।

सगुण साकार के क्रिया-कलापों की आध्यात्मिकता को समझने के लिए व्यक्ति का मन से स्वस्थ होना नितान्त आवश्यक है। ‘सरुज सरीर वादि बहु भोगा’ की अर्धाली में इसी सत्य की ओर इंगित किया गया है। पर यदि मन ही अस्वस्थ हो तो शरीर की स्वस्थता उसे पूर्णानन्द की ओर नहीं ले जा सकती।

मानस-रोगों के विश्लेषण एवं उनके प्रदर्शन का तात्पर्य एक स्वस्थ्य और आदर्श जीवन की उपलब्धि है। खासकर तब जब विज्ञान ने मनुष्य की वांछित सुख-सुविधाओं को उपलब्ध करा दिया हो, और फिर भी अशान्ति बढ़ती जा रही हो। तब यह निश्चित हो जाता है कि कारण बाहर नहीं अंदर है। कागभुशुण्डि-संवाद के मध्य जीवन के मूलभूत प्रश्नों को बड़ी ही सूक्ष्मता से उभारा गया है। प्रस्तुत पुस्तक में आशा है, पाठकों को मानस-रोगों के सन्दर्भ से कुछ समाधान मिलेगा।

इस ग्रन्थ के प्रकाशन का आर्थिक सहयोग रायपुर के श्री सन्तोषकुमार द्विवेदी ने उठाया है। उनको और उनके परिवार को मेरा हार्दिक आशीर्वाद एवं शुभकामनाएँ। प्रभु की जब विशेष कृपा होती है। तब व्यक्ति के अंतः करण में अर्थ को परमार्थ की दिशा में लगाने की इच्छा उत्पन्न होती है। हमारे यहाँ धन की तीन गति बताई गई हैं- 1. भोग. 2. दान, 3. विनाश। निश्चित रूप से धन की चौथी कोई और गति हो ही नहीं सकती। श्री द्विवेदी का परिवार मेरा शिष्य है। कथा के प्रति इनकी विशेष अभिरुचि का सुपरिणाम है, इनके द्वारा किया जाने वाला यह आर्थिक सहयोग। भगवान भी इनके ऊपर कृपा बनी रहे, यही मेरा आशीर्वाद है।


रामकिंकर


सम्पादकीय


‘रामकृष्ण मिशन’ विवेकानन्द आश्रम, रायपुर (छत्तीसगढ़) के सचिव ब्रह्मलीन स्वामी श्री आत्मान्नदजी महाराज की उपस्थिति में, विवेकानन्द जयन्ती के अवसर पर प्रस्तुत प्रवचन परमपूज्य श्री रामकिंकरजी महाराज द्वारा गए थे। इस पुस्तक का सम्पादन स्वयं स्वामीजी ने किया था। प्रस्तुत है स्वामी जी कि लेखनी से लिखे गए उदगार।

श्रद्धेय श्री रामकिंकरजी महाराज के प्रवचनों का सम्पादन कार्य मेरे लिए आत्मिक सुख का कारण ही है और इसे मैं व्यक्तिगत जीवन के लिए चिन्तन साधना का ही अंग मानता हूँ।
महाराजजी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ के उत्तरकाण्ड के अन्तर्गत ‘मानस-रोग’ प्रकरण को आधार बनाकर, रानकृष्ण मिशन, विवेकानन्द आश्रम, रायपुर द्वारा आयोजित विवेकानन्द जयन्ती के अवसरों पर कुल 46 प्रवचन किया था। इनमें 9 प्रवचन सन् 1980 के महोत्सव में 22 से 30 जनवरी तक किया गया, जिनका धारावाहिक प्रकाशन उक्त आश्रम द्वारा प्रकाशित की जाने वाली हिन्दी त्रैमासिक ‘विवेक ज्योति’ में होता रहा है। उसी में से इन नौ प्रवचनों का संग्रह ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है।

इन प्रवचनों में तीक्ष्ण मेधासम्पन्न प्रवचनकार ने अन्तःकरण की गहराईयों में उतरकर, मानव-मन के ओने-कोने में अपनी ज्ञान रश्मि फेंककर उसके अनपढ़ स्वरूप को हमारे सामने रखा है, साथ ही उसे सुन्दर एवं अद्भुद रूप में गढ़ने का उपाय भी प्रस्तुत किया है। मानव-मन के पारखी ये सुविज्ञ प्रवचनकार मन का विश्लेषण जैसे नीरस और उबाऊ विषय को भी अपनी विलक्षण रसमयी प्रतिभा के बल पर सरस और रोचक बना देते हैं, जो एक कैप्सूल की भाँति कड़वी औषध को भी सहज ग्राह्य कर देता है।
टेप से प्रवचनो को उतारने का कार्य श्री राजेन्द्र तिवारी, रायपुर किया। उनकी इस सेवा के लिए हम उनके आभारी हैं।
हमें विश्वास है कि श्री रामकिंकरजी महाराज का यह प्रवचन-संग्रह सुधी पाठकों द्वारा विशेष रूप से समादृत और गृहीत होगा।

स्वामी आत्मानन्द

महाराजश्री : एक परिचय

प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


सर्वपन्थाः गावः सन्तु, दोग्धा तुलसीदासनन्दन।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।

जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है।

‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


प्रथम प्रवचन



सुनहु तात अब मानस रोगा ।
जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहि बहु सूला।।
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई।
उपजइ सन्यपात दुखदाई।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना।
ते सब सूल नाम को जाना।।
ममता दादु कंडु इरषाई।
हरष बिषाद गरह बहुताई।।
पर सुख देखि जरनि सोई छई।
कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।।
अहंकार अति दुखद डमरुआ।
दंभ कपट मद मान नेहरुआ।।
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी।
त्रिबिध ईषना तरुन तिजारी।।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अविबेका।
कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।। 7/120/28-37

नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।।

भगवान श्री राघवेन्द्र की असीम अनुकम्पा और श्रद्धेय स्वामीजी महाराज के स्नेह से कई वर्षो से श्री विवेकानन्द जयन्ती के पावन प्रसंग में मुझे यहाँ आकर वाङमयी सेवा का कुछ अवसर प्राप्त होता है। वैसे तो भगवच्चरित्र का गायन जहाँ भी किया जाए, उनमें समग्रता और पूर्णता है, लेकिन इस आश्रम के पवित्र प्रांगण में एक महान सन्त की जयन्ती के सन्दर्भ में, एक सन्त के सन्निध्य में तथा आप भक्त और अध्यात्मपिपासु श्रोताओं के सक्षम कुछ कहने का आनन्द कुछ विशेष होता है। इसलिए इस आयोजन में सम्मिलित होकर मैं स्वयं धन्यता का अनुभव करता हूँ।

आदरणीय स्वामीजी महाराज ने प्रसंग के सम्बन्ध में आपको सूचित किया ही है। यह प्रसंग ‘श्रीरामचरितमानस’ के अन्यन्त गंभीर प्रसगों में से एक है तथा विगत कई वर्षों से ‘मानस’ के जिन प्रश्नों की चर्चा चलती रही है, उनमें यह सातवाँ और अन्तिम प्रश्न है। श्रीरामकथा श्रवण करने के बाद गरुड़ धन्यता का अनुभव करते हैं। कथा के आचार्य श्री काकभुशुण्डिजी उनसे पूछते हुए कहते हैं कि गरुड़जी ! मैंने अपनी क्षमता के अनुसार आपको राम कथा सुनायी है, अब बताइये ! आप और क्या सुनना चाहेंगे ? इस पर गरुड़जी ने सात प्रश्न उनके सामने रखे और उनका उत्तर दिया है वह प्रसंग ‘मानस’ में ‘सप्त प्रश्न’ के नाम से जाना जाता है। विगत कुछ वर्षों में हम यथासाध्य गम्भीर है। साथ ही यदि हम रामकथा को अपने जीवन से जोड़ना चाहें तो यह सातवाँ प्रश्न उपादेय भी बहुत है। मुझे विश्वास है कि आप इस प्रसंग को मनोभूमि में स्थिति होकर ही सुनेंगे, क्योंकि इस प्रश्न में ‘मानस’ शब्द की सार्थकता छिपी हुई है।

भगवान श्रीराम के सम्बन्ध में संस्कृत साहित्य में कई ग्रन्थ लिखे गये हैं, पर गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित इस रामकथा की उन सब ग्रन्थों की तुलना में अपनी एक विशिष्टता है। वैसे तो प्रचलित रूप से इसे भी रामायण कहकर ही पुकारा जाता है, पर भगवान शंकर के द्वारा इसका जो नामकरण किया गया उसका स्मरण करते हुए गोस्वामीजी इसका नाम श्रीरामचरितमानस रखते हैं। ‘रामचरित’ शब्द का अर्थ है जिसमें भगवान राम का चरित हो, पर यहाँ पर ‘रामचरित’ के साथ जुडा हुआ जो ‘मानस’ शब्द है तथा ‘मानस’ का उपसंहार करते हुए ‘सप्त प्रश्न’ में मानस-रोग को जो अन्तिम स्थान दिया गया है उसके निहित तात्पर्य को यदि हम समझ लें, तो इस गम्भीर प्रसंग को समझने में कुछ सरलता हो जायेगी। रामचरित के सन्दर्भ में अन्य जो प्रश्न हैं उनकी तुलना हम एक उच्चकोटि के कलाकार द्वारा निर्मित चित्र से कर सकते हैं। जब एक चित्रकार अपनी तूलिका से कोई चित्र अंकित करता है, तो जिस व्यक्ति का वह चित्र है, उसका साक्षात्कार तो हमें होता ही है, साथ ही उस चित्रकार के प्रति भी हमारे अन्तःकरण में आदर की भी भावना जाग्रत होती है।

यह सोचकर कि इसने कैसा कलात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। तो, श्रीराम के सन्दर्भ में जो ग्रन्थ मुख्यता ऐतिहासिक दृष्टिकोण से लिखे गये हैं, वे मानो महान शब्द-शिल्पियों के द्वारा निर्मित चित्र है, उनका दर्शन करके भी हमारे अन्तःकरण में धन्यता का अनुभव होता है; लेकिन ‘श्रीरामचरित’ के साथ जुड़ा हुआ है जो ‘मानस’ शब्द है, वह भगवान राम के चरित्र के साथ एक विशेष तत्त्व और जोड़ देता है, मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि इस ग्रन्थ में भगवान राम का चित्र नहीं है। इसमें भगवान राम का भी चित्र है और उनके भक्तों को भी, फिर उनके विरोधियों का भी। चित्र ऐसा सांगोपांग है कि यदि आपके पास दृष्टि है तो आपको सूक्ष्म रेखा भी दिखायी दे सकती है, ‘रामचरितमानस’ के अन्तराल को समझने के लिए उसकी विशेषता का आन्नद लेने के लिए हम उसकी तुलना चित्र से न कर एक दर्पण से, शीशे से करना चाहेंगे।

शीशे की विशेषता क्या है ? वैसे देखें तो दर्पण में चित्र की कलात्मकता नहीं होती क्योंकि चित्र में तो एक-एक रेखा अभिव्यक्ति देनी पड़ती है और उसमें कलाकार की कला का साक्षात्कार होता है, पर दर्पण में इतनी उत्कृष्ट कला के प्रदर्शन का कोई प्रयोजन नहीं होता। फिर भी दर्पण की उपयोगिता और उसकी प्रियता चित्र की तुलना में क्रम नहीं है। अब चित्र तो अलग-अलग होगा, पर शायद ही कोई ऐसा घर हो, जहाँ दर्पण न हो। चित्र और दर्पण में एक मौलिक अन्तर है। चित्र हमारे समक्ष भूतकाल को, पुरातन को प्रतिबिम्बित करता है। जब हम चित्र के सामने खड़े होते हैं, तब काल का वह चित्र होता है वह हमारे सामने साकार हो उठता है, पर दर्पण की अपनी एक विशेषता है, एक अनोखापन है। वह यह कि दर्पण भूतकाल को प्रतिबिम्बित नहीं करता, अपितु वर्तमान को हमारे सामने ला देता है।

जब हम दर्पण के सामने खड़े होते हैं तो उसमें कोई दूसरा व्यक्ति नहीं बल्कि हम स्वयं दिखायी देते हैं। ‘रामचरितमानस’ के माध्यम से हमारे समक्ष यही संकेत दिया है। उसकी समाप्ति रामकथा से, राम के चरित्र से न हो करके मानस-रोगों से जो की गयी है, इसका मुख्य तात्पर्य यही है कि हम इस कथा को केवल भूतकाल के एक महान चित्र के रूप में न देखें, अपितु उसके रूप में हम अपने जीवन में एक दर्पण, एक शीशा पा लें एवं उस दर्पण के माध्यम से हम अपने आपको सही-सही अर्थों में देख सकें और पहचान सकें। हमें ऐसा प्रतीत न हो कि हम केवल त्रेतायुग के व्यक्तियों का चरित्र पढ़ रहे हैं, बल्कि हमें लगे कि उसमें हमारा, आपका एवं प्रत्येक व्यक्ति का चित्र है और उसके समक्ष खड़े होकर हम अपने आपको देख पाने में समर्थ हैं। यदि हम ‘रामचरितमानस’ की मूल परम्परा पर विचार करके देखें, तो वहाँ हमें यहीं बात दिखायी देगी।

गोस्वामीजी जब रामकथा लिखने के लिए प्रस्तुत होते हैं तो वे गुरुदेव से प्रार्थना करते हैं कि आप मेरे नेत्रों के दोषों को दूर कर दीजिए। मनुष्य के पास नेत्र तो होते हैं, पर यदि वे रोगग्रस हो जाएँ, तो वस्तु अपने यथार्थ रूप में दिखायी नहीं देती और कभी-कभी तो उसका दिखना ही बन्द हो जाता है। फिर औषध के द्वारा यदि रोग को दूर कर दिया जाय तो व्यक्ति की दृष्टि शक्ति लौट आती है। हममें से बहुत से लोग दूर की वस्तु को नहीं देख पाते। इसलिए गोस्वामीजी मानो गुरुदेव के चरणों को पकड़कर कहते हैं कि महाराज ! मेरी दृष्टि तो इतनी कमजोर है कि वर्तमान में हुए चरित्रों को ही जब वह नहीं देख पाती, तब त्रेतायुग में हुए भगवान श्रीराम के चरित को वह भला कैसे देखेगी ? इसलिए आप कृपा करके अपने चरणों की धूलि दीजिए ! वह मेरी आँखों के लिए अंजन का काम करेंगी और मेरी दृष्टि के दोषों को दूर कर देगी।

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