कहानी संग्रह >> अब्बू ने कहा था अब्बू ने कहा थाचन्द्रकान्ता
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जम्मू कश्मीर कल्चरल अकादमी से बेस्ट बुक अवार्ड, मानव संस्थान मंत्रालय भारत सरकार, हरियाणा साहित्य अकादमी तथा हिन्दी अकादमी दिल्ली से कई बार पुरस्कृत एवं सम्मानित एक सशक्त कहानी-संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हिन्दी की प्रसिद्ध कथाकार चन्द्रकान्ता की कहानियाँ कश्मीर पर केन्द्रित
न हों, ऐसा सम्भव नहीं है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि वे सिर्फ कश्मीरियों
के दुःख-दर्द का बयान करती हैं, उनकी कहानियाँ चेतना के कई रूपों को
अनावृत कर विस्तृत आयाम देती हैं। वे उत्तर आधुनिकता के विश्वव्यापी
संकटों पर भी मुखर रही हैं।
इन कहानियों में जहाँ भूमण्डलीकरण की अन्धी दौड़ में बहुत ज्यादा बटोरने की ख्वाहिशों में अपनों से कटने और सम्बन्धों के करुण क्षय की व्यथा है वहीं एक ऐसी आत्मीय छुअन भी है, जो अन्तर्मन के द्वन्द्वभरे सन्ताप की प्रतीति कराती है।
स्वभाव से संवेदनशील होने के नाते चन्द्रकान्ता अपनी इन रचनाओं में लगातार उन प्रवृत्तियों से जूझती हैं जो मनुष्य को आतंक के तहखाने में कैद करती हैं और लगातार पाशविकता में लिप्त रहती हैं। वे उन बिन्दुओं को भी चिह्नित करती हैं, जिनका खतरों को समझकर मनुष्यता को बोझिल होने से बचाया जा सकता है; आत्मीयता और करुणा का स्पर्श दिया जा सकता है। लेखिका की यह चिन्ता है कि लड़ाइयाँ लड़ते-लड़ते कहीं हम प्यार की भाषा न भूल जाएँ।
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रस्तुत है चन्द्रकान्ता का यह सशक्त कहानी संग्रह-‘अब्बू ने कहा था’।
इन कहानियों में जहाँ भूमण्डलीकरण की अन्धी दौड़ में बहुत ज्यादा बटोरने की ख्वाहिशों में अपनों से कटने और सम्बन्धों के करुण क्षय की व्यथा है वहीं एक ऐसी आत्मीय छुअन भी है, जो अन्तर्मन के द्वन्द्वभरे सन्ताप की प्रतीति कराती है।
स्वभाव से संवेदनशील होने के नाते चन्द्रकान्ता अपनी इन रचनाओं में लगातार उन प्रवृत्तियों से जूझती हैं जो मनुष्य को आतंक के तहखाने में कैद करती हैं और लगातार पाशविकता में लिप्त रहती हैं। वे उन बिन्दुओं को भी चिह्नित करती हैं, जिनका खतरों को समझकर मनुष्यता को बोझिल होने से बचाया जा सकता है; आत्मीयता और करुणा का स्पर्श दिया जा सकता है। लेखिका की यह चिन्ता है कि लड़ाइयाँ लड़ते-लड़ते कहीं हम प्यार की भाषा न भूल जाएँ।
भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रस्तुत है चन्द्रकान्ता का यह सशक्त कहानी संग्रह-‘अब्बू ने कहा था’।
रात में सागर
वे अब घर लौट रहे हैं, श्रेया और धीरेन्द्र। सिंगापुर एयरलाइन्स बोइंग
सेवन नॉट सेवन से। एक मास पहले इसी विमान से, वे भारत लॉस एंजिल्स आये थे,
माँ से मिलने। तब हवा में कलाबाजियों के बीच, आकाशी मार्ग की ऊँचाइयाँ और
धरती से मीलों मील दूरियाँ थीं। लौटते में अब सागर की गर्जन भी साथ चल रही
है।
बेअन्त समुद्र, जिसकी ऊपरी सतह पर सूर्य किरणों की झिलमिलाहट है, कहीं झाग भरी, कहीं शान्त पारदर्शी। भीतर रहस्य भरे अँधेरे में गोता लगाते भयावह जल-जीव मगर, शार्क, व्हेल। शायद कहीं समुद्र तल के महल-दुमहले, जगर-मगर करती मरमेडें भी हों। तट पर तो बालू में फिंके शंख सीपियाँ और ढेरों ढेर घोंघे हैं। अतल में डुबकी लगाना कहाँ मुमकिन है ?
पूरा महीना बीत गया, लगता है अभी कल ही तो आये थे। तब आशंकित उत्सुकता थी, कैसे रहती होंगी, परायों के बीच ? खान-पान, रहन-सहन और जुबान भी तो अजनबी ! गोकि वीरेन्द्र और प्रेया की आश्वस्त करती सूचनाएँ, सब सही सलामत वाले कलामों से लबरेज़ थीं।
"माँ जिन्दगी नये सिरे से जी रही हैं भाभी। बेहद खुश। कमाल का एडजस्टमेण्ट है। नहीं, नहीं, उनके लिए साड़ी-वाड़ी नहीं लाना। अब तो वे ट्रैक सूट और हाउस गाउन ही पहनती हैं...। खाना ? अरे भाभी, चिकन विद मशरूम उन्हें खास पसन्द है, तभी तो कहती हूँ कमाल का एडजस्मेण्ट है उनमें...।"
माँ से सीधी बात नहीं हो पाती थी। इधर वह ऊँचा सुनने लगी हैं। हाँ, उनकी बातों के कैसेट जरूर उन तक पहुँचते, जिनमें सबका हालचाल खैर खबर अपनी कुशल के अलावा कभी-कभी दो चार वाक्य चौंका देते-"बहोत अच्छी हूँ धीरजी, कोई फिक्र मत करना। वीरजी, प्रेया दोनों लगभग रोज देखने आते हैं। इतवार को घर से मेरे लिए खाना भी ले आते हैं। नर्से खूब खयाल रखती हैं। डॉक्टर ‘आई लव यू’ बोलती हैं।"
"बरामदे में बैठी हूँ। आसमान काले बादलों से अटा पड़ा है। हवा में उमस है। उफ्फ, कैसा शामियाना सा-तना है सिर के ऊपर। बारिश आती तो कुछ हल्का सा लगता। मगर नहीं आएगी, यों ही घुमड़न होती रहेगी...।" कट। शायद वीरजी अगली बातें काट देते हो। पिचानवे की उम्र। बात करते-करते काफी कुछ अनर्गल बोलने लगती हैं। माँ।
घर लौटते वक्त आज माँ के कई-कई वाक्य श्रेया के कानों में गूँज रहे हैं। क्या वे भी अनर्गल हैं ?
"मेरी माँ बीमार थी, सेनिटोरियम में रखा था। मरने-मरने को थी, पर उसने प्राण जैसे मुट्ठी में बन्द कर रखे थे। कष्ट बहुत, पर कहती थीं, जब तक घर नहीं ले जाओगे, प्राण नहीं त्यागूँगी। और जब घर ले आये तो ऐसी गाढ़ी नींद सोयीं कि दूसरे दिन उठी ही नहीं।"
और विदावेला में कहा गया उनका आखिरी वाक्य-"अब ये दूरियाँ सही नहीं जातीं।"
पता नहीं कैसा लावा-सा फूटा था।
या लबालब भरा घड़ा छलक आया था।
या सागर का उफान छाती के ऊपर से गुजर गया था। पता नहीं कैसे यह उद्वेलित सागर श्रेया के भीतर समा गया, शायद धीरेन्द्र के भी ! शब्दों से परे की, कई-कई अर्थों में खुलती झागल हरहराहट।
श्रेया-धीरेन्द्र इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस अथाह मन्थन का कहीं कोई कोर-किनारा नहीं, तो कौन से सूत्र खोज इसे समझने की मुहिम उठायी जाए ? क्या सफर की शुरुआत से ही शुरू करें ? या इस धरती के हिस्से पर पाँव रखने से ?
एक मास पहले, लॉस एंजिल्स एयरपोर्ट पर वीरजी और प्रेया उन्हें रिसीव करने आये थे। गले मिलकर खैर-खबर पूछने के बाद ही श्रेया ने पहले माँ से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। भावहीन चेहरा लिये वीरजी ने गाड़ी सेण्टर की ओर मोड़ दी थी। दो वर्ष पहले माँ का एक्सीडेण्ट हो गया था, तब से वे रिकवरी सेण्टर में ही रह रही हैं।
गाडी तारकोली सड़क पर पालदार नाव-सी बह रही थी। दायें-बायें खड़ी पाइन और ओक की हरियल कतारें, सड़क के हाथ थामे साथ-साथ दौड़ रही थीं। कोई बोल नहीं रहा था, भीतर से भरे होने के बावजूद। साँस रोके बैठी चुप्पी तभी शायद असहज लग रही थी।
अचानक वीरजी के शब्द मेंढक से उछल आये।
"माँ को जितनी केयर, जितनी सुविधाएँ यहाँ मिलती हैं, मैं तो अपने लिए उससे आधी की भी उम्मीद नहीं रख सकती।"
बिना भूमिका बाँधे कहा गया यह वाक्य, धीरेन्द्र को कुछ अटपटा-सा लगा। कैसी बातें सोचते हों ?"
उन्हें एकाएक समझ न आया कि क्या कहें।
"पचपन पार कर रहा हूँ। शरीर में अभी से झोल पड़ने लगे हैं। क्या पता कल क्या हो ?" वीरजी के हाथ स्टेयरिंग पर कस गये।
"इधर रहकर आगे के लिए सोचना ही पड़ता है भैया जी !"
"यहाँ तो ‘टु ईच हिज़ ओन’ वाली पॉलिसी चलती है। कोई नाते रिश्तेदार तो होते ही नहीं जो मुसीबत में मदद करें...। बच्चों की अपनी जिन्दगियाँ हैं, वे आगे देखें कि पीछे ?"
प्रेया प्रेक्टिकल बातें करती है। बीस साल विदेश में रहना कुछ कम तो नहीं होता सीखने के लिए।
इधर-उधर के फर्क पर किसी ने टिप्पणी नहीं की। आगत के लिए सोचना कहीं भी जरूर है। नाते रिश्तेदारों की मदद पर इसलिए नहीं बोला गया कि आप अगर कुछ रिश्तों से दूर हो जाते तो रिश्ते तुम्हें ढूँढ़ते हुए तो नहीं आएँगे। सोचा जरूर, पर कहा किसी ने कुछ नहीं। धीरेन्द्र यों भी संवादों पर विश्वास खोने लगे हैं। जब दूसरा, हर हाल में अपनी बात मनवाना चाहे तो संवाद फालतू बहस बन जाते हैं।
श्रेया अभी भी शीशे की पारदर्शी खिड़की से बाहर देखे जा रही थी। दूर से सिर जोड़े दिखाई देते पेड़ पास आते ही कैसे छिटक जाते हैं। बीच की जुड़ी-जुड़ी-सी दिखती सड़क करीब आते ही, दो घनिष्ठों को दूर करती फासले बनाती है।
दरअसल श्रेया माँ जी की नब्बे पार यात्रा के पड़ावों मोड़ों के छोटे बड़े हादसों हविशों के बारे में सोचती पिछले गलियारों में भटक रही थी। कितने कुछ की तो साक्षी है वह।
क्या पता अब किस हाल में होंगी ? क्या सोचती होंगी ? बाहर के सुख की बानगी तो प्रेया कुछ उदाहरणों से ही दे चुकी थी, लेकिन भीतर की, मार मार कर भी जी उठनेवाली उम्मीदें, स्वप्न योजनाएँ ? अजनबी माहौल अजनबी भाषा और आहों-कराहों से अटे माहौल में, भीड़ में खोये बच्चे सी निस्सहाय कैसे जी रही होंगी ? हमेशा की बातूनी माँ, बिना बोले कैसे रहती होंगी ?
प्रेया नर्सों की कर्तव्यनिष्ठा से गद्गद थी। डॉक्टरों का सेवा भाव ! माँ सचमुच भाग्यशाली है।
"कमाल का डेडिकेशन है यहाँ की नर्सों में ! मैं तो हैरान होती हूँ देखकर। हर तरह के बीमार मनोरोगी, पागल।"
वे थोड़ा रुक गयीं, "आई मीन, हर तरह के बीमारों की तीमारदारी करना, उन्हें धोना पोंछना उनका चिड़चिड़ापन और तुनकमिजाजी सहना। यू नो, बीमारी में कितना डिमाण्डिंग हो जाता है आजमी ! कोई कितना भी अपना हो, कभी थक ऊब तो जाता ही है सेवा करनेवाला।
प्रेया के स्वर में कोई झोल नहीं। वह सन्तुष्ट थी। अपनी तरफ से तो उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। तीनेक मास माँ को घर पर रखकर सेवा की। ग्राउण्ड फ्लोर में ही बाथरूम लैट्रिन का इन्तज़ाम किया कमरों की तोड़-फोड़ करके। माँ अपाहिज हो गयी थी। व्हील चेयर से सीढ़ियाँ चढ़ना सम्भव नहीं था, पर उनकी शिकायतें खत्म होने को नहीं आ रही थीं।
"हम तो सन्तुष्ट हैं, कि माँ को अन्तिम पड़ाव पर मन मुआफिक इलाज सेवा और सुविधाएँ मिलीं। चौबीस घण्टे नर्सें और डॉक्टरों के नियमित चेक अप्स। घर में यह सब मुमकिन कहाँ होता ?" यानी सुविधाएँ खरीदनी पड़ती हैं, खरीद-फरोख्त की सीमाएँ हैं। सच है, डॉक्टरों की भारी फीस, दवाइयों और नर्सों का खर्चा उठाना आसान नहीं था। प्रेया की नौकरी थी, पीछे से माँ को कुछ हो गया तो ? हमेशा टेन्स रहती थी।
प्रेया माँ जी की बातें करती है। "माँ का जवाब नहीं, हमेशा शिखर पर बैठेंगी, बैठी रही हैं। अपनी जगह से एक इंच नीचे नहीं आना चाहतीं।" यानी कि अब उन्हें स्थितियाँ स्वीकारनी चाहिए। तीन-तीन पीढ़ियों के सुख-दुख तीज-त्योहारों के बीच गुजरती माँ ने समय के बदलते तेवर देखे। जो महत्त्वपूर्ण था, वह फालतू हो गया। सुच्चे-जुठे, साड़ी-सलवार के फर्कों से बाहर आकर माँ ने बच्चों की सुविधाएँ भी देखी ही होंगी, बाबूजी तो माँ के रास्तों पर मखमल भले न बिछा पाये हों, हाथों से रास्ते बुहार पत्नी को कील काँटों से बचा जरूर लेते थे। बच्चे कहते, "बाबूजी के प्राण माँजी के पिंजरे में बन्द हैं।" माँ हँसती, माँ रोती, "तुम्हारे बाबूजी दगा दे गये, मेरे प्राणों का पिंजरा यहीं छोड़कर चल दिये।
श्रेया तमाम रास्ते वह सोने का पिंजरा देखती रही, जिसमें एक आहत मैना अपने जख्मों पर फाहे लगा रही थी, फिर खुरण्ड उचेलती फिर फाहे लगाती। बार-बार ! बार-बार !
वीर जी के भीतर कुछ खदखदा रहा था, जो प्रेशर से ढक्कन फेंक बाहर छलक आया।" सोचता हूँ, बाबूजी को इससे आधी सुविधाएँ मिली होतीं, तो...।"
-तो ? श्रेया ने उबलती धार को तन पर महसूस किया।
-तो क्या एक बेहतर मौत पाते ? कहना चाहा, पर कहा नहीं। वह यहाँ कुछ दिनों के लिए आयी है। लम्बी यात्रा भारी खर्चा उठाकर जो न अब उसका शरीर और न जेब ही बदार्श्त कर पाते हैं।
लेकिन माँ को देखे बिना वह छटपटा रही थी।
धीरेन्द्र ने समझाया था, "वहाँ जाकर हम ऐसा क्या करेंगे जो वीरजी, प्रेया नहीं कर रहे हैं ? यहाँ आने लायक तो वे अब हैं नहीं...।" प्रेक्टिकल बातें।
उसे कोई भोंथरी कटार चुभ गयी थी।
"कल अगर मुझे कुछ हो गया और मेरे बच्चे भी ऐसी ही भाषा बोले, तो ? आखिर दोनों एक साथ तो जाएँगे नहीं ?"
काफी कहने के बाद भी बहुत अनकहा रहा जाता है।
वीरजी ने बाबूजी का जिक्र छेड़ा। उसे भाई-भाभी से कोई शिकायत नहीं थी। फिर क्यों उन्होंने तो अपनी जिम्मेदारियाँ निभायी थीं। शायद एक तुलनात्मक प्रसंग उठा, माँ को मुहैया की गयी सुविधाओं को असरदार बताकर उन्हें ज्यादा भाग्यशाली साबित करना चाहा, या शायद अपने भीतर बैठी किसी हीन ग्रन्थि को धकेलने की कोशिश की हो, कि तुमने आखिरी वक्त माँ को घर निकाला दे दिया ?
श्रेया के भीतर उथल-पुथल मच गयी। धीरेन्द्र दायें-बायें गुजरते शॉपिंग सेण्टर, ईंटिंग ज्वाइण्टस् और हरे लॉनों के बीच फूलों के रंगदार गुच्छे देखते रहे।
श्रेया जैसे खुद से बतिया रही हो, "बाबूजी कई मायनों में भाग्यशाली रहे। ज्यादा देर बिस्तर पर पड़े नहीं, और उनका साथी आखिरी साँस तक उनके सिरहाने रहा...।"
"हम तो थे ही, नहीं कहा। यह भी नहीं कि तुम्हारी, माँ को दी गयी सुविधाओं से अलग, उनके आसपास घर की खट-खट खुट-खुट और रिश्तों की सौंध थी। बिस्तर पर पड़े बाबूजी वे आवाजें सुनकर चौकन्ने हो जाते, "कहीं जाना है क्या हमें ?" "वीरजी आया है क्या ?" चिक्कू की आवाज नहीं सुनाई पड़ती।"
घर में गरम भात और रोटियों की सोंधी महक उनके साथ थी। चौके से उठती हींग, जीरे, मेथी की गन्ध, और घी का तड़का सूँघकर बताते, "आज मेथी पनीर बनायी है ? शलज़म-नदरू कहाँ से ले आये ? क्या नाथजी के घर से आये हैं ?
खुले हॉल से, नीचे की सदाएँ ऊपर उनके कमरे तक आतीं। वे जान जाते कौन हैं। दफ्तर के लोग हैं, रिश्तेदार होते तो उनसे मिलने ऊपर चले आते।
वीर जी के चेहरे पर कई रंग एक साथ आये गये। सपाट स्वरों का दंश भी दूर तक मार करता है कभी-कभी।
"तुमने माँ की सुविधाओं के नाम पर बनवास दे दिया।"
धीरेन्द्र ने बात बढ़ने से पहले विराम लगा दिया, "इधर की जैसी सहूलियतें हमारे यहाँ कहाँ हैं ?"
श्रेया को बात अखर गयी। अगले का सिर तना रखने के लिए खुद को छोटा करना क्यों जरूरी है ?
बाबूजी के पास रात-दिन डॉक्टर नर्सें नहीं थे। धीरेन्द्र खुद डॉक्टर बन गये थे। बाबूजी को कैथेटर लगा था। रात-विरात पाइप निकलता तो डॉक्टर तक पहुँचते हैरान हो जाते।
धीरेन्द्र ने खुद कैथेटर लगाना सीख लिया। बाबूजी पाइप लगाते देख धीरेन्द्र की बाँह थाम लेते-"तुम्हारे हाथ में दर्द बिल्कुल नहीं होता।" हाथ देर तक छोड़ते नहीं। बेटे का स्पर्श आत्मा तक उतारने का सुख उनके चेहरे पर छा जाता। वह सुख तो तमाम जल्जबाज स्पर्शों सुविधाओं के बावजूद माँ के हिस्से में नहीं है। समय किसके पास है ?
सेण्टर का भवन शानदार था। हरे लॉन और लम्बे पेड़ों के बीच बीतराग भंगिमा में खड़ा जाने क्यों श्रेया को उदास-उदास नजर आया। वे लिफ्ट से छठे माले पर रुके और लम्बे कॉरीडोर से होते चौकोर हाल में, मेज पर झुकी दो-तीन परिचारिकाओं, रिसेप्शनिस्टों से हाय हेलो बायी विंग की ओर मुड़े, ठीक सामने से लम्बी दिल दहलाने वाली चीख ने उनका स्वागत किया। सुर्ख बालोंवाली औरत झुर्रियल हाथों से माथा पीट-पीट चिल्ला रही थी। तीखी कौंचवाला रुदन श्रेया को थर्रा गया।
-"जेनी है, कभी-कभी इस पर दौरे पड़ते हैं।" प्रेया ने जानकारी दी।
एक सफेद बालोंवाली सजी-धजी महिला हाथों को खोलते बन्द करते, अपने आप से बतिया रही थी। दूसरी व्हील चेयर की बाँह पर सिर लटकाये टी.वी. पर नजरें गड़ाये कोई फिल्म देख रही थी। स्क्रीन पर प्रेमी-प्रेमिका का गहरा चुम्बन ले रहा था। व्हील चेयरवाली औरत के टेढ़े मुँह से राल बह रहा था, वह अपने मुड़े हाथों से उसे पोंछने की कोशिश कर रही थी। शायद पैरेलैटिक पेशेण्ट थी।
कमरा नम्बर सात के बायें दरवाजे पर फूलों के हार के बीच माँ का नाम लिखा था-सत्यवती रैना।
कमरे से बाहर आती नर्स मुस्कुरायी आदतन। प्रेया ने अभिवादन करके पूछा, "मॉम गेव एनी ट्रबल ? (माँ ने परेशान किया?)"
"देट्स ऑल राइट।" वह जल्दी में थी। जैसे कहा, रोज की बात है।
श्रेया ने देवरानी की तरफ देखा।
"आप जानती हैं माँ जी का स्वभाव। हमेशा अपनी मनमर्जी। सुबह देर तक सोएँगी। टाइम पर नहाने के लिए उठेंगी नहीं। अब इन बेचारियों को तो दसियों पेशेण्ट देखने होते हैं, पर माँ जी इनमें बहू-बेटियों की फरमाबरदारी की उम्मीद करती हैं। यहाँ अनुशासन में रहना होता है, पर माँ समझती नहीं। क्या करें ? मुझे रोज-रोज इनकी शिकायतें सुननी पड़ती हैं।"
माँ के कमरे में धुँधलका था। एक तरफ मुँह-नाक में नलियाँ लगाये, एक मोटी काली औरत जोर-जोर से साँस ले रही थी। शायद अस्थमा की मरीज हो। बायीं ओर, तीन तरफ लम्बे पर्दों के ढके पलंग पर लेटी काया ने, आहट सुन हरकत की। वीर जी ने हल्के हाथ से डुलाया। "देखो, कौन आया है ?"
अब तक चारों, माँ की चारपाई के पैताने इकट्ठे हो गये थे। माँ ने आँखें मुलमुलाकर देखा, "कौन ?" धीरेन्द्र श्रेया ने हाथ जोड़े-"अरे तुम ?" मुझे बताया नहीं किसी ने। रुको, रुको जरा ऐनक तो लगा लूँ। माँ ने साइड टेबल पर रखी ऐनक उठायी, हड़बड़ाहट में बाँहें खोलीं, और धीरेन्द्र श्रेया ने उनकी हड़ियल काया को बाँहों से घेरे लिया।
"कैसा लगा सरप्राइज ?" वीरजी चुहल के मूड में आ गये।
माँ जी उन्हें साथ- साथ सटाये बड़बड़ाती रहीं, कुछ स्पष्ट कुछ अस्पष्ट बोल, कुछ प्रश्न और करीब आकर साथ बैठने का आग्रह।
"इधर, इधर बैठो मेरे पास। बिस्तर साफ है रोज बदलते हैं। अच्छा, अच्छा सुनाओ कैसे हो। कितने कमजोर लग रहे हो। सब ठीक तो है न ? रहोगे न कुछ दिन ? आये कब ? मुझे तो बताया नहीं किसी ने...।" मैं उत्तेजना से भर गयी थी।
वीरजी ने टोका, "महीना भर रहेंगे। खूब बातें करना। अभी-अभी सीधे हवाई अड्डे से ही आ रहे हैं।"
"हाँ-हाँ, रास्ते की थकान होगी। कितना पीला पड़ा है चेहरा। ठीक है, अभी जाकर आराम करो कुछ खा पी लो कल आना...।"
माँ जी धीरेन्द्र की पीठ पर हाथ फिराती रहीं। कभी बालों पर, कभी चेहरे पर। नजरों से सहलाती-दुलारती।
"अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा है, सचमुच तुम्हें देख रही हूँ ?" वर्षों की दूरियों ने माँ की आँखें पथरा दी थीं। कैसे विश्वास आता कि उसका बड़ा बेटा पिण्डकर्ता दूरियाँ लाँघ उस तक पहुँच आया है। दोनों बेटों बहुओं से बतियाते उसने बाद में कहा था, "आज बहुत अच्छा लग रहा है। सचमुच आज मरने को जी करता है।"
डिनर टाइम हो गया था। नर्स व्हील चेयर पर बिठाकर डाइनिंग हाल में ले जाने आयी थी। माँ आज्ञाकारिणी बच्ची बन गयीं। श्रेया ने पहले एक फिर दूसरी टाँग बिस्तरे से उतार बगल में हाथ देकर उठाया और खुद ही डायनिंग हाल की ओर ले चली, नर्स मुस्कुरायी।
"आज मेहमान आये हैं ? मॉम खुश हैं।"
"बेटा बहू हैं, इण्डिया से आये हैं।" "प्रेया ने जानकारी दी। "ओ, दैट इज वण्डरफुल। इण्डिया इज आ ग्रेट कण्ट्री।"
माँ तनकर व्हील चेयर पर बैठी, आश्वस्त कुछ-कुछ गर्व भरी। डायनिंग टेबल पर माँ के सामने बेहद मोटा नीग्रो लड़का बैठा था। माँ ने-"माय सन, इण्डिया" कहकर इशारों से बेटे का परिचय दिया। "माँ एक्सायटिड हैं, "प्रेया ने कहा।
मेज के आगे बिठा प्रेया ने माँ के गले में ऐप्रेन बाँधा। एक गोरी लड़की ट्रे में डिनर रख गयी। माँ ने उसे भी इशारों से बताया, "मेरे बेटा बहू हैं, दूर इण्डिया से आये हैं।" श्रेया हल्का सा हँसी। माँजी हाथों से जबान का काम लेती हैं। उन्हें भाषा की जरूरत ही नहीं पड़ती।
ट्रे में सूप उबले आलू, चिकन कुछ उबली सब्जियाँ, जूस पॉरिज वगैरह रखे थे। माँ ने दो-चार चम्मच सूप लिया। फोर्क से सब्जियाँ कुरेदकर देखीं, जूस पीकर पॉरिज नीग्रो लड़के की ओर सरकाया।
"बस्स !" माँ के भीतर अजीब-सी बेचैनी आवेग और सुख का मिला-जुला भावसंवेग उसे असंयत बना रहा था-"खाना खा लो माँ, अभी हम बैठे हैं।" श्रेया ने कन्धे से घेरा। चम्मच से दो-चार कौर खुद माँ को खिलाये।
वीरजी ने चेताया, "सुबह तक कुछ नहीं मिलेगा। भूखे पेट नींद नहीं आएगी। खा लो, आराम से, और इस शूगर पेशेण्ट को मीठी चीजें मत दिया करो। पहले ही इसकी टाँगों में गैंगरीन हो गया है। बेचारा मौत से पहले ही मर जाएगा..।"
"कुछ नहीं होता" वाले भाव से माँ ने हाथ हिलाया। या होगा भी तो मुक्ति मिलेगी। नीग्रो लड़का खिसिया गया।
वीरजी ने विवशता दर्शायी, "माँ कभी किसी की बात सुनती हैं ? चलो लॉन में बैठकर बात करते हैं।" प्रेया माँ को व्हील चेयर पर लिफ्ट से नीचे ले आयी। पेड़ों के साये में कुछ कुर्सियाँ और बेंच लगे थे। चार-छह मुलाकाती अपने-अपने पेशेण्टों के साथ नीचे हाल में बतिया रहे थे। कुछ हिदायतें, कुछ उम्मीदें, कुछ आश्वासन टुकड़ों में सुनाई दे रहे थे।
"नहीं आ पायी पिछले वीकएण्ड पर, सॉरी मॉम। छुट्टी नहीं मिली।" जीन्स जैकेट में एक युवा लड़की माँ को मना रही थी।
एक दाढ़ीवाला कूबड़ निकला बूढ़ा पेड़ों की हिलती पत्तियाँ देखने में मसरूफ था। उसकी नातिन उसके झुके कन्धों पर हाथ रखे कुछ समझा रही थी, जिसे बुजुर्ग समझ नहीं पा रहा था। वह बराबर पेड़ों की ओर टकटकी लगाये बैठा था।
"एमनीशिया का पेशेण्ट है। यह लड़की आती है कभी-कभार नाना से मिलने, पर वह पहचानता भी नहीं। घरवालों ने तो आना ही छोड़ दिया है। पहले बीबी आती थी, अब वह भी गुजर गयी। पता नहीं कब तक जिएगा बेचारा।"
वीरजी बीमारों का परिचय दे रहे थे। एक तीस वर्षीया सुनहरी बालोंवाली लड़की से वीरजी गले मिले। हाल पूछा। श्रेया की ओर मुड़कर कहा, "ये लड़की जिएगी नहीं ज्यादा दिन। कैंसर पेशेण्ट है। उनकी माँ नहीं जानती। इसने बताया भी नहीं। हर दूरे दिन माँ को देखने आती है, इसकी माँ को एक्यूट हार्ट प्रॉब्लम है। मुझे तो लगता है माँ से पहले बेटी ही चली जाएगी। ओ गॉड। इट्स क्रूअल।"
प्रेया माँ को मेपल के नीचे ले आयी। उन लोगों ने कुछ बातें कीं। श्रेया लार टपकाते, चीखते रोते, हाँफते-काँपते और अपने में गुम पेशेण्टों को देख आहत थी।
इस बीमार माहौल में माँ कैसे रहती होंगी ? अभी भी प्रश्न दिमाग को कौंच रहे थे। वह स्थिति को नार्मल बनाने की कोशिशों में माँ को अतीत के कुछ सुनहरे पल याद दिलाती रही। वह मानसबल झील, वे पिकनिकें, शादियाँ ब्याह, बाबूजी के दिये दमदार भाषण, छब्बीस जनवरी पर स्कूल में हुए समारोह पर श्रेया का तैयार किया स्किट जिसे आर्मी ऑफिसरों ने दो बार देखने की इच्छा प्रकट की थी...।"
माँ हाँ हूँ करती रही। उसने न झीलों झरनोंका नाम लिया, न बाबूजी का। सिर्फ धीरेन्द्र को देखती रही। बच्चों का हाल-चाल नाते रिश्तेदारों की खबरें पूछती रही। कौन मरा, कौन जन्मा। कितना कुछ तो जानना था उन्हें।
माँ को वापस कमरे में लाकर प्रेया ने उनके कपड़े बदले। गाऊन पहनाया। श्रेया को माँ की टाँगें नजर आयीं। खूब सूजी हुई, हाथी की टाँगें। पैर लाल भभूका उसका जी धँस गया। धीमे से माँ के पैरों पर हाथ फिराया। कितना लाड़ करती रही है माँ अपने शरीर का। ग्लिसरीन नीबू पैरों पर मलना रोज का नियम ही था। वे दुबली-पतली टाँगें, मुलायम चूजों जैसे पैर ! कहाँ गये ?
माँ ने अचानक ही कहा, "अब पहले से ठीक हैं टाँगें। पैर भी। दर्द नहीं होता। डॉक्टर कहते हैं जल्दी ठीक हो जाऊँगी। यह देखो, कितनी दवाइयाँ दी हैं।" उन्होंने टेबल पर रखी दवाइयाँ दिखायीं। वहाँ कुछ विटामिन की गोलियाँ कैप्सूल कुछ क्रीम की शीशियाँ वगैरह थीं।
"बड़ी डॉक्टर मेरा खास खयाल रखती हैं।" उसने तकिये के नीचे रखी डॉक्टर की वह चिट्ठी भी दिखायी, जो दूसरे सेण्टर पर जाने से पहले पेशेण्टों को दी थी, जिसमें उनके लिए ठीक होने की दुआएँ थीं, नर्सों को हिदायतें भी कि बीमारों का ठीक से खयाल रखें।
बेअन्त समुद्र, जिसकी ऊपरी सतह पर सूर्य किरणों की झिलमिलाहट है, कहीं झाग भरी, कहीं शान्त पारदर्शी। भीतर रहस्य भरे अँधेरे में गोता लगाते भयावह जल-जीव मगर, शार्क, व्हेल। शायद कहीं समुद्र तल के महल-दुमहले, जगर-मगर करती मरमेडें भी हों। तट पर तो बालू में फिंके शंख सीपियाँ और ढेरों ढेर घोंघे हैं। अतल में डुबकी लगाना कहाँ मुमकिन है ?
पूरा महीना बीत गया, लगता है अभी कल ही तो आये थे। तब आशंकित उत्सुकता थी, कैसे रहती होंगी, परायों के बीच ? खान-पान, रहन-सहन और जुबान भी तो अजनबी ! गोकि वीरेन्द्र और प्रेया की आश्वस्त करती सूचनाएँ, सब सही सलामत वाले कलामों से लबरेज़ थीं।
"माँ जिन्दगी नये सिरे से जी रही हैं भाभी। बेहद खुश। कमाल का एडजस्टमेण्ट है। नहीं, नहीं, उनके लिए साड़ी-वाड़ी नहीं लाना। अब तो वे ट्रैक सूट और हाउस गाउन ही पहनती हैं...। खाना ? अरे भाभी, चिकन विद मशरूम उन्हें खास पसन्द है, तभी तो कहती हूँ कमाल का एडजस्मेण्ट है उनमें...।"
माँ से सीधी बात नहीं हो पाती थी। इधर वह ऊँचा सुनने लगी हैं। हाँ, उनकी बातों के कैसेट जरूर उन तक पहुँचते, जिनमें सबका हालचाल खैर खबर अपनी कुशल के अलावा कभी-कभी दो चार वाक्य चौंका देते-"बहोत अच्छी हूँ धीरजी, कोई फिक्र मत करना। वीरजी, प्रेया दोनों लगभग रोज देखने आते हैं। इतवार को घर से मेरे लिए खाना भी ले आते हैं। नर्से खूब खयाल रखती हैं। डॉक्टर ‘आई लव यू’ बोलती हैं।"
"बरामदे में बैठी हूँ। आसमान काले बादलों से अटा पड़ा है। हवा में उमस है। उफ्फ, कैसा शामियाना सा-तना है सिर के ऊपर। बारिश आती तो कुछ हल्का सा लगता। मगर नहीं आएगी, यों ही घुमड़न होती रहेगी...।" कट। शायद वीरजी अगली बातें काट देते हो। पिचानवे की उम्र। बात करते-करते काफी कुछ अनर्गल बोलने लगती हैं। माँ।
घर लौटते वक्त आज माँ के कई-कई वाक्य श्रेया के कानों में गूँज रहे हैं। क्या वे भी अनर्गल हैं ?
"मेरी माँ बीमार थी, सेनिटोरियम में रखा था। मरने-मरने को थी, पर उसने प्राण जैसे मुट्ठी में बन्द कर रखे थे। कष्ट बहुत, पर कहती थीं, जब तक घर नहीं ले जाओगे, प्राण नहीं त्यागूँगी। और जब घर ले आये तो ऐसी गाढ़ी नींद सोयीं कि दूसरे दिन उठी ही नहीं।"
और विदावेला में कहा गया उनका आखिरी वाक्य-"अब ये दूरियाँ सही नहीं जातीं।"
पता नहीं कैसा लावा-सा फूटा था।
या लबालब भरा घड़ा छलक आया था।
या सागर का उफान छाती के ऊपर से गुजर गया था। पता नहीं कैसे यह उद्वेलित सागर श्रेया के भीतर समा गया, शायद धीरेन्द्र के भी ! शब्दों से परे की, कई-कई अर्थों में खुलती झागल हरहराहट।
श्रेया-धीरेन्द्र इसे समझने की कोशिश कर रहे हैं। इस अथाह मन्थन का कहीं कोई कोर-किनारा नहीं, तो कौन से सूत्र खोज इसे समझने की मुहिम उठायी जाए ? क्या सफर की शुरुआत से ही शुरू करें ? या इस धरती के हिस्से पर पाँव रखने से ?
एक मास पहले, लॉस एंजिल्स एयरपोर्ट पर वीरजी और प्रेया उन्हें रिसीव करने आये थे। गले मिलकर खैर-खबर पूछने के बाद ही श्रेया ने पहले माँ से मिलने की इच्छा जाहिर की थी। भावहीन चेहरा लिये वीरजी ने गाड़ी सेण्टर की ओर मोड़ दी थी। दो वर्ष पहले माँ का एक्सीडेण्ट हो गया था, तब से वे रिकवरी सेण्टर में ही रह रही हैं।
गाडी तारकोली सड़क पर पालदार नाव-सी बह रही थी। दायें-बायें खड़ी पाइन और ओक की हरियल कतारें, सड़क के हाथ थामे साथ-साथ दौड़ रही थीं। कोई बोल नहीं रहा था, भीतर से भरे होने के बावजूद। साँस रोके बैठी चुप्पी तभी शायद असहज लग रही थी।
अचानक वीरजी के शब्द मेंढक से उछल आये।
"माँ को जितनी केयर, जितनी सुविधाएँ यहाँ मिलती हैं, मैं तो अपने लिए उससे आधी की भी उम्मीद नहीं रख सकती।"
बिना भूमिका बाँधे कहा गया यह वाक्य, धीरेन्द्र को कुछ अटपटा-सा लगा। कैसी बातें सोचते हों ?"
उन्हें एकाएक समझ न आया कि क्या कहें।
"पचपन पार कर रहा हूँ। शरीर में अभी से झोल पड़ने लगे हैं। क्या पता कल क्या हो ?" वीरजी के हाथ स्टेयरिंग पर कस गये।
"इधर रहकर आगे के लिए सोचना ही पड़ता है भैया जी !"
"यहाँ तो ‘टु ईच हिज़ ओन’ वाली पॉलिसी चलती है। कोई नाते रिश्तेदार तो होते ही नहीं जो मुसीबत में मदद करें...। बच्चों की अपनी जिन्दगियाँ हैं, वे आगे देखें कि पीछे ?"
प्रेया प्रेक्टिकल बातें करती है। बीस साल विदेश में रहना कुछ कम तो नहीं होता सीखने के लिए।
इधर-उधर के फर्क पर किसी ने टिप्पणी नहीं की। आगत के लिए सोचना कहीं भी जरूर है। नाते रिश्तेदारों की मदद पर इसलिए नहीं बोला गया कि आप अगर कुछ रिश्तों से दूर हो जाते तो रिश्ते तुम्हें ढूँढ़ते हुए तो नहीं आएँगे। सोचा जरूर, पर कहा किसी ने कुछ नहीं। धीरेन्द्र यों भी संवादों पर विश्वास खोने लगे हैं। जब दूसरा, हर हाल में अपनी बात मनवाना चाहे तो संवाद फालतू बहस बन जाते हैं।
श्रेया अभी भी शीशे की पारदर्शी खिड़की से बाहर देखे जा रही थी। दूर से सिर जोड़े दिखाई देते पेड़ पास आते ही कैसे छिटक जाते हैं। बीच की जुड़ी-जुड़ी-सी दिखती सड़क करीब आते ही, दो घनिष्ठों को दूर करती फासले बनाती है।
दरअसल श्रेया माँ जी की नब्बे पार यात्रा के पड़ावों मोड़ों के छोटे बड़े हादसों हविशों के बारे में सोचती पिछले गलियारों में भटक रही थी। कितने कुछ की तो साक्षी है वह।
क्या पता अब किस हाल में होंगी ? क्या सोचती होंगी ? बाहर के सुख की बानगी तो प्रेया कुछ उदाहरणों से ही दे चुकी थी, लेकिन भीतर की, मार मार कर भी जी उठनेवाली उम्मीदें, स्वप्न योजनाएँ ? अजनबी माहौल अजनबी भाषा और आहों-कराहों से अटे माहौल में, भीड़ में खोये बच्चे सी निस्सहाय कैसे जी रही होंगी ? हमेशा की बातूनी माँ, बिना बोले कैसे रहती होंगी ?
प्रेया नर्सों की कर्तव्यनिष्ठा से गद्गद थी। डॉक्टरों का सेवा भाव ! माँ सचमुच भाग्यशाली है।
"कमाल का डेडिकेशन है यहाँ की नर्सों में ! मैं तो हैरान होती हूँ देखकर। हर तरह के बीमार मनोरोगी, पागल।"
वे थोड़ा रुक गयीं, "आई मीन, हर तरह के बीमारों की तीमारदारी करना, उन्हें धोना पोंछना उनका चिड़चिड़ापन और तुनकमिजाजी सहना। यू नो, बीमारी में कितना डिमाण्डिंग हो जाता है आजमी ! कोई कितना भी अपना हो, कभी थक ऊब तो जाता ही है सेवा करनेवाला।
प्रेया के स्वर में कोई झोल नहीं। वह सन्तुष्ट थी। अपनी तरफ से तो उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। तीनेक मास माँ को घर पर रखकर सेवा की। ग्राउण्ड फ्लोर में ही बाथरूम लैट्रिन का इन्तज़ाम किया कमरों की तोड़-फोड़ करके। माँ अपाहिज हो गयी थी। व्हील चेयर से सीढ़ियाँ चढ़ना सम्भव नहीं था, पर उनकी शिकायतें खत्म होने को नहीं आ रही थीं।
"हम तो सन्तुष्ट हैं, कि माँ को अन्तिम पड़ाव पर मन मुआफिक इलाज सेवा और सुविधाएँ मिलीं। चौबीस घण्टे नर्सें और डॉक्टरों के नियमित चेक अप्स। घर में यह सब मुमकिन कहाँ होता ?" यानी सुविधाएँ खरीदनी पड़ती हैं, खरीद-फरोख्त की सीमाएँ हैं। सच है, डॉक्टरों की भारी फीस, दवाइयों और नर्सों का खर्चा उठाना आसान नहीं था। प्रेया की नौकरी थी, पीछे से माँ को कुछ हो गया तो ? हमेशा टेन्स रहती थी।
प्रेया माँ जी की बातें करती है। "माँ का जवाब नहीं, हमेशा शिखर पर बैठेंगी, बैठी रही हैं। अपनी जगह से एक इंच नीचे नहीं आना चाहतीं।" यानी कि अब उन्हें स्थितियाँ स्वीकारनी चाहिए। तीन-तीन पीढ़ियों के सुख-दुख तीज-त्योहारों के बीच गुजरती माँ ने समय के बदलते तेवर देखे। जो महत्त्वपूर्ण था, वह फालतू हो गया। सुच्चे-जुठे, साड़ी-सलवार के फर्कों से बाहर आकर माँ ने बच्चों की सुविधाएँ भी देखी ही होंगी, बाबूजी तो माँ के रास्तों पर मखमल भले न बिछा पाये हों, हाथों से रास्ते बुहार पत्नी को कील काँटों से बचा जरूर लेते थे। बच्चे कहते, "बाबूजी के प्राण माँजी के पिंजरे में बन्द हैं।" माँ हँसती, माँ रोती, "तुम्हारे बाबूजी दगा दे गये, मेरे प्राणों का पिंजरा यहीं छोड़कर चल दिये।
श्रेया तमाम रास्ते वह सोने का पिंजरा देखती रही, जिसमें एक आहत मैना अपने जख्मों पर फाहे लगा रही थी, फिर खुरण्ड उचेलती फिर फाहे लगाती। बार-बार ! बार-बार !
वीर जी के भीतर कुछ खदखदा रहा था, जो प्रेशर से ढक्कन फेंक बाहर छलक आया।" सोचता हूँ, बाबूजी को इससे आधी सुविधाएँ मिली होतीं, तो...।"
-तो ? श्रेया ने उबलती धार को तन पर महसूस किया।
-तो क्या एक बेहतर मौत पाते ? कहना चाहा, पर कहा नहीं। वह यहाँ कुछ दिनों के लिए आयी है। लम्बी यात्रा भारी खर्चा उठाकर जो न अब उसका शरीर और न जेब ही बदार्श्त कर पाते हैं।
लेकिन माँ को देखे बिना वह छटपटा रही थी।
धीरेन्द्र ने समझाया था, "वहाँ जाकर हम ऐसा क्या करेंगे जो वीरजी, प्रेया नहीं कर रहे हैं ? यहाँ आने लायक तो वे अब हैं नहीं...।" प्रेक्टिकल बातें।
उसे कोई भोंथरी कटार चुभ गयी थी।
"कल अगर मुझे कुछ हो गया और मेरे बच्चे भी ऐसी ही भाषा बोले, तो ? आखिर दोनों एक साथ तो जाएँगे नहीं ?"
काफी कहने के बाद भी बहुत अनकहा रहा जाता है।
वीरजी ने बाबूजी का जिक्र छेड़ा। उसे भाई-भाभी से कोई शिकायत नहीं थी। फिर क्यों उन्होंने तो अपनी जिम्मेदारियाँ निभायी थीं। शायद एक तुलनात्मक प्रसंग उठा, माँ को मुहैया की गयी सुविधाओं को असरदार बताकर उन्हें ज्यादा भाग्यशाली साबित करना चाहा, या शायद अपने भीतर बैठी किसी हीन ग्रन्थि को धकेलने की कोशिश की हो, कि तुमने आखिरी वक्त माँ को घर निकाला दे दिया ?
श्रेया के भीतर उथल-पुथल मच गयी। धीरेन्द्र दायें-बायें गुजरते शॉपिंग सेण्टर, ईंटिंग ज्वाइण्टस् और हरे लॉनों के बीच फूलों के रंगदार गुच्छे देखते रहे।
श्रेया जैसे खुद से बतिया रही हो, "बाबूजी कई मायनों में भाग्यशाली रहे। ज्यादा देर बिस्तर पर पड़े नहीं, और उनका साथी आखिरी साँस तक उनके सिरहाने रहा...।"
"हम तो थे ही, नहीं कहा। यह भी नहीं कि तुम्हारी, माँ को दी गयी सुविधाओं से अलग, उनके आसपास घर की खट-खट खुट-खुट और रिश्तों की सौंध थी। बिस्तर पर पड़े बाबूजी वे आवाजें सुनकर चौकन्ने हो जाते, "कहीं जाना है क्या हमें ?" "वीरजी आया है क्या ?" चिक्कू की आवाज नहीं सुनाई पड़ती।"
घर में गरम भात और रोटियों की सोंधी महक उनके साथ थी। चौके से उठती हींग, जीरे, मेथी की गन्ध, और घी का तड़का सूँघकर बताते, "आज मेथी पनीर बनायी है ? शलज़म-नदरू कहाँ से ले आये ? क्या नाथजी के घर से आये हैं ?
खुले हॉल से, नीचे की सदाएँ ऊपर उनके कमरे तक आतीं। वे जान जाते कौन हैं। दफ्तर के लोग हैं, रिश्तेदार होते तो उनसे मिलने ऊपर चले आते।
वीर जी के चेहरे पर कई रंग एक साथ आये गये। सपाट स्वरों का दंश भी दूर तक मार करता है कभी-कभी।
"तुमने माँ की सुविधाओं के नाम पर बनवास दे दिया।"
धीरेन्द्र ने बात बढ़ने से पहले विराम लगा दिया, "इधर की जैसी सहूलियतें हमारे यहाँ कहाँ हैं ?"
श्रेया को बात अखर गयी। अगले का सिर तना रखने के लिए खुद को छोटा करना क्यों जरूरी है ?
बाबूजी के पास रात-दिन डॉक्टर नर्सें नहीं थे। धीरेन्द्र खुद डॉक्टर बन गये थे। बाबूजी को कैथेटर लगा था। रात-विरात पाइप निकलता तो डॉक्टर तक पहुँचते हैरान हो जाते।
धीरेन्द्र ने खुद कैथेटर लगाना सीख लिया। बाबूजी पाइप लगाते देख धीरेन्द्र की बाँह थाम लेते-"तुम्हारे हाथ में दर्द बिल्कुल नहीं होता।" हाथ देर तक छोड़ते नहीं। बेटे का स्पर्श आत्मा तक उतारने का सुख उनके चेहरे पर छा जाता। वह सुख तो तमाम जल्जबाज स्पर्शों सुविधाओं के बावजूद माँ के हिस्से में नहीं है। समय किसके पास है ?
सेण्टर का भवन शानदार था। हरे लॉन और लम्बे पेड़ों के बीच बीतराग भंगिमा में खड़ा जाने क्यों श्रेया को उदास-उदास नजर आया। वे लिफ्ट से छठे माले पर रुके और लम्बे कॉरीडोर से होते चौकोर हाल में, मेज पर झुकी दो-तीन परिचारिकाओं, रिसेप्शनिस्टों से हाय हेलो बायी विंग की ओर मुड़े, ठीक सामने से लम्बी दिल दहलाने वाली चीख ने उनका स्वागत किया। सुर्ख बालोंवाली औरत झुर्रियल हाथों से माथा पीट-पीट चिल्ला रही थी। तीखी कौंचवाला रुदन श्रेया को थर्रा गया।
-"जेनी है, कभी-कभी इस पर दौरे पड़ते हैं।" प्रेया ने जानकारी दी।
एक सफेद बालोंवाली सजी-धजी महिला हाथों को खोलते बन्द करते, अपने आप से बतिया रही थी। दूसरी व्हील चेयर की बाँह पर सिर लटकाये टी.वी. पर नजरें गड़ाये कोई फिल्म देख रही थी। स्क्रीन पर प्रेमी-प्रेमिका का गहरा चुम्बन ले रहा था। व्हील चेयरवाली औरत के टेढ़े मुँह से राल बह रहा था, वह अपने मुड़े हाथों से उसे पोंछने की कोशिश कर रही थी। शायद पैरेलैटिक पेशेण्ट थी।
कमरा नम्बर सात के बायें दरवाजे पर फूलों के हार के बीच माँ का नाम लिखा था-सत्यवती रैना।
कमरे से बाहर आती नर्स मुस्कुरायी आदतन। प्रेया ने अभिवादन करके पूछा, "मॉम गेव एनी ट्रबल ? (माँ ने परेशान किया?)"
"देट्स ऑल राइट।" वह जल्दी में थी। जैसे कहा, रोज की बात है।
श्रेया ने देवरानी की तरफ देखा।
"आप जानती हैं माँ जी का स्वभाव। हमेशा अपनी मनमर्जी। सुबह देर तक सोएँगी। टाइम पर नहाने के लिए उठेंगी नहीं। अब इन बेचारियों को तो दसियों पेशेण्ट देखने होते हैं, पर माँ जी इनमें बहू-बेटियों की फरमाबरदारी की उम्मीद करती हैं। यहाँ अनुशासन में रहना होता है, पर माँ समझती नहीं। क्या करें ? मुझे रोज-रोज इनकी शिकायतें सुननी पड़ती हैं।"
माँ के कमरे में धुँधलका था। एक तरफ मुँह-नाक में नलियाँ लगाये, एक मोटी काली औरत जोर-जोर से साँस ले रही थी। शायद अस्थमा की मरीज हो। बायीं ओर, तीन तरफ लम्बे पर्दों के ढके पलंग पर लेटी काया ने, आहट सुन हरकत की। वीर जी ने हल्के हाथ से डुलाया। "देखो, कौन आया है ?"
अब तक चारों, माँ की चारपाई के पैताने इकट्ठे हो गये थे। माँ ने आँखें मुलमुलाकर देखा, "कौन ?" धीरेन्द्र श्रेया ने हाथ जोड़े-"अरे तुम ?" मुझे बताया नहीं किसी ने। रुको, रुको जरा ऐनक तो लगा लूँ। माँ ने साइड टेबल पर रखी ऐनक उठायी, हड़बड़ाहट में बाँहें खोलीं, और धीरेन्द्र श्रेया ने उनकी हड़ियल काया को बाँहों से घेरे लिया।
"कैसा लगा सरप्राइज ?" वीरजी चुहल के मूड में आ गये।
माँ जी उन्हें साथ- साथ सटाये बड़बड़ाती रहीं, कुछ स्पष्ट कुछ अस्पष्ट बोल, कुछ प्रश्न और करीब आकर साथ बैठने का आग्रह।
"इधर, इधर बैठो मेरे पास। बिस्तर साफ है रोज बदलते हैं। अच्छा, अच्छा सुनाओ कैसे हो। कितने कमजोर लग रहे हो। सब ठीक तो है न ? रहोगे न कुछ दिन ? आये कब ? मुझे तो बताया नहीं किसी ने...।" मैं उत्तेजना से भर गयी थी।
वीरजी ने टोका, "महीना भर रहेंगे। खूब बातें करना। अभी-अभी सीधे हवाई अड्डे से ही आ रहे हैं।"
"हाँ-हाँ, रास्ते की थकान होगी। कितना पीला पड़ा है चेहरा। ठीक है, अभी जाकर आराम करो कुछ खा पी लो कल आना...।"
माँ जी धीरेन्द्र की पीठ पर हाथ फिराती रहीं। कभी बालों पर, कभी चेहरे पर। नजरों से सहलाती-दुलारती।
"अपनी आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा है, सचमुच तुम्हें देख रही हूँ ?" वर्षों की दूरियों ने माँ की आँखें पथरा दी थीं। कैसे विश्वास आता कि उसका बड़ा बेटा पिण्डकर्ता दूरियाँ लाँघ उस तक पहुँच आया है। दोनों बेटों बहुओं से बतियाते उसने बाद में कहा था, "आज बहुत अच्छा लग रहा है। सचमुच आज मरने को जी करता है।"
डिनर टाइम हो गया था। नर्स व्हील चेयर पर बिठाकर डाइनिंग हाल में ले जाने आयी थी। माँ आज्ञाकारिणी बच्ची बन गयीं। श्रेया ने पहले एक फिर दूसरी टाँग बिस्तरे से उतार बगल में हाथ देकर उठाया और खुद ही डायनिंग हाल की ओर ले चली, नर्स मुस्कुरायी।
"आज मेहमान आये हैं ? मॉम खुश हैं।"
"बेटा बहू हैं, इण्डिया से आये हैं।" "प्रेया ने जानकारी दी। "ओ, दैट इज वण्डरफुल। इण्डिया इज आ ग्रेट कण्ट्री।"
माँ तनकर व्हील चेयर पर बैठी, आश्वस्त कुछ-कुछ गर्व भरी। डायनिंग टेबल पर माँ के सामने बेहद मोटा नीग्रो लड़का बैठा था। माँ ने-"माय सन, इण्डिया" कहकर इशारों से बेटे का परिचय दिया। "माँ एक्सायटिड हैं, "प्रेया ने कहा।
मेज के आगे बिठा प्रेया ने माँ के गले में ऐप्रेन बाँधा। एक गोरी लड़की ट्रे में डिनर रख गयी। माँ ने उसे भी इशारों से बताया, "मेरे बेटा बहू हैं, दूर इण्डिया से आये हैं।" श्रेया हल्का सा हँसी। माँजी हाथों से जबान का काम लेती हैं। उन्हें भाषा की जरूरत ही नहीं पड़ती।
ट्रे में सूप उबले आलू, चिकन कुछ उबली सब्जियाँ, जूस पॉरिज वगैरह रखे थे। माँ ने दो-चार चम्मच सूप लिया। फोर्क से सब्जियाँ कुरेदकर देखीं, जूस पीकर पॉरिज नीग्रो लड़के की ओर सरकाया।
"बस्स !" माँ के भीतर अजीब-सी बेचैनी आवेग और सुख का मिला-जुला भावसंवेग उसे असंयत बना रहा था-"खाना खा लो माँ, अभी हम बैठे हैं।" श्रेया ने कन्धे से घेरा। चम्मच से दो-चार कौर खुद माँ को खिलाये।
वीरजी ने चेताया, "सुबह तक कुछ नहीं मिलेगा। भूखे पेट नींद नहीं आएगी। खा लो, आराम से, और इस शूगर पेशेण्ट को मीठी चीजें मत दिया करो। पहले ही इसकी टाँगों में गैंगरीन हो गया है। बेचारा मौत से पहले ही मर जाएगा..।"
"कुछ नहीं होता" वाले भाव से माँ ने हाथ हिलाया। या होगा भी तो मुक्ति मिलेगी। नीग्रो लड़का खिसिया गया।
वीरजी ने विवशता दर्शायी, "माँ कभी किसी की बात सुनती हैं ? चलो लॉन में बैठकर बात करते हैं।" प्रेया माँ को व्हील चेयर पर लिफ्ट से नीचे ले आयी। पेड़ों के साये में कुछ कुर्सियाँ और बेंच लगे थे। चार-छह मुलाकाती अपने-अपने पेशेण्टों के साथ नीचे हाल में बतिया रहे थे। कुछ हिदायतें, कुछ उम्मीदें, कुछ आश्वासन टुकड़ों में सुनाई दे रहे थे।
"नहीं आ पायी पिछले वीकएण्ड पर, सॉरी मॉम। छुट्टी नहीं मिली।" जीन्स जैकेट में एक युवा लड़की माँ को मना रही थी।
एक दाढ़ीवाला कूबड़ निकला बूढ़ा पेड़ों की हिलती पत्तियाँ देखने में मसरूफ था। उसकी नातिन उसके झुके कन्धों पर हाथ रखे कुछ समझा रही थी, जिसे बुजुर्ग समझ नहीं पा रहा था। वह बराबर पेड़ों की ओर टकटकी लगाये बैठा था।
"एमनीशिया का पेशेण्ट है। यह लड़की आती है कभी-कभार नाना से मिलने, पर वह पहचानता भी नहीं। घरवालों ने तो आना ही छोड़ दिया है। पहले बीबी आती थी, अब वह भी गुजर गयी। पता नहीं कब तक जिएगा बेचारा।"
वीरजी बीमारों का परिचय दे रहे थे। एक तीस वर्षीया सुनहरी बालोंवाली लड़की से वीरजी गले मिले। हाल पूछा। श्रेया की ओर मुड़कर कहा, "ये लड़की जिएगी नहीं ज्यादा दिन। कैंसर पेशेण्ट है। उनकी माँ नहीं जानती। इसने बताया भी नहीं। हर दूरे दिन माँ को देखने आती है, इसकी माँ को एक्यूट हार्ट प्रॉब्लम है। मुझे तो लगता है माँ से पहले बेटी ही चली जाएगी। ओ गॉड। इट्स क्रूअल।"
प्रेया माँ को मेपल के नीचे ले आयी। उन लोगों ने कुछ बातें कीं। श्रेया लार टपकाते, चीखते रोते, हाँफते-काँपते और अपने में गुम पेशेण्टों को देख आहत थी।
इस बीमार माहौल में माँ कैसे रहती होंगी ? अभी भी प्रश्न दिमाग को कौंच रहे थे। वह स्थिति को नार्मल बनाने की कोशिशों में माँ को अतीत के कुछ सुनहरे पल याद दिलाती रही। वह मानसबल झील, वे पिकनिकें, शादियाँ ब्याह, बाबूजी के दिये दमदार भाषण, छब्बीस जनवरी पर स्कूल में हुए समारोह पर श्रेया का तैयार किया स्किट जिसे आर्मी ऑफिसरों ने दो बार देखने की इच्छा प्रकट की थी...।"
माँ हाँ हूँ करती रही। उसने न झीलों झरनोंका नाम लिया, न बाबूजी का। सिर्फ धीरेन्द्र को देखती रही। बच्चों का हाल-चाल नाते रिश्तेदारों की खबरें पूछती रही। कौन मरा, कौन जन्मा। कितना कुछ तो जानना था उन्हें।
माँ को वापस कमरे में लाकर प्रेया ने उनके कपड़े बदले। गाऊन पहनाया। श्रेया को माँ की टाँगें नजर आयीं। खूब सूजी हुई, हाथी की टाँगें। पैर लाल भभूका उसका जी धँस गया। धीमे से माँ के पैरों पर हाथ फिराया। कितना लाड़ करती रही है माँ अपने शरीर का। ग्लिसरीन नीबू पैरों पर मलना रोज का नियम ही था। वे दुबली-पतली टाँगें, मुलायम चूजों जैसे पैर ! कहाँ गये ?
माँ ने अचानक ही कहा, "अब पहले से ठीक हैं टाँगें। पैर भी। दर्द नहीं होता। डॉक्टर कहते हैं जल्दी ठीक हो जाऊँगी। यह देखो, कितनी दवाइयाँ दी हैं।" उन्होंने टेबल पर रखी दवाइयाँ दिखायीं। वहाँ कुछ विटामिन की गोलियाँ कैप्सूल कुछ क्रीम की शीशियाँ वगैरह थीं।
"बड़ी डॉक्टर मेरा खास खयाल रखती हैं।" उसने तकिये के नीचे रखी डॉक्टर की वह चिट्ठी भी दिखायी, जो दूसरे सेण्टर पर जाने से पहले पेशेण्टों को दी थी, जिसमें उनके लिए ठीक होने की दुआएँ थीं, नर्सों को हिदायतें भी कि बीमारों का ठीक से खयाल रखें।
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