आचार्य श्रीराम शर्मा >> पितरों को श्रद्धा दें वे शक्ति देंगे पितरों को श्रद्धा दें वे शक्ति देंगेश्रीराम शर्मा आचार्य
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पितरों को श्रद्धा से पूजें....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘‘दह्यमानस्य प्रेतस्य स्वजनैर्यैजलांजलिः।
दीयते प्रीतरूपोऽसौ प्रेतो याति यमालयम्।।’’
(गरुड़ पुराण, प्रेत कल्प 24/12)
दीयते प्रीतरूपोऽसौ प्रेतो याति यमालयम्।।’’
(गरुड़ पुराण, प्रेत कल्प 24/12)
अर्थात् दाह किये गये पितरों के स्वजन उसे जो भावनापूर्ण जलांजलि देते
हैं, उससे उन्हें आत्मिक शांति मिलती और प्रसन्न होकर उच्चस्थ लोकों को
गमन करते हैं।
पितरों को श्रद्धा दें, वे शक्ति देंगे
मरने के बाद क्या होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में विभिन्न धर्मों में
विभिन्न प्रकार की मान्यताएँ हैं। हिन्दू धर्मशास्त्रों में भी कितने ही
प्रकार से परलोक की स्थिति और वहाँ आत्माओं के निवास का वर्णन किया है। इन
मत भिन्नताओं के कारण सामान्य मनुष्य का चित्त भ्रम में पड़ता है कि इन
परस्पर विरोधी प्रतिपादनों में क्या सत्य है क्या असत्य ?
इतने पर भी एक तथ्य नितांत सत्य है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, वरन् वह किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। मरने के बाद पुनर्जन्म के अनेकों प्रमाण इस आधार पर बने रहते हैं कि कितने भी बच्चे अपने पूर्व जन्म के स्थानों, संबंधियों और घटनाक्रमों का ऐसा परिचय देते हैं, जिन्हें यथार्थता की कसौटी में कसने पर वह विवरण सत्य ही सिद्ध होता है। अपने पूर्व जन्म से बहुत दूर किसी स्थान पर जन्मे बच्चे का पूर्व जन्म के समय ऐसे विवरण बताने लगना, जो परीक्षा करने पर भी सही निकलें, इस बात का प्रमाण बताता है कि मरने के बाद पुनः जन्म भी होता है।
मरण और पुनर्जन्म के बीच के समय में जो समय रहता है, उसमें जीवात्मा क्या करता है ? कहाँ रहता है ? आदि प्रश्नों के संबंध में विभिन्न प्रकार के उत्तर हैं, पर उनमें भी एक बात सही प्रतीत होती है कि उस अवधि में उसे अशरीरी किंतु अपना मानवी अस्तित्व बनाये हुए रहना पड़ता है। जीवन मुक्त आत्माओं की बात दूसरी है। वे नाटक की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरांत पुनः अपने लोक को लौट जाती हैं। इन्हें वस्तुओं, स्मृतियों, घटनाओं एवं व्यक्तियों का न तो मोह होता है और न उनकी कोई छाप इन पर रहती है, किंतु सामान्य आत्माओं के बारे में यह बात नहीं है। वे अपनी अतृप्त कामनाओं, बिछोह, संवेदनाओं, राग-द्वेष की प्रतिक्रियाओं के उद्विग्न रहती हैं। फलतः मरने से पूर्व जन्मकाल की स्मृति उन पर छाई रहती है और अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती हैं। पूर्ण शरीर न होने से वे कुछ अधिक तो नहीं कर सकतीं, पर सूक्ष्म शरीर से भी वे जिस-जिस को अपना परिचय देती हैं। इस स्तर की आत्माएँ भूत कहलाती हैं। वे दूसरों को डराती हैं या दबाव देकर अपनी अतृप्त अभिलाषाएँ पूरी करने को सहायता करने के लिए बाधित करती हैं। भूतों के अनुभव प्रायः डरावने और हानिकारक ही होते हैं, पर जो आत्माएँ भिन्न प्रकृति की होती हैं, वे डरावने, उपद्रव करने से विरत ही रहती हैं अमेरिका के रष्ट्रपति भवन में समय-समय पर जिन पितरों के अस्तित्व अनुभव में आते रहते हैं, उनके आधार पर यह मान्यता बन गई है कि वहाँ पिछले कई राष्ट्रपतियों की प्रेतात्माएँ डेरा डाले पड़ी हैं। इनमें अधिक बार अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली आत्मा अब्राहम लिंकन की है।
ये आत्माएँ वहाँ रहने वालों को कभी कोई कष्ट नहीं पहुँचातीं। वस्तुतः आत्माएँ तो दुष्टों की ही होती हैं।
मरण-समय में विक्षुब्ध मनःस्थिति में मरने वाले अक्सर भूत-प्रेत की योनि भुगतते हैं, पर कई बार सद्भाव संपन्न आत्माएँ भी शांति और सुरक्षा के सदुद्देश्य लेकर, अपने जीवन भर संबंधित व्यक्तियों को सहायता देती—परिस्थितियों को सँभालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। पितृवत् स्नेह, दुलार और सहयोग देना भर उनका कार्य होता है।
पितर ऐसी उच्च आत्माएँ होती हैं, जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने उच्च स्वभाव संस्कार के कारण दूसरों की यथासंभव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती है। सूक्ष्म होती हैं। उनका जिसने संबंध हो जाता है, उन्हें कई प्रकार की सहायताएँ पहुँचाती हैं। भविष्य ज्ञान होने से संबद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती हैं।
ऐसी दिव्य प्रेतात्माएँ अर्थात् पितर सदाशयी, सद्भाव संपन्न और सहानुभूतिपूर्ण होती हैं। वे कुमार्गगामिता से असंतुष्ट होतीं तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।
पितर वस्तुतः देवताओं से भिन्न किंतु सामान्य मनुष्यों से उच्च श्रेणी की श्रेष्ठ आत्माएँ हैं। वे अशरीरी होती हैं, देहधारी से संपर्क करने की उनकी अपनी सीमाएँ होती हैं। हर किसी से वे संपर्क नहीं कर सकतीं। कोमलता और निर्भीकता, श्रद्धा और विवेक दोनों का जहाँ उचित संतुलन-सामंजस्य हो ऐसी अनुकूल भावभूमि ही पितरों के संपर्क के अनुकूल होती है। सर्व साधारण उनकी छाया से डर सकते हैं, जबकि डराना उनका उद्देश्य नहीं होता। इसलिए वे उपयुक्त मनोभूमि एवं व्यक्तित्व देखकर ही अपनी उपस्थिति प्रकट करती और सत्परामर्श, सहयोग-सहायता तथा सन्मार्ग-दर्शन करती हैं।
अवांछनीयताओं के निवारण, अनीति के निराकरण की सत्प्रेरणा पैदा करने तथा उस दिशा में आगे बढ़ने वालों की मदद करने का काम भी ये उच्चाशयी ‘पितर’ आत्माएँ करती हैं।
अतः भूत-प्रेतों से विरक्त रहने, उनकी उपेक्षा करने और उनके अवांछित-अनुचित प्रभाव को दूर करने की जहाँ आवश्यकता है, वहीं पितरों के प्रति श्रद्धा-भाव दृढ़ रखने, उन्हें सद्भावना भरी श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति अनुकूल भाव रखकर, उनकी सहायता से लाभान्वित होने के पीछे नहीं रहना चाहिए।
पितरों के भी अनेक स्तर होते हैं और उसी के अनुरूप वे सहायता करते हैं।
श्री सी.डब्ल्यू. लेडवीटर ने अपनी पुस्तक ‘इन विजिबुल हेल्पर्स’ में लिखा है कि सात लोकों में से ऊपरी छह लोकों से संबंधित छह तरह की पितर आत्माएँ होती हैं और प्रत्येक स्तर से दायित्व तथा गतिविधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रकृति, संस्कार, योग्यता एवं अभिरुचि के अनुरूप ये पितर सहायता एवं मार्गदर्शन का काम करते हैं।
श्री लेडवीटर ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में विश्व के विभिन्न समुदायों में प्रचलित पितरों संबंधी धारणाओं के विवरण प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट किया है, कि पुरानी यूनानी एवं रोमन सभ्यता में ये आस्थाएँ जहाँ धूमिल अस्पष्ट धारणाओं के रूप में विद्यमान हैं, वहीं ईजिप्ट (मिश्र) तथा चीन की सांस्कृतिक आस्थाओं में पितरों से संबंधित विस्तृत कथाओं तथा कर्मकांडों की विद्यमानता है। ईजिप्ट-सभ्यता के धर्म ग्रंथों का सार-संदर्भ ‘द बुक ऑफ डेड’ नामक ग्रंथ में संग्रहीत है।
उसमें पितरों की गतिविधियों, उनके द्वारा दी जाने वाली सहायताओं के सैकड़ों मामले विस्तार से दिए गए हैं, किंतु पितरों की गतिविधियों का निरूपण करने वाले नियम तथा प्रक्रियाएँ स्पष्ट रूप में नहीं दी गई हैं।
श्री लेडवीटर ने अपनी पुस्तक में कहा है कि हिंदुओं में श्राद्ध की जो प्रतिक्रिया प्रतिष्ठित है तथा उनसे संबंधित जो विवरण हैं, वे सर्वाधिक प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक हैं, किंतु अब वे भी मात्र कर्मकांडों के रूप में अवशिष्ट हैं और परंपरागत रीति-रिवाज बनकर रह गए हैं। उनके पीछे सन्निहित तत्त्व ज्ञान को अधिकांश हिंदू भूल चुके हैं। इसलिए न तो वे स्वयं ही उस प्रतिक्रिया द्वारा पितरों से समुचित और पर्याप्त लाभ प्राप्त कर पाते, नहीं पितरों एवं स्वर्गीय आत्माओं को ही अपनी श्रद्धा-भावना का उचित लाभ पहुँचा पाते हैं।
श्री लेडवीटर ने स्पष्ट किया है कि इन अशरीरी आत्माओं से संपर्क का मूल आधार संकल्प एवं विचार ही है। जड़ वस्तुओं और निष्प्राण कर्मकांडों के माध्यम से पितरों से आदान-प्रदान का क्रम नहीं चल सकता, क्योंकि वह सारा व्यापार भावनात्मक एवं विचापरक ही है। कर्मकांड की प्रक्रियाएँ आवश्यक तो हैं, किंतु वे उपकरण हैं, उनका प्रयोग होता है, वे स्वयं इन प्रयोगों के संचालन एवं परिणामों के प्रतिपादन में असमर्थ हैं। बिना ज्ञान के उपकरणों का उचित प्रयोग और सही परिणामों की प्राप्ति असंभव है। अतः आवश्यकता पितरों की सत्ता के सही स्वरूप को समझने और उनसे संपर्क की पात्रता स्वयं में विकसित करने की है ? वैसा हो सके तो उनसे-देव स्तर का सहयोग प्राप्त किया जाकर, जीवन को अधिक समृद्ध सार्थक एवं सफल बनाया जा सकता है।
दिव्य प्रेतात्मा से कभी-कभी किन्हीं-किन्हीं का सीधा संबंध उनके पूर्वजन्मों के स्नेह-सद्भाव के आधार पर हो जाता है। कई बार वे उपयुक्त सत्पात्रों को अनायास ही सहज उदारतावश अपने आपको साधना द्वारा प्रेतात्माओं का कृपापात्र बना ले और अपने साथ अदृश्य सहायकों का अनुग्रह जोड़कर अपनी शक्ति को असामान्य बना ले एवं महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करने का पथ-प्रशस्त करे।
पितरों के अनेक वर्ग हैं और देवताओं की ही तरह उनके क्रियाकलापों के क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्यक्ष मार्गदर्शन, गूढ़ संकेत, दिव्य प्रेरणाएँ तथा आकस्मिक सहायताएँ उनसे उपलब्ध होती हैं, विपत्ति से त्राण पाने, सन्मार्ग पर अग्रसर होने और मानवीयता के क्षेत्र को विस्तृत करने, सामाजिक प्रगति का पथ प्रशस्त करने में उनके दिव्य-अनुदान दैवी बरदान बनकर सामने आ सकते हैं।
इतने पर भी एक तथ्य नितांत सत्य है कि मरने के बाद भी जीवात्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता, वरन् वह किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। मरने के बाद पुनर्जन्म के अनेकों प्रमाण इस आधार पर बने रहते हैं कि कितने भी बच्चे अपने पूर्व जन्म के स्थानों, संबंधियों और घटनाक्रमों का ऐसा परिचय देते हैं, जिन्हें यथार्थता की कसौटी में कसने पर वह विवरण सत्य ही सिद्ध होता है। अपने पूर्व जन्म से बहुत दूर किसी स्थान पर जन्मे बच्चे का पूर्व जन्म के समय ऐसे विवरण बताने लगना, जो परीक्षा करने पर भी सही निकलें, इस बात का प्रमाण बताता है कि मरने के बाद पुनः जन्म भी होता है।
मरण और पुनर्जन्म के बीच के समय में जो समय रहता है, उसमें जीवात्मा क्या करता है ? कहाँ रहता है ? आदि प्रश्नों के संबंध में विभिन्न प्रकार के उत्तर हैं, पर उनमें भी एक बात सही प्रतीत होती है कि उस अवधि में उसे अशरीरी किंतु अपना मानवी अस्तित्व बनाये हुए रहना पड़ता है। जीवन मुक्त आत्माओं की बात दूसरी है। वे नाटक की तरह जीवन का खेल खेलती हैं और अभीष्ट उद्देश्य पूरा करने के उपरांत पुनः अपने लोक को लौट जाती हैं। इन्हें वस्तुओं, स्मृतियों, घटनाओं एवं व्यक्तियों का न तो मोह होता है और न उनकी कोई छाप इन पर रहती है, किंतु सामान्य आत्माओं के बारे में यह बात नहीं है। वे अपनी अतृप्त कामनाओं, बिछोह, संवेदनाओं, राग-द्वेष की प्रतिक्रियाओं के उद्विग्न रहती हैं। फलतः मरने से पूर्व जन्मकाल की स्मृति उन पर छाई रहती है और अपनी अतृप्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिए ताना-बाना बुनती रहती हैं। पूर्ण शरीर न होने से वे कुछ अधिक तो नहीं कर सकतीं, पर सूक्ष्म शरीर से भी वे जिस-जिस को अपना परिचय देती हैं। इस स्तर की आत्माएँ भूत कहलाती हैं। वे दूसरों को डराती हैं या दबाव देकर अपनी अतृप्त अभिलाषाएँ पूरी करने को सहायता करने के लिए बाधित करती हैं। भूतों के अनुभव प्रायः डरावने और हानिकारक ही होते हैं, पर जो आत्माएँ भिन्न प्रकृति की होती हैं, वे डरावने, उपद्रव करने से विरत ही रहती हैं अमेरिका के रष्ट्रपति भवन में समय-समय पर जिन पितरों के अस्तित्व अनुभव में आते रहते हैं, उनके आधार पर यह मान्यता बन गई है कि वहाँ पिछले कई राष्ट्रपतियों की प्रेतात्माएँ डेरा डाले पड़ी हैं। इनमें अधिक बार अपने अस्तित्व का परिचय देने वाली आत्मा अब्राहम लिंकन की है।
ये आत्माएँ वहाँ रहने वालों को कभी कोई कष्ट नहीं पहुँचातीं। वस्तुतः आत्माएँ तो दुष्टों की ही होती हैं।
मरण-समय में विक्षुब्ध मनःस्थिति में मरने वाले अक्सर भूत-प्रेत की योनि भुगतते हैं, पर कई बार सद्भाव संपन्न आत्माएँ भी शांति और सुरक्षा के सदुद्देश्य लेकर, अपने जीवन भर संबंधित व्यक्तियों को सहायता देती—परिस्थितियों को सँभालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। पितृवत् स्नेह, दुलार और सहयोग देना भर उनका कार्य होता है।
पितर ऐसी उच्च आत्माएँ होती हैं, जो मरण और जन्म के बीच की अवधि को प्रेत बनकर गुजारती हैं और अपने उच्च स्वभाव संस्कार के कारण दूसरों की यथासंभव सहायता करती रहती हैं। इनमें मनुष्यों की अपेक्षा शक्ति अधिक होती है। सूक्ष्म होती हैं। उनका जिसने संबंध हो जाता है, उन्हें कई प्रकार की सहायताएँ पहुँचाती हैं। भविष्य ज्ञान होने से संबद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती हैं।
ऐसी दिव्य प्रेतात्माएँ अर्थात् पितर सदाशयी, सद्भाव संपन्न और सहानुभूतिपूर्ण होती हैं। वे कुमार्गगामिता से असंतुष्ट होतीं तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न रहती हैं।
पितर वस्तुतः देवताओं से भिन्न किंतु सामान्य मनुष्यों से उच्च श्रेणी की श्रेष्ठ आत्माएँ हैं। वे अशरीरी होती हैं, देहधारी से संपर्क करने की उनकी अपनी सीमाएँ होती हैं। हर किसी से वे संपर्क नहीं कर सकतीं। कोमलता और निर्भीकता, श्रद्धा और विवेक दोनों का जहाँ उचित संतुलन-सामंजस्य हो ऐसी अनुकूल भावभूमि ही पितरों के संपर्क के अनुकूल होती है। सर्व साधारण उनकी छाया से डर सकते हैं, जबकि डराना उनका उद्देश्य नहीं होता। इसलिए वे उपयुक्त मनोभूमि एवं व्यक्तित्व देखकर ही अपनी उपस्थिति प्रकट करती और सत्परामर्श, सहयोग-सहायता तथा सन्मार्ग-दर्शन करती हैं।
अवांछनीयताओं के निवारण, अनीति के निराकरण की सत्प्रेरणा पैदा करने तथा उस दिशा में आगे बढ़ने वालों की मदद करने का काम भी ये उच्चाशयी ‘पितर’ आत्माएँ करती हैं।
अतः भूत-प्रेतों से विरक्त रहने, उनकी उपेक्षा करने और उनके अवांछित-अनुचित प्रभाव को दूर करने की जहाँ आवश्यकता है, वहीं पितरों के प्रति श्रद्धा-भाव दृढ़ रखने, उन्हें सद्भावना भरी श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति अनुकूल भाव रखकर, उनकी सहायता से लाभान्वित होने के पीछे नहीं रहना चाहिए।
पितरों के भी अनेक स्तर होते हैं और उसी के अनुरूप वे सहायता करते हैं।
श्री सी.डब्ल्यू. लेडवीटर ने अपनी पुस्तक ‘इन विजिबुल हेल्पर्स’ में लिखा है कि सात लोकों में से ऊपरी छह लोकों से संबंधित छह तरह की पितर आत्माएँ होती हैं और प्रत्येक स्तर से दायित्व तथा गतिविधियाँ भिन्न-भिन्न होती हैं। प्रकृति, संस्कार, योग्यता एवं अभिरुचि के अनुरूप ये पितर सहायता एवं मार्गदर्शन का काम करते हैं।
श्री लेडवीटर ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में विश्व के विभिन्न समुदायों में प्रचलित पितरों संबंधी धारणाओं के विवरण प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट किया है, कि पुरानी यूनानी एवं रोमन सभ्यता में ये आस्थाएँ जहाँ धूमिल अस्पष्ट धारणाओं के रूप में विद्यमान हैं, वहीं ईजिप्ट (मिश्र) तथा चीन की सांस्कृतिक आस्थाओं में पितरों से संबंधित विस्तृत कथाओं तथा कर्मकांडों की विद्यमानता है। ईजिप्ट-सभ्यता के धर्म ग्रंथों का सार-संदर्भ ‘द बुक ऑफ डेड’ नामक ग्रंथ में संग्रहीत है।
उसमें पितरों की गतिविधियों, उनके द्वारा दी जाने वाली सहायताओं के सैकड़ों मामले विस्तार से दिए गए हैं, किंतु पितरों की गतिविधियों का निरूपण करने वाले नियम तथा प्रक्रियाएँ स्पष्ट रूप में नहीं दी गई हैं।
श्री लेडवीटर ने अपनी पुस्तक में कहा है कि हिंदुओं में श्राद्ध की जो प्रतिक्रिया प्रतिष्ठित है तथा उनसे संबंधित जो विवरण हैं, वे सर्वाधिक प्रामाणिक एवं वैज्ञानिक हैं, किंतु अब वे भी मात्र कर्मकांडों के रूप में अवशिष्ट हैं और परंपरागत रीति-रिवाज बनकर रह गए हैं। उनके पीछे सन्निहित तत्त्व ज्ञान को अधिकांश हिंदू भूल चुके हैं। इसलिए न तो वे स्वयं ही उस प्रतिक्रिया द्वारा पितरों से समुचित और पर्याप्त लाभ प्राप्त कर पाते, नहीं पितरों एवं स्वर्गीय आत्माओं को ही अपनी श्रद्धा-भावना का उचित लाभ पहुँचा पाते हैं।
श्री लेडवीटर ने स्पष्ट किया है कि इन अशरीरी आत्माओं से संपर्क का मूल आधार संकल्प एवं विचार ही है। जड़ वस्तुओं और निष्प्राण कर्मकांडों के माध्यम से पितरों से आदान-प्रदान का क्रम नहीं चल सकता, क्योंकि वह सारा व्यापार भावनात्मक एवं विचापरक ही है। कर्मकांड की प्रक्रियाएँ आवश्यक तो हैं, किंतु वे उपकरण हैं, उनका प्रयोग होता है, वे स्वयं इन प्रयोगों के संचालन एवं परिणामों के प्रतिपादन में असमर्थ हैं। बिना ज्ञान के उपकरणों का उचित प्रयोग और सही परिणामों की प्राप्ति असंभव है। अतः आवश्यकता पितरों की सत्ता के सही स्वरूप को समझने और उनसे संपर्क की पात्रता स्वयं में विकसित करने की है ? वैसा हो सके तो उनसे-देव स्तर का सहयोग प्राप्त किया जाकर, जीवन को अधिक समृद्ध सार्थक एवं सफल बनाया जा सकता है।
दिव्य प्रेतात्मा से कभी-कभी किन्हीं-किन्हीं का सीधा संबंध उनके पूर्वजन्मों के स्नेह-सद्भाव के आधार पर हो जाता है। कई बार वे उपयुक्त सत्पात्रों को अनायास ही सहज उदारतावश अपने आपको साधना द्वारा प्रेतात्माओं का कृपापात्र बना ले और अपने साथ अदृश्य सहायकों का अनुग्रह जोड़कर अपनी शक्ति को असामान्य बना ले एवं महत्त्वपूर्ण सफलताएँ प्राप्त करने का पथ-प्रशस्त करे।
पितरों के अनेक वर्ग हैं और देवताओं की ही तरह उनके क्रियाकलापों के क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्यक्ष मार्गदर्शन, गूढ़ संकेत, दिव्य प्रेरणाएँ तथा आकस्मिक सहायताएँ उनसे उपलब्ध होती हैं, विपत्ति से त्राण पाने, सन्मार्ग पर अग्रसर होने और मानवीयता के क्षेत्र को विस्तृत करने, सामाजिक प्रगति का पथ प्रशस्त करने में उनके दिव्य-अनुदान दैवी बरदान बनकर सामने आ सकते हैं।
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