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नारी विमर्श >> संगे सबूर

संगे सबूर

अतिक् रहिमी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4269
आईएसबीएन :9788126718542

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अफ़गानी मूल के फ्रांसीसी लेखक अतिक् रहिमी इस उपन्यास में संसार की उन असंख्य औरतों की जुबान को हरकत दे रहे हैं जो सदियों से ख़ामोश हैं

Sange sabur by Aatik rahimi

एक फ़ारसी लोककथा के अनुसार ‘संगे सबूर’ एक जादुई काला पत्थर होता है, जो मनुष्य के दुखों को सुनता है, अपने भीतर समाता है, और जब भर जाता है तो फट पड़ता है। अपने भीतर जमा सारे दुखों को वापस दुनिया के ऊपर पलट देता है और यही दुनिया का अन्त होता है।

ज़िहादी हिंसा से छिन्न-भिन्न किसी शहर में एक जर्जर घर है और गोलियों की आवाज़ों से हिलती-काँपती उसकी दीवारों के भीतर एक स्त्री अपने घायल पति को छिपाए बैठी है। पति के गर्दन में गोली लगी है और इस समय वह कोमा में है। जीवन और मृत्यु के बीच की इसी अचेतनावस्था में पत्थर की तरह पड़े अपने पति को वह स्त्री जीवन में पहली बार वह सब सुना रही है जिसे कहने की इजाज़त न उसका धर्म उसे देता है, न समाज और न ही पुरुष वर्चस्व। तहेदिल और भरपूर स्नेह के साथ पति की तीमारदारी में जुटी वह स्त्री आज अपने तमाम सपनों, वंचनाओं, पापों और गुस्से को शब्द देती है, अपने रहस्यों से पर्दा उठाती है, अपने दुखों का हिसाब माँगती है और एक लोमहर्षक कथा बुनती है।

अफ़गानी मूल के फ्रांसीसी लेखक अतिक् रहिमी इस उपन्यास में संसार की उन असंख्य औरतों की जुबान को हरकत दे रहे हैं जो सदियों से ख़ामोश हैं और जिनके पास ऐसी जाने कितनी कहानियाँ अनकहे पड़ी हुई हैं जो सामने आएँ तो पत्थरों के भी कलेजे बेसाख़्ता फट पड़ें।


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