आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
आत्म-कल्याण का लक्ष्य निश्चित रूप में तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक बाह्य परिस्थितियाँ, अनीति एवं अव्यवस्था से भरी रहेंगी। त्रेता युग में रावण की अनीति ने बेचारे तपस्वियों को तप करना दुर्लभ कर दिया था, उनकी हड्डियों के बड़े-बड़े ढेर भगवान राम ने वनवास के समय जहाँ-तहाँ पड़े देखे तो उनकी आँखें बरसने लगीं और तत्काल उन्होंने भुजायें उठाकर "निशिचर हीन करौं मही" की प्रतिज्ञा कर डाली। इस कार्य को संपन्न किये बिना भगवान् राम अपना अवतार लक्ष्य पूरा भी नहीं कर सकते थे। धर्म की स्थापना के साथ-साथ अधर्म का उन्मूलन भी तो अवतार का लक्ष्य होता है। यदि वे केवल ऋषियों की भक्ति भावना का उपदेश मात्र ही देते रहते और उधर असुर अपने उपद्रव यथावत् जारी रखते तो रामचंद्र जी का उद्देश्य कैसे पूरा होता? बेचारे तपस्वी उसी प्रकार सताये जाते और असुरों द्वारा खाये जाते रहते, बंधन में बँधे हुए देवता रावण के बंदीगृह में कराहते रहते। ऐसी दशा में ऋषियों का ज्ञान, ध्यान और देवताओं की पूजा-अर्चना से भी कितना प्रयोजन सिद्ध होता? इन तथ्यों को समझते हुए भगवान् ने असुरता का उन्मूलन ही अपना लक्ष्य बनाया था।
हमें अध्यात्म को एकांगी नहीं, सर्वांगीण एवं परिपूर्ण बनाना होगा। हम पूजा-उपासना को अपना एक प्रिय एवं आवश्यक कार्यक्रम मानते हैं। सही दिशा में चलने का यह प्राथमिक, महत्त्वपूर्ण एवं प्रभावशाली कदम हैं। जो उपासना नहीं करता उसका मार्ग अंधेरे से, कंटकों से भरा हुआ है। जिसका आधार सही है, अवलंबन सच्चा है वह आज न सही कल, अब तक न सही फिर कभी गंतव्य लक्ष्य तक पहुंचेगा ही। पर यहाँ एक ही बात ध्यान रखने की है कि लक्ष्य और दिशा सही हो जाने पर भी दोनों पैरों से चलने का प्रबंध करना पड़ेगा। लंगड़े व्यक्ति भी लकड़ी की टाँग लगाकर या हाथों का सहारा लेकर घिसटने की व्यवस्था बनाकर आगे बढ़ते हैं। यदि ऐसी कोई सहायक व्यवस्था न बनाई जाए तो केवल एक टाँग से सही रास्ता मिल जाने पर भी उस पर चल सकना और गंतव्य स्थान तक पहुँच सकना संभव न होगा। अध्यात्म मार्ग में भी दो टाँगों की जरूरत है। एक टाँग है साधना, दूसरी है सेवा। भीतरी, अंतःकरण की सफाई के साथ-साथ, बाहरी सामाजिक सफाई के लिए भी सक्रिय होना आवश्यक है। इसी प्रयत्नशीलता पर युग निर्माण का आज का सपना कल सार्थक एवं मूर्तिमान् होकर सामने प्रस्तुत हो सकता है।
मनुष्य अपनी स्वार्थपरता पर अंकुश लगाना और परमार्थ वृत्ति को बढ़ाना आरंभ करे तभी यह संभव है कि सभ्य समाज की रचना हो सके। चूँकि विश्व शांति का आधार सभ्य समाज की रचना ही है और वह मानसिक स्वच्छता के आधार पर अवलंबित है, इसलिए हमें सभ्य समाज और स्वच्छ मन के अनुकूल परिस्थितियाँ बनाने में जुटना होगा। शारीरिक अस्वस्थता का निवारण-स्वस्थ शरीर का लाभ भी तभी मिलेगा, जब मनोभूमि में आत्म-संयम का समुचित स्थान हो। असंयमी लोगों का न शरीर स्वस्थ रहता है और न मन, फिर उन्हीं लोगों का समूह–समाज भी सभ्य कैसे रह सकेगा? इन सब बातों पर विचार करते हुए हमें अपनी आत्मिक प्रगति को सर्वांगपूर्ण बनाने की दृष्टि से भी और विश्वशांति की दृष्टि से भी अपने समीपवर्ती समाज की मनोभूमि उत्कृष्ट बनाने का कार्यक्रम हाथ में लेना होगा। विचारों से ही क्रिया उत्पन्न होती है। अवांछनीय क्रियाएँ रोकनी हैं तो उनकी जड़ खोदनी होगी। पाप या पुण्य की जड़ मन में रहती है। मन को पवित्र बनाने का धर्म अभियान जब तक संगठित एवं व्यवस्थित रूप में न चलाया जायेगा तब तक अन्य राजनैतिक एवं आर्थिक आधार पर चलने वाले आंदोलन से कदापि कोई ठोस परिणाम निकल न सकेगा।
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- भौतिकता की बाढ़ मारकर छोड़ेगी
- क्या यही हमारी राय है?
- भौतिकवादी दृष्टिकोण हमारे लिए नरक सृजन करेगा
- भौतिक ही नहीं, आध्यात्मिक प्रगति भी आवश्यक
- अध्यात्म की उपेक्षा नहीं की जा सकती
- अध्यात्म की अनंत शक्ति-सामर्थ्य
- अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
- आध्यात्मिक लाभ ही सर्वोपरि लाभ है
- अध्यात्म मानवीय प्रगति का आधार
- अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष
- हमारा दृष्टिकोण अध्यात्मवादी बने
- आर्ष अध्यात्म का उज्ज्वल स्वरूप
- लौकिक सुखों का एकमात्र आधार
- अध्यात्म ही है सब कुछ
- आध्यात्मिक जीवन इस तरह जियें
- लोक का ही नहीं, परलोक का भी ध्यान रहे
- अध्यात्म और उसकी महान् उपलब्धि
- आध्यात्मिक लक्ष्य और उसकी प्राप्ति
- आत्म-शोधन अध्यात्म का श्रीगणेश
- आत्मोत्कर्ष अध्यात्म की मूल प्रेरणा
- आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान् शिव
- आद्यशक्ति की उपासना से जीवन को सुखी बनाइए !
- अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए
- आध्यात्मिक साधना का चरम लक्ष्य
- अपने अतीत को भूलिए नहीं
- महान् अतीत को वापस लाने का पुण्य प्रयत्न