ऐतिहासिक >> छावा (सजिल्द) छावा (सजिल्द)शिवाजी सावंत
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छत्रपति शिवाजी के पुत्र महाराज शम्भाजी के जीवन-संघर्ष का अद्भुत एवं रोमांचकारी चित्रण करता एक वृहद ऐतिहासिक उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महाभारत के प्रमुख पात्र कर्ण के जीवन पर आधारित अमर
उपन्यास "मृत्युजंय" के बाद मराठी के सशक्त कथाकार शिवाजी सावंत की एक और
अनुपम कृति है "छावा"।
"छावा" एक वृहद ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें छत्रपति शिवाजी के पुत्र महाराज शम्भाजी के जीवन-संघर्ष का अद्भुत एवं रोमांचकारी चित्रण है। सावंत जी की बारह वर्ष की कठिन तपःसाधना और चिन्तन से ही इस कृति को एक भव्य स्वरूप प्राप्त हो सका है। जिस लगन के साथ लेखक ने इस उपन्यास के लिए पठन-पाठन और पर्यटन द्वारा सामग्री संकलित की है वह इसे एक ऐसी प्रमाणिकती प्रदान करती है कि यह उपन्यास दुर्लभ शोध-सामग्री की विषय-वस्तु भी बन गया है। महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत, मराठा साम्राज्य के स्वर्णिम इतिहास को रूपाकृति देने वाला यह उपन्यास हिन्दी पाठक-जगत् में भी बहुत समादृत हुआ है। प्रस्तुत है उपन्यास का यह एक और नया संस्करण।
सावंत जी गुजरात राज्य सरकार का "साहित्य अकादमी" भारतीय ज्ञानपीठ का "मूर्तिदेवी पुरस्कार" "आचार्य अत्रे प्रतिष्ठान पुरस्कार", पुणे सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हैं।
यह ‘राजगाथा’ श्रद्धासहित समर्पित है इन्द्रायणी और भीमा सरिताओं को, जिन्होंने अपनी अगणित जल-लहरियों को नेत्र बनाकर, समय को साक्षी रखकर, तुलापुर ग्राम में देखा था कि यदि अवसर आ ही पड़े तो एक मराठा शूर राजा साक्षात् मृत्यु का भी किस प्रकार स्वागत करता है।
"छावा" एक वृहद ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें छत्रपति शिवाजी के पुत्र महाराज शम्भाजी के जीवन-संघर्ष का अद्भुत एवं रोमांचकारी चित्रण है। सावंत जी की बारह वर्ष की कठिन तपःसाधना और चिन्तन से ही इस कृति को एक भव्य स्वरूप प्राप्त हो सका है। जिस लगन के साथ लेखक ने इस उपन्यास के लिए पठन-पाठन और पर्यटन द्वारा सामग्री संकलित की है वह इसे एक ऐसी प्रमाणिकती प्रदान करती है कि यह उपन्यास दुर्लभ शोध-सामग्री की विषय-वस्तु भी बन गया है। महाराष्ट्र राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत, मराठा साम्राज्य के स्वर्णिम इतिहास को रूपाकृति देने वाला यह उपन्यास हिन्दी पाठक-जगत् में भी बहुत समादृत हुआ है। प्रस्तुत है उपन्यास का यह एक और नया संस्करण।
सावंत जी गुजरात राज्य सरकार का "साहित्य अकादमी" भारतीय ज्ञानपीठ का "मूर्तिदेवी पुरस्कार" "आचार्य अत्रे प्रतिष्ठान पुरस्कार", पुणे सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हैं।
यह ‘राजगाथा’ श्रद्धासहित समर्पित है इन्द्रायणी और भीमा सरिताओं को, जिन्होंने अपनी अगणित जल-लहरियों को नेत्र बनाकर, समय को साक्षी रखकर, तुलापुर ग्राम में देखा था कि यदि अवसर आ ही पड़े तो एक मराठा शूर राजा साक्षात् मृत्यु का भी किस प्रकार स्वागत करता है।
एक
शहरे-आगरा को औरंगज़ेब की पचासवीं सालगिरह की सुबह ने रौशन कर दिया।
ताजमहल ने भी सालगिरह देखने के लिए अपनी मीनारों की चमकती आँखें लालक़िले
की दिशा में घुमा लीं।
मुलकचन्द्र की सराय में महाराज शिवाजी और उनके पुत्र युवराज सम्भाजी ने स्नानादि से निवृत्त होकर अपनी विशिष्ट वेशभूषा धारण कर ली और वे अपने डेरे में स्फटिकमय शिवलिंग की पूजा करने बैठ गये। नौ बरस का राजकुमार सम्भाजी सराय से दीखने वाले यमुना नदी के पाट को देखने में मग्न था। उधर औरंगज़ेब लालक़िले में ‘सब्र की नमाज़’ पढ़ चुका था। सूरज आकाश में आधा हाथ ऊपर चढ़ आया था, तो भी वह मक्के की ओर मुँह करके क़ुरानशरीफ़ के ‘कलमे’ पढ़ता ही जा रहा था।
औरंगज़ेब के महल के बाहर रामसिंह का पहरा जारी था। सारे आगरा शहर में धूम मची हुई थी।
सराय में अब महाराज के सारे साज़ो-सामान की तैयारी पूरी हो चुकी थी। महाराज और सम्भाजी शरीर पर ज़री का बुँदकीदार जगमगाने वाला सफ़ेद अँगरखा, सिर पर चमचमाने वाला केसरी रंग का टोप, कण्ठ में भवानी की माला, कानों में सोने के चौकड़े आदि धारण करके सजे हुए तैयार घोड़ों के पास आ खड़े हुए थे। उन्हें जाना था शहंशाह औरंगजेब के दरबार में ‘ख़िलअत’ लेने के लिए। मिर्ज़ा राजा जयसिंह के साथ शिवाजी की पुरन्धर में जो सन्धि हुई थी, उसके अनुसार वे औरंगज़ेब के दरबार में सम्मिलित होने के लिए सुदूर दक्षिण से यहाँ आये थे। त्र्यम्बकपन्त सुमन्त, रघुनाथपन्त कोरडे, सर्जेराव जेधे, हिरोजी फर्ज़न्द, मदारी मेहतर राघोमित्र, दावलजी घाटगे आदि श्रेष्ठ जन पंक्तिबद्ध खड़े थे। सभी ने विशेष वस्त्र धारण किये हुए थे।
महाराज मिर्ज़ा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वही उन्हें दरबार में पेश करने के लिए साथ ले जाने वाला था; परन्तु अभी तक रामसिंह का अता-पता न था, अभी तक तो उससे भेंट ही नहीं हो पायी थी।
अन्ततः रामसिंह का मुंशी गिरिधरलाल सराय में आया। अपने चेहरे पर आये झेंप के भावों को छिपाते हुए राजाजी को तसलीम करके उसने कहा, ‘‘अभी तक राणाजी क़िले से लौटकर नहीं आये। आप उनकी हवेली तक चलें। मैंने क़िले की ओर हरकारा भेज दिया है। राणाजी बस आते ही होंगे।’’ वह राजपूत मुंशी सामने खड़े इस ‘दक्खनी मावले’1 की कीर्ति भली भाँति जानता था। कमर तक तीन-तीन बार झुक रहा था और कन्धे पर रखे उपरने को बार-बार ठीक करता, सँभालता वह ‘जी, जी, कहता जा रहा था। इतनी प्रतीक्षा के बाद रामसिंह तो आया नहीं, आया तो एक मुंशी। महाराज के माथे के शिवतिलक पर माथे की त्यौरियों के साथ ही खिंचाव आ गया। परन्तु उस समय वे चुप ही रहे।
गिरिधरलाल के साथ ही महाराज और सम्भाजी अपनी सारी सामान-सामग्री सहित आगरा में मिर्ज़ा राजा जयसिंह की हवेली के निकट आये। राजपूती ढंग की अटारी वाली उस हवेली के सामने रामसिंह ने राजाजी के निवास की सारी व्यवस्था की थी। हवेली के विस्तृत अहाते में छोटी-बड़ी रावटियाँ और सायबान वाले डेरे-शामियाने खड़े किये गये थे। राजा साहब के साथ जानेवाला साज़ो-सामान इसी अहाते में रख दिया गया था।
अब सूरज आकाश में हाथ-दो हाथ ऊपर चढ़ आया था। बायें हाथ में धूपदानी और दायें हाथ में मोरपंख के गुच्छे लिये हुए फ़कीरों की टोलियाँ आगरा के गली-कूचों में घूम-घूमकर ख़ैरात जमा कर चुकी थीं और अब वे सब लालक़िले की चहारदीवारी के पास इकट्ठे हो गये थे। औरंगज़ेब के सरदार, अमीर-उमराव सूबेदार, आदि, जो जगह-जगह पर डेरा डाले पड़े थे, अब लालक़िले के निकट पहुँचने लगे।
महाराज सम्भाजी को साथ लिये शामियाने के दरवाज़े में रामसिंह की प्रतीक्षा करते-करते अब काफ़ी बेचैन हो उठे थे। परन्तु इसी समय ऊपर आसपास क्या हो रहा है, इससे भी वे अनजान थे।
सामने वाली मिर्ज़ा राजा की हवेली की अटारी के साथ लगे दालान में चिक के परदों के पीछे, मिर्ज़ा राजा जयसिंह और रामसिंह का ‘ज़नाना’ खड़ा था। उस ज़नानख़ाने की औरतें अपनी मेहँदी रँगी अँगुलियों से महाराज और सम्भाजी की ओर संकेत कर रही थीं। एक मन्द दबी फुसफुसाहट फैली हुई थी, ‘‘वो देखो, शेरे दक्खन शिवा और उसका बेटा सम्भाजी !’’
दिन दो हाथ ऊपर चढ़ आया था। लालक़िले के मुख़्य दरवाज़े का नगाड़ा
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1. पूना के आसपास के पर्वतीय, प्रदेश को मावल भाग कहते थे। उस विशाल पर्वतीय भू-भाग में ऐसे बारह मावल-खण्ड हैं ! इस प्रदेश के सामान्य जन ‘मावला’ कहलाते हैं।
अब लगातार बजता जा रहा था। सरदारों के दल-के-दल क़िले के भीतर आने लगे। संगमरमर के खम्भोंवाले ‘दीवान-ए-आम’ का लुभावना और झाड़-फानूसों से सजा हुआ दरबार अब पूरी तरह तैयार हो गया था। ज़रदोज़ी का बुँदकीदार अँगरखा बदन पर पहने, सिर पर पंखों की कलगीवाला टेढ़ा किमॉश पहने हुए औरंगज़ेब अपने असबाबख़ाने से बाहर निकला। उसके हर कदम के आगे-आगे फ़र्राश नर्म मुलायम गद्दों की बिछावत बिछाते हुए चल रहे थे।
अल्क़ाबों की ऊँची पुकारें सुनाई देने लगीं।
‘‘बा ऽअदब ऽ बा-मुलाहिज़ा ऽ तहेदिल होशियार ऽऽऽ अबुलमुज़फ्फ़र मुईनुद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर बादशाह गाज़ी ऽऽ मालिके तख्ते ताऊस ऽऽ शाहनशाहे हिन्दोस्ताँ तशरीफ़ ला रहे हैं-होशियाऽऽर !’’
इन उपाधियों की पुकारों को सुनते समय रामसिंह के राजपूती मन का दम घुटा जा रहा था, मानो कि उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया गया हो। वह विवशता से व्याकुल था-औरंगज़ेब के दरबार में शिवाजी को उपस्थित करने की ज़िम्मेदारी उसकी थी और इधर महल पर उसे पहरा देने का काम भी सौंपा गया था।
औरंगज़ेब के दीवान-ए-आम के दरबार में कदम रखते ही दरबारी लोगों का समूह उसे ताज़ीमा देने के लिए उसी तरह कमर तक झुक गया जैसे हवा के एक ही झोंके से घास के विशाल मैदान की सारी घास एक साथ झुक जाती है।
रामसिंह ने अपनी हवेली की ओर सन्देशवाहक सवारों को भेजा। उन्होंने आकर मुंशी गिरिधरलाल को सन्देश दिया, ‘‘दरबार शुरू हो चुका है। राजा साहब को ले आओ। मैं आ ही रहा हूँ।’’
अब महाराज के पास इतना भी समय न था कि वे गिरिधरलाल के प्रति क्रोध प्रकट करें। महाराज तथा सम्भाजी शामियाने के बाहर आये। महाराज ने अपने दाहिने हाथ का सहारा देकर नौ बरस के बालक सम्भाजी को घोड़े पर बैठा दिया। महाराज स्वयं भी एक सजे हुए घोड़े पर सवार हो गये।
कुँवरसिंह, तेजसिंह, गिरिधर तथा बख़्शीबेग के साथ महाराज लालक़िले की ओर चल पड़े। उनके पीछे उनके सरंजाम के अन्य लोग थे। आफ़ताबी झलने वाले सेवक उनके तथा सम्भाजी के दोनों ओर आफ़ताबी पंखे झल रहे थे।
रास्ते में आने वाले फ़कीरों को महाराज और सम्भाजी मुट्ठी भर-भर ख़ैरात बाँट रहे थे। इस समय आगरा के मुख्य मार्गों पर आने-जाने वाले किसी भी दूसरे सरदार या ओहदेदार की सावरियाँ नहीं थीं। इसलिए ‘दक्खनी शिवा आ रहा है’ यह ख़बर वायु के वेग के समान सभी अटारियों-हवेलियों में फैल गयी। सभी मर्द लोग लालक़िले में जा उपस्थित हुए थे, इसलिए अब आगरा की स्त्रियाँ-बच्चे-बूढ़े, सब घरों की अटारियों में और झरोखों के आसपास आकर इकट्ठे हो गये थे। औरंगजे़ब ने तो महाराज की उपेक्षा की ही थी परन्तु रामसिंह के मन में उनका स्वागत-सम्मान करने की इच्छा होते हुए भी वह विवश हो गया था, फिर भी इस ‘बड़े और छोटे’ मावले राजाओं का स्वागत-सम्मान इस निराले और शानदार ढंग से आगरा और शाहजहाँ की रियाया कर रही थी।
वैसे राजाजी की सवारी की सारा आयोजन ‘दर्शनीय’ नहीं था, बल्कि इतना साधारण था कि देखने वालों पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। परन्तु ‘शिवा’-इन दो अक्षरों से बने इस नाम को अब किसी आयोजन की आवश्यकता ही न रही थी। ऊँचे विशाल वृक्षों को भी तड़ातड़ जलाने वाला ‘दावानल’ और सारे हिन्दुस्तान में दौड़ लगाने वाला मावल देस का जंगली ‘अन्धड़’-इस प्रकार की कीर्ति ही अब महाराज की आन-शान बन चुकी थी।
महाराज और सम्भाजी गिरिधरलाल के साथ दहार आरा बाग़ की ओर जा रहे थे। वे जिस हवेली के सामने से निकलते थे, उस हवेली की अटारियों और झरोखों पर पड़े परदों को या काले बुरक़ों को मेहँदी लगे गोरे हाथ धीरे से उठा रहे थे। उन बुरक़ों को उठानेवाले हाथ कुछ क्षणों तक ऊपर ही थमे रह जाते थे। ‘‘ऐ अल्लाह-सुरूर ऽऽ सूरते मर्द !’’ बुरक़ों में से कोमल स्वर उठ रहे थे।
इधर महाराज और सम्भाजी आगरा के रास्तों पर ख़ैरात बाँटते चल रहे थे और उधर ललाक़िले के दीवान-ए-आम में औरंगज़ेब नज़राने के तबक़ कुबूल कर रहा था। राजाजी की सवारी जा रही थी कि दो राजपूत घुड़सवार अचानक एक छोटे रास्ते से उनके सामने आ निकले। उनकी मरोड़दार दाढ़ियों से पसीने की धाराएँ बह रही थीं। वे दो घुड़सवार थे-रामसिंह के सेवक डूंगरमल चौधरी और रामदास। महाराज को कोर्निश करके उन्होंने अपने घोड़े सीधे जाकर गिरिधरलाल के घोड़े से सटा लिये। दबी आवाज़ से राजपूती ज़ुबान में वे गिरिधरलाल से कुछ कह रहे थे, ‘‘राणाजी....दरबार...रास्ता...नूरगंज...’’ ऐसे कुछ शब्द ही महाराज सुन पाये।
‘‘क्या बात है मुंशी ?’’ राजाजी ने गिरिधरलाल की बात जानने का प्रयत्न करते हुए पूछा। सारा क़ाफ़िला दहार आरा बाग़ के पास रुका हुआ था।
‘‘कुछ नहीं सरकार ! राणाजी रास्ता भटक गये। वे दूसरे ही रास्ते से हवेली में पहुँच गये। उनका हुक्म है कि आपको नूरगंज के बग़ीचे के पास ले आया जाए।’’ गिरिधरलाल ने उत्तर दिया।
क़िले से मुख़लिस ख़ाँ के साथ निकला रामसिंह रास्ता भटक गया था। वह राजासाहब से मिलने निकला था, परन्तु किसी दूसरे ही रास्ते से अपनी हवेली पर जा पहुँचा था।
दक्षिण देश में भीमा नदियों की घाटियों में मंजिरा गाँव में डेरा डाले पड़े थे मिर्ज़ा राजा जयसिंह और लालक़िले में ‘तख़्ते-ताऊस’ पर बैठा था औरंगज़ेब। दोनों ही जानते नहीं थे कि कभी-कभी ऐसे अनेक लोग रास्ता भूलकर भटक जाते हैं ! और फिर किसी के इस तरह राह भटक जाने से कई बार युगों-युगों की राहें अनजाने में ही एक जगह आ मिलती हैं !!!
गिरिधरलाल और कुँवरसिंह ने राजाजी की सवारी को नूरगंज बाग़ की दिशा में फिरा लिया। यह काफ़िला फ़िरोज बाग़ से ज़रा आगे निकला ही था कि लालक़िले का दीवान-ए-आम का दरबार बरख़ास्त हो गया !
महाराज और सम्भाजी नूरगंज बाग़ के निकट आकर ठहर गये। राजासाहब के लिए ‘नज़र’ के रूप में सात-आठ झूल पहनाये हाथियों का दल साथ लेकर रामसिंह मुख़लिस ख़ाँ के साथ बहुत तेज़ी के साथ नूरगंज बाग़ के पास आया।
कुँवरसिंह ने आगे बढ़कर राजासाहब का रामसिंह से परिचय कराया। घोड़े पर बैठे गोरे उजले रामसिंह का माथा पसीने से तर-बतर हो आया था। महाराज की सीधी और नुकीली नाक की ओर देखते हुए उसके माथे पर पसीने की बूँदें और अधिक इकट्ठी हो आयीं। अपने कन्धे के उत्तरीय से उसने पहले माथे के पसीने को पोंछा।
महाराज के स्वागत सम्मान में बहुत कुछ असावधानियाँ या भूलें हो गयी थीं, यह रामसिंह अनुभव कर रहा था। परन्तु उन सबको राजासाहब भूल जाएँ, ऐसा कौन-सा शिष्टाचार या व्यवहार मैं अब दिखलाऊँ, यही बात अब वह मन में सोच रहा था।
बागडोर खींचकर घोड़े को धीरे-धीरे चलाता हुआ घोड़े पर बैठा रामसिंह राजासाहब के घोड़े के पास आया। ‘‘राजासाहब’’, बस इतना ही जैसे-तैसे उसने कहा और उन्हें आलिंगनबद्ध करने के लिए अपने हाथ सीधे फैला दिये। राजासाहब ने भी घोड़े पर बैठे-ही-बैठे उसका आलिंगन किया। इस प्रकार घोड़े पर बैठकर वे आज तक किसे से नहीं मिले थे। बालक सम्भाजी के ध्यान से यह बात छूटी नहीं। उन्होंने मन-ही-मन समझ लिया-रामसिंह भरोसे का आदमी है।
फिर रामसिंह ने अपना घोड़ा सम्भाजी के घोड़े तक बढ़ाया। उनके कन्धे पर हाथ रखकर उसने कहा, ‘‘कुँवर शम्भूराजा !’’
रामसिंह ने सब हाथियों को महाराज के डेरे की ओर रवाना कर दिया और अब वह निकल पड़ा-दो मावले सरदारों को औरंगज़ेब के दरबार में पेश करने के लिए।
लालक़िले का मुख्य दरवाज़ा आ गया। सभी सरदार, उमराव दरबार में जा चुके थे, इस कारण नौबतवाले काफ़ी देर से आराम से बैठे थे। अब ज्योंही उन्होंने महाराज रामसिंह और सम्भाजी को आते देखा तो एकदम भौचक होकर वे अगवानी की नौबत बजाने लगे। इस समय तक लालक़िले में औरंगज़ेब का ‘दीवान-ए-ख़ास’ का दूसरा दरबार भी समाप्त हो चुका था।
महाराज और सम्भाजी गेरुए रंग का लालक़िला देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्होंने घोड़ों को रामसिंह के सईसों को सौंप दिया था। नज़राने भरे थाल उठाये हुए मावले सैनिकों को अपने पीछे रखकर महाराज और सम्भाजी अब ग़ुसलख़ाने के दरबार की ओर जा रहे थे। इस समय औरंगज़ेब ग़ुसलख़ाने के साथ वाले पेशाबघर में खप्पर के टुकड़े से ‘इस्तिंजा’ कर रहा था !
‘इस्तिंजा’ के बाद हाथ-पाँव धोकर औरंगजेब ने ‘वुज़ू’ किया। खस की सुगन्धिवाला ठण्डा पानी पीकर वह गुसलख़ाने के चहारदीवारी से घिरे हुए तख़्त के अहाते में दाखिल हुआ। ग़ुसलख़ाने के प्रवेश-द्वार पर पहुँचकर रामसिंह ठहर गया। कमर तक झुककर उसने शिवाजी महाराज से प्रार्थना की, ‘‘जूते यहीं उतार दीजिए राजासाहब।’’ सुनते ही महाराज के माथे पर त्योरियाँ खिंच आयीं, फिर भी महाराज ने अपने भगवे जूते संगमरमर के फर्श पर उतारकर रख दिये। उन जूतों के पास ही बालक सम्भाजी ने भी अपने जूते उतार दिये।
रामसिंह ने वज़ीर ज़ाफ़र ख़ाँ के पास सूचना भेजी। सात-आठ हाथ ऊँचे और क़िले के समान बन्द एक अहाते में गिरदे पर टिककर बैठे हुए औरंगज़ेब के सामने ज़ाफ़र ख़ाँ पेश हुआ। छाती पर आज हाथ रखकर झुककर उसने औरंगज़ेब के सामने अर्ज़ किया, ‘‘आला हज़रत ऽ ऽ, दक्खन से ‘शीवा’ भोंसला अपने फर्ज़न्द के साथ आया है। रामसिंह उसे आपके सामने पेश करने की इजाज़त माँगता है।’’
यह समाचार सुनकर गिरदे पर टिककर बैठा औरंगज़ेब एकदम आगे को उठ आया। उसके हाथ की तस्बीह के मनके फेरने वाली उँगलियाँ क्षणभर के लिए रुक गयीं। कुछ क्षण यूँ ही गुज़र गये।
झुके हुए वज़ीर ज़ाफ़र ख़ाँ की तरफ़ अत्यन्त शान्त शब्दों की ‘ख़िलअत’ औरंगज़ेब ने फेंकी, ‘‘इजाज़त’’, एक बार ग़ुसलख़ाने की ओर देखकर औरंगज़ेब दुबारा गिरदे के सहारे बैठ गया। मनके फिर घूमने लगे।
मुलकचन्द्र की सराय में महाराज शिवाजी और उनके पुत्र युवराज सम्भाजी ने स्नानादि से निवृत्त होकर अपनी विशिष्ट वेशभूषा धारण कर ली और वे अपने डेरे में स्फटिकमय शिवलिंग की पूजा करने बैठ गये। नौ बरस का राजकुमार सम्भाजी सराय से दीखने वाले यमुना नदी के पाट को देखने में मग्न था। उधर औरंगज़ेब लालक़िले में ‘सब्र की नमाज़’ पढ़ चुका था। सूरज आकाश में आधा हाथ ऊपर चढ़ आया था, तो भी वह मक्के की ओर मुँह करके क़ुरानशरीफ़ के ‘कलमे’ पढ़ता ही जा रहा था।
औरंगज़ेब के महल के बाहर रामसिंह का पहरा जारी था। सारे आगरा शहर में धूम मची हुई थी।
सराय में अब महाराज के सारे साज़ो-सामान की तैयारी पूरी हो चुकी थी। महाराज और सम्भाजी शरीर पर ज़री का बुँदकीदार जगमगाने वाला सफ़ेद अँगरखा, सिर पर चमचमाने वाला केसरी रंग का टोप, कण्ठ में भवानी की माला, कानों में सोने के चौकड़े आदि धारण करके सजे हुए तैयार घोड़ों के पास आ खड़े हुए थे। उन्हें जाना था शहंशाह औरंगजेब के दरबार में ‘ख़िलअत’ लेने के लिए। मिर्ज़ा राजा जयसिंह के साथ शिवाजी की पुरन्धर में जो सन्धि हुई थी, उसके अनुसार वे औरंगज़ेब के दरबार में सम्मिलित होने के लिए सुदूर दक्षिण से यहाँ आये थे। त्र्यम्बकपन्त सुमन्त, रघुनाथपन्त कोरडे, सर्जेराव जेधे, हिरोजी फर्ज़न्द, मदारी मेहतर राघोमित्र, दावलजी घाटगे आदि श्रेष्ठ जन पंक्तिबद्ध खड़े थे। सभी ने विशेष वस्त्र धारण किये हुए थे।
महाराज मिर्ज़ा राजा जयसिंह के पुत्र रामसिंह के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वही उन्हें दरबार में पेश करने के लिए साथ ले जाने वाला था; परन्तु अभी तक रामसिंह का अता-पता न था, अभी तक तो उससे भेंट ही नहीं हो पायी थी।
अन्ततः रामसिंह का मुंशी गिरिधरलाल सराय में आया। अपने चेहरे पर आये झेंप के भावों को छिपाते हुए राजाजी को तसलीम करके उसने कहा, ‘‘अभी तक राणाजी क़िले से लौटकर नहीं आये। आप उनकी हवेली तक चलें। मैंने क़िले की ओर हरकारा भेज दिया है। राणाजी बस आते ही होंगे।’’ वह राजपूत मुंशी सामने खड़े इस ‘दक्खनी मावले’1 की कीर्ति भली भाँति जानता था। कमर तक तीन-तीन बार झुक रहा था और कन्धे पर रखे उपरने को बार-बार ठीक करता, सँभालता वह ‘जी, जी, कहता जा रहा था। इतनी प्रतीक्षा के बाद रामसिंह तो आया नहीं, आया तो एक मुंशी। महाराज के माथे के शिवतिलक पर माथे की त्यौरियों के साथ ही खिंचाव आ गया। परन्तु उस समय वे चुप ही रहे।
गिरिधरलाल के साथ ही महाराज और सम्भाजी अपनी सारी सामान-सामग्री सहित आगरा में मिर्ज़ा राजा जयसिंह की हवेली के निकट आये। राजपूती ढंग की अटारी वाली उस हवेली के सामने रामसिंह ने राजाजी के निवास की सारी व्यवस्था की थी। हवेली के विस्तृत अहाते में छोटी-बड़ी रावटियाँ और सायबान वाले डेरे-शामियाने खड़े किये गये थे। राजा साहब के साथ जानेवाला साज़ो-सामान इसी अहाते में रख दिया गया था।
अब सूरज आकाश में हाथ-दो हाथ ऊपर चढ़ आया था। बायें हाथ में धूपदानी और दायें हाथ में मोरपंख के गुच्छे लिये हुए फ़कीरों की टोलियाँ आगरा के गली-कूचों में घूम-घूमकर ख़ैरात जमा कर चुकी थीं और अब वे सब लालक़िले की चहारदीवारी के पास इकट्ठे हो गये थे। औरंगज़ेब के सरदार, अमीर-उमराव सूबेदार, आदि, जो जगह-जगह पर डेरा डाले पड़े थे, अब लालक़िले के निकट पहुँचने लगे।
महाराज सम्भाजी को साथ लिये शामियाने के दरवाज़े में रामसिंह की प्रतीक्षा करते-करते अब काफ़ी बेचैन हो उठे थे। परन्तु इसी समय ऊपर आसपास क्या हो रहा है, इससे भी वे अनजान थे।
सामने वाली मिर्ज़ा राजा की हवेली की अटारी के साथ लगे दालान में चिक के परदों के पीछे, मिर्ज़ा राजा जयसिंह और रामसिंह का ‘ज़नाना’ खड़ा था। उस ज़नानख़ाने की औरतें अपनी मेहँदी रँगी अँगुलियों से महाराज और सम्भाजी की ओर संकेत कर रही थीं। एक मन्द दबी फुसफुसाहट फैली हुई थी, ‘‘वो देखो, शेरे दक्खन शिवा और उसका बेटा सम्भाजी !’’
दिन दो हाथ ऊपर चढ़ आया था। लालक़िले के मुख़्य दरवाज़े का नगाड़ा
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1. पूना के आसपास के पर्वतीय, प्रदेश को मावल भाग कहते थे। उस विशाल पर्वतीय भू-भाग में ऐसे बारह मावल-खण्ड हैं ! इस प्रदेश के सामान्य जन ‘मावला’ कहलाते हैं।
अब लगातार बजता जा रहा था। सरदारों के दल-के-दल क़िले के भीतर आने लगे। संगमरमर के खम्भोंवाले ‘दीवान-ए-आम’ का लुभावना और झाड़-फानूसों से सजा हुआ दरबार अब पूरी तरह तैयार हो गया था। ज़रदोज़ी का बुँदकीदार अँगरखा बदन पर पहने, सिर पर पंखों की कलगीवाला टेढ़ा किमॉश पहने हुए औरंगज़ेब अपने असबाबख़ाने से बाहर निकला। उसके हर कदम के आगे-आगे फ़र्राश नर्म मुलायम गद्दों की बिछावत बिछाते हुए चल रहे थे।
अल्क़ाबों की ऊँची पुकारें सुनाई देने लगीं।
‘‘बा ऽअदब ऽ बा-मुलाहिज़ा ऽ तहेदिल होशियार ऽऽऽ अबुलमुज़फ्फ़र मुईनुद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर बादशाह गाज़ी ऽऽ मालिके तख्ते ताऊस ऽऽ शाहनशाहे हिन्दोस्ताँ तशरीफ़ ला रहे हैं-होशियाऽऽर !’’
इन उपाधियों की पुकारों को सुनते समय रामसिंह के राजपूती मन का दम घुटा जा रहा था, मानो कि उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया गया हो। वह विवशता से व्याकुल था-औरंगज़ेब के दरबार में शिवाजी को उपस्थित करने की ज़िम्मेदारी उसकी थी और इधर महल पर उसे पहरा देने का काम भी सौंपा गया था।
औरंगज़ेब के दीवान-ए-आम के दरबार में कदम रखते ही दरबारी लोगों का समूह उसे ताज़ीमा देने के लिए उसी तरह कमर तक झुक गया जैसे हवा के एक ही झोंके से घास के विशाल मैदान की सारी घास एक साथ झुक जाती है।
रामसिंह ने अपनी हवेली की ओर सन्देशवाहक सवारों को भेजा। उन्होंने आकर मुंशी गिरिधरलाल को सन्देश दिया, ‘‘दरबार शुरू हो चुका है। राजा साहब को ले आओ। मैं आ ही रहा हूँ।’’
अब महाराज के पास इतना भी समय न था कि वे गिरिधरलाल के प्रति क्रोध प्रकट करें। महाराज तथा सम्भाजी शामियाने के बाहर आये। महाराज ने अपने दाहिने हाथ का सहारा देकर नौ बरस के बालक सम्भाजी को घोड़े पर बैठा दिया। महाराज स्वयं भी एक सजे हुए घोड़े पर सवार हो गये।
कुँवरसिंह, तेजसिंह, गिरिधर तथा बख़्शीबेग के साथ महाराज लालक़िले की ओर चल पड़े। उनके पीछे उनके सरंजाम के अन्य लोग थे। आफ़ताबी झलने वाले सेवक उनके तथा सम्भाजी के दोनों ओर आफ़ताबी पंखे झल रहे थे।
रास्ते में आने वाले फ़कीरों को महाराज और सम्भाजी मुट्ठी भर-भर ख़ैरात बाँट रहे थे। इस समय आगरा के मुख्य मार्गों पर आने-जाने वाले किसी भी दूसरे सरदार या ओहदेदार की सावरियाँ नहीं थीं। इसलिए ‘दक्खनी शिवा आ रहा है’ यह ख़बर वायु के वेग के समान सभी अटारियों-हवेलियों में फैल गयी। सभी मर्द लोग लालक़िले में जा उपस्थित हुए थे, इसलिए अब आगरा की स्त्रियाँ-बच्चे-बूढ़े, सब घरों की अटारियों में और झरोखों के आसपास आकर इकट्ठे हो गये थे। औरंगजे़ब ने तो महाराज की उपेक्षा की ही थी परन्तु रामसिंह के मन में उनका स्वागत-सम्मान करने की इच्छा होते हुए भी वह विवश हो गया था, फिर भी इस ‘बड़े और छोटे’ मावले राजाओं का स्वागत-सम्मान इस निराले और शानदार ढंग से आगरा और शाहजहाँ की रियाया कर रही थी।
वैसे राजाजी की सवारी की सारा आयोजन ‘दर्शनीय’ नहीं था, बल्कि इतना साधारण था कि देखने वालों पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ता था। परन्तु ‘शिवा’-इन दो अक्षरों से बने इस नाम को अब किसी आयोजन की आवश्यकता ही न रही थी। ऊँचे विशाल वृक्षों को भी तड़ातड़ जलाने वाला ‘दावानल’ और सारे हिन्दुस्तान में दौड़ लगाने वाला मावल देस का जंगली ‘अन्धड़’-इस प्रकार की कीर्ति ही अब महाराज की आन-शान बन चुकी थी।
महाराज और सम्भाजी गिरिधरलाल के साथ दहार आरा बाग़ की ओर जा रहे थे। वे जिस हवेली के सामने से निकलते थे, उस हवेली की अटारियों और झरोखों पर पड़े परदों को या काले बुरक़ों को मेहँदी लगे गोरे हाथ धीरे से उठा रहे थे। उन बुरक़ों को उठानेवाले हाथ कुछ क्षणों तक ऊपर ही थमे रह जाते थे। ‘‘ऐ अल्लाह-सुरूर ऽऽ सूरते मर्द !’’ बुरक़ों में से कोमल स्वर उठ रहे थे।
इधर महाराज और सम्भाजी आगरा के रास्तों पर ख़ैरात बाँटते चल रहे थे और उधर ललाक़िले के दीवान-ए-आम में औरंगज़ेब नज़राने के तबक़ कुबूल कर रहा था। राजाजी की सवारी जा रही थी कि दो राजपूत घुड़सवार अचानक एक छोटे रास्ते से उनके सामने आ निकले। उनकी मरोड़दार दाढ़ियों से पसीने की धाराएँ बह रही थीं। वे दो घुड़सवार थे-रामसिंह के सेवक डूंगरमल चौधरी और रामदास। महाराज को कोर्निश करके उन्होंने अपने घोड़े सीधे जाकर गिरिधरलाल के घोड़े से सटा लिये। दबी आवाज़ से राजपूती ज़ुबान में वे गिरिधरलाल से कुछ कह रहे थे, ‘‘राणाजी....दरबार...रास्ता...नूरगंज...’’ ऐसे कुछ शब्द ही महाराज सुन पाये।
‘‘क्या बात है मुंशी ?’’ राजाजी ने गिरिधरलाल की बात जानने का प्रयत्न करते हुए पूछा। सारा क़ाफ़िला दहार आरा बाग़ के पास रुका हुआ था।
‘‘कुछ नहीं सरकार ! राणाजी रास्ता भटक गये। वे दूसरे ही रास्ते से हवेली में पहुँच गये। उनका हुक्म है कि आपको नूरगंज के बग़ीचे के पास ले आया जाए।’’ गिरिधरलाल ने उत्तर दिया।
क़िले से मुख़लिस ख़ाँ के साथ निकला रामसिंह रास्ता भटक गया था। वह राजासाहब से मिलने निकला था, परन्तु किसी दूसरे ही रास्ते से अपनी हवेली पर जा पहुँचा था।
दक्षिण देश में भीमा नदियों की घाटियों में मंजिरा गाँव में डेरा डाले पड़े थे मिर्ज़ा राजा जयसिंह और लालक़िले में ‘तख़्ते-ताऊस’ पर बैठा था औरंगज़ेब। दोनों ही जानते नहीं थे कि कभी-कभी ऐसे अनेक लोग रास्ता भूलकर भटक जाते हैं ! और फिर किसी के इस तरह राह भटक जाने से कई बार युगों-युगों की राहें अनजाने में ही एक जगह आ मिलती हैं !!!
गिरिधरलाल और कुँवरसिंह ने राजाजी की सवारी को नूरगंज बाग़ की दिशा में फिरा लिया। यह काफ़िला फ़िरोज बाग़ से ज़रा आगे निकला ही था कि लालक़िले का दीवान-ए-आम का दरबार बरख़ास्त हो गया !
महाराज और सम्भाजी नूरगंज बाग़ के निकट आकर ठहर गये। राजासाहब के लिए ‘नज़र’ के रूप में सात-आठ झूल पहनाये हाथियों का दल साथ लेकर रामसिंह मुख़लिस ख़ाँ के साथ बहुत तेज़ी के साथ नूरगंज बाग़ के पास आया।
कुँवरसिंह ने आगे बढ़कर राजासाहब का रामसिंह से परिचय कराया। घोड़े पर बैठे गोरे उजले रामसिंह का माथा पसीने से तर-बतर हो आया था। महाराज की सीधी और नुकीली नाक की ओर देखते हुए उसके माथे पर पसीने की बूँदें और अधिक इकट्ठी हो आयीं। अपने कन्धे के उत्तरीय से उसने पहले माथे के पसीने को पोंछा।
महाराज के स्वागत सम्मान में बहुत कुछ असावधानियाँ या भूलें हो गयी थीं, यह रामसिंह अनुभव कर रहा था। परन्तु उन सबको राजासाहब भूल जाएँ, ऐसा कौन-सा शिष्टाचार या व्यवहार मैं अब दिखलाऊँ, यही बात अब वह मन में सोच रहा था।
बागडोर खींचकर घोड़े को धीरे-धीरे चलाता हुआ घोड़े पर बैठा रामसिंह राजासाहब के घोड़े के पास आया। ‘‘राजासाहब’’, बस इतना ही जैसे-तैसे उसने कहा और उन्हें आलिंगनबद्ध करने के लिए अपने हाथ सीधे फैला दिये। राजासाहब ने भी घोड़े पर बैठे-ही-बैठे उसका आलिंगन किया। इस प्रकार घोड़े पर बैठकर वे आज तक किसे से नहीं मिले थे। बालक सम्भाजी के ध्यान से यह बात छूटी नहीं। उन्होंने मन-ही-मन समझ लिया-रामसिंह भरोसे का आदमी है।
फिर रामसिंह ने अपना घोड़ा सम्भाजी के घोड़े तक बढ़ाया। उनके कन्धे पर हाथ रखकर उसने कहा, ‘‘कुँवर शम्भूराजा !’’
रामसिंह ने सब हाथियों को महाराज के डेरे की ओर रवाना कर दिया और अब वह निकल पड़ा-दो मावले सरदारों को औरंगज़ेब के दरबार में पेश करने के लिए।
लालक़िले का मुख्य दरवाज़ा आ गया। सभी सरदार, उमराव दरबार में जा चुके थे, इस कारण नौबतवाले काफ़ी देर से आराम से बैठे थे। अब ज्योंही उन्होंने महाराज रामसिंह और सम्भाजी को आते देखा तो एकदम भौचक होकर वे अगवानी की नौबत बजाने लगे। इस समय तक लालक़िले में औरंगज़ेब का ‘दीवान-ए-ख़ास’ का दूसरा दरबार भी समाप्त हो चुका था।
महाराज और सम्भाजी गेरुए रंग का लालक़िला देखते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्होंने घोड़ों को रामसिंह के सईसों को सौंप दिया था। नज़राने भरे थाल उठाये हुए मावले सैनिकों को अपने पीछे रखकर महाराज और सम्भाजी अब ग़ुसलख़ाने के दरबार की ओर जा रहे थे। इस समय औरंगज़ेब ग़ुसलख़ाने के साथ वाले पेशाबघर में खप्पर के टुकड़े से ‘इस्तिंजा’ कर रहा था !
‘इस्तिंजा’ के बाद हाथ-पाँव धोकर औरंगजेब ने ‘वुज़ू’ किया। खस की सुगन्धिवाला ठण्डा पानी पीकर वह गुसलख़ाने के चहारदीवारी से घिरे हुए तख़्त के अहाते में दाखिल हुआ। ग़ुसलख़ाने के प्रवेश-द्वार पर पहुँचकर रामसिंह ठहर गया। कमर तक झुककर उसने शिवाजी महाराज से प्रार्थना की, ‘‘जूते यहीं उतार दीजिए राजासाहब।’’ सुनते ही महाराज के माथे पर त्योरियाँ खिंच आयीं, फिर भी महाराज ने अपने भगवे जूते संगमरमर के फर्श पर उतारकर रख दिये। उन जूतों के पास ही बालक सम्भाजी ने भी अपने जूते उतार दिये।
रामसिंह ने वज़ीर ज़ाफ़र ख़ाँ के पास सूचना भेजी। सात-आठ हाथ ऊँचे और क़िले के समान बन्द एक अहाते में गिरदे पर टिककर बैठे हुए औरंगज़ेब के सामने ज़ाफ़र ख़ाँ पेश हुआ। छाती पर आज हाथ रखकर झुककर उसने औरंगज़ेब के सामने अर्ज़ किया, ‘‘आला हज़रत ऽ ऽ, दक्खन से ‘शीवा’ भोंसला अपने फर्ज़न्द के साथ आया है। रामसिंह उसे आपके सामने पेश करने की इजाज़त माँगता है।’’
यह समाचार सुनकर गिरदे पर टिककर बैठा औरंगज़ेब एकदम आगे को उठ आया। उसके हाथ की तस्बीह के मनके फेरने वाली उँगलियाँ क्षणभर के लिए रुक गयीं। कुछ क्षण यूँ ही गुज़र गये।
झुके हुए वज़ीर ज़ाफ़र ख़ाँ की तरफ़ अत्यन्त शान्त शब्दों की ‘ख़िलअत’ औरंगज़ेब ने फेंकी, ‘‘इजाज़त’’, एक बार ग़ुसलख़ाने की ओर देखकर औरंगज़ेब दुबारा गिरदे के सहारे बैठ गया। मनके फिर घूमने लगे।
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