सामाजिक >> धर्मस्थल धर्मस्थलप्रियंवद
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मूलतः इतिहासविद माने जाने वाले प्रियंवद का अति संवेदनशील उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
धर्मस्थल में कथावाचक है विजन जो इंजीनियर होकर विदेश में जा बसा है। कथानायक कामिल का बालसखा। कामिल की पत्नी न बन सकी प्रेयसी-सी है दाक्षायणी; जो बेहद महत्त्वाकांक्षिणी है; और जिसकी मुखमुद्रा, मुद्राओं (धन) के दर्शन से ही, लगता है, खिलती-खुलती है। यूँ उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र है आकर्षक व्यक्तित्व का धनी कामिल का मूर्तिकार पिता। यह ऐसा मूर्तिकार है जो अपनी दृष्टि की भास्वर निर्मलता, सोच की उदग्र उदात्तता के लिए, अपनी सौन्दर्यन्वेषिनी दृष्टि के लिए, मूर्तिशिल्प हित हेतु किए गए अपने चिंतन के लिए पाठक की संवेदना में गहरे भीतर जा धँसता है।
प्रियंवद की लेखन-यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा शायद ही संभव हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय-व्यवस्था के वध-स्थल या क़त्लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज है। यह आयातित भारतीय दंड-संहिता, जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है, में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्त्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।
इतनी ख़ूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलतः इतिहासविद माने जाने वाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी।
धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं, जज जल्लाद तो नहीं? मुवक्किल, कचहरी के मकड़जाल में फँसा, मरता निरीह कीड़ा तो नहीं?
निश्चय ही यह उपन्यास अपनी अन्तर्वस्तु के लिहाज़ से भी हिन्दी की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।
प्रियंवद की लेखन-यात्रा में ऐसा धर्मस्थल दुबारा शायद ही संभव हो। यह प्रतीकात्मक रूप में और खुले रूप में भी भारतीय न्याय-व्यवस्था के वध-स्थल या क़त्लगाह होते जाने का मारक और बेधक दस्तावेज है। यह आयातित भारतीय दंड-संहिता, जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और हमारे न्यायालयों की संविधान सी है, में वर्णित और अदालतों में जारी साक्ष्य की पूरी प्रविधि पर प्रश्न खड़ा कर देता है। साक्ष्यों का महत्त्व वहाँ होता है जहाँ गवाह पढ़े-लिखे और ईमानदार हों। बिकी हुई गवाहियाँ न्याय को हत्यारा बना देती हैं।
इतनी ख़ूबसूरती से इस उपन्यास को रचा गया है कि अचरज होता है कि मूलतः इतिहासविद माने जाने वाले प्रियंवद, मूर्तिशिल्प के कितने गहरे जानकार हैं; सौंदर्यबोध के कितने तल-स्तर पहचानते हैं; कितनी भाषिक सधाव वाली दार्शनिक मनोदशा है उनकी।
धर्मस्थल में इतना ही भर होता तो शायद आज के नज़रिए से यह अप्रासंगिक हो जाता लेकिन कचहरी के भीतर होते घात-प्रतिघात, वकील-जज-मुवक्किल की दाँव-पेंच भरी बारीक जानकारियाँ भी प्रियंवद पाठकों को परोसते चलते हैं। पाठक स्तब्ध रह जाता है कि कहीं वकील काले कौव्वे तो नहीं, जज जल्लाद तो नहीं? मुवक्किल, कचहरी के मकड़जाल में फँसा, मरता निरीह कीड़ा तो नहीं?
निश्चय ही यह उपन्यास अपनी अन्तर्वस्तु के लिहाज़ से भी हिन्दी की बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी।
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