आचार्य श्रीराम शर्मा >> क्या धर्म अफीम की गोली है ? क्या धर्म अफीम की गोली है ?श्रीराम शर्मा आचार्य
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क्या धर्म अफीम की गोली नहीं ?....
अकेला विज्ञान उलझन बढ़ाएगा
पदार्थ का सूक्ष्मतम घटक जब परमाणु माना जाता था, वह बात बहुत पुरानी हो गई। परमाणु भी इलेक्ट्रॉनप्रोटॉन, न्यूट्रॉन आदि अनेक घटकों में विभाजित हो गया और उसका स्थान एक संघ| संचालक भर का रह गया है।
विज्ञान क्रमशः आगे-ही-आगे बढ़ते-बढ़ते पदार्थ की मूल इकाई को तलाश करने की दिशा मेंपिछली शताब्दियों और दशाब्दियों की तुलना में बहुत प्रगति कर चुका है और अब बात चेतना के घटक समुदाय तक का स्पर्श करने लगी है। इन दिनों चेतना केमूल घटक के रूप में एक नए घटक को मान्यता मिली है। उसका नामकरण हुआ है-साइकोट्रॉन। इस नई खोज का स्वरूप जिस तरह सामने आया है उससे जड़-चेतनका मध्यवर्ती विवाद निकट भविष्य में नए करवट बदलता दिखाई पड़ता है। इसलिए उस परिशोध को असाधारण महत्त्व दिया गया है। उसकी खोज पर विज्ञान जगत काध्यान नए सिरे से केंद्रीभूत हुआ है और उसकी शोध को एक अतिरिक्त प्रकरण की तरह मान्यता मिल रही है। इसकी शोधचर्या को साइकोट्रॉनिक विज्ञान नामक एकअतिरिक्त धारा ही मान लिया गया है।
इस अभिनव शोध धारा ने पदार्थ सत्ता और मनुष्य की अंतश्चेतना को पारस्परिक तारतम्यबैठाने वाला आधार ढूंढ निकाला है। चेतना ऊर्जा और पदार्थ उर्जा में दिखाई देने वाली भिन्नता इस आधार पर अधिकतम निकट तो दीख ही रही है उसकेअविच्छिन्न सिद्ध होने की भी संभावना है।
फोटोग्राफी में प्रायः उन्हीं पदार्थों के चित्र उतरते हैं, जो आँखों की सहायता से देखेजा सकते हैं। सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी यंत्रों की सहायता से जो देखा जा सके वह भी नेत्रों की परिधि में ही आया समझा जाना चाहिए। कैमरों का लेन्सप्रकारांतर से नेत्र की ही अनुकृति है। साइकोट्रॉनिक विज्ञान के अंतर्गत किलियन फोटोग्राफी के आधार पर अब भाव-संवेदनाओं के उतार-चढ़ावों को भीफोटो प्लटों पर कैद कर सकना संभव हो गया है। इस सफलता से यह निष्कर्ष निकलता है कि ताप, तरंग-ध्वनि-कंपनों और रेडियो विकरण की तरह इस अनंतब्रह्मांड में भाव-संवेदनाएँ भी प्रवाहमान रहती हैं। और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचकर विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती हैं। यदि लेसर आदि किरणें किसीअभीष्ट स्थान तक पहुँचाकर इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है तो अब यह मानने के पक्ष में भी आधार बन गया है कि विचारधाराएँ एवं भावनाएँ भी अमुकव्यक्ति को ही नहीं, अमुक पदार्थ को भी प्रभावित कर सकती हैं। बंदूक की गोली अंतरिक्ष में तैरती हुई निशान तक पहुँचती और प्रहार करती है। रेडियो,टेलीफोन भी व्यक्तिगत वार्तालाप की भमिका बनाते हैं। भाव-संवेदना का पदार्थसत्ता के साथ तालमेल बैठा सकने वाला साईकोट्रॉनिक्स भी इस संभावनाको प्रशस्त करता है कि भावसंवेदनाएँ भी अब भौतिक पदार्थों को प्रभावित करने में समर्थ रह सकेंगी।
परंपरागत मान्यता में इतना तो जाना और माना जाता रहा है कि पदार्थ से चेतनाप्रभावित होती है। सौंदर्य और कुरूपता से दृष्टि मार्ग द्वारा मस्तिष्क में उपयुक्त एवं अनुपयुक्त भाव-संवेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। अन्यइंद्रियाँ भी जो रसास्वादन करती हैं उनसे भी चेतना को प्रसन्नता, अप्रसन्नता होती है। त्वचा द्वारा ऋतु-प्रभाव की प्रतिक्रियाएँ अनुभव कीजाती हैं और उनसे प्रिय, अप्रिय का भान होता है। चोट लगने आदि का, प्यास बुझाने जैसी पदार्थजन्य हलचलों का मन:संस्थान पर प्रभाव पड़ता है। अब नएतथ्य सामने इस प्रकार आ रहे हैं, मानो चेतना में भी यह शक्ति विद्यमान है जिससे पदार्थों एवं प्राणियों के शरीरों को भी प्रभावित किया जा सकता है।इस प्रकार के प्रमाण मिलते तो पहले से भी रहे हैं, किंतु उनके कारण न समझे जाने से किसी मान्यता पर पहुँच सकना संभव न हो सका।
अतींद्रिय क्षमता मनुष्य में विद्यमान है और वह कई बार ऐसी जानकारियाँ देती है, जोउपलब्ध इंद्रिय शक्ति को देखते हुए असंभव लगती है। ऐसी घटनाओं को या तो छल, भ्रम आदि कहकर झुठला दिया जाता है या फिर दैवी चमत्कार का नाम देकरकिसी अविज्ञात एवं अनिश्चितता के गर्त में धकेलकर पीछा छुड़ा लिया जाता है। पैरासाइकालॉजी-मेटाफिजिक्स के आधार पर जो शोधे हुईं हैं, उनसे इतना हीजाना जा सकता है कि जो भी चमत्कारी अनुभव और घटनाक्रम होते हैं, वे प्रपंच नहीं, तथ्य हैं। इतने पर भी यह नहीं जाना जा सकता कि भौतिकी के किन नियमोंके आधार पर ऐसा हो सकने की बात सिद्ध की जा सकती है। अतींद्रिय क्षमता को मान्यता तो मिले, पर उसके कारणों का पता न चल सके तो वस्तुतः यह एक बडेअसमंजस की बात है। अब तक स्थिति ऐसी ही रही है।
चमत्कारी सिद्धियों और शक्तियों से यही प्रामाणित होता है कि वे प्रभावित कर सकनेमें समर्थ हैं। मेस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के आविष्कार ने इस दिशा में एक और प्रमाण मूलक तथ्य सामने रखा था, फिर भी बात अधूरी ही रही। प्राण ऊर्जाको मान्यता देने के लिए तथ्य तो विवश करते थे, पर साहसिक प्रतिपादन कैसे संभव हो? विज्ञान की किस शाखा के आधार पर इसका सुनिश्चित समर्थन किया जाए?अटकलें तो लगती रहीं और कुछ संगति बैठाने के लिए तर्क और प्रमाण भी प्रस्तुत किए जाते रहे, पर वह सब रहा संदिग्ध ही, जब तक कुछ प्राणाणिकतथ्य सामने न आएँ तो उसे निश्चित कहने का साहस किए आधार पर किया जाए?
साइकोट्रॉनिक्स ने इस असमंजस को किसी निष्कर्ष तक पहुँचाने की आधारशिला रख दी है और उससिद्धांत को उजागर किया है। जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि चेतना और पदार्थ के बीच तालमेल बैठाने वाले कोई सुनिश्चित सूत्र विद्यमान हैं। वेदोनों परस्पर गुंथे हुए ही नहीं हैं, वरन् एक ही सत्ता के दो रूप हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष की संज्ञा दी जा सकती है। इस विज्ञान केअंतर्गत चेतना की एक अति प्रभावशाली क्षमता-'साइकोकायनेसिस' दूरस्थ व्यक्ति के प्रति आदेश प्रेषण क्षमता को तथ्य रूप में स्वीकार कर लिया गयाहै।
साइकोट्रॉनिक विज्ञान के मूर्धन्य शोधकर्ता डॉ० राबर्ट स्टोन का प्रतिवेदन है कि जड़ औरचेतन के विवाद को सुलझाने के लिए अब तक जो प्रयत्न चलते रहे हैं, उसे देर तक अनिश्चित स्थिति में न पड़ा रहने देने की चुनौती स्वीकार कर ली गई हैऔर अपनी पीढ़ी के ही शोधकर्ता किसी निश्चित स्थिति तक पहुँच जाने योग्य आधार प्राप्त कर चुके हैं। विज्ञान की पिछली पीढ़ी के कुलपति आइन्स्टाइनके नेतृत्व में स्पेस-टाइम-युनिवर्स के सिद्धांत ने काफी प्रगति की थी, उससे ब्रह्मांड की मूल स्थिति को समझ सकने के लिए आशाजनक पृष्ठभूमि बनीथी। अब साइकोट्रॉनिक्स ने और बड़ा प्रकाश प्राप्त किया है। गुत्थी को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह सुलझाने में उससे भारी सहायता मिलेगी।
टोकियो के अंतर-राष्ट्रीय वैज्ञानिक कॉन्फ्रेन्स के अधिवेशन में भी यह प्रसंग प्रधानरूप से चर्चा का विषय रहा। 'स्टेनफोर्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट' ने तो अपने कंधे पर उस धारा के संबंध में अधिक विस्तारपूर्वक उच्चस्तरीय शोध करने केलिए मूल्यवान साधन भी जुटा लिए हैं।
चंद्रमा के धरातल पर उतरने वाले ११वें वैज्ञानिक एवं नोयटिक साइंस इन्स्टीट्यूट केसंस्थापक एडगर मिचेल ने अपनी चंद्रयात्रा से लौटने के उपरांत यह मानना और कहना जोरों से शुरू कर दिया कि ब्रह्मांड की संरचना जिन पदार्थों से हुईहै, वे किसी चेतना-प्रवाह के उद्गम से आविर्भूत हुए हैं। भौतिक नहीं है। पदार्थ को जिन प्रतिबंधों में बँधकर परिपूर्ण अनुशासन में रहना पड़ रहाहै, वह संयोग मात्र नहीं, वरन् किसी महती विश्वव्यवस्था का अंग है।
इस दिशा में मनोविज्ञानी डॉ० कार्ल सिमंटन ने एक साधन संपन्न अस्पताल की स्थापना कीहै, जिसमें चिकित्सा का जो नया आधार खड़ा किया है, उसमें साइकोट्रानिक्स के सिद्धांतों को ही क्रियान्वित किया गया है। यह प्रचलित मानसिक चिकित्सासे भिन्न है। इन दिनों मानसोपचार में सजेशनों को ही आधारभूत माना जाता है। स्व-संकेत, पर-संकेत की जो प्रक्रिया पिछले दिनों हिप्नोटिज्म प्रतिपादनोंके सहारे चलती रही है, इस नए प्रयोग में उससे बहुत आगे की बात है। उसमें विचार-संप्रेषण को एक शक्ति एवं ओषधि के रूप में रोगी के शरीर और मस्तिष्कमें प्रवेश कराया जाता है। परिणामों को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा रहा है कि विचार-संप्रेषण पद्धति प्रचलित अन्य चिकित्सापद्धतियों कीतुलना में किसी दृष्टि से पीछे नहीं है। उसके उत्साहवर्द्धक परिणामों का अनुपात अन्य उपचारों की सफलता के समतुल्य नहीं वरन् अग्रगामी है।
इस क्षेत्र में अधिक तत्परतापूर्वक शोध-प्रयत्नों में लगे हुए डॉ० स्टोन ने मस्तिष्क विधाके परीक्षण निष्कर्षों का प्रतिफल यह बताया है कि मानवीय मस्तिष्क का बाँया भाग तो उसकी निजी आवश्यकताएँ जुटाने में लगा रहता है और दाहिना भागइस सुविस्तृत ब्रह्मांड के साथ अपना तालमेल बैठाता और आदान-प्रदान बनाता रहता है। वह संपर्क एवं वातावरण से प्रभावित होता भी है और उसे प्रभावितकरता भी है। सामान्यतः यह प्रक्रिया उतनी ही छोटी परिधि में चलती है, जिसमें छोटे-से-छोटा व्यक्तित्व अपनी सीमित इच्छाओं के अनुरूप सुविधा औरसुरक्षा पाने में किसी कदर समर्थ होता रह सके, किंतु इस परिधि का विकास होना संभव है। इस बात की पूरी संभावना है कि व्यक्ति की चेतना यदि अपने कोअधिक समुन्नत स्थिति तक विकसित कर सके तो वातावरण से प्रभावित होने और प्रभावित करने से जो लाभ उठाया जा सकता है। उसे उठा सके। स्टोन केकथनानुसार कला, संस्कृति, दर्शन तथा संवेदनाओं का बहुत कुछ आधार मस्तिष्क के इस दाहिने भाग पर ही निर्भर रहता है।
अतींद्रिय क्षमता का परिचय देने वालों के मस्तिष्क का यह दाहिना भाग ‘सेरब्रम' अधिकसक्षम, परिपुष्ट पाया गया है। रहस्यों को जानने और अद्भुत कार्य करने की चमत्कारी विशेषताएँ विकसित करने का श्रेय इसी भाग को है। इस क्षेत्र कीक्षमताएँ भौतिक-क्षेत्र से विकसित होने पर व्यापक पदार्थ-संपदा के साथ अपनी घनिष्ठता स्थापित कर सकती हैं और ज्ञान एवं कर्म का क्षेत्र सीमित नहोकर असीम बन सकता है। ऐसे ही आंतरिक क्षमता संपन्नों को देव मानवों की संज्ञा एवं श्रद्धा प्रदान की जाती रही है।
न्यूरो साइंटिस्ट डॉ० कार्लप्रिव्रम और फिजिसिस्ट प्रो० डेविड ब्रोहम ने व्यक्तिऔर ब्रह्मांड के गहन रहस्यों की झाँकी की है। उसे वे एक अद्भुत सत्य का अनिर्वचनीय आभास बताते हैं। दोनों के कथन मिलते-जुलते हैं, वे कहते हैं किमानवीय मस्तिष्क, इस निखिल ब्रह्मांड का लघु-अणु रूप है, इसके प्रसुप्त संस्थानों को मेडीटेशन-ध्यान, जैसे उपचारों से जाग्रत् बनाया जा सकता है।अपने ही संकल्प बल से इस क्षेत्र में 'साइकोट्रॉनिक लेसर बीम' तैयार की जा सकती है। उसका मेट्रिक्स के अभेद्य समझे जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश होसकता है और ऐसा कुछ प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है, जो मनुष्य की वर्तमान क्षमता को असंख्य गुना अधिक समुन्नत बना दे।
औसत व्यक्ति की भौतिक संपन्नता की तरह आंतरिक क्षमता भी सीमित है, किंतु यह सीमा बंधनअकाट्य नहीं है। व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक अपने को क्रमशः ससीम से असीम बनने की दिशा में निरंतर प्रयत्न करता रह सकता है। यह विशालता विश्वसत्ता औरआत्मसत्ता के अंतर को समाप्त करती है और सबको अपने में तथा अपने को सबमें देखने का अवसर मात्र भाव-संवेदना की दृष्टि से ही नहीं, तथ्यों के आधार परभी उपलब्ध हो सकता है। आत्मा और परमात्मा के मिलन-नर की नारायण रूप में परिणति, जैसे अध्यात्म लक्ष्यों के साथ विकासोन्मुख आत्मसत्ता की संगतिपूरी तरह बैठ जाती है।
जीवनीशक्ति, चेतनसत्ता एवं पदार्थ ऊर्जा के क्षेत्र पिछले दिनों एक सीमा तक हीपारस्परिक घनिष्ठता स्थापित कर सके हैं, पर अब यह संभावना प्रशस्त हो रही है कि तीनों को परस्पर पूरक और सुसंबद्ध मानकर चला जाए और एक की उपलब्धिसे अन्य दो धाराओं को अधिक सक्षम बनाकर अभाव ग्रस्तताओं से उबरा जाए। अगले कदम इस स्थिति का भी रहस्योद्घाटन कर सकते हैं कि चेतना सागर के अतिरिक्तइस विश्वब्रह्मांड में और कुछ है ही नहीं। प्राणियों के स्वतंत्र अस्तित्वों का दृश्यमान स्वरूप उसी स्तर का है। जैसा कि समुद्र की सतह परउतरने वाली लहरों का होता है। उनकी दृश्यमान पृथकता अवास्तविक और मध्यवर्ती एकता वास्तविक होती है। इस निष्कर्ष पर पहुँचने पर वेदांत औरविज्ञान दोनों एक हो जाते हैं। तत्त्वदर्शन और पदार्थ विज्ञान को एकीभूत करने के लिए नई शोध धारा साइकोट्रॉनिक्स के रूप में सामने आई है। उसकाअभिनव प्रतिपादन, विश्लेषण, प्रयोग और निष्कर्ष-सापेक्षवाद की तरह ही जटिल है। उन्हें ठीक तरह समझ सकना इन दिनों कठिन प्रतीत हो सकता है, पर इनसंभावनाओं का द्वार निश्चित रूप से खुला है कि चेतना को विश्व की मूलभूत शक्ति मानने का सिद्धांत सर्वमान्य बन सके। ऐसा हो सका तो भौतिकी को जोश्रेय इन दिनों प्राप्त है, उससे कम नहीं वरन् अधिक ही आत्मिकी को प्राप्त होगा।
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