आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालयश्रीराम शर्मा आचार्य
|
7 पाठकों को प्रिय 370 पाठक हैं |
अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दिव्य चेतना का केन्द्र-हिमालय का हृदय
पदार्थों और प्राणियों के परमाणुओं-जीवकोषों में मध्यवर्ती नाभिक
‘‘न्यूक्लियस’’ होते हैं। उन्हीं को शक्ति
स्रोत्र कहा गया है और घिरे हुए परिकर को उसी उद्गम से सामर्थ्य मिलती है
तथा अवयवों की सक्रियता बनी रहती है। यह घिरा हुआ परिकर गोल भी हो सकता है
और चपटा अण्डाकार भी। यह संरचना और परिस्थितियों पर निर्भर है।
पृथ्वी का नाभिक उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव की परिधि में मध्य स्थान पर है। उनके दोनों सिरे अनेकानेक विचित्रताओं का परिचय देते हैं। उत्तरी ध्रुव लोक-लोकान्तरों से कास्मिक-ब्रह्माण्डीय किरणों को खींचता है। जितनी पृथ्वी को आवश्यकता है उतनी ही अवशोषित करती है और शेष को यह नाभिक दक्षिणी ध्रुव मार्ग से अन्तरिक्ष में नि:सृत कर देता है। इन दोनों छिद्रों का आवरण मोटी हिम परत से घिरा रहता है। उन सिरों को सुदृढ़ रक्षाकवच एवं भण्डारण में प्रयुक्त होने वाली तिजोरी की उपमा दी जा सकती है। प्राणियों के शरीरों और पदार्थ परमाणुओं में भी यही व्यवस्था देखी जाती है। अपने सौरमण्डल का ‘‘नाभिक’’ सूर्य है, अन्य ग्रह उसी की प्रेरणा से प्रेरित होकर अपनी-अपनी धुरियों और कक्षाओं में भ्रमण करते हैं।
नाभिक की सत्ता, महत्ता और स्थिति के बारे में इतना समझ लेने के उपरान्त प्रकृति से आगे बढ़कर चेतना क्षेत्र पर विचार करना चाहिए। उसका भी नाभिक होता है। ब्रह्माण्डीय चेतना का ध्रुव केन्द्र कहाँ हो सकता है, इसके संबंध में वैज्ञानिकों में से अधिकांश का प्रतिपादन ध्रुव तारे के संबंध में है। वह दूर तो है ही, स्थिर भी प्रतीत होता है। उसका स्थान ब्रह्माण्ड का मध्यवर्ती माना जाता रहा है। अभी भी उसमें संदेह भर किया जाता रहा है। किसी ने प्रत्यक्ष खण्डन करने का साहस नहीं किया।
पृथ्वी का, पदार्थ सम्पदा का, नाभिक जिस प्रकार ध्रुव केन्द्र है। उसी प्रकार चेतना प्रवाह का मध्यबिन्दु नाभिक-हिमालय के उस विशेष क्षेत्र को माना गया है, जिसे हिमालय का हृदय कहते हैं। भौगोलिक दृष्टि से उसे उत्तराखण्ड से लेकर कैलाश पर्वत तक बिखरा हुआ माना जा सकता है। इसका प्रमाण यह है कि देवताओं, यक्ष- गन्धर्वों, सिद्ध पुरुषों का निवास इसी क्षेत्र में पाया जाता रहा है। इतिहास-पुराणों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र को देव भूमि कहा और स्वर्गवत् माना जाता रहा है। सामान्य वन, पर्वतों, भूखण्डों की तुलना में इस क्षेत्र की चेतनात्मक महत्ता विशेष रूप से आँकी गई है। उच्चस्तरीय चेतनशक्तियाँ इस क्षेत्र में बहुलतापूर्वक पायी जाती हैं। आध्यात्मिक शोधों-साधनाओं के लिए, सूक्ष्म शरीरों को विशिष्ट स्थिति में बनाये रखने के लिए वह विशेष रूप से उपयुक्त है। उस क्षेत्र में सूक्ष्म शरीर इस स्थिति में बने रह सकते हैं, जो यथा अवसर आवश्यकतानुसार अपने को स्थूल शरीर में भी परिणत कर सकें और उस स्तर के लोगों के साथ विचार विनिमय कर सकें तथा एक दूसरे को सहयोग देकर किसी बड़ी योजना को कार्यान्वित भी कर सकें।
सिद्ध पुरुषों के कई स्तर हैं, जिनमें यक्ष, गन्धर्व प्रमुख हैं। खलनायकों की भूमिका निभाने वालों को दैत्य या भैरव कहते हैं। उनकी प्रकृति तोड़-फोड़ में अधिक होती है। यक्ष राजर्षि स्तर के होते हैं तथा गन्धर्व कलाकार स्तर के। सिद्ध पुरुष तपस्वी योगी जनों की ही एक विकसित योनि है। भूलोक की मानवी समस्याओं को सुलझाने में प्रायः सिद्ध पुरुषों का ही बढ़ा-चढ़ा योगदान रहता है। इसलिए उनकी समीपता, सहायता के लिए ऐसी अभ्यर्थनाएँ दी जाती हैं, जो उन्हें प्रभावित या आकर्षित कर सकें। उनका जिन्हें विशेष अनुग्रह प्राप्त होने लगता है, वे उन्हें ‘‘देव’’ भी कहने लगते हैं। यों ईश्वर की अनंत शक्तियों को अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण ‘‘देव’’ नाम से भी जाना जाता है। वे अदृश्य होती हैं। फिर भी ध्यान साधने के लिए, सम्पर्क संबंध स्थापित करने के लिए उन्हें आलंकारिक रूप से किसी आकार की मान्यता दी जाती है। आकार के बिना न तो ध्यान बन सकता है और न तादात्मय स्थापित हो सकता है। इसलिए निराकार की अभ्यर्थना के लिए उनके साकार रूपों की प्रतिष्ठापना की गई है। पूजा प्रयोजनों में, देवालय स्थापना में इन्हीं निरुपित प्रतिमाओं का प्रयोग होता है। इनकी समर्थता में दैवी शक्ति के अतिरिक्त साधक की श्रद्धा सघनता का भी भारी महत्त्व है। श्रद्धा के बिना दैवी विभूतियों को आकर्षित-स्थापित नहीं किया जा सकता। रामचरितमानस के प्रणेता ने तो श्रद्धा-विश्वास को भवानी-शंकर की उपमा दी है। वह बहुत हद तक सही भी है।
झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप बनते और उस मान्यता के अनुरूप भयानक प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार उच्चस्तरीय श्रद्धा भी देव दर्शन कराती हैं। एकलव्य के मिट्टी से बनाये गये द्रोणाचार्य, मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली के उदाहरण ऐसे ही हैं, जिनमें जड़ प्रतिमाओं ने समर्थ सचेतन जैसी भूमिकाएँ सम्पन्न कीं। फिर सचेतन को देवता या सिद्ध-पुरुष स्तर तक पहुँचने की सम्भावना सुनिश्चित होने में संदेह क्यों किया जाए ?
यह चर्चा भावना के अनुरूप देव पुरुषों की, सिद्ध पुरुषों की सत्ता विनिर्मित करने संबंधी हुई। मुख्य प्रश्न यह है कि श्रद्धा के अभाव में भी देव सत्ताएँ अपने क्रिया-कलाप जारी रख सकती हैं या नहीं। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वे अपनी इच्छानुसार अभीष्ट गतिविधियाँ बिना किसी रोक-टोक के क्रियाशील रखे रह सकती हैं। आवश्यकतानुसार वे अपने सूक्ष्म शरीरों को स्थूल शरीरों में भी बदलती रहती हैं। मनुष्य के साथ सम्पर्क साधने में उन्हें विशेषतया प्रकट स्वरूप बनाना पड़ता है; पर वह कुछ समय के लिए होता है। उनकी स्वाभाविक स्थिति सूक्ष्म शरीर में ही बने रहने की होती है। इसलिए निश्चित प्रयोजन पूरा करने के उपरान्त वे पुन: अपनी स्वाभाविक स्थिति को अपना लेती हैं, सूक्ष्मत: की स्थिति में चली जाती हैं। स्थूल शरीर का कलेवर बनाकर रहना उन्हें असुविधाजनक प्रतीत होता है। कारण कि उसके लिए उन्हें ऋतु प्रभाव से बचने, आहार, जल, आदि की व्यवस्था जुटाने के लिए विशेष स्तर का प्रबंध करना पड़ता है। इस झंझट भरी व्यवस्था को वे थोड़े समय के लिए स्वीकारते हैं और अभीष्ट की पूर्ति के उपरान्त बिना झंझट वाली सूक्ष्म स्थिति में चले जाते हैं।
मरने के उपरान्त-नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशान्त होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है। मरणोपरान्त की थकान दूर करने के उपरान्त संचित संस्कारों के अनुरुप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएँ अपने मित्रों, शत्रुओं-परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं, प्रेतों की अशान्ति, सम्बद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं। पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावत: सेवा, सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपनों-परायों को यथा संभव सहायता पहुँचाती रहती है, इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमन्दों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएँ ऐसी सामने आती रहती हैं, जिनमें दैवी शक्ति ने कठिन समय में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।
सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि उनकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा एक हो जाती है। वे स्वेच्छा से संकल्प पूर्वक कुछ काम नहीं करते। दैवी प्रेरणाएँ ही उनसे लोकहित के लिए विविध कार्य कराती रहती है। जिस प्रकार काया में संव्याप्त निराकार जीवात्मा अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य हाथ, पैर, वाणी आदि विभिन्न अवयवों के माध्यम से संपन्न कराती रहती है। उसी प्रकार दैवी प्रेरणा सिद्ध पुरुषों को कठपुतली की तरह नचाती और सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप उनसे विविध कार्य कराती है। इस प्रकार निराकार सत्ता के साकार प्रयोजन सिद्ध पुरुषों के माध्यम से पूरे होते रहे हैं। ऐसे सिद्ध पुरुषों को देवात्मा भी कहते हैं। वे शरीर के बन्धनों में बँधे हुए नहीं होते। शरीर त्यागने के बाद भी उनका सूक्ष्म शरीर प्राय: उसी आकृति-प्रकृति का बना रहता है।
उनकी स्थिति उनके संकल्पों के ऊपर निर्भर रहती है। अस्तु, समयानुसार वे उसमें परिवर्तन भी कर लेते हैं। जब उनसे दिव्य चेतना कोई महत्वपूर्ण कार्य कराना चाहती है, तो नियत समय पर, नियत स्थान पर, नियत साधनों के साथ उन्हें जन्म धारण करने के लिए निर्देश करती है। ऐसे लोग महामानव स्तर के होते हैं। बचपन का दबाव उनपर अधिक समय तक नहीं रहता। वे लम्बी अवधि तक अबोध नहीं बने रहते। किशोरावस्था से ही उनकी विशिष्ट गतिविधियाँ आरम्भ हो जाती हैं। दिगभ्रान्त नहीं होना पड़ता। वातावरण के प्रभाव से वे प्रभावित नहीं होते, वरन् अपनी आत्मिक प्रखरता के आधार पर वातावरण को प्रभावित करते हैं। परिस्थितियाँ उनके मार्ग में बाधक नहीं बनती, वरन् वे परिस्थितियों के प्रतिकूल होते हुए भी उन्हें अनुकूलता के ढाँचे में ढालते हैं। हवा के साथ सूखे पत्तों की तरह उड़ते नहीं फिरते, वरन् पानी की धार चीरती हुई उल्टी दिशा में चल सकने वाली मछली जैसा अपने पुरुषार्थ का परिचय देते हैं। वे आदर्शवादी जीवन जीते और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय, अविस्मरणीय, अभिनन्दीय उदाहरण छोड़ते हैं।
पृथ्वी का नाभिक उत्तरी ध्रुव से लेकर दक्षिणी ध्रुव की परिधि में मध्य स्थान पर है। उनके दोनों सिरे अनेकानेक विचित्रताओं का परिचय देते हैं। उत्तरी ध्रुव लोक-लोकान्तरों से कास्मिक-ब्रह्माण्डीय किरणों को खींचता है। जितनी पृथ्वी को आवश्यकता है उतनी ही अवशोषित करती है और शेष को यह नाभिक दक्षिणी ध्रुव मार्ग से अन्तरिक्ष में नि:सृत कर देता है। इन दोनों छिद्रों का आवरण मोटी हिम परत से घिरा रहता है। उन सिरों को सुदृढ़ रक्षाकवच एवं भण्डारण में प्रयुक्त होने वाली तिजोरी की उपमा दी जा सकती है। प्राणियों के शरीरों और पदार्थ परमाणुओं में भी यही व्यवस्था देखी जाती है। अपने सौरमण्डल का ‘‘नाभिक’’ सूर्य है, अन्य ग्रह उसी की प्रेरणा से प्रेरित होकर अपनी-अपनी धुरियों और कक्षाओं में भ्रमण करते हैं।
नाभिक की सत्ता, महत्ता और स्थिति के बारे में इतना समझ लेने के उपरान्त प्रकृति से आगे बढ़कर चेतना क्षेत्र पर विचार करना चाहिए। उसका भी नाभिक होता है। ब्रह्माण्डीय चेतना का ध्रुव केन्द्र कहाँ हो सकता है, इसके संबंध में वैज्ञानिकों में से अधिकांश का प्रतिपादन ध्रुव तारे के संबंध में है। वह दूर तो है ही, स्थिर भी प्रतीत होता है। उसका स्थान ब्रह्माण्ड का मध्यवर्ती माना जाता रहा है। अभी भी उसमें संदेह भर किया जाता रहा है। किसी ने प्रत्यक्ष खण्डन करने का साहस नहीं किया।
पृथ्वी का, पदार्थ सम्पदा का, नाभिक जिस प्रकार ध्रुव केन्द्र है। उसी प्रकार चेतना प्रवाह का मध्यबिन्दु नाभिक-हिमालय के उस विशेष क्षेत्र को माना गया है, जिसे हिमालय का हृदय कहते हैं। भौगोलिक दृष्टि से उसे उत्तराखण्ड से लेकर कैलाश पर्वत तक बिखरा हुआ माना जा सकता है। इसका प्रमाण यह है कि देवताओं, यक्ष- गन्धर्वों, सिद्ध पुरुषों का निवास इसी क्षेत्र में पाया जाता रहा है। इतिहास-पुराणों के अवलोकन से प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र को देव भूमि कहा और स्वर्गवत् माना जाता रहा है। सामान्य वन, पर्वतों, भूखण्डों की तुलना में इस क्षेत्र की चेतनात्मक महत्ता विशेष रूप से आँकी गई है। उच्चस्तरीय चेतनशक्तियाँ इस क्षेत्र में बहुलतापूर्वक पायी जाती हैं। आध्यात्मिक शोधों-साधनाओं के लिए, सूक्ष्म शरीरों को विशिष्ट स्थिति में बनाये रखने के लिए वह विशेष रूप से उपयुक्त है। उस क्षेत्र में सूक्ष्म शरीर इस स्थिति में बने रह सकते हैं, जो यथा अवसर आवश्यकतानुसार अपने को स्थूल शरीर में भी परिणत कर सकें और उस स्तर के लोगों के साथ विचार विनिमय कर सकें तथा एक दूसरे को सहयोग देकर किसी बड़ी योजना को कार्यान्वित भी कर सकें।
सिद्ध पुरुषों के कई स्तर हैं, जिनमें यक्ष, गन्धर्व प्रमुख हैं। खलनायकों की भूमिका निभाने वालों को दैत्य या भैरव कहते हैं। उनकी प्रकृति तोड़-फोड़ में अधिक होती है। यक्ष राजर्षि स्तर के होते हैं तथा गन्धर्व कलाकार स्तर के। सिद्ध पुरुष तपस्वी योगी जनों की ही एक विकसित योनि है। भूलोक की मानवी समस्याओं को सुलझाने में प्रायः सिद्ध पुरुषों का ही बढ़ा-चढ़ा योगदान रहता है। इसलिए उनकी समीपता, सहायता के लिए ऐसी अभ्यर्थनाएँ दी जाती हैं, जो उन्हें प्रभावित या आकर्षित कर सकें। उनका जिन्हें विशेष अनुग्रह प्राप्त होने लगता है, वे उन्हें ‘‘देव’’ भी कहने लगते हैं। यों ईश्वर की अनंत शक्तियों को अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण ‘‘देव’’ नाम से भी जाना जाता है। वे अदृश्य होती हैं। फिर भी ध्यान साधने के लिए, सम्पर्क संबंध स्थापित करने के लिए उन्हें आलंकारिक रूप से किसी आकार की मान्यता दी जाती है। आकार के बिना न तो ध्यान बन सकता है और न तादात्मय स्थापित हो सकता है। इसलिए निराकार की अभ्यर्थना के लिए उनके साकार रूपों की प्रतिष्ठापना की गई है। पूजा प्रयोजनों में, देवालय स्थापना में इन्हीं निरुपित प्रतिमाओं का प्रयोग होता है। इनकी समर्थता में दैवी शक्ति के अतिरिक्त साधक की श्रद्धा सघनता का भी भारी महत्त्व है। श्रद्धा के बिना दैवी विभूतियों को आकर्षित-स्थापित नहीं किया जा सकता। रामचरितमानस के प्रणेता ने तो श्रद्धा-विश्वास को भवानी-शंकर की उपमा दी है। वह बहुत हद तक सही भी है।
झाड़ी का भूत और रस्सी का साँप बनते और उस मान्यता के अनुरूप भयानक प्रतिफल प्रस्तुत करते हैं। इसी प्रकार उच्चस्तरीय श्रद्धा भी देव दर्शन कराती हैं। एकलव्य के मिट्टी से बनाये गये द्रोणाचार्य, मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली के उदाहरण ऐसे ही हैं, जिनमें जड़ प्रतिमाओं ने समर्थ सचेतन जैसी भूमिकाएँ सम्पन्न कीं। फिर सचेतन को देवता या सिद्ध-पुरुष स्तर तक पहुँचने की सम्भावना सुनिश्चित होने में संदेह क्यों किया जाए ?
यह चर्चा भावना के अनुरूप देव पुरुषों की, सिद्ध पुरुषों की सत्ता विनिर्मित करने संबंधी हुई। मुख्य प्रश्न यह है कि श्रद्धा के अभाव में भी देव सत्ताएँ अपने क्रिया-कलाप जारी रख सकती हैं या नहीं। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि वे अपनी इच्छानुसार अभीष्ट गतिविधियाँ बिना किसी रोक-टोक के क्रियाशील रखे रह सकती हैं। आवश्यकतानुसार वे अपने सूक्ष्म शरीरों को स्थूल शरीरों में भी बदलती रहती हैं। मनुष्य के साथ सम्पर्क साधने में उन्हें विशेषतया प्रकट स्वरूप बनाना पड़ता है; पर वह कुछ समय के लिए होता है। उनकी स्वाभाविक स्थिति सूक्ष्म शरीर में ही बने रहने की होती है। इसलिए निश्चित प्रयोजन पूरा करने के उपरान्त वे पुन: अपनी स्वाभाविक स्थिति को अपना लेती हैं, सूक्ष्मत: की स्थिति में चली जाती हैं। स्थूल शरीर का कलेवर बनाकर रहना उन्हें असुविधाजनक प्रतीत होता है। कारण कि उसके लिए उन्हें ऋतु प्रभाव से बचने, आहार, जल, आदि की व्यवस्था जुटाने के लिए विशेष स्तर का प्रबंध करना पड़ता है। इस झंझट भरी व्यवस्था को वे थोड़े समय के लिए स्वीकारते हैं और अभीष्ट की पूर्ति के उपरान्त बिना झंझट वाली सूक्ष्म स्थिति में चले जाते हैं।
मरने के उपरान्त-नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशान्त होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है। मरणोपरान्त की थकान दूर करने के उपरान्त संचित संस्कारों के अनुरुप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएँ अपने मित्रों, शत्रुओं-परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं, प्रेतों की अशान्ति, सम्बद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं। पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावत: सेवा, सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपनों-परायों को यथा संभव सहायता पहुँचाती रहती है, इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमन्दों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएँ ऐसी सामने आती रहती हैं, जिनमें दैवी शक्ति ने कठिन समय में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।
सिद्ध पुरुष जीवन मुक्त स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि उनकी इच्छा और ईश्वर की इच्छा एक हो जाती है। वे स्वेच्छा से संकल्प पूर्वक कुछ काम नहीं करते। दैवी प्रेरणाएँ ही उनसे लोकहित के लिए विविध कार्य कराती रहती है। जिस प्रकार काया में संव्याप्त निराकार जीवात्मा अपनी इच्छा के अनुरूप कार्य हाथ, पैर, वाणी आदि विभिन्न अवयवों के माध्यम से संपन्न कराती रहती है। उसी प्रकार दैवी प्रेरणा सिद्ध पुरुषों को कठपुतली की तरह नचाती और सामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप उनसे विविध कार्य कराती है। इस प्रकार निराकार सत्ता के साकार प्रयोजन सिद्ध पुरुषों के माध्यम से पूरे होते रहे हैं। ऐसे सिद्ध पुरुषों को देवात्मा भी कहते हैं। वे शरीर के बन्धनों में बँधे हुए नहीं होते। शरीर त्यागने के बाद भी उनका सूक्ष्म शरीर प्राय: उसी आकृति-प्रकृति का बना रहता है।
उनकी स्थिति उनके संकल्पों के ऊपर निर्भर रहती है। अस्तु, समयानुसार वे उसमें परिवर्तन भी कर लेते हैं। जब उनसे दिव्य चेतना कोई महत्वपूर्ण कार्य कराना चाहती है, तो नियत समय पर, नियत स्थान पर, नियत साधनों के साथ उन्हें जन्म धारण करने के लिए निर्देश करती है। ऐसे लोग महामानव स्तर के होते हैं। बचपन का दबाव उनपर अधिक समय तक नहीं रहता। वे लम्बी अवधि तक अबोध नहीं बने रहते। किशोरावस्था से ही उनकी विशिष्ट गतिविधियाँ आरम्भ हो जाती हैं। दिगभ्रान्त नहीं होना पड़ता। वातावरण के प्रभाव से वे प्रभावित नहीं होते, वरन् अपनी आत्मिक प्रखरता के आधार पर वातावरण को प्रभावित करते हैं। परिस्थितियाँ उनके मार्ग में बाधक नहीं बनती, वरन् वे परिस्थितियों के प्रतिकूल होते हुए भी उन्हें अनुकूलता के ढाँचे में ढालते हैं। हवा के साथ सूखे पत्तों की तरह उड़ते नहीं फिरते, वरन् पानी की धार चीरती हुई उल्टी दिशा में चल सकने वाली मछली जैसा अपने पुरुषार्थ का परिचय देते हैं। वे आदर्शवादी जीवन जीते और पीछे वालों के लिए अनुकरणीय, अविस्मरणीय, अभिनन्दीय उदाहरण छोड़ते हैं।
|
- अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
- अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र देवात्मा हिमालय
- देवात्मा हिमालय क्षेत्र की विशिष्टिताएँ
- अदृश्य चेतना का दृश्य उभार
- अनेकानेक विशेषताओं से भरा पूरा हिमप्रदेश
- पर्वतारोहण की पृष्ठभूमि
- तीर्थस्थान और सिद्ध पुरुष
- सिद्ध पुरुषों का स्वरूप और अनुग्रह
- सूक्ष्म शरीरधारियों से सम्पर्क
- हिम क्षेत्र की रहस्यमयी दिव्य सम्पदाएँ
अनुक्रम
विनामूल्य पूर्वावलोकन
Prev
Next
Prev
Next
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book