आचार्य श्रीराम शर्मा >> आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधान आन्तरिक कायाकल्प का सरल किन्तु सुनिश्चित विधानश्रीराम शर्मा आचार्य
|
5 पाठकों को प्रिय 237 पाठक हैं |
आन्तरिक कायाकल्प का सरल विधान....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अध्यात्म क्षेत्र की उच्चस्तरीय सफलताओं का सुनिश्चित राजमार्ग
भौतिक क्षेत्र की सफलताएँ योग्यता, पुरुषार्थ एवं साधनों पर निर्भर है।
आमतौर से परिस्थितियाँ तदनुरूप ही बनती है। अपवाद तो कभी-कभी ही होते हैं।
बिना योग्यता, बिना पुरुषार्थ एवं बिना साधनों के भी किसी को कारू क्रा
गड़ा खजाना हाथ लग जाए, छप्पर फाड़कर नरसी के आँगन में हुण्की बरसने लगे
तो इसे कोई नियम नहीं, चमत्कार ही कहा जाएगा। वैसी आशा लगाकर बैठे रहने
वाले, सफलताओं का मूल्य चुकाने की आवश्यकता न समझने वाले व्यवहार जगत में
सनकी माने और उपहसास्पद समझे जाते हैं। नियति-विधान का उल्लंघन करके, उचित
मूल्य पर वस्तुएँ खदीदने क परम्परा को झुठलाने वाली पगडण्डियाँ ढूँढ़ने
वाले पाने के स्थान पर खोते ही खोते रहते है। लम्बा मार्ग चलकर लक्ष्य तक
पहुँचने की तैयारी करना बुद्धिमत्ता है, यथार्थवादिया इसी में है। बिना
पंखों के कल्पना लोक में उड़ान उड़ने वाले बहिरंग जीवन में व्यवहार
क्षेत्र में कदाचित कभी कोई सफल हुए हों।
अध्यात्म-क्षेत्र सूक्ष्म, अदृश्य, अविज्ञात जैसा लगता भर है। वस्तुतः वह भी अपने स्थान पर भौतिक जगत की तरह सुस्थिर और सुव्यवस्थित है। आँखों से न दीख पड़ने पर भी उसकी सत्ता सन्देह से परे है। शरीर दीखता है, प्राण नहीं। प्राण की नापतौल न हो तो इन्द्रिय शक्ति से हो सकती है और न किसी यन्त्र-उपकरण से, फिर भी उसकी सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व भी ऐसा ही है, जिसका यांत्रिक पर्यवेक्षण नहीं हो सकता। इतने पर भी वह पुरातन की तरह आधुनिक निर्धारणों से ही अपने अस्तित्व का परिचय देता है। विचारों की इच्छा-शक्ति, साहस आदि अदृश्य प्रसंगों की विशिष्टता एवं परिणति से कोई इन्कार नहीं कर सकता। यह अदृश्य जगत के अनेकानेक प्रमाणों में से कुछ है। यह क्षेत्र अव्यवस्थित नहीं है। अणुओं और तरंगों से विनिर्मित पदार्थ जगत् की तरह ही उसका भी सुनिश्चित और व्यापक अस्तितिव है, उसकी भी गति-विधियाँ चलती और प्रतिक्रियाएँ होती है।
अस्तु उसके भी अपने सुनिश्चित नियम, विधान औऱ अनुशासन होने का तथ्य भी स्वीकारना होगा। अन्धेरगर्दी, अराजकता, मनमानी अदृश्य जगत में भी न चलती है और न ही टिकती-ठहरती है। अतः अदृश्य जगत के सम्बन्ध में भी यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि वहाँ किसी नियम अनुबन्ध की आशा नहीं है। ‘अँधेर नगरी बेबूझ राजा’ की युक्ति सुनी तो जाती है, पर देखी कहीं नहीं गई। हर क्षेत्र के अपने-अपने नियम, विधान, अनुशासन है। अध्यात्म क्षेत्र भी उसका अपवाद नहीं हो सकता। सृष्टा की इस समूची कृति में कहीं भी अव्यवस्था नहीं है। यहाँ तक कि भूकम्प-तूफान जैसी अप्रत्याशित यदा-कदा होने वाली घटनाएँ भी प्रकृति के सुनिश्चित नियमों के अन्तर्गत ही होती है, भले ही उन्हें हम अभी पूरी तरह न समझ पाये हों।
अध्यात्म क्षेत्र का तत्वज्ञान, विधान, स्वरूप, और प्रतिफल समझने वालों को इस तथ्य को हृदयंगम करना ही होगा कि इस क्षेत्र के सुनिश्चित निर्धारण और अनुशासन सृष्टा ने बनाये और सुरक्षित रखे है। उन्हीं को समझाने-अपनाने से काम चलेगा। अँधेरे में ढेला फेंकते रहने वाले अपना परिश्रम निरर्थक गँवाते है। निशाना साधने में सफलता उन्हें नहीं मिल पाती। अन्धविश्वासों और मूढ़-मान्ताओं के आधार पर तथ्यों को सही मान लेने की भ्रान्ति किसी भी विवेकशील को नहीं अपनानी चाहिए। आहार क्षेत्र में मशालों का प्रचलन, जलाने, भूनने का रिवाज सर्वत्र प्रचलित है। नमक और शक्कर के बिना ग्रास गले से उतरते ही नहीं, फिर भी नमक (सोडियम क्लोराइड) एक सीधा विष है और उसका प्रभाव आरोग्य के लिए विघातक हो सकता है-इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता है। सिगरेट, चाय से लेकर शराब तक के अनेकानेक नशे होठों से बुरी तरह सट गये है। लोक प्रचलन में इनकी धूम है, फिर भी उनके औचित्य का समर्थन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। सामाजिक क्षेत्र में रंगभेंद, वर्णभेद, लिंगभेद आदि के नाम पर चलने वाली विषमता न जाने कब से चली आ रही है और न जाने कब तक चलती रहेगी।
खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेइमान बनाती हैं- इसे कौन नहीं जानता, फिर भी यह कुप्रचलन शिक्षितों और अशिक्षितों सामान रूप से अपनाते हुए आये दिन दीखते है। ऐसी अनेकानेक मूढ़ मान्यताओं में एक यह भी है कि अदृश्य जगत का कोई विधान-अनुशासन नहीं है उसमें कोई भी चमत्कार किसी भी विडम्बना के सहारे कुछ भी लाभ अर्जित कर सकने में असमर्थ हो सकता है। इस भ्रान्ति के अध्यात्म क्षेत्र में एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न कर दी है। लोगों ने मनमानी कल्पनाये की हैं, मनमाने अर्थ लगाये है। और मनमाने हथकड़े अपनाएं है। किसी को भी कुछ भी कर बैठने की छूट है। रस्सा किसी के हाथ पैरों में बंधा है, विचार खूटे से नहीं कहीं और बँधे होते है। इस छूट के रहते हुए भी प्रतिफल के सम्बन्ध में सभी अनुशासन से बँधे है। करता कोई भी कुछ भी रहे परिणाम के सम्बन्ध में नियति-व्यवस्था पर ही आश्रित रहना पडेगा। कुछ करने वालो को कुछ भी परिणाम भुगतने को तैयार रहना चाहिए। सुनिश्चित परिणामों की आशा करने वालों को गणितीय सिद्धांत समझने ही नहीं अपनाने भी होंगे।
अध्यात्म क्षेत्र की आश्चर्यजनक, अवास्तविक और भयावह मान्यता यह है कि कुछ जन्त्र-मन्त्र की टन्ट-घन्ट करने से देवताओं के जाल में जकड़ा और मनमर्जी से मनोकामानायें पूरी करने के लिए विवश किया जा सकता है। इस भ्रम जाल में मनुष्य जाति को बेहतर भटकाया है। ठोकरों पर ठोकर, असफलताओं पर असफलता प्राप्त करते रहने पर भी न जाने यह मान्यता क्यों नहीं हटती कि बिना मूल्य कम मूल्य में उच्चस्तरीय सम्पदायें, सफलतायें प्राप्त कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। देवताओं का न जाने क्यों लोगों ने इतना हेय स्तर मान लिया है कि किसी की पात्रता, प्रामाणिकता परखे बिना मात्र पूजा उपचार के अथवा ऐसे ही गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने के बदले माँगे हुए वरदान बरसाने के लिए तैयार बैठे रहते है हैं।, यदि वस्तुतः ऐसा होता तो उसे अदृश्य जगत की अराजकता, अन्धेरगर्दी के अतिरिक्त और क्या नाम दिया जाता। मनुहार पात्रता, पराक्रम की कोई आवश्यकता न समझी जाए, मात्र छलभरी मनुहार ही अपनाने भर से उल्लू सीधा होता रहे तो उसे क्या कहा और समझा जाय यह विज्ञजनों का विचारणीय विषय है।
पूजा की जादुई क्षमता, गिड़गिड़ाने भर से मनचाही सम्पदा किस आधार पर सही मानी जाती है इसका कोई तुक किसी भी प्रकार नहीं बैठता। देव प्रतिमाओं की दर्शन झाँकि करते-फिरते और उन पर फल पत्ते चढ़ाने वाले न जाने उस नगण्य से क्रिया कौतुक के बदले क्या-क्या मनौती मानाते है। तथाकथित संत महात्माओं के दर्शन भर करने के लिए आतुर लोग तत्लदर्शन से सर्वधा अपरिचित प्रतीत होते है। वे आँखों से छवि देखने भर को ही दर्शन मान बैठे है और इतने भर से अपनी भक्ति भावना का परिचय प्रस्तुत करते है मनचाहे वरदान पाने की उपेक्षा करते है। इस मान्यता के पीछे क्या सिद्धान्त काम करता होगा। यह खोज करना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। दर्शन-झाँकी करने-भर से दैवी अनुग्रह बरसने लगे तो इसका अर्थ यही होगा कि आत्म परिष्कार जीवन शोधन, तप साधन जैसे कष्ट साध्य प्रतिपादन करने और वैसा कराने के लिए कहने वाले नितान्त मूर्ख है। जो काम चुटकी बजाते बिना किसी श्रम-त्याग के, उथली विडम्बनायें अपनाने भर से पूरा हो सकता है उसके लिए कोई कष्ट साध्य रीति-नीति अपनाने के झंझट में क्यों पडे़गा ?
मनुहार करने भर से दैवी अनुकम्पा बरसने लगने की मान्यता बाल-बुद्धि की परिचायक है। लेने वाले के हिस्से में ही सारी चतुरता नहीं आई, कुछ तो परख देने वालों में भी होती है। अपनी सुयोग्य कन्या कोई किसी भी ऐरे-गैरे याचक के पल्ले बाँधने और माँगने वालों की मनोकामना पूरी करने के लिए तैयार नहीं होता है ? फिर दैवी अनुकम्पा का क्षेत्र ही क्यों ऐसा माना जाए कि वहाँ माँगने या पूजा-अर्चा की भोंडी लकीर पीट देने से ही मनमानी सफलता पाने का अधिकार मिल गया। यदि दैवी शक्तियाँ वस्तुतः ऐसे ही अनबूझ हों तो उन्हें भी विवेक शून्य कहा जायगा और आध्यात्म क्षेत्र में अनुशासनहीनता फैलाने, नियम मर्दाया समाप्त करने का दोषी ठहराया जाएगा।
भौतिक जगत में सस्ते में बहुमूल्य पाने का नियम नहीं है। यहां सब कुछ प्रामाणिकता और पुरुषार्थ के आधार पर खरीदा जाता है। विज्ञाजनों को अध्यात्म में भी इसी विधान प्रचलन की आशा करनी चाहिए। जेबकटी, लूटमार अनैतिकों को और जादुई कौतुक बाल-बुद्धि को आकर्षित करते है। विज्ञजन इसे अवनुचित मानते और लाभ कम घाटा अधिक देखकर मुँह मोड़ लेते है। जिन्हें वस्तुतः अध्यात्म जगत का स्वरूप समझने में रुचि हो उन्हें उसके नियम-निर्धारणों को भी समझना चाहिए। विज्ञान यहीं किया है और श्रेय लिया है। पुरातन अध्यात्म का स्वरूप ऐसा ही था। उनमें तत्वदर्शन का महत्त्व समझा जाता था।
ब्रह्म-विद्या के नीति-नियमों को अपनाया जाता था, अभीष्ट प्रगति के लिये तदनुरूप साधना का मूल्य चुकाया जाता था। आज तो सबकुछ उलटा ही उलटा दीखता है। भ्रम-जंजाल सघन अंधकार की तरह इतना गहन है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता। लूटमार के लिए आतुर लोग अपने को भक्त कहते है और भक्ति के प्रतिफल का दावेदार मानते हैं। मनोकानमा पूर्ण न होने पर गाली देने से लेकर अश्रद्धा व्यक्त करने में उग्र रूप धारण करते देखे हैं। प्रचलित मान्यताओं को क्या कहा जाए ? उनके प्रचलन का क्या आधार खोजा जाए ? और उन्हें अपनाने वालों को बुद्धिमान, अनुबुद्धिमान क्या कहा जाए ? कुछ कहते नहीं बनता समझ कुछ काम ही नहीं करती।
अध्यात्म-क्षेत्र सूक्ष्म, अदृश्य, अविज्ञात जैसा लगता भर है। वस्तुतः वह भी अपने स्थान पर भौतिक जगत की तरह सुस्थिर और सुव्यवस्थित है। आँखों से न दीख पड़ने पर भी उसकी सत्ता सन्देह से परे है। शरीर दीखता है, प्राण नहीं। प्राण की नापतौल न हो तो इन्द्रिय शक्ति से हो सकती है और न किसी यन्त्र-उपकरण से, फिर भी उसकी सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व भी ऐसा ही है, जिसका यांत्रिक पर्यवेक्षण नहीं हो सकता। इतने पर भी वह पुरातन की तरह आधुनिक निर्धारणों से ही अपने अस्तित्व का परिचय देता है। विचारों की इच्छा-शक्ति, साहस आदि अदृश्य प्रसंगों की विशिष्टता एवं परिणति से कोई इन्कार नहीं कर सकता। यह अदृश्य जगत के अनेकानेक प्रमाणों में से कुछ है। यह क्षेत्र अव्यवस्थित नहीं है। अणुओं और तरंगों से विनिर्मित पदार्थ जगत् की तरह ही उसका भी सुनिश्चित और व्यापक अस्तितिव है, उसकी भी गति-विधियाँ चलती और प्रतिक्रियाएँ होती है।
अस्तु उसके भी अपने सुनिश्चित नियम, विधान औऱ अनुशासन होने का तथ्य भी स्वीकारना होगा। अन्धेरगर्दी, अराजकता, मनमानी अदृश्य जगत में भी न चलती है और न ही टिकती-ठहरती है। अतः अदृश्य जगत के सम्बन्ध में भी यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि वहाँ किसी नियम अनुबन्ध की आशा नहीं है। ‘अँधेर नगरी बेबूझ राजा’ की युक्ति सुनी तो जाती है, पर देखी कहीं नहीं गई। हर क्षेत्र के अपने-अपने नियम, विधान, अनुशासन है। अध्यात्म क्षेत्र भी उसका अपवाद नहीं हो सकता। सृष्टा की इस समूची कृति में कहीं भी अव्यवस्था नहीं है। यहाँ तक कि भूकम्प-तूफान जैसी अप्रत्याशित यदा-कदा होने वाली घटनाएँ भी प्रकृति के सुनिश्चित नियमों के अन्तर्गत ही होती है, भले ही उन्हें हम अभी पूरी तरह न समझ पाये हों।
अध्यात्म क्षेत्र का तत्वज्ञान, विधान, स्वरूप, और प्रतिफल समझने वालों को इस तथ्य को हृदयंगम करना ही होगा कि इस क्षेत्र के सुनिश्चित निर्धारण और अनुशासन सृष्टा ने बनाये और सुरक्षित रखे है। उन्हीं को समझाने-अपनाने से काम चलेगा। अँधेरे में ढेला फेंकते रहने वाले अपना परिश्रम निरर्थक गँवाते है। निशाना साधने में सफलता उन्हें नहीं मिल पाती। अन्धविश्वासों और मूढ़-मान्ताओं के आधार पर तथ्यों को सही मान लेने की भ्रान्ति किसी भी विवेकशील को नहीं अपनानी चाहिए। आहार क्षेत्र में मशालों का प्रचलन, जलाने, भूनने का रिवाज सर्वत्र प्रचलित है। नमक और शक्कर के बिना ग्रास गले से उतरते ही नहीं, फिर भी नमक (सोडियम क्लोराइड) एक सीधा विष है और उसका प्रभाव आरोग्य के लिए विघातक हो सकता है-इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता है। सिगरेट, चाय से लेकर शराब तक के अनेकानेक नशे होठों से बुरी तरह सट गये है। लोक प्रचलन में इनकी धूम है, फिर भी उनके औचित्य का समर्थन किसी भी प्रकार नहीं किया जा सकता। सामाजिक क्षेत्र में रंगभेंद, वर्णभेद, लिंगभेद आदि के नाम पर चलने वाली विषमता न जाने कब से चली आ रही है और न जाने कब तक चलती रहेगी।
खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेइमान बनाती हैं- इसे कौन नहीं जानता, फिर भी यह कुप्रचलन शिक्षितों और अशिक्षितों सामान रूप से अपनाते हुए आये दिन दीखते है। ऐसी अनेकानेक मूढ़ मान्यताओं में एक यह भी है कि अदृश्य जगत का कोई विधान-अनुशासन नहीं है उसमें कोई भी चमत्कार किसी भी विडम्बना के सहारे कुछ भी लाभ अर्जित कर सकने में असमर्थ हो सकता है। इस भ्रान्ति के अध्यात्म क्षेत्र में एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न कर दी है। लोगों ने मनमानी कल्पनाये की हैं, मनमाने अर्थ लगाये है। और मनमाने हथकड़े अपनाएं है। किसी को भी कुछ भी कर बैठने की छूट है। रस्सा किसी के हाथ पैरों में बंधा है, विचार खूटे से नहीं कहीं और बँधे होते है। इस छूट के रहते हुए भी प्रतिफल के सम्बन्ध में सभी अनुशासन से बँधे है। करता कोई भी कुछ भी रहे परिणाम के सम्बन्ध में नियति-व्यवस्था पर ही आश्रित रहना पडेगा। कुछ करने वालो को कुछ भी परिणाम भुगतने को तैयार रहना चाहिए। सुनिश्चित परिणामों की आशा करने वालों को गणितीय सिद्धांत समझने ही नहीं अपनाने भी होंगे।
अध्यात्म क्षेत्र की आश्चर्यजनक, अवास्तविक और भयावह मान्यता यह है कि कुछ जन्त्र-मन्त्र की टन्ट-घन्ट करने से देवताओं के जाल में जकड़ा और मनमर्जी से मनोकामानायें पूरी करने के लिए विवश किया जा सकता है। इस भ्रम जाल में मनुष्य जाति को बेहतर भटकाया है। ठोकरों पर ठोकर, असफलताओं पर असफलता प्राप्त करते रहने पर भी न जाने यह मान्यता क्यों नहीं हटती कि बिना मूल्य कम मूल्य में उच्चस्तरीय सम्पदायें, सफलतायें प्राप्त कर सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है। देवताओं का न जाने क्यों लोगों ने इतना हेय स्तर मान लिया है कि किसी की पात्रता, प्रामाणिकता परखे बिना मात्र पूजा उपचार के अथवा ऐसे ही गिड़गिड़ाने, नाक रगड़ने के बदले माँगे हुए वरदान बरसाने के लिए तैयार बैठे रहते है हैं।, यदि वस्तुतः ऐसा होता तो उसे अदृश्य जगत की अराजकता, अन्धेरगर्दी के अतिरिक्त और क्या नाम दिया जाता। मनुहार पात्रता, पराक्रम की कोई आवश्यकता न समझी जाए, मात्र छलभरी मनुहार ही अपनाने भर से उल्लू सीधा होता रहे तो उसे क्या कहा और समझा जाय यह विज्ञजनों का विचारणीय विषय है।
पूजा की जादुई क्षमता, गिड़गिड़ाने भर से मनचाही सम्पदा किस आधार पर सही मानी जाती है इसका कोई तुक किसी भी प्रकार नहीं बैठता। देव प्रतिमाओं की दर्शन झाँकि करते-फिरते और उन पर फल पत्ते चढ़ाने वाले न जाने उस नगण्य से क्रिया कौतुक के बदले क्या-क्या मनौती मानाते है। तथाकथित संत महात्माओं के दर्शन भर करने के लिए आतुर लोग तत्लदर्शन से सर्वधा अपरिचित प्रतीत होते है। वे आँखों से छवि देखने भर को ही दर्शन मान बैठे है और इतने भर से अपनी भक्ति भावना का परिचय प्रस्तुत करते है मनचाहे वरदान पाने की उपेक्षा करते है। इस मान्यता के पीछे क्या सिद्धान्त काम करता होगा। यह खोज करना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। दर्शन-झाँकी करने-भर से दैवी अनुग्रह बरसने लगे तो इसका अर्थ यही होगा कि आत्म परिष्कार जीवन शोधन, तप साधन जैसे कष्ट साध्य प्रतिपादन करने और वैसा कराने के लिए कहने वाले नितान्त मूर्ख है। जो काम चुटकी बजाते बिना किसी श्रम-त्याग के, उथली विडम्बनायें अपनाने भर से पूरा हो सकता है उसके लिए कोई कष्ट साध्य रीति-नीति अपनाने के झंझट में क्यों पडे़गा ?
मनुहार करने भर से दैवी अनुकम्पा बरसने लगने की मान्यता बाल-बुद्धि की परिचायक है। लेने वाले के हिस्से में ही सारी चतुरता नहीं आई, कुछ तो परख देने वालों में भी होती है। अपनी सुयोग्य कन्या कोई किसी भी ऐरे-गैरे याचक के पल्ले बाँधने और माँगने वालों की मनोकामना पूरी करने के लिए तैयार नहीं होता है ? फिर दैवी अनुकम्पा का क्षेत्र ही क्यों ऐसा माना जाए कि वहाँ माँगने या पूजा-अर्चा की भोंडी लकीर पीट देने से ही मनमानी सफलता पाने का अधिकार मिल गया। यदि दैवी शक्तियाँ वस्तुतः ऐसे ही अनबूझ हों तो उन्हें भी विवेक शून्य कहा जायगा और आध्यात्म क्षेत्र में अनुशासनहीनता फैलाने, नियम मर्दाया समाप्त करने का दोषी ठहराया जाएगा।
भौतिक जगत में सस्ते में बहुमूल्य पाने का नियम नहीं है। यहां सब कुछ प्रामाणिकता और पुरुषार्थ के आधार पर खरीदा जाता है। विज्ञाजनों को अध्यात्म में भी इसी विधान प्रचलन की आशा करनी चाहिए। जेबकटी, लूटमार अनैतिकों को और जादुई कौतुक बाल-बुद्धि को आकर्षित करते है। विज्ञजन इसे अवनुचित मानते और लाभ कम घाटा अधिक देखकर मुँह मोड़ लेते है। जिन्हें वस्तुतः अध्यात्म जगत का स्वरूप समझने में रुचि हो उन्हें उसके नियम-निर्धारणों को भी समझना चाहिए। विज्ञान यहीं किया है और श्रेय लिया है। पुरातन अध्यात्म का स्वरूप ऐसा ही था। उनमें तत्वदर्शन का महत्त्व समझा जाता था।
ब्रह्म-विद्या के नीति-नियमों को अपनाया जाता था, अभीष्ट प्रगति के लिये तदनुरूप साधना का मूल्य चुकाया जाता था। आज तो सबकुछ उलटा ही उलटा दीखता है। भ्रम-जंजाल सघन अंधकार की तरह इतना गहन है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता। लूटमार के लिए आतुर लोग अपने को भक्त कहते है और भक्ति के प्रतिफल का दावेदार मानते हैं। मनोकानमा पूर्ण न होने पर गाली देने से लेकर अश्रद्धा व्यक्त करने में उग्र रूप धारण करते देखे हैं। प्रचलित मान्यताओं को क्या कहा जाए ? उनके प्रचलन का क्या आधार खोजा जाए ? और उन्हें अपनाने वालों को बुद्धिमान, अनुबुद्धिमान क्या कहा जाए ? कुछ कहते नहीं बनता समझ कुछ काम ही नहीं करती।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book