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आचार्य श्रीराम शर्मा >> धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं,पूरक हैं

धर्म और विज्ञान विरोधी नहीं,पूरक हैं

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4192
आईएसबीएन :00000

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धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक

Dharm Aur Vigyan Virodhi nahin Poorak Hain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संप्रदाय कलेवर है- धर्म आत्मा

धर्म और विज्ञान दोनों ही मानव जाति की अपने-अपने स्तर की आवश्यकता है। दोनों एक-दूसरे को अधिक उपयोगी बनाने में भारी योगदान दे सकते हैं। जितना सहयोग एवं आदान-प्रदान संभव हो उसके लिए द्वार खुला रखा जाए, किंतु साथ ही यह भी ध्यान रखा जाए कि दोनों का स्वरुप और कार्य-क्षेत्र एक-दूसरे से भिन्न हैं। इसलिए वे एक-दूसरे पर अवलंबित नहीं रह सकते और न ही ऐसा हो सकता है कि एक का समर्थन पाए बिना दूसरा अपनी उपयोगिता में कमी अनुभव करे।

शरीर भौतिक है, उसके सुविधा-साधन भौतिक विज्ञान के सहारे जुटाए जा सकते हैं, आत्मा चेतन है, उसकी आवश्यकता धर्म के सहारे उपलब्ध हो सकेगी। यह एक तथ्य और ध्यान रखने योग्य है कि परिष्कृत धर्म का नाम आध्यात्म भी है और आत्मा के विज्ञान-अध्यात्म का उल्लेख अनेक स्थानों पर धर्म के रूप में भी होता रहा है, अस्तु उन्हें पर्यायवाचक भी माना जा सकता है।
 
पिछले दिनों भ्रांतियों का दौर रहा और उसमें कुछ ऐसे भी प्रसंग आए हैं, जिनमें मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र मान लिया गया है। धर्म और विज्ञान के परस्पर विरोधी होने का विवाद भी उसी स्तर का है। धार्मिक क्षेत्र में समझा जाता रहा है कि विज्ञान धर्म विरोधी है। वह श्रद्धा को काटता है, परोक्ष जीवन पर अविश्वास व्यक्त करता है। मनुष्य को यंत्र समझता है और उसके सुसंचालन के लिए भौतिक सुविधाओं का संवर्धन ही पर्याप्त मानता है। प्रकृति ही उसके लिए सब कुछ है। आत्मा और परमार्थ के प्रति उसका अविश्वास है। अस्तु उसका उपार्जन भर ग्राह्य हो सकता है। प्रतिपादन को तो निरस्त ही करना चाहिए अन्यथा मनुष्य आस्था रहित बन जायेगा।

विज्ञान क्षेत्र से धर्म पर यह आक्षेप लगाया जाता रहा है कि वह कपोल कल्पनाओं और अंध विश्वासों पर आधारित है। किंवदंतियों को इतिहास और उक्तियों को प्रमाण मानता है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने से कतराता है। अस्तु उसकी नींव खोखली है। धर्म, श्रद्धा एक ऐसा ढकोसला है, जिसकी आड़ में धूर्त ठगते और मूर्ख ठगाते रहते हैं। धर्म संप्रदायों ने मानवी एकता पर भारी आघात पहुँचाया है। पूर्वाग्रह, हठवाद एवं पक्षपात का ऐसा वातावरण उत्पन्न किया है, जिसमें अपनी मान्यता सही और दूसरो को गलत सिद्ध करने का अहंकारी आग्रह भरा रहता है। अपनी श्रेष्ठता दूसरे की निकृष्टता ठहराने, अपनी बात दूसरों से बलपूर्वक मनवाने के लिए धर्म के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती रही हैं। अस्तु उससे दूर ही रहना चाहिए।

इन आक्षेपों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि विवाद आक्रोश का कारण गहरा नहीं उथला है। विज्ञान ने धर्म का तात्पर्य साप्रदायिक कट्टरता को लिया, जिसमें अपने पक्ष की परंपराओं को ही सब कुछ माना गया है। इसी प्रकार धर्म ने विज्ञान का एक ही पक्ष देखा है, जिसमें उसे आस्थाओं का उपहास उड़ाते पाया जाता है। यह दोनों पक्षों के अधूरे और उथले रूप हैं। वस्तुतः उन दोनों की उपयोगिता असंदिग्ध है। दोनों मनुष्य जाति के लिए समान रुप से उपयोगी और ठोस तथ्यों पर आधारित हैं। ऐसी दशा में उनमें परस्पर सहयोग और आदान प्रदान होना चाहिए था। ऐसे विवाद की कोई गुंजायश है नहीं, जिसमें दोनों एक दूसरे को जन कल्याण के पथ पर चलने वाले मित्र सहयोगी के स्थान पर विरोधी और प्रतिपक्षी प्रतिद्वंद्वी मानने लगें।

विज्ञान चाहता है कि धार्मिकता को प्रामाणिकता और उपयोगिता की कसौटी पर कसा जाना और खरा सिद्ध होना आवश्यक है, तभी उसको मान्यता मिलेगी। इसी प्रकार धर्म चाहता है कि विज्ञान को अपनी सीमा समझनी चाहिए और जो उसकी पहुँच से बाहर है, उसमें दखल नहीं देना चाहिए। दोनों की माँगें सही है। धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करने का पूरा पूरा अवसर है। यह तथ्य पूर्ण है। अपने पक्ष समर्थन में उसके पास इतने तर्क और प्रमाण हैं कि उसकी गरिमा और स्थिरता को कोई चुनौती नहीं दे सकता। साथ ही यह भी स्वीकार किए जाने की आवश्यकता है कि धर्म की मूल नीति से सर्वथा भिन्न जो भ्रांतियाँ और विकृतियाँ इस क्षेत्र में घुस पड़ी हैं, उन्हें सुधारा और हटाया जाना आवश्यक है। ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की नीति अपनाना और जो चल रहा है, उसी को पत्थर की लकीर मानकर अड़े रहना अनुचित है। धर्म का तथ्य शाश्वत है किंतु प्रथा परंपराओं के जिस प्रकार समय-समय पर सुधार होते रहे हैं, वैसे ही इन दिनों भी उसमें बहुत कुछ सुधार-परिवर्तन होने की गुंजायश है।
 
विज्ञान को समझना चाहिए कि धर्म शब्द संप्रदाय के अर्थ में ही न लिया जाए। सांप्रदायिक कट्टरता और निहित स्वार्थों द्वारा फैलाई गई मूढ़ मान्यता के सुधार का विरोध किया जाए। धर्म के उस पक्ष को विवाद से बचा दिया जाए, जो नीति एवं आदर्श के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसके सहारे मनुष्य आदिमकाल से बढ़ते-बढ़ते इस भाव संपन्नता का महत्त्व समझ सकने की स्थिति में आ पाया है।

संत विनोबा का कथन है-‘‘धर्म और राजनीति का युग बीत गया, अब उनका स्थान अध्यात्म और विज्ञान ग्रहण करेगा।’’ इस भविष्य कथन में यथार्थता है। संसार का सदा से यही नियम रहा है कि हर वस्तु हर स्थिति और हर मान्यता तभी तक जीवित रहती है, जब वह अपने को उपयोगिता की दृष्टि से खरी बनाए रखे। विकृतियाँ बढ़ जाने पर किसी समय की अच्छी वस्तु भी बिगड़कर  अनुपयोगी बन जाती है, तब उसे हटाकर उठाकर किसी कूड़े के ढेर में सड़ने गलने के लिए पटक दिया जाता है।

विनोबा का धर्म शब्द से अभिप्राय संप्रदाय से है। धर्म और संप्रदाय का अंतर स्पष्ट है। नीति और सदाचरण को धर्म कहा जाता है, वह सदा से शाश्वत एवं सनातन है। उसकी उपयोगिता पर न उँगली उठाने की गुंजायश है और न संदेह करने की। वह न सड़ता है और न बिगाड़ने से बिगड़ता है। चोर भी अपने यहाँ ईमानदार नौकर रखना चाहते हैं। निष्ठुर भी अपने साथ उदार व्यवहार की अपेक्षा करता है। व्यभिचारी को भी अपनी पुत्री के लिए सदाचारी वर चाहिए। झूठा मनुष्य भी सच्चाई का समर्थन करता है। इससे स्पष्ट है कि जिस अर्थ में शास्त्रों ने धर्म का प्रतिपादन किया है, उसे कोई भी चुनौती नहीं दे सकता। धर्म कहकर जिसका उपहास उड़ाया जाता और अनुपयोगी ठहराया जाता है, वह विकृत संप्रदायवाद ही है। आरंभ में संप्रदायों की संरचना भी सदुद्देश्य से ही हुई थी और उसमें बदली हुई परिस्थितियों में परिवर्तन की गुंजायश रखी गई थी। कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं। विनोबा जी ने भी इस तथाकथित ‘धर्म’ के अगले दिनों पदच्युत होने की बात कही है। परिष्कृत धर्म को अध्यात्म कहा गया है। धर्म का स्थान अध्यात्म ग्रहण करेगा, इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि धर्म के नाम पर चल रही विकृत सांप्रदायिकता के स्थान पर उस सनातन धर्म की प्रतिष्ठापना होगी : जो नीति, सदाचार, न्याय और औचित्य पर अवलंबित है। नवयुग की जाग्रत् विवेकशीलता ऐसा परिवर्तन करके ही रहेगी।

इस प्रकार राजनीति से पदच्युत होने का अर्थ शासनतंत्र की समाप्ति या अराजकता नहीं, वरन् दलगत सत्तनीति का अवमूल्यन है। यहाँ कुटिलता की कूटनीति की भर्त्सना का संकेत है। विज्ञान का अर्थ विनोबा जी की दृष्टि में विशिष्ट ज्ञान—‘विवेक’ है। विज्ञान का लक्ष्य है—सत्य की शोध। यथार्थता के साथ दूरदर्शिता एवं सद्भावना के जुड़ जाने में विवेक दृष्टि बनती है। भविष्य में इसी नीति में शासन सत्ता का सूत्र संचालन होगा। विज्ञान से तात्पर्य विनोबा जी ने भौतिकी नहीं लिया है।
विज्ञान से संत विनोबा का जो प्रयोजन है, उसे हम आधुनिक मनीषियों की कुछ व्याख्याओं के आधार पर और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझ सकते हैं।
 
‘कामन सेन्स ऑफ लाइफ’ ग्रंथ के लेखक जेकोव ब्रोनोवस्की ने विज्ञान को चिंतन का एक समग्र दर्शन माना है और कहा है-‘‘जो चीज काम दे, उसकी स्वीकृति और जो काम न दे, उसकी अस्वीकृति ही विज्ञान है।’’ इस संदर्भ में वे अपनी बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं-‘‘विज्ञान की यही प्रेरणा है कि हमारे विचार वास्तविक हों, उनमें नई-नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने की क्षमता हो, निष्पक्ष हो तो वह विचार भले ही जीवन के, संसार के किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो विज्ञान माना जायेगा। ऐसी विचारधारा वैज्ञानिक ही कही जायेगी।’’

वैज्ञानिक और राजनीतिज्ञ की तुलना करते हुए –
‘प्रिसिशन ऑफ साइंस एंड कन्फ्यूजन ऑफ पोलिटिक्स’ पुस्तक के लेखक जेम्स रस्टन कहते हैं-‘‘वैज्ञानिक अपने साधनों की सामर्थ्य जानता है-उन पर नियंत्रण रखता है। वह अपने साध्य का, साधनों का निर्धारण तथ्यों के आधार पर करता है। इसके बाद निर्धारित प्रक्रिया का संचालन कुशल प्रशिक्षित लोगों के हाथ सौंपता है। राजनीतिज्ञ की गतिविधियाँ इससे उलटी होती हैं-उसे न तो शक्ति की थाह लेना है और न साधनों की। उसके निर्णय न तो तथ्यों पर आधारित होते हैं और न दूरदर्शिता पर। प्रायः दंभ, अहंकार, द्वेष, सीमित स्वार्थ और सनक ही राजनीति पर छाए रहते हैं, इसलिए वह जुआरी की तरह अंधे दाव लगाता है और अंधे परिणाम ही सामने उपस्थित पाता है। राज्य सत्ता सदा क्रिया कुशल और दूरदर्शी लोगों के ही हाथ में नहीं होती वरन् ऐसे लोगों के हाथ में भी होती है, जो उसके सर्वथा अयोग्य होते हैं।

 

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