आचार्य श्रीराम शर्मा >> ईश्वर और उसकी अनुभूति ईश्वर और उसकी अनुभूतिश्रीराम शर्मा आचार्य
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ईश्वर और उसकी अनुभूति
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ईश्वर और उसकी अनुभूति मानव जीवन और ईश्वर विश्वास,
महाभारत का युद्ध प्रारंभ होने में कुछ दिन ही शेष थे। कौरव और पाण्डव
अपनी-अपनी तैयारियाँ कर रहे थे युद्ध के लिए। अपने-अपने पक्ष के राजाओं को
निमंत्रित कर रहे थे। भगवान श्री कृष्ण को निमन्त्रित करने के लिए अर्जुन
और दुर्योधन दोनों एक साथ पहुंचे। भगवान ने दोनों के समक्ष अपना चुनाव
प्रश्न रखा। एक ओर अकेले शस्त्रहीन श्रीकृष्ण और दूसरी ओर श्रीकृष्ण की
सारी सशस्त्र सेना-इन दोनों में से जिसे जो चाहिए वह माँग ले। दुर्योधन ने
सारी सेना के समक्ष निरस्त्र कृष्ण को अस्वीकार कर दिया; किन्तु अपने पक्ष
में अकेले निरस्त्र भगवान् कृष्ण को देखकर अर्जुन मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न
हुआ। अर्जुन ने भगवान् को अपना सारथी बनाया। भीषण संग्राम हुआ। अन्ततः
पांडव जीते और कौरव हार गये। इतिहास साक्षी है कि बिना लड़े भगवान श्री
कृष्ण ने अर्जुन का सारथी मात्र बनकर पाण्डवों को जिता दिया और शक्तिशाली
सेना प्राप्त करके भी कौरव को हारना पड़ा। दुर्योधन ने भूल की जो स्वयं
भगवान् के समक्ष सेना को ही महत्त्वपूर्ण समझा और सैन्य बल के समक्ष
भगवान, को ठुकरा दिया।
किन्तु आज भी हम दुर्योधन बने हुए हैं और निरन्तर यही भूल करते जा रहे हैं। संसारी शक्तियों, भौतिक सम्प्रदायों के बल पर ही जीवन संग्राम में विजय चाहते हैं, ईश्वर की उपेक्षा करके। हम भी तो भगवान् और उनकी भौतिक स्थूल शक्ति दोनों में से दुर्योधन की तरह स्वयं ईश्वर की उपेक्षा कर रहे हैं और जीवन में संसारी शक्तियों को प्रधानता दे रहे हैं; किन्तु इससे तो कौरवों की तरह असफलता ही मिलेगी।
वस्तुतः जीत उन्हीं की होती है जो भौतिक शक्तिओं तक ही सीमित न रह कर परमात्मा को अपने जीवनरथ का सारथी बना लेते हैं। उसे ही जीवन का सम्बल बनाकर मनुष्य इस जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त कर लेता है। हम देखते हैं कि ईश्वर को भूलकर संसार का तानाबाना हम बुनते रहते हैं, अपने मन में हवाई किले बनाते है, कल्पना की उड़ान से दुनिया का ओर-छोर नापने की योजना बनाते हैं; किन्तु हमें पग-पग पर ठोकरे खानी पड़ती हैं, स्वप्रों का महल एक झोके में धराशायी हो जाता है, कल्पना के पर कट जाते हैं, सब कुछ बिगड़ जाता है, अन्त में पछताना पड़ता है। दुर्योधन, रावण, हिरण्यकशिपु, सिकन्दर आदि बड़ी-बड़ी हस्तियाँ पछताती चली गईं। भगवान के संसार में रहकर भगवान को भूलने और केवल शक्तियों को प्रधानता देने से और क्या मिल सकता है ? संसार के रणांगण में उतर कर हम इतने अन्धे हो जाते हैं कि इस सारी सृष्टि के मालिक का आशीर्वाद लेना तो दूर उसका स्मरण तक हम नहीं करते और भौतिक स्थूल संसार को ही प्रधानता देकर जूझ पड़ते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति चाहे कितनी भी सफलता क्यों प्राप्त कर लें उनकी विजय संदिग्ध ही रहती है।
आज मानव जीवन की जो करुण एवं दयनीय स्थिति है, जो सन्तान दुःख, असफलताएँ मिल रही हैं, इन सबका मूल कारण ईश्वर विश्वास की कमी, ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करना और एकमात्र भौतिक सांसारिक शक्तियों को ही महत्त्व देना।
ईश्वर विश्वास के लिए श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भौतिक जीवन तथा शारीरिक क्षेत्र में प्रेम की सीमा होती है। जब यही प्रेम आन्तरिक अथवा आत्मिक क्षेत्र में काम करने लगता है, तो उसे श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा ही ईश्वर-विश्वास का मूल स्रोत है एवं श्रद्धा के माध्यम से ही उस विराट की अनुभूति सम्भव है। श्रद्धा समस्त जीवन नैया की पतवार को ईश्वर के हाथों सौंप देती है। जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय ! भय तो उसी को होगा जो अपने कमजोर हाथ पाँव अथवा संसार की शक्तियों पर भरोसा करके चलेगा। जो प्रभु का आंचल पकड़ लेता है, वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन से प्रभु का प्रकाश भर जाता है। तब उसके जीवन व्यापार का प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है। वह स्वयं परम पिता का युवराज हो जाता है। फिर उसके सक्षम समस्त संसार फीका और निस्तेज, बलहीन क्षुद्र जान पड़ता है; किन्तु यह सब श्रद्धा से ही सम्भव है।
परमात्मा की सत्ता, उसकी कृपा पर अटल-विश्वास रखना ही श्रद्धा है। ज्यों-ज्यों इसका विश्वास होता जाता है त्यों-त्यों प्रभु का विराट् स्वरूप सर्वत्र भासमान होने लगता है। हमारे भीतर बाहर चारों ओर श्रद्धा के माध्यम से ही हमें परमात्मा-का अवलम्बन लेना चाहिये। श्रद्धा से ही उस परमात्व-तत्व पर जो हमारे बाहर भीतर व्याप्त है विश्वास करना मुमुक्षु के लिए आवश्यक है और सम्भव भी है।
स्थूल जगत का समस्त कार्यव्यापार ईश्वरेच्छा एवं उसके विधान के अनुसार चल रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी इस तथ्य को एक स्वर स्वीकार भी करते हैं। कहने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, फिर भी यह निश्चित ही है कि यह सारा कार्य-व्यापार किसी अदृश्य सर्वव्यापक सत्ता द्वारा चल रहा है। हमारा जीवन भी ईश्वरेच्छा का ही रूप है। अतः जीवन में ईश्वर विश्वास के साथ-साथ समस्त कार्य-व्यापार में उसकी इच्छा को ही प्रधानता देनी चाहिये। वह क्या चाहता है इसे समझना और उसकी इच्छानुसार ही जीवनरण में जूझना आवश्यक है। इसी तथ्य का संकेत करते हुए भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा था।–
‘‘तस्मात् सर्वकालेषु मामनुस्मर युध्यश्च।’’
‘‘हे अर्जुन ! तू निरन्तर मेरा स्मरण करता हुआ मेरी इच्छानुरास युद्ध कर।’’ परमात्मा सभी को यही आदेश देता है। ईश्वर का नाम लेकर उसकी इच्छा को जीवन में परिणित होने देकर जो संसार के रणांगण में उतरते हैं उन्हें अर्जुन की ही तरह निराशा का, असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वरेच्छा को जीवन संचालन का केन्द्र बनाने वाले की हर साँस से यही आवाज निकलती रहती है ‘‘हे ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ ‘ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो’ जीवन का यही मूलमंत्र है। महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी हैं। स्वामी दयानन्द ने अन्तिम बार जहर खाते हुए भी कहा ‘‘ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ महात्मा गाँधी ने गोली खाकर कहा ‘‘हे राम तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ ईसा को क्रूस पर चढ़ाया गया तब उन्होंने भी प्रभु इच्छा को ही पूर्ण होना बताया।’’ जीवन में हर साँस, हर धड़कन में हम प्रभु की इच्छा को ही प्रधान समझें। जीवन को प्रभु के हाथों सौंप दें तो अन्त में भी उसके पावन अंक में ही स्थान मिलेगा साथ ही हमारा भौतिक जीवन भी दिव्य एवं महान् बन जाएगा। भगवान् कहते हैं-
‘‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।’’-गीता 9-34,18-65
‘‘मेरा भक्त बन जा सारे कर्म अकर्म मुझे अर्पित करदे, मैं तुझे सर्व सुखों से पार कर दूंगा।’’
‘‘मेरा भक्त बन जा सारे कर्म अकर्म मुझे अर्पित कर दे, मैं तुझे सर्व दुखों से पार कर दूँगा।’’
अहंकार का पुतला मनुष्य प्रभु की इच्छा को, उनकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करता और अपने ही निर्बल कन्धों पर अपना बोझ उठाये फिरता है। इतना ही नहीं दुनिया का भार उठाने का दम भरता है। यही कारण है कि निराशा, चिन्ताएँ, दुःख, रोग, असफलताएँ उसे घेरे हुए हैं और रात दिन व्याकुल-सा सिर धुनता हुआ मनुष्य अत्यन्त परेशान-सा दिखाई देता है। अहंकार वश प्रभु की इच्छा के विपरीत चलकर कभी सुख-शान्ति मिल सकती है ? नहीं कदापि नहीं। हमें अपने हृदय मन्दिर में से अहंकार वासना, राग-द्वेष को निकाल कर रिक्त करना होगा और ईश्वरेच्छा को सहज रूप में काम करने देना होगा तभी जीवन यात्रा सफल हो सकेगी।
ईश्वर के प्रति विश्वास, श्रद्धा उसकी इच्छा को जो समस्त स्थूल और सूक्ष्म संसार का संचालन कर रही है, सहज रूप में काम करने देना जीवन के मूलमन्त्र हैं।
मनुष्य की शक्ति अत्यन्त अल्प है वह अहंकार की शक्ति है। बड़े-बड़े कौरव, बाणासुर, रावण, हिरण्यकशिपु, अनेकों असुरों ने ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी थी अपने सांसारिक बल और अहंकार बल से; किन्तु अन्त में पछताते गये। साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है। अपने जीवन की बागडोर उनके हाथों देकर निश्चित हो जाने वाले ही उनके विराट रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो जाते हैं। हमें सचेत होकर अपना रथ भगवान के हाथों में देना है। परमपिता के संरक्षण में हमें अपनी विजय यात्रा पर चलने को तैयार हो जाना है। हमारी प्रत्येक साँस और धड़कन में प्रभु का अमर संगीत गूँजता रहे, हमारे हृदय मन्दिर में विराजमान प्रभु हमारे जीवन रथ का संचालन करते रहें और अन्त में उनके पावन अंक में ही हमें स्थान मिले ऐसी उनसे प्रार्थना है। वे ही हमारे बाहर-भीतर एक रस से व्याप्त हो रहे हैं।
किन्तु आज भी हम दुर्योधन बने हुए हैं और निरन्तर यही भूल करते जा रहे हैं। संसारी शक्तियों, भौतिक सम्प्रदायों के बल पर ही जीवन संग्राम में विजय चाहते हैं, ईश्वर की उपेक्षा करके। हम भी तो भगवान् और उनकी भौतिक स्थूल शक्ति दोनों में से दुर्योधन की तरह स्वयं ईश्वर की उपेक्षा कर रहे हैं और जीवन में संसारी शक्तियों को प्रधानता दे रहे हैं; किन्तु इससे तो कौरवों की तरह असफलता ही मिलेगी।
वस्तुतः जीत उन्हीं की होती है जो भौतिक शक्तिओं तक ही सीमित न रह कर परमात्मा को अपने जीवनरथ का सारथी बना लेते हैं। उसे ही जीवन का सम्बल बनाकर मनुष्य इस जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त कर लेता है। हम देखते हैं कि ईश्वर को भूलकर संसार का तानाबाना हम बुनते रहते हैं, अपने मन में हवाई किले बनाते है, कल्पना की उड़ान से दुनिया का ओर-छोर नापने की योजना बनाते हैं; किन्तु हमें पग-पग पर ठोकरे खानी पड़ती हैं, स्वप्रों का महल एक झोके में धराशायी हो जाता है, कल्पना के पर कट जाते हैं, सब कुछ बिगड़ जाता है, अन्त में पछताना पड़ता है। दुर्योधन, रावण, हिरण्यकशिपु, सिकन्दर आदि बड़ी-बड़ी हस्तियाँ पछताती चली गईं। भगवान के संसार में रहकर भगवान को भूलने और केवल शक्तियों को प्रधानता देने से और क्या मिल सकता है ? संसार के रणांगण में उतर कर हम इतने अन्धे हो जाते हैं कि इस सारी सृष्टि के मालिक का आशीर्वाद लेना तो दूर उसका स्मरण तक हम नहीं करते और भौतिक स्थूल संसार को ही प्रधानता देकर जूझ पड़ते हैं। ऐसे अहंकारी व्यक्ति चाहे कितनी भी सफलता क्यों प्राप्त कर लें उनकी विजय संदिग्ध ही रहती है।
आज मानव जीवन की जो करुण एवं दयनीय स्थिति है, जो सन्तान दुःख, असफलताएँ मिल रही हैं, इन सबका मूल कारण ईश्वर विश्वास की कमी, ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा करना और एकमात्र भौतिक सांसारिक शक्तियों को ही महत्त्व देना।
ईश्वर विश्वास के लिए श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भौतिक जीवन तथा शारीरिक क्षेत्र में प्रेम की सीमा होती है। जब यही प्रेम आन्तरिक अथवा आत्मिक क्षेत्र में काम करने लगता है, तो उसे श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा ही ईश्वर-विश्वास का मूल स्रोत है एवं श्रद्धा के माध्यम से ही उस विराट की अनुभूति सम्भव है। श्रद्धा समस्त जीवन नैया की पतवार को ईश्वर के हाथों सौंप देती है। जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय ! भय तो उसी को होगा जो अपने कमजोर हाथ पाँव अथवा संसार की शक्तियों पर भरोसा करके चलेगा। जो प्रभु का आंचल पकड़ लेता है, वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन से प्रभु का प्रकाश भर जाता है। तब उसके जीवन व्यापार का प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है। वह स्वयं परम पिता का युवराज हो जाता है। फिर उसके सक्षम समस्त संसार फीका और निस्तेज, बलहीन क्षुद्र जान पड़ता है; किन्तु यह सब श्रद्धा से ही सम्भव है।
परमात्मा की सत्ता, उसकी कृपा पर अटल-विश्वास रखना ही श्रद्धा है। ज्यों-ज्यों इसका विश्वास होता जाता है त्यों-त्यों प्रभु का विराट् स्वरूप सर्वत्र भासमान होने लगता है। हमारे भीतर बाहर चारों ओर श्रद्धा के माध्यम से ही हमें परमात्मा-का अवलम्बन लेना चाहिये। श्रद्धा से ही उस परमात्व-तत्व पर जो हमारे बाहर भीतर व्याप्त है विश्वास करना मुमुक्षु के लिए आवश्यक है और सम्भव भी है।
स्थूल जगत का समस्त कार्यव्यापार ईश्वरेच्छा एवं उसके विधान के अनुसार चल रहा है। वैज्ञानिक, दार्शनिक सभी इस तथ्य को एक स्वर स्वीकार भी करते हैं। कहने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं, फिर भी यह निश्चित ही है कि यह सारा कार्य-व्यापार किसी अदृश्य सर्वव्यापक सत्ता द्वारा चल रहा है। हमारा जीवन भी ईश्वरेच्छा का ही रूप है। अतः जीवन में ईश्वर विश्वास के साथ-साथ समस्त कार्य-व्यापार में उसकी इच्छा को ही प्रधानता देनी चाहिये। वह क्या चाहता है इसे समझना और उसकी इच्छानुसार ही जीवनरण में जूझना आवश्यक है। इसी तथ्य का संकेत करते हुए भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा था।–
‘‘तस्मात् सर्वकालेषु मामनुस्मर युध्यश्च।’’
‘‘हे अर्जुन ! तू निरन्तर मेरा स्मरण करता हुआ मेरी इच्छानुरास युद्ध कर।’’ परमात्मा सभी को यही आदेश देता है। ईश्वर का नाम लेकर उसकी इच्छा को जीवन में परिणित होने देकर जो संसार के रणांगण में उतरते हैं उन्हें अर्जुन की ही तरह निराशा का, असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वरेच्छा को जीवन संचालन का केन्द्र बनाने वाले की हर साँस से यही आवाज निकलती रहती है ‘‘हे ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ ‘ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो’ जीवन का यही मूलमंत्र है। महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी हैं। स्वामी दयानन्द ने अन्तिम बार जहर खाते हुए भी कहा ‘‘ईश्वर तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ महात्मा गाँधी ने गोली खाकर कहा ‘‘हे राम तेरी इच्छा पूर्ण हो।’’ ईसा को क्रूस पर चढ़ाया गया तब उन्होंने भी प्रभु इच्छा को ही पूर्ण होना बताया।’’ जीवन में हर साँस, हर धड़कन में हम प्रभु की इच्छा को ही प्रधान समझें। जीवन को प्रभु के हाथों सौंप दें तो अन्त में भी उसके पावन अंक में ही स्थान मिलेगा साथ ही हमारा भौतिक जीवन भी दिव्य एवं महान् बन जाएगा। भगवान् कहते हैं-
‘‘मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।’’-गीता 9-34,18-65
‘‘मेरा भक्त बन जा सारे कर्म अकर्म मुझे अर्पित करदे, मैं तुझे सर्व सुखों से पार कर दूंगा।’’
‘‘मेरा भक्त बन जा सारे कर्म अकर्म मुझे अर्पित कर दे, मैं तुझे सर्व दुखों से पार कर दूँगा।’’
अहंकार का पुतला मनुष्य प्रभु की इच्छा को, उनकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करता और अपने ही निर्बल कन्धों पर अपना बोझ उठाये फिरता है। इतना ही नहीं दुनिया का भार उठाने का दम भरता है। यही कारण है कि निराशा, चिन्ताएँ, दुःख, रोग, असफलताएँ उसे घेरे हुए हैं और रात दिन व्याकुल-सा सिर धुनता हुआ मनुष्य अत्यन्त परेशान-सा दिखाई देता है। अहंकार वश प्रभु की इच्छा के विपरीत चलकर कभी सुख-शान्ति मिल सकती है ? नहीं कदापि नहीं। हमें अपने हृदय मन्दिर में से अहंकार वासना, राग-द्वेष को निकाल कर रिक्त करना होगा और ईश्वरेच्छा को सहज रूप में काम करने देना होगा तभी जीवन यात्रा सफल हो सकेगी।
ईश्वर के प्रति विश्वास, श्रद्धा उसकी इच्छा को जो समस्त स्थूल और सूक्ष्म संसार का संचालन कर रही है, सहज रूप में काम करने देना जीवन के मूलमन्त्र हैं।
मनुष्य की शक्ति अत्यन्त अल्प है वह अहंकार की शक्ति है। बड़े-बड़े कौरव, बाणासुर, रावण, हिरण्यकशिपु, अनेकों असुरों ने ईश्वरीय सत्ता को चुनौती दी थी अपने सांसारिक बल और अहंकार बल से; किन्तु अन्त में पछताते गये। साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या है। अपने जीवन की बागडोर उनके हाथों देकर निश्चित हो जाने वाले ही उनके विराट रूप का दर्शन कर कृतार्थ हो जाते हैं। हमें सचेत होकर अपना रथ भगवान के हाथों में देना है। परमपिता के संरक्षण में हमें अपनी विजय यात्रा पर चलने को तैयार हो जाना है। हमारी प्रत्येक साँस और धड़कन में प्रभु का अमर संगीत गूँजता रहे, हमारे हृदय मन्दिर में विराजमान प्रभु हमारे जीवन रथ का संचालन करते रहें और अन्त में उनके पावन अंक में ही हमें स्थान मिले ऐसी उनसे प्रार्थना है। वे ही हमारे बाहर-भीतर एक रस से व्याप्त हो रहे हैं।
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