कहानी संग्रह >> माटी हो गयी सोना माटी हो गयी सोनाकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचनाएं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मैं साहित्यकार की सम्पूर्ण ईमानदारी के साथ इस स्थिति में हूँ कि कहूँ -
इन कथाओं को मैंने अपने खून से लिखा है : कलेजे के खून से, आत्मा के खून
से; और कलेजे का खून ही इन कथाओं की कला है।
इन कथाओं के पात्र मेरे लिए कभी कोरे पात्र नहीं रहे - वे मेरे निकट सदा सजीव बन्धु रहे हैं। मैंने उनके साथ बाते की हैं, मैं उनके साथ रोया-हँसा हूँ और हँसी की बात नहीं, फाँसी भी चढ़ा हूँ, जीते-जी जला भी हूँ ! शायद कोरा अहंकार ही हो, पर मुझे तो सदा यही लगा है कि वे इतिहास के कंकाल थे, मैंने उन्हें अपना रक्त-मांस देकर यो खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में भारत की नयी पीढ़ी को जब आज उन्हें भेंट कर रहा हूँ तो अपना रक्त ही तो भेंट कर रहा हूँ। इसका हर पात्र एक विशिष्ट युग का प्रतिनिधि है, प्रतीक है। मेरी शुभकामना है कि मेरे देश की नयी पीढ़ी मेरे रक्त से तरोताजा हो जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़े !
इन कथाओं के पात्र मेरे लिए कभी कोरे पात्र नहीं रहे - वे मेरे निकट सदा सजीव बन्धु रहे हैं। मैंने उनके साथ बाते की हैं, मैं उनके साथ रोया-हँसा हूँ और हँसी की बात नहीं, फाँसी भी चढ़ा हूँ, जीते-जी जला भी हूँ ! शायद कोरा अहंकार ही हो, पर मुझे तो सदा यही लगा है कि वे इतिहास के कंकाल थे, मैंने उन्हें अपना रक्त-मांस देकर यो खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में भारत की नयी पीढ़ी को जब आज उन्हें भेंट कर रहा हूँ तो अपना रक्त ही तो भेंट कर रहा हूँ। इसका हर पात्र एक विशिष्ट युग का प्रतिनिधि है, प्रतीक है। मेरी शुभकामना है कि मेरे देश की नयी पीढ़ी मेरे रक्त से तरोताजा हो जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़े !
कन्हैयालाल मिश्र
समर्पण
प्यारे राणा प्रताप,
तुम जीवन-भर जंगलों में भटके। तुम्हें न सुख मिला, न सफलता और एक दिन जंगल
में ही तुम्हारा जीवन साधारण जीवन की तरह समाप्त हो गया। तुम दिल्ली के
तख्त से समझौता कर सुख-सफलता पा सकते थे, तुमने बुद्घि की बात कभी नहीं
मानी !
प्यारे त्रात्स्की,
तुम रूस की महान क्रान्ति के पिता थे और उचित था कि लेनिन के
बाद
तुम्हीं देश की पतवार संभालते, पर तुम निर्वासित रहे, दर-दर की ठोकरें
खाते फिरे और अन्त में तुम्हारा महान् मस्तिष्क कुल्हाड़ी से चीर दिया
गया। तुम स्टालिन से समझौता कर सुख-सफलता पा सकते थे, पर बुद्धि की यह बात
तुमने कभी नहीं मानी।
मेरे प्रताप, मेरे त्रात्स्की,
तुम्हारी अ-बुद्धियों ने मुझे जीवन-भर प्रेरणा दी और मैंने बाहरी
सुख-सुविधाओं को कभी क्षण-भर भी महत्त्व नहीं दिया। तुम्हारा ऋण उतारने की
क्षमता मुझमें नहीं; मैं तो शहीदों की ये जीवन-कथाएँ श्रद्धांजलि के रूप
में तुम्हें समर्पित कर रहा हूँ।
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
परिचय के बोल
मृत्यु का अन्त है, यह उनकी राय है, जो जीते नहीं, जिन्हें जीना पड़ता है
!
मृत्यु जीवन की विवशता है, यह उनकी राय है जिन्हें और चाहे जो आए, जीना नहीं आता !
मृत्यु जीवन का मूल्य है, यह उनकी राय है, जिन्हें जीवन का ज्ञान है कि वह है क्या !
पर मृत्यु से हम अपने जीवन का पूरा मूल्य वसूल करेंगे, यह उनकी घोषणा है, जो जीवन को जीने की तरह जीते हैं।
ये ही हैं, जो मृत्यु को ठीक तरह पहचानते हैं; क्योंकि इनकी दृष्टि में मृत्यु जीवन की मित्र है और वही है जो जीवन को सच्चा जीवन बनाए।
अगले पन्नों में देश-विदेश के कुछ मानव जी-जाग रहे हैं और कोई चाहे, तो उससे वे बातचीत भी कर सकते हैं।
ये मानव, वैज्ञानिक सत्य कभी के मर चुके, पर एक आध्यात्मिक सत्य है कि आज भी वे जीवित हैं और सदा जीवित रहेंगे।
उनका सन्देश है कि मृत्यु उसे खाती है जो उससे डरता है और उसे खिलाती है, जो अपने कदमों उसके द्वार आ पुकारता है।
इस सन्देश के सुने जाने की आज आवश्यकता है।
सुने जाने की, सिनेमा के गीत की तरह नहीं, मन्त्र की तरह, जो हृदय में समाए और आचरण में आए।
मृत्यु विश्वव्यापी तत्त्व है, पर उसके सम्बन्ध में सबसे बड़ी बात भारत में ही कही है- ‘‘मनुष्य जिस तरह पुराने वस्त्र उतारकर नये पहन लेता है, उसी तरह देह छोड़कर वह दूसरी धारण करता है !’’
इस सन्देश के सुने जाने की आज गम्भीर आवश्यकता है; क्योंकि भारतीय राष्ट्र का मानस मृत्यु के भय से यों अभिभूत हो उठा है कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही कुण्ठित हो चला है।
मृत्यु का भय जीवन के मोह को जन्म देता है और जीवन का मोह आराम-सुविधा की लिप्सा को और तब मनुष्य इस तरह जीने लगता है कि बस वह एक मनुष्य है और पूरे समाज से उनका कोई सम्बन्ध नहीं उसे अपना सुख चाहिए और बस अपना ही सुख !
इसे यों कहे कि तब तक उसकी मूल वृत्ति होती है शोषण-दूसरों को खाकर पनपना और मिट जाती है उसकी मानवीय यज्ञवृत्ति कि वह दूसरों के लिए जिए और उत्सर्ग हो।
पर-दृष्टि, पर-चिन्ता ही राष्ट्रीय चरित्र है और वह न रहे, तो राष्ट्र का अस्तित्व भले ही बना रहे, व्यक्तित्व कहाँ रहेंगा !
इन कथाओं में इस व्यक्तित्व का पोषण है और यही मैं कहता हूँ कि ये कथाएँ भारत की नयी पीढ़ी के लिए एक सुन्दर उपहार हैं।
ये कथाएं इतिहास की हैं- घटित-घटनाएं हैं; मेरी कल्पना का वैभव-चमत्कार नहीं, पर क्या मैं एक ’स्टेनो’ ही हूँ कि इतिहास का ‘डिक्टेशन’ मैंने कागज पर ले लिया ?
मैं भला इस प्रश्न पर हाँ कैसे कह सकता हूँ ?
जर्मन दार्शनिक नीत्शे का एक उद्धरण युगों पहले कहीं पढ़ा था, जो इस प्रकार है-
‘‘जो भी साहित्य लिखा जाता है, उसमें मैं वही पसन्द करता हूँ जिसे आदमी अपने खून से लिखता है। हे साहित्यकार, तू अपनी रचनाएँ एक बार अपने खून से लिख। फिर तू समझेगा कि खून ही साहित्य की आत्मा है।’’
मैं साहित्यकार की सम्पूर्ण ईमानदारी के साथ इस स्थिति में हूँ कि कहूँ –इन कथाओं को मैंने अपने खून से लिखा है; कलेजे के खून से आत्मा के खून से और कलेजे का खून ही इन कथाओं की कला है।
इन कथाओं के पात्र मेरे लिए कभी कोरे पात्र नहीं रहे-वे मेरे निकट सदा सजीव बन्धु रहे हैं मैंने उनके साथ बातें की हैं, मैं उनके साथ रोया-हँसा हूँ, और हँसी की बात नहीं, फाँसी भी चढ़ा हूँ जीते जी जला भी हूँ ! शायद कोरा अहंकार ही हो, पर मुझे तो सदा यही लगा है कि वे इतिहास के (मारिसेट और सोवेज़ एक फ्रेंच कहानी के) के कंकाल थे, मैंने उन्हें अपना रक्त-मांस देकर यों खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में भारत की नई पीढ़ी को जब आज उन्हें भेंट कर रहा हूँ तो अपना रक्त ही तो भेंट कर रहा हूँ। मेरी शुभकामना है कि मेरे देश की नयी पीढ़ी मेरे इस रक्त से तरोताजा हो जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़े !
एक जरूरी बात-यों हर शीर्षक के नीचे एक पात्र है, पर हम उसे पात्र ही मान लें, तो उसकी कहानी ही पढ़ पाएँगे, उसे समझेंगे नहीं अपनाएँगे नहीं, पाएँगे नहीं !
तो हम समझें कि हर पात्र एक विशिष्ट युग का प्रतिनिधि है प्रतीक है। काँग्रेस के झण्डे के नीचे राष्ट्र ने भारत की स्वत्रन्त्रता के लिए जो बलिदान दिया; सत्यवती बहन में वही तो केन्द्रित है और भारत की स्वत्रन्त्रता के बाद उस स्वन्त्रता को स्थिर रखने के लिए जो बलिदान हुआ, भाई शोइब उसी की तो एक तस्वीर हैं, सब पात्रों को पाठक यों ही पढ़े-परखे-पहचाने !
बुधारू और पुनिया का स्कैच भाई कन्हैयालाल धूसिया ने लिखा था कि मैंने उसे अपने ढंग पर कर लिया और पुस्तक के नामकरण का श्रेय श्रीमती विद्यावती कौशल को है, पर दोनों को धन्यवाद देने की शक्ति मुझमें नहीं !
बस !
मृत्यु जीवन की विवशता है, यह उनकी राय है जिन्हें और चाहे जो आए, जीना नहीं आता !
मृत्यु जीवन का मूल्य है, यह उनकी राय है, जिन्हें जीवन का ज्ञान है कि वह है क्या !
पर मृत्यु से हम अपने जीवन का पूरा मूल्य वसूल करेंगे, यह उनकी घोषणा है, जो जीवन को जीने की तरह जीते हैं।
ये ही हैं, जो मृत्यु को ठीक तरह पहचानते हैं; क्योंकि इनकी दृष्टि में मृत्यु जीवन की मित्र है और वही है जो जीवन को सच्चा जीवन बनाए।
अगले पन्नों में देश-विदेश के कुछ मानव जी-जाग रहे हैं और कोई चाहे, तो उससे वे बातचीत भी कर सकते हैं।
ये मानव, वैज्ञानिक सत्य कभी के मर चुके, पर एक आध्यात्मिक सत्य है कि आज भी वे जीवित हैं और सदा जीवित रहेंगे।
उनका सन्देश है कि मृत्यु उसे खाती है जो उससे डरता है और उसे खिलाती है, जो अपने कदमों उसके द्वार आ पुकारता है।
इस सन्देश के सुने जाने की आज आवश्यकता है।
सुने जाने की, सिनेमा के गीत की तरह नहीं, मन्त्र की तरह, जो हृदय में समाए और आचरण में आए।
मृत्यु विश्वव्यापी तत्त्व है, पर उसके सम्बन्ध में सबसे बड़ी बात भारत में ही कही है- ‘‘मनुष्य जिस तरह पुराने वस्त्र उतारकर नये पहन लेता है, उसी तरह देह छोड़कर वह दूसरी धारण करता है !’’
इस सन्देश के सुने जाने की आज गम्भीर आवश्यकता है; क्योंकि भारतीय राष्ट्र का मानस मृत्यु के भय से यों अभिभूत हो उठा है कि हमारा राष्ट्रीय चरित्र ही कुण्ठित हो चला है।
मृत्यु का भय जीवन के मोह को जन्म देता है और जीवन का मोह आराम-सुविधा की लिप्सा को और तब मनुष्य इस तरह जीने लगता है कि बस वह एक मनुष्य है और पूरे समाज से उनका कोई सम्बन्ध नहीं उसे अपना सुख चाहिए और बस अपना ही सुख !
इसे यों कहे कि तब तक उसकी मूल वृत्ति होती है शोषण-दूसरों को खाकर पनपना और मिट जाती है उसकी मानवीय यज्ञवृत्ति कि वह दूसरों के लिए जिए और उत्सर्ग हो।
पर-दृष्टि, पर-चिन्ता ही राष्ट्रीय चरित्र है और वह न रहे, तो राष्ट्र का अस्तित्व भले ही बना रहे, व्यक्तित्व कहाँ रहेंगा !
इन कथाओं में इस व्यक्तित्व का पोषण है और यही मैं कहता हूँ कि ये कथाएँ भारत की नयी पीढ़ी के लिए एक सुन्दर उपहार हैं।
ये कथाएं इतिहास की हैं- घटित-घटनाएं हैं; मेरी कल्पना का वैभव-चमत्कार नहीं, पर क्या मैं एक ’स्टेनो’ ही हूँ कि इतिहास का ‘डिक्टेशन’ मैंने कागज पर ले लिया ?
मैं भला इस प्रश्न पर हाँ कैसे कह सकता हूँ ?
जर्मन दार्शनिक नीत्शे का एक उद्धरण युगों पहले कहीं पढ़ा था, जो इस प्रकार है-
‘‘जो भी साहित्य लिखा जाता है, उसमें मैं वही पसन्द करता हूँ जिसे आदमी अपने खून से लिखता है। हे साहित्यकार, तू अपनी रचनाएँ एक बार अपने खून से लिख। फिर तू समझेगा कि खून ही साहित्य की आत्मा है।’’
मैं साहित्यकार की सम्पूर्ण ईमानदारी के साथ इस स्थिति में हूँ कि कहूँ –इन कथाओं को मैंने अपने खून से लिखा है; कलेजे के खून से आत्मा के खून से और कलेजे का खून ही इन कथाओं की कला है।
इन कथाओं के पात्र मेरे लिए कभी कोरे पात्र नहीं रहे-वे मेरे निकट सदा सजीव बन्धु रहे हैं मैंने उनके साथ बातें की हैं, मैं उनके साथ रोया-हँसा हूँ, और हँसी की बात नहीं, फाँसी भी चढ़ा हूँ जीते जी जला भी हूँ ! शायद कोरा अहंकार ही हो, पर मुझे तो सदा यही लगा है कि वे इतिहास के (मारिसेट और सोवेज़ एक फ्रेंच कहानी के) के कंकाल थे, मैंने उन्हें अपना रक्त-मांस देकर यों खड़ा कर दिया है। इस स्थिति में भारत की नई पीढ़ी को जब आज उन्हें भेंट कर रहा हूँ तो अपना रक्त ही तो भेंट कर रहा हूँ। मेरी शुभकामना है कि मेरे देश की नयी पीढ़ी मेरे इस रक्त से तरोताजा हो जीवन के क्षेत्र में आगे बढ़े !
एक जरूरी बात-यों हर शीर्षक के नीचे एक पात्र है, पर हम उसे पात्र ही मान लें, तो उसकी कहानी ही पढ़ पाएँगे, उसे समझेंगे नहीं अपनाएँगे नहीं, पाएँगे नहीं !
तो हम समझें कि हर पात्र एक विशिष्ट युग का प्रतिनिधि है प्रतीक है। काँग्रेस के झण्डे के नीचे राष्ट्र ने भारत की स्वत्रन्त्रता के लिए जो बलिदान दिया; सत्यवती बहन में वही तो केन्द्रित है और भारत की स्वत्रन्त्रता के बाद उस स्वन्त्रता को स्थिर रखने के लिए जो बलिदान हुआ, भाई शोइब उसी की तो एक तस्वीर हैं, सब पात्रों को पाठक यों ही पढ़े-परखे-पहचाने !
बुधारू और पुनिया का स्कैच भाई कन्हैयालाल धूसिया ने लिखा था कि मैंने उसे अपने ढंग पर कर लिया और पुस्तक के नामकरण का श्रेय श्रीमती विद्यावती कौशल को है, पर दोनों को धन्यवाद देने की शक्ति मुझमें नहीं !
बस !
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
विकास लिमिटेड
सहारनपुरः उ. प्र.
सहारनपुरः उ. प्र.
बयालिस के ज्वार की उन लहरों में
1. हम उन दिनों घहरा रहे थे, वे उन दिनों
घबरा रहे थे !
2. हम उन दिनों पूरे जोश में थे, वे उन दिनों पूरे जोर में थे !
3. उनकी महत्ता अस्त होने के खतरे में थी, हमारी महत्ता फिर से जन्म लेने की सम्भावना में !
4. उनके साथ लगभग एक शताब्दी में सँजोयी सैनिक शक्ति थी। हमारे साथ लगभग एक शताब्दी में सुलगायी विद्रोही भावना की आग !
5. दाँव चूकने में उनकी मौत थी, दाँव चूकने में हमारी घोर परायज।
6. वे अपनी उखड़ती जड़ जमाने में जुटे थे। हम अपनी सदियों से उखड़ी पड़ी जड़ जमाने में !
7. हमारा उखड़ना ही उनका जनमा था, हमारा जमना ही उनका उखड़ना था !
8. वे थे हमारे शासक अंग्ररेज, हम थे उनके शासित भारतवासी !
9. और यों हम दोनों 1942 में जान-जान की बाजी खेल रहे थे !
10. हमारी देश-भक्ति का नारा था-निकल जाओ यहाँ से, उनकी सैन्य-शक्ति का उदघोष था-क्यों निकल जाएँ ?
11. फैसले बहुत हो चुके थे, इस बार किसी एक को मिटना था, इस लिए न वे कोई कोर-कसर छोड़ रहे थे, न हम !
12. अतीत साक्षी है –वे जीत गये, हम हार गये !
13. वर्तमान साक्षी है- वे जीतकर हार गये। हम हारकर जीत गये !
14. इतिहास साक्षी है कि वे ऐसे गये कि एक बात हो गयी।
15. संसार साक्षी है कि हम ऐसे जमे कि एक चमत्कार हो गया !
2. हम उन दिनों पूरे जोश में थे, वे उन दिनों पूरे जोर में थे !
3. उनकी महत्ता अस्त होने के खतरे में थी, हमारी महत्ता फिर से जन्म लेने की सम्भावना में !
4. उनके साथ लगभग एक शताब्दी में सँजोयी सैनिक शक्ति थी। हमारे साथ लगभग एक शताब्दी में सुलगायी विद्रोही भावना की आग !
5. दाँव चूकने में उनकी मौत थी, दाँव चूकने में हमारी घोर परायज।
6. वे अपनी उखड़ती जड़ जमाने में जुटे थे। हम अपनी सदियों से उखड़ी पड़ी जड़ जमाने में !
7. हमारा उखड़ना ही उनका जनमा था, हमारा जमना ही उनका उखड़ना था !
8. वे थे हमारे शासक अंग्ररेज, हम थे उनके शासित भारतवासी !
9. और यों हम दोनों 1942 में जान-जान की बाजी खेल रहे थे !
10. हमारी देश-भक्ति का नारा था-निकल जाओ यहाँ से, उनकी सैन्य-शक्ति का उदघोष था-क्यों निकल जाएँ ?
11. फैसले बहुत हो चुके थे, इस बार किसी एक को मिटना था, इस लिए न वे कोई कोर-कसर छोड़ रहे थे, न हम !
12. अतीत साक्षी है –वे जीत गये, हम हार गये !
13. वर्तमान साक्षी है- वे जीतकर हार गये। हम हारकर जीत गये !
14. इतिहास साक्षी है कि वे ऐसे गये कि एक बात हो गयी।
15. संसार साक्षी है कि हम ऐसे जमे कि एक चमत्कार हो गया !
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की प्रमुख रचनाएं हैं : जिन्दगी मुस्करायी, माटी हो गयी सोना, महके आंगन चहकें द्वार, आकाश के तारे धरती के फूल, दीप जले शंख बजे, क्षण बोले कण मुस्काये, बाजे पायलिया के घुँघरू, जिन्दगी लहलहाई और कारवाँ आगे बढ़े। सभी कृतियाँ ज्ञानपीठ से प्रकाशित हैं।
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