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आचार्य श्रीराम शर्मा >> युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4188
आईएसबीएन :0000

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युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण....

Yug Shakti Ka Abhinav Avataran

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

युगशक्ति गायत्री का अभिनव अवतरण

आत्मबल संपन्न व्यक्तित्व का निर्माण-गायत्री शक्ति से

नव युग में मानव समाज की आस्थाएँ-आकांक्षाएँ, प्रथा-परंपराएँ, रीति-नीतियाँ, गतिविधियाँ किस स्तर की हों ? किन मान्यताओं से अनुप्राणित हों, इसका निर्णय-निर्धारण किया जाना है। मात्र विचार क्षेत्र की अवांछनीयताओं को हटा देना ही पर्याप्त न होगा। मूढ़-मान्यताओं को हटा देने पर जो रिक्तता उत्पन्न होगी, उसकी पूर्ति परिष्कृत आस्थाओं को ही करनी होगी। स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा जैसी सुविधाएँ आवश्यक तो हैं और उनके उपार्जन-अभिवर्धन में किसी को कोई आपत्ति भी नहीं हो सकती किंतु इन साधनों तक ही सीमित रहकर किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

 उनका उपयोग करने वाली चेतना का परिष्कृत होना आवश्यक है; अन्यथा बढ़े हुए सुविधा-साधन दुष्ट बुद्धि के हाथ में पड़कर नई समस्याएँ और नई विपत्तियाँ उत्पन्न करेंगे। दुष्ट जब शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ होता है, तो क्रूर-कर्मों पर उतारू होता है और आततायी जैसा भयंकर बनता है। चतुर और बुद्धिमान होने पर ठगने, सताने के कुचक्र रचता है। धनी होने पर व्यसन और अहंकार के सरंजाम जुटाता है और अपने तथा दूसरों के लिए क्लेश–विद्वेष के सरंजाम खड़े करता है। अन्याय कला-कौशल गिराने और लुभाने के लिए प्रयुक्त होते हैं। सुरक्षा-सामग्री का उपयोग दुर्बलों के उत्पीड़न में होता है। विज्ञान जैसे महत्त्वपूर्ण आधार को विषाक्तता और विनाश के रोमांचकारी प्रयोजनों में प्रयुक्त होते देखा जाता है। न्याय और विकास के लिए नियुक्त किये गये अधिकारी ‘मेंड़ ने खेत खाया’ कहने की भूमिका निभाते देखे जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि सुख-शांति की वृद्धि के लिए साधनों की उपयोगिता तो है, पर उसके साथ अनिवार्य शर्त यह भी है कि इनका उपयोग करने वाली चेतना में सालीनता और दूरदर्शिता का अभाव न हो।

अपने युग की सबसे बड़ी विडंबना एक ही है कि साधन तो बढ़ते गये किंतु उनका उपयोग करने वाली अंतःचेतना का स्तर ऊँचा उठाने के स्थान पर उलटा गिरता चला गया। फलतः बढ़ी हुई समृद्धि, उत्थान के लिए प्रयुक्त न हो सकी। आंतरिक भ्रष्टता ने दुष्टता की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न कीं और उनके फलस्वरूप विपत्तियों की सर्वनाशी घटनाएँ घिर आईं। समृद्धि के साथ शालीनता का गुथा रहना आवश्यक है। अन्यथा प्रगति के नाम पर किया गया श्रम दुर्गति की विभीषिकाएँ ही उत्पन्न करता चला जाएगा।

व्यक्तित्व की उत्कृष्टता ही मनुष्य की सबसे बड़ी सफलता और संपन्नता है, उसी के आधार पर मनुष्य सुसंस्कृत बनता है। आत्म संतोष, श्रद्धा-सम्मान, जन सहयोग एवं दैवी अनुग्रह प्राप्त कर सकने में सफल होता है। यही वह तत्त्व है, जिसके सहारे भौतिक जीवन में बढ़ी-चढ़ी उपलब्धियाँ करतलगत होती हैं। साधनों का सही उपार्जन और सही उपयोग उसी आधार पर बन पड़ता है। इसके अभाव में इंद्र और कुबेर जैसे सुविधा-साधन होते हुए भी मनुष्य खिन्न और विपन्न ही बना रहेगा। स्वयं उद्विग्न रहेगा, दुःख सहेगा और समीपवर्ती लोगों के लिए संकट एवं विक्षोभ उत्पन्न करता रहेगा।

अपने युग की सबसे बड़ी आवश्यकता व्यक्तियों की अंतःभूमिका को अधिक सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने की है। यह कार्य-सिद्धि संवर्धन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। उसकी उपेक्षा की जाती रहेगी, तो तथाकथित प्रगतिशीलता पिछड़ेपन से भी अधिक महँगी पड़ेगी। नव युग की सुखद परिस्थितियों की संभावना का एक मात्र आधार यही है कि व्यक्ति का अंतराल उत्कृष्ट बनेगा। दृष्टिकोण में उदारता और चरित्र में शालीनता का समावेश होगा, तो निश्चित रूप से वैयक्तिक जीवन क्रम में देवत्त्व उभरेगा। ऐसे देव की सामूहिक गतिविधियाँ स्वर्गोपम परिस्थितियाँ उत्पन्न करती हैं। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का उपहार लेकर आने वाले नवयुग का सारा ढाँचा ही इस आधारशिला पर खड़ा हुआ है कि व्यक्ति का अंतराल परिष्कृत होना चाहिए, चरित्र और व्यवहार की दृष्टि से अधिक उत्कृष्ट होना चाहिए। विकास की सर्वतोमुखी आवश्यकताओं की पूर्ति इसी आधार पर संभव है।

प्रश्न यह उठता है कि अंतराल को स्पर्श किस उपकरण से किया जाय ? उसे सुधारने के लिए क्या उपाय काम में लाया जाय ? इस दिशा में अब तक दंड का भय, पुरस्कार का प्रलोभन और सज्जनता का प्रशिक्षण यह तीन ही उपाय काम में लाये जाते हैं। किंतु देखा गया है कि इन तीनों की पहुँच बहुत उथली है, उनसे शरीर और मस्तिष्क पर ही थोड़ा-सा प्रभाव पड़ता है। वह भी इतना उथला होता है कि अंतराल में जमी आस्थाओं का स्तर यदि निकृष्टता का अभ्यस्त और कुसंस्कारी बन चुका है, तो इन ऊपरी उपचारों का, व्यक्तित्व का स्तर बदलने में कोई विशेष सहायता नहीं मिलती। पुलिस, जेल, कठोरता संपन्न कानूनों की कमी नहीं।’ प्रतिरोध और दंड-व्यवस्था के लिए भी खर्चीला तंत्र मौजूद है, पर देखा जाता है कि मनुष्य की चतुरता इस पकड़ से बच जाने के अनेकों तरीके निकाल लेती है। सज्जनता के पुरस्कार पाने में देर लगती है और मात्रा थोड़ी होती है। धूर्तता सोचती है कि उससे तो कहीं अधिक कमाई छद्म उपायों के सहारे की जा सकती है। इसी प्रकार नीतिमत्ता के पक्ष में किया गया प्रशिक्षण भी एक प्रकार से बेकार ही चला जाता है। देखा यह गया है कि अनीति वाले भी नीति के सिद्धांतों का जोर-शोर से समर्थन करते हैं। करनी कुछ भी हो कथनी में अनाचारों की भर्तस्ना और आदर्शों की  प्रशंसा ही करते पाये जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि नीति के पक्ष में उनका मस्तिष्क पहले से ही प्रशिक्षित है। पढ़े को क्या पढ़ाया जाय ? जागते को क्या जगाया जाय ? शरीर पर लगाये गये बंधन, मन को दी गई सिखावन अन्य प्रयोजनों में भले ही सफल हो सकें, अंतराल को उत्कृष्टता की दिशा में ले जाने का उद्देश्य बहुत ही सीमित मात्रा में पूरा कर पाते हैं।

मानवी सत्ता का एक अत्यंत प्रकट रहस्य यह है कि व्यक्तित्व की जड़ें आस्थाओं के अंतराल में रहती हैं। कोई क्या है, इसे जानने के लिए उसका शरीर, मन और वैभव देखने से कुछ भी काम नहीं चलेगा। स्थिति और सामर्थ्य का मूल्यांकन उसके अंतराल का स्तर जानने के उपरांत ही हो सकता है। समूची सामर्थ्य तो उसी क्रेन्द्र में छिपी पड़ी है। आस्था के अनुरूप आकांक्षा उठती है। आकांक्षा की पूर्ति में मस्तिष्क कुशल वकील की तरह बिना उचित-अनुचित की जाँच-पड़ताल किये पूरी तन्मयता के साथ लग जाता है। मन का गुलाम शरीर है। शरीर वफादार नौकर की तरह अपने मालिक की आज्ञा का पालन करने में लगा रहता है। यंत्र अपने चालक का आज्ञानुवर्ती होता है। शरीर की समस्त हलचलें मन के निर्देश का अनुगम करती हैं। मन आकांक्षाओं से प्रेरित होता है और आकांक्षाएँ आस्थाओं के अनुरूप ही उठती हैं। तथ्यतः आस्थाओं का केंद्र अंतःकरण ही मानवी-सत्ता का सर्वस्व है।

आस्थाओं का मर्मस्थल अत्यंत गहरा है। उतनी गहराई तक राजकीय कानून, सामाजिक नियम तथा प्रशिक्षण जैसे उपचार यत्किंचित ही पहुँच पाते हैं। आस्थाओं की प्रबल-प्रेरणा इन सब आवरणों को तोड़कर रख देती है। ऐसा न होता तो धर्मोपदेशक, धर्म विरोधी आचरण क्यों करते ? लोकसेवा का आवरण ओढ़े सत्ताधारी क्यों लोकअहित की गतिविधियों में छद्मरूप से निरत रहते ?  शांति और व्यवस्था बनाये रहने के लिए नियुक्त अधिकारी गुप्त रूप से अपराधी तत्वों के साथ साठ-गाँठ रखते ? सपष्ट है कि सारे नियम प्रतिबंध, तर्क और आदर्श एक कोने पर रखे रह जाते हैं और आस्थाओं में घुसी निकृष्टता अपनी विजय-दुंदुभी बजाती रहती है।

आज की युग विपन्नता के मूल में आस्थाओं का दुर्भिक्ष ही एक मात्र कारण है। इस संकट को कैसे दूर किया जाये, जबकि प्रभावशाली समझे जाने वाले उपचार भी उस गहराई तक पहुँचने और आवश्यक परिवर्तन प्रस्तुत करने में असमर्थ रहते हैं।
उत्तर एक ही है आस्थाओं के सहारे आस्थाओं का उपचार किया जाय। जंगली हाथी को पालतू हाथी पकड़कर लाते हैं। काँटे से काँटा निकालते हैं और होम्योपैथी प्रतिपादन के अनुसार विष ही विष की औषधि है। उत्कृष्ट आस्थाओं की स्थापना से ही निकृष्ट आस्थाओं का निराकरण होता है। लाठी का जवाब लाठी और घूँसे का जवाब घूँसा वाली उक्ति सर्वविदित है। लोहे को लोहा काटता है। गड्ढे में गिरे हुए को गड्ढे में उतरकर ही निकालना पड़ता है। आस्थाओं में घुसी हुई निकृष्टता का निराकरण उस क्षेत्र में उत्कृष्टता की मान्यताएँ स्थापित करने से ही संभव है। व्यक्तित्व को परिष्कृत करने का प्रमुख उपाय यही है।

उपासना और साधना का उद्देश्य अंतःक्षेत्र में उच्चस्तरीय श्रद्धा का आरोपण, परिपोषण एवं अभिवर्धन करना है। शरीर से शरीर लड़ते हैं। विचारों से विचार जूझते हैं और आस्थाओं में आस्थाएँ ही परिवर्तन एवं परिष्कार उतपन्न करती है।
गायत्री में सन्निहित ब्रह्मविद्या का तत्वज्ञान अंतःकरण को प्रभावित करके, उसमें सत्श्रद्धा का अभिवर्धन करता है। स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिंतन जैसी भाव-संवेदनाओं को छू सकने वाला प्रशिक्षण ही अंतरात्मा को बदलने एवं सुधारने में समर्थ हो सकता है। जीव का ब्रह्म से, आत्मा का परमात्मा से, क्षुद्रता का महानता से, संयोग करा देना ही योग है। योग का तात्पर्य है—सामान्य को असामान्य से, व्यवहार को आदर्श से जोड़ देना।  



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