आचार्य श्रीराम शर्मा >> आत्मीयता का माधुर्य और आनंद आत्मीयता का माधुर्य और आनंदश्रीराम शर्मा आचार्य
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आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आत्मीयता की भावना को अभिव्यक्त करने के लिए दूसरों की सेवा-सहानुभूति,
दूसरों के लिए उत्सर्ग का व्यावहारिक मार्ग अपनाना पड़ता है और इससे एक
सुखद शांति, प्रसन्नता, संतोष की अनुभूति होती है। इस तरह आत्मीयता एक सहज
और स्वाभाविक, आवश्यक वृत्ति है, जिससे मनुष्य को विकास, उन्नति,
आत्म-सन्तोष की प्राप्ति होती है।
सघन आत्मीयता : संसार की सर्वोपरि शक्ति
संसार में दो प्रकार के मनुष्य होते हैं, एक वे जो शक्तिशाली होते हैं,
जिनमें अहंकार की प्रबलता होती है। शक्ति के बल पर वे किसी को भी डरा
धमकाकर वश में कर लेते हैं। कम साहस के लोग अनायास ही उनकी खुशामद करते
रहते हैं, किंतु भीतर -भीतर उन पर सभी आक्रोश और घृणा ही रखते हैं। उसकी
शक्ति घटती दिखाई देने पर लोग उससे दूर भागते हैं, यही नहीं कई बार अहंभाव
वाले व्यक्ति पर घातक प्रहार भी होता है और वह अंत में बुरे परिणाम भुगतकर
नष्ट हो जाता है। इसलिए शक्ति का अहंकार करने वाला व्यक्ति अंततः बड़ा ही
दीन और दुर्बल सिद्ध होता है।
एक दूसरा व्यक्ति भी होता है- भावुक और करुणाशील। दूसरों के कष्ट, दुःख, पीड़ाएँ देखकर उसके नेत्र तुरंत छलक उठते हैं। वह जहाँ भी पीड़ा, स्नेह का अभाव देखता है वहीं जा पहुँचता है और कहता है, लो मैं आ गया और कोई न हो तुम्हारा मैं जो हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा तुम्हारे पास जो कुछ नहीं, वह मैं दूँगा। उस करुणापूरित अंतःकरण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। इसलिए वह कमजोर दिखाई देने पर भी बड़ा शक्तिशाली होता है। यही वह रचनात्मक भाव है जो आत्मा की अनंत शक्तियों को जाग्रत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है। इसीलिए विश्व- प्रेम को ही भगवान् की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।
जीवन के सुंदरतम रूप की यदि कुछ अभिव्यक्ति हो सकती है तो वह प्रेम में ही है, पर उसे पाने और जाग्रत करने का यह अर्थ नहीं होता कि मनुष्य सुख और मधुरता में ही विचरण करता रहे। वरन उसे कष्ट सहिष्णुता और उन वीरोचित प्रयत्नों का जागरण करना भी अनिवार्य हो जाता है, जो प्रेम की रक्षा मर्यादा के पालन के लिए अनिवार्य होते हैं। प्रेम का वास्तविक आनंद तभी मिलता है।
प्रेम संसार की ज्योति है और सब उसी के लिए संघर्ष करते रहते हैं। सच्चा समर्पण भी प्रेम के लिए होता है, इसीलिए यह जान पड़ता है कि विश्व की मूल रचनात्मक शक्ति यदि कुछ होगी तो वह प्रेम ही होगी और जो प्रेम करना नहीं सीखता, उसे ईश्वर की अनुभूति कभी नहीं हो सकती। तुलनात्मक अध्ययन करके देखे तो भी यही लगता है कि परमेश्वर की सच्ची अभिव्यक्ति ही प्रेम है और प्रेम भावनाओं का विकास कर मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। प्रेम से बढ़कर जोड़ने वाली (योग) शक्ति संसार में और कुछ भी नहीं है।
पर वह भ्रांति नहीं होना चाहिए कि हमें जो वस्तु परमप्रिय लगती है, उस पर हमारा अधिकार हो गया और यदि उसे सुविधापूर्वक नहीं प्राप्त कर सकते, तो अनधिकार, चेष्टाओं द्वारा प्राप्त करें। प्रेम, प्रेम, की इच्छा तो करता है, पर उसकी रति आत्मा है, कोई और माध्यम या साधन नहीं। आत्म -जगत् अपने आप में इतना परिपूर्ण है कि उसका रमण करने पर हमें वह सुख अपने आप मिलने लगता है, जिसकी हम प्रेमास्पद से अपेक्षा करते हैं। इसलिए पदार्थों के प्रेम को क्षणभंगुर और ईश्वरीय प्रेम को दिव्य और शाश्वत मान लिया गया है।
वह निःस्वार्थ होता है और उसके लिए होता है, जो न कहीं दिखाई देता है और न सुनाई। मालूम नहीं पड़ता कि अपनी आवाज और भावनाएँ उस तक पहुँचती भी हैं अथवा नहीं। पर हमारी हर कातर पुकार के साथ अंतकरण में एक संतोष और सांत्वना की अंतर्वृष्टि होती है। वह बताती है कि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारी प्रार्थना निरर्थक नहीं जा रही। मूल में बैठी हुई आत्म प्रतिभा स्वयं विकसित होकर मार्गदर्शन कर रही है। विकास की यह प्रक्रिया ईश्वर प्रेमी की अनेक प्रसुप्तप्रतिभाओं और बौद्धिक क्षमताओं का जागरण ही करती है। मेलों में उड़ाए जाने वाले गुब्बारों के नीचे एक प्रकार का ऐसा पदार्थ जलाया जाता है, जिससे गैस बनती है, और वह गैस ही उस गुब्बारे को उड़ाकर दूर क्षितिज के पार तक पहुँचा देती है।
आत्मीयता की अंतःकरण में उठने वाली लपटें ऐसी ही हैं जो शरीर की मन की, बुद्धि की और आत्म-चेतना की शक्तियों का उद्दीपन कर उन्हें ऊपर उठाती रहती हैं और विकास की इस हलचलपूर्ण अवस्था में भी वह सुख और स्वर्गीय सौंदर्य की रसानुभूति करता रहता है, भले ही माध्यम कुछ न हो। भले ही वह विकास के साथ ही रमण कर रहा हो, उसे अपना प्रेमी परमेश्वर दिखाई भी न देता, हो तो भी प्रकृति के अंतराल से उसकी दिव्य वाणी और उसका दिव्य आश्वासन भरा प्रकाश फूटता ही रहता है।
निष्काम प्रेम में वह शक्ति है, जो प्रवाह बनकर फूटती है और न केवल दो-चार व्यक्तियों में वरन् हजारों लाखों के जीवन में आनंद का स्रोत बनकर उमड़ पड़ती है, वह हजारों कलुषित अंतःकरणों को धोकर उन्हें निर्मल बना देती है। तुलसीदास जी ने भगवान से प्रेम किया था, वह प्रेम जब बहुजन हिताय के रूप में फूटा तो न केवल परमात्मा के प्रति भक्ति श्रद्धा और विश्वास की लहरें फूटीं वरन् सेवा सहिष्णुता, दांपत्य प्रेम, पारिवारिक मर्यादा, संतोष, दया, करुणा, उदारता आदि ऊर्ध्वमुखी चेतनाओं की लहरें समाज में फूट निकलीं।
तुलसीदास जी नहीं रहे, पर उनकी आत्मा आज भी हजारों लोगों को अपनी आत्मा से मिलाकर ईश्वरीय आत्मा में परिणत करती है। ईश्वर के प्रति प्रेम का अर्थ स्वार्थ या संकीर्णता नहीं, वरन् अपने आपको उस मूल बिंदु के साथ जोड़ देना है, जो अपने आपको जन जन के जीवन में विकीर्ण करता रहता है। तात्पर्य यह है जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं, तब संसार में व्यक्त चेतना के प्रत्येक कण से प्रेम करते हैं, ईश्वर की यही परिभाषा भी तो है।
इस छोटी-सी बात को न समझ पाने के कारण या तो लोग ईश्वर प्रेम नाम पर कर्त्तव्य परायणता से विमुख होते हैं अथवा पदार्थ या शारीरिक प्रेम (वासना) में इतने आसक्त हो जाते हैं कि प्रेम की व्यापकता और अक्षुण्य सौंदर्य के सुख का उन्हें पता ही नहीं चलता। ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ विश्व सौंदर्य के प्रति अपने आपको समर्पित करना होता है। उसमें कहीं न तो आसक्ति का भाव आ सकता है और न विकार। यह दोष तो उसी प्रेम में होंगे, जिसे केवल स्वार्थ और वासना के लिए किया जाता है’
जीवन भर हम जिन व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, ईश्वर प्रेम का प्रकाश उन सबके प्रति प्रेम के रूप में भी प्रस्फुटित होता है। इसलिए ईश्वर प्रेम और समाज सेवा में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही स्थितियों में आत्म सुख विश्वास और आत्म कल्याण का उद्देश्य भगवान की प्रसन्नता होनी चाहिए। भगवान की प्रसन्नता का अर्थ है कि उस प्रेम में भय, कायरता, क्षणिक सुख का आभास न होकर शाश्वत प्रफुल्लता और प्रमोद होना चाहिए। ऐसा प्रेम कभी बन्धनकारक या रुकने वाला नहीं होता। उसकी धाराएँ निरंतर जीवन को प्राणवान बनाती रहती हैं। वह मनुष्य ऊपर से चाहें कितना ही कठोर क्यों न दिखाई देता हो, उसके भीतर आत्मीयता की लहरें निरंतर हिलोरें ले रही होती है।
इंद्रियों के आकर्षण फुसलाने से नहीं, कठोरता से दमन किए जाते हैं और इसके लिए साहस की आवश्यकता होती है। दो आत्म दमन कर सकता है, वही सच्चा विजेता है। सच्चा विजेता ही सच्चा प्रेमी और ईश्वर का भक्त होता है। यह बात कुछ अटपटी सी लगती है, किंतु कर्मयोग के सच्चे साधक को कठोरता में भी भावशीलता का संपूर्ण आनंद मिलता है। इसलिए उसे मोह की आवश्यकता नहीं होती वरन् मोह के बीच में भी एक दिव्य प्रकाश की अनुभूति का आनंद लिया जा सकता है।
मर्यादाओं के पालन में जो कठोरता है, उसमें आत्मीयता का अभाव नहीं होता। अपनत्व तो संसार के कण-कण में विद्यमान है। ऐसा कौन-सा प्राणी है, ऐसा कौन-सा पदार्थ है जहाँ मैं नहीं हूँ। प्राणी-पशु, कीट-पतंग सभी के अंदर तो अहं भाव से परमात्मा बैठा हुआ है, पर तो भी किसी के लिए वह बंधन तो नहीं है ? वह बंधन मुक्त आनंद की स्थिति है, इसलिए वह किसी को आनंद से गिराएगा क्यों ? वह दया और करुणा का सागर है, लोगों को उससे वंचित रखेगा क्यों ? लेकिन वह यह भी न चाहेगा कि एक जीवन दूसरे जीव की आकांक्षाओं और मर्यादाओं पर छा जाए। संसार उसी का है, पर तो भी वह इतना दयालु है कि किसी पर अपनी उपस्थिति भी प्रकट नहीं करता, किंतु मर्यादाओं के मामले में वह कठोर और निपुण है। किसी भी दुष्कर्म को प्राणी उससे छिपाकर नहीं ले जा सकता।
उसका अपनत्व निष्काम है, इसलिए जीवन लक्ष्य की प्राप्त और अपने जीवन भाव को ब्राम्हीभाव में परिणत करने के लिए मनुष्य को उन्हीं नियमो का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।
अपनत्व पृथ्वी की मिट्टी, सूर्य के कण और विश्व के कण-कण में व्याप्त परमाणुओं में छिपा स्पंदन है। वह स्वर्गीय है, वह मर्त्यभाव में भी अमृतत्व का संचार किया करता है, जड़ में भी चेतनता की अनुभूति कराया करता है। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि अपनी साधना के अंतिम दिनों में महर्षि विश्वामित्र ने नदियों से बातचीत की थी। ऋग्वेद में ऐसे सूक्त हैं जिनके देवता नदीं है और दृष्टा ने उनसे बातचीत की है। उस वार्तालाप में और कुछ आधार भले ही न हो, पर उसमें समस्त जड़ चेतन जगत के प्रति आत्मारोपण का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत है।
उस विज्ञान को समझने में भले ही किसी को देर लगे, किंतु भावनाओं में जड़ पदार्थों को भी चेतन कर देने की शक्ति है और प्रेम इन समस्त भावनाओं का मूल है। इसलिए यह कहना अत्युक्ति नहीं कि आत्मीयता संपन्न व्यक्ति के लिए संसार में चेतन ही नहीं जड़ भी इतने ही सुखदायक होते हैं। जड़ भी प्रेम के अधीन होकर नृत्य करते हैं। प्रेम के लिए सारा संसार तड़पता रहता है। जो इस तड़पन को समझ कर, लेने की नहीं देने और निरंतर देने की ही बात सोचता है, सारा संसार उसके चरणों पर निवेदित हो जाता है।
एक दूसरा व्यक्ति भी होता है- भावुक और करुणाशील। दूसरों के कष्ट, दुःख, पीड़ाएँ देखकर उसके नेत्र तुरंत छलक उठते हैं। वह जहाँ भी पीड़ा, स्नेह का अभाव देखता है वहीं जा पहुँचता है और कहता है, लो मैं आ गया और कोई न हो तुम्हारा मैं जो हूँ। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा तुम्हारे पास जो कुछ नहीं, वह मैं दूँगा। उस करुणापूरित अंतःकरण वाले मनुष्य के चरणों में संसार अपना सब कुछ न्यौछावर कर देता है। इसलिए वह कमजोर दिखाई देने पर भी बड़ा शक्तिशाली होता है। यही वह रचनात्मक भाव है जो आत्मा की अनंत शक्तियों को जाग्रत कर उसे पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचा देता है। इसीलिए विश्व- प्रेम को ही भगवान् की सर्वश्रेष्ठ उपासना के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।
जीवन के सुंदरतम रूप की यदि कुछ अभिव्यक्ति हो सकती है तो वह प्रेम में ही है, पर उसे पाने और जाग्रत करने का यह अर्थ नहीं होता कि मनुष्य सुख और मधुरता में ही विचरण करता रहे। वरन उसे कष्ट सहिष्णुता और उन वीरोचित प्रयत्नों का जागरण करना भी अनिवार्य हो जाता है, जो प्रेम की रक्षा मर्यादा के पालन के लिए अनिवार्य होते हैं। प्रेम का वास्तविक आनंद तभी मिलता है।
प्रेम संसार की ज्योति है और सब उसी के लिए संघर्ष करते रहते हैं। सच्चा समर्पण भी प्रेम के लिए होता है, इसीलिए यह जान पड़ता है कि विश्व की मूल रचनात्मक शक्ति यदि कुछ होगी तो वह प्रेम ही होगी और जो प्रेम करना नहीं सीखता, उसे ईश्वर की अनुभूति कभी नहीं हो सकती। तुलनात्मक अध्ययन करके देखे तो भी यही लगता है कि परमेश्वर की सच्ची अभिव्यक्ति ही प्रेम है और प्रेम भावनाओं का विकास कर मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। प्रेम से बढ़कर जोड़ने वाली (योग) शक्ति संसार में और कुछ भी नहीं है।
पर वह भ्रांति नहीं होना चाहिए कि हमें जो वस्तु परमप्रिय लगती है, उस पर हमारा अधिकार हो गया और यदि उसे सुविधापूर्वक नहीं प्राप्त कर सकते, तो अनधिकार, चेष्टाओं द्वारा प्राप्त करें। प्रेम, प्रेम, की इच्छा तो करता है, पर उसकी रति आत्मा है, कोई और माध्यम या साधन नहीं। आत्म -जगत् अपने आप में इतना परिपूर्ण है कि उसका रमण करने पर हमें वह सुख अपने आप मिलने लगता है, जिसकी हम प्रेमास्पद से अपेक्षा करते हैं। इसलिए पदार्थों के प्रेम को क्षणभंगुर और ईश्वरीय प्रेम को दिव्य और शाश्वत मान लिया गया है।
वह निःस्वार्थ होता है और उसके लिए होता है, जो न कहीं दिखाई देता है और न सुनाई। मालूम नहीं पड़ता कि अपनी आवाज और भावनाएँ उस तक पहुँचती भी हैं अथवा नहीं। पर हमारी हर कातर पुकार के साथ अंतकरण में एक संतोष और सांत्वना की अंतर्वृष्टि होती है। वह बताती है कि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारी प्रार्थना निरर्थक नहीं जा रही। मूल में बैठी हुई आत्म प्रतिभा स्वयं विकसित होकर मार्गदर्शन कर रही है। विकास की यह प्रक्रिया ईश्वर प्रेमी की अनेक प्रसुप्तप्रतिभाओं और बौद्धिक क्षमताओं का जागरण ही करती है। मेलों में उड़ाए जाने वाले गुब्बारों के नीचे एक प्रकार का ऐसा पदार्थ जलाया जाता है, जिससे गैस बनती है, और वह गैस ही उस गुब्बारे को उड़ाकर दूर क्षितिज के पार तक पहुँचा देती है।
आत्मीयता की अंतःकरण में उठने वाली लपटें ऐसी ही हैं जो शरीर की मन की, बुद्धि की और आत्म-चेतना की शक्तियों का उद्दीपन कर उन्हें ऊपर उठाती रहती हैं और विकास की इस हलचलपूर्ण अवस्था में भी वह सुख और स्वर्गीय सौंदर्य की रसानुभूति करता रहता है, भले ही माध्यम कुछ न हो। भले ही वह विकास के साथ ही रमण कर रहा हो, उसे अपना प्रेमी परमेश्वर दिखाई भी न देता, हो तो भी प्रकृति के अंतराल से उसकी दिव्य वाणी और उसका दिव्य आश्वासन भरा प्रकाश फूटता ही रहता है।
निष्काम प्रेम में वह शक्ति है, जो प्रवाह बनकर फूटती है और न केवल दो-चार व्यक्तियों में वरन् हजारों लाखों के जीवन में आनंद का स्रोत बनकर उमड़ पड़ती है, वह हजारों कलुषित अंतःकरणों को धोकर उन्हें निर्मल बना देती है। तुलसीदास जी ने भगवान से प्रेम किया था, वह प्रेम जब बहुजन हिताय के रूप में फूटा तो न केवल परमात्मा के प्रति भक्ति श्रद्धा और विश्वास की लहरें फूटीं वरन् सेवा सहिष्णुता, दांपत्य प्रेम, पारिवारिक मर्यादा, संतोष, दया, करुणा, उदारता आदि ऊर्ध्वमुखी चेतनाओं की लहरें समाज में फूट निकलीं।
तुलसीदास जी नहीं रहे, पर उनकी आत्मा आज भी हजारों लोगों को अपनी आत्मा से मिलाकर ईश्वरीय आत्मा में परिणत करती है। ईश्वर के प्रति प्रेम का अर्थ स्वार्थ या संकीर्णता नहीं, वरन् अपने आपको उस मूल बिंदु के साथ जोड़ देना है, जो अपने आपको जन जन के जीवन में विकीर्ण करता रहता है। तात्पर्य यह है जब हम ईश्वर से प्रेम करते हैं, तब संसार में व्यक्त चेतना के प्रत्येक कण से प्रेम करते हैं, ईश्वर की यही परिभाषा भी तो है।
इस छोटी-सी बात को न समझ पाने के कारण या तो लोग ईश्वर प्रेम नाम पर कर्त्तव्य परायणता से विमुख होते हैं अथवा पदार्थ या शारीरिक प्रेम (वासना) में इतने आसक्त हो जाते हैं कि प्रेम की व्यापकता और अक्षुण्य सौंदर्य के सुख का उन्हें पता ही नहीं चलता। ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ विश्व सौंदर्य के प्रति अपने आपको समर्पित करना होता है। उसमें कहीं न तो आसक्ति का भाव आ सकता है और न विकार। यह दोष तो उसी प्रेम में होंगे, जिसे केवल स्वार्थ और वासना के लिए किया जाता है’
जीवन भर हम जिन व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं, ईश्वर प्रेम का प्रकाश उन सबके प्रति प्रेम के रूप में भी प्रस्फुटित होता है। इसलिए ईश्वर प्रेम और समाज सेवा में कोई अंतर नहीं है। दोनों ही स्थितियों में आत्म सुख विश्वास और आत्म कल्याण का उद्देश्य भगवान की प्रसन्नता होनी चाहिए। भगवान की प्रसन्नता का अर्थ है कि उस प्रेम में भय, कायरता, क्षणिक सुख का आभास न होकर शाश्वत प्रफुल्लता और प्रमोद होना चाहिए। ऐसा प्रेम कभी बन्धनकारक या रुकने वाला नहीं होता। उसकी धाराएँ निरंतर जीवन को प्राणवान बनाती रहती हैं। वह मनुष्य ऊपर से चाहें कितना ही कठोर क्यों न दिखाई देता हो, उसके भीतर आत्मीयता की लहरें निरंतर हिलोरें ले रही होती है।
इंद्रियों के आकर्षण फुसलाने से नहीं, कठोरता से दमन किए जाते हैं और इसके लिए साहस की आवश्यकता होती है। दो आत्म दमन कर सकता है, वही सच्चा विजेता है। सच्चा विजेता ही सच्चा प्रेमी और ईश्वर का भक्त होता है। यह बात कुछ अटपटी सी लगती है, किंतु कर्मयोग के सच्चे साधक को कठोरता में भी भावशीलता का संपूर्ण आनंद मिलता है। इसलिए उसे मोह की आवश्यकता नहीं होती वरन् मोह के बीच में भी एक दिव्य प्रकाश की अनुभूति का आनंद लिया जा सकता है।
मर्यादाओं के पालन में जो कठोरता है, उसमें आत्मीयता का अभाव नहीं होता। अपनत्व तो संसार के कण-कण में विद्यमान है। ऐसा कौन-सा प्राणी है, ऐसा कौन-सा पदार्थ है जहाँ मैं नहीं हूँ। प्राणी-पशु, कीट-पतंग सभी के अंदर तो अहं भाव से परमात्मा बैठा हुआ है, पर तो भी किसी के लिए वह बंधन तो नहीं है ? वह बंधन मुक्त आनंद की स्थिति है, इसलिए वह किसी को आनंद से गिराएगा क्यों ? वह दया और करुणा का सागर है, लोगों को उससे वंचित रखेगा क्यों ? लेकिन वह यह भी न चाहेगा कि एक जीवन दूसरे जीव की आकांक्षाओं और मर्यादाओं पर छा जाए। संसार उसी का है, पर तो भी वह इतना दयालु है कि किसी पर अपनी उपस्थिति भी प्रकट नहीं करता, किंतु मर्यादाओं के मामले में वह कठोर और निपुण है। किसी भी दुष्कर्म को प्राणी उससे छिपाकर नहीं ले जा सकता।
उसका अपनत्व निष्काम है, इसलिए जीवन लक्ष्य की प्राप्त और अपने जीवन भाव को ब्राम्हीभाव में परिणत करने के लिए मनुष्य को उन्हीं नियमो का पालन करना अनिवार्य हो जाता है।
अपनत्व पृथ्वी की मिट्टी, सूर्य के कण और विश्व के कण-कण में व्याप्त परमाणुओं में छिपा स्पंदन है। वह स्वर्गीय है, वह मर्त्यभाव में भी अमृतत्व का संचार किया करता है, जड़ में भी चेतनता की अनुभूति कराया करता है। इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि अपनी साधना के अंतिम दिनों में महर्षि विश्वामित्र ने नदियों से बातचीत की थी। ऋग्वेद में ऐसे सूक्त हैं जिनके देवता नदीं है और दृष्टा ने उनसे बातचीत की है। उस वार्तालाप में और कुछ आधार भले ही न हो, पर उसमें समस्त जड़ चेतन जगत के प्रति आत्मारोपण का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत है।
उस विज्ञान को समझने में भले ही किसी को देर लगे, किंतु भावनाओं में जड़ पदार्थों को भी चेतन कर देने की शक्ति है और प्रेम इन समस्त भावनाओं का मूल है। इसलिए यह कहना अत्युक्ति नहीं कि आत्मीयता संपन्न व्यक्ति के लिए संसार में चेतन ही नहीं जड़ भी इतने ही सुखदायक होते हैं। जड़ भी प्रेम के अधीन होकर नृत्य करते हैं। प्रेम के लिए सारा संसार तड़पता रहता है। जो इस तड़पन को समझ कर, लेने की नहीं देने और निरंतर देने की ही बात सोचता है, सारा संसार उसके चरणों पर निवेदित हो जाता है।
प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण-
क्या रागी और क्या विरागी, सभी यह कहते पाए जाते हैं कि-यह संसार मिथ्या
है, भ्रम है, दुःखों का आगार है’’, किंतु तब भी सभी
जी रहे
हैं। ऐसा भी नहीं कि लोग विवशतापूर्वक जी रहे हैं। इच्छापूर्वक जी रहे हैं
और जीने के लिए अधिक से अधिक चाहते हैं, सभी मरने से डरते हैं।
कोई
भी करना नहीं चाहता।
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- आत्मीयता का माधुर्य और आनंद
- सघन आत्मीयता : संसार की सर्वोपरि शक्ति
- प्रेम संसार का सर्वोपरि आकर्षण
- आत्मीयता की शक्ति
- पशु पक्षी और पौधों तक में सच्ची आत्मीयता का विकास
- आत्मीयता का परिष्कार पेड़-पौधों से भी प्यार
- आत्मीयता का विस्तार, आत्म-जागृति की साधना
- साधना के सूत्र
- आत्मीयता की अभिवृद्धि से ही माधुर्य एवं आनंद की वृद्धि
- ईश-प्रेम से परिपूर्ण और मधुर कुछ नहीं
अनुक्रम
विनामूल्य पूर्वावलोकन
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