सिनेमा एवं मनोरंजन >> सपनों को साकार किया सपनों को साकार कियाविश्वनाथ गुप्त
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धुंधीराज गोविंद फाल्के, जो आगे चलकर दादा साहेब फाल्के के नाम से मशहूर हुआ, की बायोग्राफी...
भारतीय सिनेमा के जनक
दादा साहेब फाल्के
(पत्नी के गहने गिरवी रखकर फिल्म बनाई)
वर्ष 1910 के क्रिसमय के दिन थे। 40 वर्ष का एक व्यक्ति कोई रोजगार या
कामधंधा न होने के कारण बहुत परेशान रहता था। इसलिए अपने परेशान दिमाग को
थोड़ा आराम पहुँचाने के लिए उसने एक फिल्म देखने का विचार किया।
वह मूक फिल्मों का जमाना था। फ्रांस के लुमिएर बंधुओं ने 1895 में मूक फिल्मों की शुरुआत कर दी थी। बंबई (अब मुंबई) में ये फिल्में 7 जुलाई, 1896 को पहली बार भारत के लोगों ने देखीं। उसके बाद तो ऐसी फिल्में काफी तादाद में बनने लगीं। बंबई जैसे महानगर में ये दर्शकों को बड़ी संख्या में आकर्षित कर रही थीं।
बंबई के एक सिनेमाघर–अमेरिका-इंडिया सिनेमा–में 40 वर्ष का वह परेशान व्यक्ति शनिवार के दिन ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म देखने गया। इस फिल्म को देखने के बाद उस व्यक्ति के परेशान दिमाग की बेंचैनी और बढ़ गई, लेकिन वह बेचैनी दूसरी तरह की थी। वह उस फिल्म के बारे में थी जो उसने देखी थी। वह घर आकर उस फिल्म के बारे में सोचने लगा। रात-भर उसे नींद नहीं आई, क्योंकि उसके दिमाग में बार-बार उस फिल्म की ही बातें आ रही थीं। उस दिन के बाद उसने उस फिल्म को कई बार देखा। अगले दो महीनों में उसने और भी कई फिल्में देखीं। जो भी फिल्म वह देखता, उसके हर दृश्य का विश्लेषण करता। फिल्में देखकर वह सोचता–क्या हमारे यहाँ ऐसी फिल्में नहीं बन सकतीं ? इन फिल्मों ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। उसने स्वयं फिल्म बनाने का निश्चय किया।
उस 40 वर्षीय बेरोजगार व्यक्ति का नाम था–धुंधीराज गोविंद फाल्के, जो आगे चलकर दादा साहेब फाल्के के नाम से मशहूर हुआ। जिस वक्त फाल्के ने विदेशों से आई हुई फिल्में देखीं उस समय उसके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं था। परिवार का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी भी उसके सिर पर थी, फिर भी फिल्म बनाने की धुन उस पर सवार थी।
फाल्के का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को महाराष्ट्र में नासिक के पास स्थित त्र्यंबकेश्वर नामक स्थान पर हुआ। बचपन में उसका रुझान कला की तरफ हो गया। जब वह 15 वर्ष का था तब उसके पिता बंबई के विल्सन कॉलेज में अध्यापक नियुक्त हुए। फाल्के ने भी वहाँ के जे० जे० स्कूल ऑफ आट्र्स में दाखिला ले लिया। वहाँ से ड्राइंग का कोर्स किया। उसके बाद बड़ौदा (वड़ोदरा) के प्रसिद्ध कला-भवन में विभिन्न कलाओं की शिक्षा प्राप्त की। इनमें फोटोग्राफी, भवन-निर्माण, पेंटिंग आदि शामिल थीं। बड़ौदा में ही फाल्के ने जादू-विद्या सीखी। ये सभी कलाएँ आगे चलकर फाल्के के बहुत काम आईं।
बड़े होकर फाल्के ने जब आजीविका कमाने की बात सोची तो सबसे पहले फोटोग्राफी का धंधा शुरू किया। इस तरह फोटोग्राफी को अपना मुख्य व्यवसाय बनाकर, कुछ दूसरे काम भी वह करने लगा। नाटक कंपनियों के लिए दृश्य भी उसने बनाए।
1903 में फाल्के को सरकार के पुरातत्त्व विभाग में फोटोग्राफर तथा नक्शानवीस की नौकरी मिल गई। नौकरी बड़ी अच्छी और आरामदायक थी। लेकिन उन दिनों स्वदेशी आंदोलन जोरों पर था, उसका असर फाल्के पर भी भी पड़ा। इसलिए सरकारी नौकरी छोड़कर कोई अपना स्वतंत्र व्यवसाय करने की बात उसने सोची। काफी कोशिशों के बावजूद कोई सफलता उस काम में नहीं मिली। सरकारी नौकरी छोड़ देने और दूसरा कोई और काम न होने के कारण उसका दिमाग परेशान रहने लगा। इसी परेशानी की हालत में उसने फिल्में देखनी शुरू कीं और वे फिल्में देखकर उस पर फिल्म बनाने की धुन सवार हुई।
फाल्के धुन के बड़े पक्के थे। जब कोई धुन सवार होती तो फिर हो ही जाती। वे अपनी धुन को पूरा करने में लग जाते। सो जब फिल्म बनाने की धुन सवार हुई तो वे लग गए उसी काम में। उनके पास कुछ कीमती सामान था, उसको बेचकर कुछ रुपए एकत्र किए। उसके बाद फिल्म बनाने का सपना पूरा करने में लग गए।
करीब एक साल तक तो वे फिल्म बनाने की मशीन, उसकी कीमत, किताबों तथा फिल्म बनाने की अन्य वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करने में लगे रहे। उन्होंने कई किताबें पढ़ीं और कई फिल्में देखीं। किताबें पढ़कर व फिल्में देखकर वे फिल्म बनाने के बारे में सोचते रहते। वे इतना अधिक सोचते थे कि उन्हें नींद बहुत कम आती थी, मुश्किल से तीन घंटे वे सो पाते थे। रात-दिन की पढ़ाई तथा फिल्में देखने के कारण उनकी आँखों की रोशनी पर बुरा प्रभाव पड़ा। गनीमत यही रही कि रोशनी बिलकुल समाप्त नहीं हुई।
काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने लंदन जाने का निश्चय किया। इसका कारण यह था कि वे वहाँ फिल्म बनाने का सामान खरीदने के साथ फिल्म-निर्माण के संबंध में सही जानकारी भी प्राप्त करना चाहते थे। उनके रिश्तेदारों ने उनको लंदन जाने से मना किया। उनके विचार से वहाँ जाना समय और पैसे की बर्बादी करनी थी। सो एक बार तो फाल्के ने भारत में ही पाँच पौंड में एक मामूली कैमरा खरीदा। उस कैमरे से उन्होंने ‘मटर के पौधे के विकास’ पर एक फिल्म बनाई। यह फिल्म उन्होंने अपने एक मित्र को दिखाई। उसका आशय यह था कि मित्र उनकी फिल्म बनाने की योग्यता से प्रभावित होकर कुछ कर्ज दे दे। मित्र ने कुछ कर्ज दिया, लेकिन वह काफी नहीं था। फाल्के ने अपनी जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर दस हजार रुपए का कर्ज और लिया। रिश्तेदारों की कड़वी-तीखी बातों का भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। रुपयों का प्रबंध करके वे 1 फरवरी, 1912 को लंदन के लिए रवाना हो गए।
लंदन में फाल्के ‘बायस्कोप’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका के संपादक कैबोर्ने से मिले। कैबोर्ने ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि फिल्म बनाने का काम बड़ा मुश्किल और टेढ़ा है और लंदन जैसी जगह में भी बहुत-से लोग उस काम को नहीं कर सके। लेकिन उनके समझाने का फाल्के पर कोई असर नहीं हुआ। वे तो पक्ता इरादा करके ही लंदन आए थे। फिर जब कैबोर्ने ने फाल्के के तकनीकी ज्ञान तथा उत्साह को देखा तो वे भी उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए।
सबसे पहले तो कैबोर्ने ने आठ दिनों तक फाल्के से फिल्म-निर्माण से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श किया, फिर वे आगे बढ़े। उन आठ दिनों में फाल्के और कैबोर्ने के बीच अच्छी मित्रता हो गई। फिर मित्र को मित्र का साथ तो देना ही था।
कैबोर्ने ने फाल्के को विलियमसन कैमरा खरीदवाया। उस जमाने में वह फिल्म बनाने का सबसे अच्छा कैमरा समझा जाता था। कैमरा दिलवाने के बाद कैबोर्ने ने फाल्के को एक फिल्म-निर्माता सेसिल हेपवर्थ से मिलवाया। इस निर्माता ने फिल्म-निर्माण संबंधी काफी अच्छी जानकारी फाल्के को दी। फिर अपने स्टूडियों के सभी विभाग फाल्के को दिखाए, उनका काम समझाया। इस तरह फाल्के को फिल्म-निर्माण की अच्छी-खासी जानकारी तो लंदन में मिली ही, साथ ही फिल्म बनाने का कैमरा भी मिल गया। अब उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा हो जाएगा, यह सोचकर फाल्के 1 अप्रैल, 1912 को वापस बंबई लौटे।
सबसे पहले तो उन्होंने अपने नए कैमरे से अपने परिवार के सदस्यों की ही एक फिल्म बनाई। इस फिल्म को लेकर वे एक सज्जन के पास गए, जो उन्हें यह फिल्म देखकर कुछ कर्ज दे सकते थे। वे कर्ज देने को राजी भी हो गए, लेकिन उसके लिए वे कोई कीमती वस्तु गिरवी रखवाना चाहते थे। फाल्के की धर्मपत्नी श्रीमती सरस्वती बाई अपने गहने गिरवी रखने को तैयार हो गईं। इस तरह फिल्म बनाने के लिए रुपयों की व्यवस्था तो हो गई, लेकिन समस्याएँ और भी थीं।
वह मूक फिल्मों का जमाना था। फ्रांस के लुमिएर बंधुओं ने 1895 में मूक फिल्मों की शुरुआत कर दी थी। बंबई (अब मुंबई) में ये फिल्में 7 जुलाई, 1896 को पहली बार भारत के लोगों ने देखीं। उसके बाद तो ऐसी फिल्में काफी तादाद में बनने लगीं। बंबई जैसे महानगर में ये दर्शकों को बड़ी संख्या में आकर्षित कर रही थीं।
बंबई के एक सिनेमाघर–अमेरिका-इंडिया सिनेमा–में 40 वर्ष का वह परेशान व्यक्ति शनिवार के दिन ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म देखने गया। इस फिल्म को देखने के बाद उस व्यक्ति के परेशान दिमाग की बेंचैनी और बढ़ गई, लेकिन वह बेचैनी दूसरी तरह की थी। वह उस फिल्म के बारे में थी जो उसने देखी थी। वह घर आकर उस फिल्म के बारे में सोचने लगा। रात-भर उसे नींद नहीं आई, क्योंकि उसके दिमाग में बार-बार उस फिल्म की ही बातें आ रही थीं। उस दिन के बाद उसने उस फिल्म को कई बार देखा। अगले दो महीनों में उसने और भी कई फिल्में देखीं। जो भी फिल्म वह देखता, उसके हर दृश्य का विश्लेषण करता। फिल्में देखकर वह सोचता–क्या हमारे यहाँ ऐसी फिल्में नहीं बन सकतीं ? इन फिल्मों ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी। उसने स्वयं फिल्म बनाने का निश्चय किया।
उस 40 वर्षीय बेरोजगार व्यक्ति का नाम था–धुंधीराज गोविंद फाल्के, जो आगे चलकर दादा साहेब फाल्के के नाम से मशहूर हुआ। जिस वक्त फाल्के ने विदेशों से आई हुई फिल्में देखीं उस समय उसके पास आमदनी का कोई जरिया नहीं था। परिवार का भरण-पोषण करने की जिम्मेदारी भी उसके सिर पर थी, फिर भी फिल्म बनाने की धुन उस पर सवार थी।
फाल्के का जन्म 30 अप्रैल, 1870 को महाराष्ट्र में नासिक के पास स्थित त्र्यंबकेश्वर नामक स्थान पर हुआ। बचपन में उसका रुझान कला की तरफ हो गया। जब वह 15 वर्ष का था तब उसके पिता बंबई के विल्सन कॉलेज में अध्यापक नियुक्त हुए। फाल्के ने भी वहाँ के जे० जे० स्कूल ऑफ आट्र्स में दाखिला ले लिया। वहाँ से ड्राइंग का कोर्स किया। उसके बाद बड़ौदा (वड़ोदरा) के प्रसिद्ध कला-भवन में विभिन्न कलाओं की शिक्षा प्राप्त की। इनमें फोटोग्राफी, भवन-निर्माण, पेंटिंग आदि शामिल थीं। बड़ौदा में ही फाल्के ने जादू-विद्या सीखी। ये सभी कलाएँ आगे चलकर फाल्के के बहुत काम आईं।
बड़े होकर फाल्के ने जब आजीविका कमाने की बात सोची तो सबसे पहले फोटोग्राफी का धंधा शुरू किया। इस तरह फोटोग्राफी को अपना मुख्य व्यवसाय बनाकर, कुछ दूसरे काम भी वह करने लगा। नाटक कंपनियों के लिए दृश्य भी उसने बनाए।
1903 में फाल्के को सरकार के पुरातत्त्व विभाग में फोटोग्राफर तथा नक्शानवीस की नौकरी मिल गई। नौकरी बड़ी अच्छी और आरामदायक थी। लेकिन उन दिनों स्वदेशी आंदोलन जोरों पर था, उसका असर फाल्के पर भी भी पड़ा। इसलिए सरकारी नौकरी छोड़कर कोई अपना स्वतंत्र व्यवसाय करने की बात उसने सोची। काफी कोशिशों के बावजूद कोई सफलता उस काम में नहीं मिली। सरकारी नौकरी छोड़ देने और दूसरा कोई और काम न होने के कारण उसका दिमाग परेशान रहने लगा। इसी परेशानी की हालत में उसने फिल्में देखनी शुरू कीं और वे फिल्में देखकर उस पर फिल्म बनाने की धुन सवार हुई।
फाल्के धुन के बड़े पक्के थे। जब कोई धुन सवार होती तो फिर हो ही जाती। वे अपनी धुन को पूरा करने में लग जाते। सो जब फिल्म बनाने की धुन सवार हुई तो वे लग गए उसी काम में। उनके पास कुछ कीमती सामान था, उसको बेचकर कुछ रुपए एकत्र किए। उसके बाद फिल्म बनाने का सपना पूरा करने में लग गए।
करीब एक साल तक तो वे फिल्म बनाने की मशीन, उसकी कीमत, किताबों तथा फिल्म बनाने की अन्य वस्तुओं की जानकारी प्राप्त करने में लगे रहे। उन्होंने कई किताबें पढ़ीं और कई फिल्में देखीं। किताबें पढ़कर व फिल्में देखकर वे फिल्म बनाने के बारे में सोचते रहते। वे इतना अधिक सोचते थे कि उन्हें नींद बहुत कम आती थी, मुश्किल से तीन घंटे वे सो पाते थे। रात-दिन की पढ़ाई तथा फिल्में देखने के कारण उनकी आँखों की रोशनी पर बुरा प्रभाव पड़ा। गनीमत यही रही कि रोशनी बिलकुल समाप्त नहीं हुई।
काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने लंदन जाने का निश्चय किया। इसका कारण यह था कि वे वहाँ फिल्म बनाने का सामान खरीदने के साथ फिल्म-निर्माण के संबंध में सही जानकारी भी प्राप्त करना चाहते थे। उनके रिश्तेदारों ने उनको लंदन जाने से मना किया। उनके विचार से वहाँ जाना समय और पैसे की बर्बादी करनी थी। सो एक बार तो फाल्के ने भारत में ही पाँच पौंड में एक मामूली कैमरा खरीदा। उस कैमरे से उन्होंने ‘मटर के पौधे के विकास’ पर एक फिल्म बनाई। यह फिल्म उन्होंने अपने एक मित्र को दिखाई। उसका आशय यह था कि मित्र उनकी फिल्म बनाने की योग्यता से प्रभावित होकर कुछ कर्ज दे दे। मित्र ने कुछ कर्ज दिया, लेकिन वह काफी नहीं था। फाल्के ने अपनी जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर दस हजार रुपए का कर्ज और लिया। रिश्तेदारों की कड़वी-तीखी बातों का भी उन पर कोई असर नहीं हुआ। रुपयों का प्रबंध करके वे 1 फरवरी, 1912 को लंदन के लिए रवाना हो गए।
लंदन में फाल्के ‘बायस्कोप’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका के संपादक कैबोर्ने से मिले। कैबोर्ने ने उन्हें समझाने की कोशिश की कि फिल्म बनाने का काम बड़ा मुश्किल और टेढ़ा है और लंदन जैसी जगह में भी बहुत-से लोग उस काम को नहीं कर सके। लेकिन उनके समझाने का फाल्के पर कोई असर नहीं हुआ। वे तो पक्ता इरादा करके ही लंदन आए थे। फिर जब कैबोर्ने ने फाल्के के तकनीकी ज्ञान तथा उत्साह को देखा तो वे भी उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए।
सबसे पहले तो कैबोर्ने ने आठ दिनों तक फाल्के से फिल्म-निर्माण से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श किया, फिर वे आगे बढ़े। उन आठ दिनों में फाल्के और कैबोर्ने के बीच अच्छी मित्रता हो गई। फिर मित्र को मित्र का साथ तो देना ही था।
कैबोर्ने ने फाल्के को विलियमसन कैमरा खरीदवाया। उस जमाने में वह फिल्म बनाने का सबसे अच्छा कैमरा समझा जाता था। कैमरा दिलवाने के बाद कैबोर्ने ने फाल्के को एक फिल्म-निर्माता सेसिल हेपवर्थ से मिलवाया। इस निर्माता ने फिल्म-निर्माण संबंधी काफी अच्छी जानकारी फाल्के को दी। फिर अपने स्टूडियों के सभी विभाग फाल्के को दिखाए, उनका काम समझाया। इस तरह फाल्के को फिल्म-निर्माण की अच्छी-खासी जानकारी तो लंदन में मिली ही, साथ ही फिल्म बनाने का कैमरा भी मिल गया। अब उनका फिल्म बनाने का सपना पूरा हो जाएगा, यह सोचकर फाल्के 1 अप्रैल, 1912 को वापस बंबई लौटे।
सबसे पहले तो उन्होंने अपने नए कैमरे से अपने परिवार के सदस्यों की ही एक फिल्म बनाई। इस फिल्म को लेकर वे एक सज्जन के पास गए, जो उन्हें यह फिल्म देखकर कुछ कर्ज दे सकते थे। वे कर्ज देने को राजी भी हो गए, लेकिन उसके लिए वे कोई कीमती वस्तु गिरवी रखवाना चाहते थे। फाल्के की धर्मपत्नी श्रीमती सरस्वती बाई अपने गहने गिरवी रखने को तैयार हो गईं। इस तरह फिल्म बनाने के लिए रुपयों की व्यवस्था तो हो गई, लेकिन समस्याएँ और भी थीं।
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