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अँधेरे में जुगनू

अजितकुमार

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4173
आईएसबीएन :9789380146638

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‘अँधेरे में जुगनू’ अजितकुमार का तीसरा संस्मरण है...

Andhere Mein Jugnu - A Hindi Book - by Ajit Kumar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अजितकुमार की आरंभिक ख्याति हिंदी में कवि की बनी, पर क्रमशः उनकी रुचि अन्य विधाओं में बढ़ती गई। कविता की संजीवनी शक्ति से स्फूर्ति पाते हुए उन्होंने वस्तु और विधा के बीच खड़े किए गए अनावश्यक बाड़े लाँघने का यत्न किया। इस क्रम में उन्होंने बिलकुल निजी स्तर पर ‘अंकन’ की पद्धति का भी विकास किया, जिसका ताज़ा नमूना ‘कविवर बच्चन के साथ’ की शक्ल में सामने आया है।

‘अँधेरे में जुगनू’ से पहले अजितकुमार के संस्मरण ‘दूर वन में’ और ‘निकट मन में’ के माध्यम से पढ़े-सराहे जा चुके हैं। यहाँ उनके शांत, समावेशी, रचनात्मक गद्य के कुछ अन्य उदाहरण मौजूद हैं, जो हिंदी में इस समय तीव्र हो चली ‘उठा-पटक’ या ‘तूतू-मैंमैं’ से निस्संग रह वर्तमान के दोनों छोरों—अतीत और भविष्य—के बीच अंत-सूत्रों की पड़ताल में संलग्न दिखेंगे। संभव है, वे वह भरोसा भी दे सकें कि समूचा जीवन अरण्य में रुदन भर नहीं, अँधेरे में टिमकते जुगनू...रात में झिलमिल तारे...दूर वन से आती पुकार...निकट मन में उठती हिलोर...मानवीय कृपा...करुणा...ममता...इस लोक में बहुत कुछ अलौकिक भी है। उसका संस्पर्श हमें धीरज बँधाए, उठ खड़े होने और चलने की हिम्मत दे, यही इस कृति का विनम्र आग्रह या सरल निवेदन है। विभिन्न अवसरों पर लिखे, छपे या पढ़े ये संस्मरण अपने प्रतिपाद्य को आलोकिक करने के साथ अंतर्धारा में बहते या छाया में स्थित जिस मन को खोलते, मूँदते हैं, उसे बूझना आपके लिए प्रीतिकर होगा।

अँधेरे में जुगनू


लगभग अस्सी की उम्र में, जब मेरी याददाश्त का यह हाल है कि चाय पी चुकने के बाद ख़ाली प्याला हाथ में थमा रह जाता है, उसे परे रखना भूल जाता हूँ और फ़ोन बंद करने के बाद सर खुजाता रहता हूँ कि अभी-अभी किससे और क्या बात हुई थी, तब भी अकसर बचपन और तरुणाई की कई तस्वीरें मेरी बूढ़ी आँखों में झलक उठती हैं—अँधेरे में जुगनू की तरह जिसके बारे में सुना तो सबने होगा, लेकिन जिन्होंने उसे देखा भी है, वे जानते हैं कि वह उड़ते-उड़ते जलने-बुझने वाला एक नन्हा-सा प्राणी है, जो जलते वक़्त रात का अँधेरा कुछ कम कर देता है तो बुझने पर उसे थोड़ा बढ़ाता जान पड़ता है।

जीवन में दोनों की जगह हैं—अँधेंरे की भी, उजाले की भी, पर आदमी हमेशा अँधेरे से बच उजाले की तरफ़ आना चाहता है...कल शाम जब मैं टहलने के दौरान थोड़ा दूर निकल गया और लौटते समय एकाध लोगों से पूछना पड़ा—क्या आप मुझे अमुक व्यक्ति के घर का रास्ता बता सकते हैं, जो अमुक मोहल्ले के किसी मकान में रहते हैं?—तो भटककर वापस पहुँचने पर यह ख़याल मन में उठा कि इससे पहले कि आदमी अपना नाम, पता, चेहरा, दस्तखत, बैंक खाता वग़ैरा भूल जाए, उसे अपने जुगनुओं की सँभाल करनी चाहिए,—यह जानते हुए भी कि जुगनू को मुट्ठी या पोटली में बाँधो तो वह अधिक समय रह नहीं पाता; उसे तो खुले में ही डोलना और अपनी रफ़्तार से जलना-बुझना भाता है।...

गुदगुदाती या कचोटती यादें भी जहाँ की और जब की हों, वहीं और तभी उन्हें छोड़े रखना शायद ठीक होगा। उन्हें दोहराने की कोशिश एक तरह से तो पोटली में बाँधे गए जुगनू की तरह, गला घोंटने में मज़ा लेने जैसा हुआ। पर इस भोलेपन का क्या किया जाए कि आम तौर से ख़ुद ज़िंदा रहने या सबको ज़िंदा रखने का यही एक ढंग समझा जाता है।

भोलापन ही कहूँगा इसे कि अपने बचपन की सबसे पहली और मज़ेदार यादें मुझे अपने गाँव वाले घर के लंबे-चौड़े आँगन में, चूड़ीदार पाजामें की जो पोशाक मेरे छुटपन में ननिहाल—लखनऊ—से आई थी, उसे पहनने में जितना वक़्त लगता था, उसका चौगुना वक़्त महज़ पाजामा उतारने में गुजरता, इसलिए और भी ऐसा होने के दौरान मैं अपना पंजा तिरछा किए रहता था ताकि सँकरा पायँचा आसानी से पैर के बाहर निकलने न पाए।

बचपन की पाठशाला से लौटने पर बाहर वाले कपड़े उतार घर के कपड़े पहन हाथ-मुँह धो, भोजन करने बैठूँ, इस दैनिक आदेश का पालन करने के दौरान, घर की सेविका महराना का बेटा, मेरा हमउम्र ‘पग्गल’ मेरी इच्छा जान, पूरे आँगन में मुझे चकरघिन्नी की तरह घिर्राता था और यह खेल तब तक चलता रहता था, जब तक कि समूचा पाजामा धूल-मिट्टी से चीकट न हो जाता, या कोई बड़ा-बूढ़ा वहाँ पहुँच डाँट-फटकार न शुरू कर देता...

वह पाजामा ज़रूर ही किसी मज़बूत कपड़े से बना होगा क्योंकि उसका मटमैला होना भले याद है, उसके फटने-घिसने-उधड़ने का ख़याल नहीं आता। हाँ, एक सुहाना सपना पलक झपकते भयानक दुःस्वप्न बन जाए; दिप-दिप करता एक जुगनू सहसा अपना दम तोड़ दे...रोशनी की कौंध का इंतजार करते-रहते समूची उम्र अँधेरे में गुज़र जाए...दुधमुँहे दाँतों वाला एक बच्चा अगले ही क्षण पोपले मुँह का खूसट बूढ़ा बन जाए—कुछ ऐसी अनुभूति मन पर अमिट छाप डाल चुकी है...

मैं तनिक भी नहीं जानता कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ लेकिन एक रोज़ जब मैं उस मनमाने खेल में पूरी तरह मगन था, बड़े-बड़े दाँतों और ख़ूँख़ार आँखों वाली एक भयानक औरत—एक बदसूरत चुड़ैल—अकस्मात् हमारे घर में घुस, आँगन के बीचोबीच खड़ी हो कुछ इस ढंग से खिलखिलाने लगी कि भरभंड हो गया। अपना वह खेल मैं दोबारा कभी नहीं खेल पाया।

एक क़दम आगे...दो क़दम पीछे


अगर कोई मुझसे पूछे कि तुम्हारी सबसे पहली स्मृति क्या है ? तो अचकचाकर कहूँगा—‘स्मृतियाँ कहाँ ?’ जब पूरे जीवन वर्तमान और अतीत को भुलाने की लगातार कोशिश में लगा रहा तो स्मृतियाँ शेष रहने का प्रश्न ही नहीं उठता। बस, कुछ बिंब हैं और गहरे अँधेरे में सहसा चमक जानेवाली बिजली की तरह कुछ कौंधें, जिनके सहारे पूरे लंबे अतीत को याद कर पाना मेरे लिए संभव तो नहीं, हाँ, उम्मीद कर सकता हूँ कि अंधकार में डूबा हुआ जब मैं जीवन के किसी मोड़ पर खड़ा होऊँगा तो सहसा कोई टूटता हुआ सितारा क्षण-भर के लिए अपनी रोशनी बिखराकर मुझे अपने आसपास की चीजों, लोगों या स्थितियों का थोड़ा अहसास करा जाएगा, जिन्हें अंधकार फिर से घिर आने पर शायद मैं टटोलने की कुछ कोशिश कर सकूँ या उम्मीद करूँ कि थोड़ी देर में जब अँधेरे के बीच कुछ सुझाई देना शुरू होगा तो मैं जान पाऊँगा—‘नहीं, यह घर के सामने का नाबदान नहीं, पूजा की थाली में ताई के द्वारा सहेजकर रखा गया दही, रोली, अक्षत और कलावा है...’

अपनी इस मनोभूमि में, पीछे मुड़कर जब देखता हूँ तो सिलसिलेवार घटनाएँ याद नहीं आतीं...एक में दूसरी गुँथी, घुसी, गड्डमड्ड करती जान पड़ती हैं। लखनऊ में ननिहाल के बड़े-से घर की वह कोठरी निगाह से उभरती है, जहाँ मेरे समेत हमारे अधिकांश सगे—मौसेरे, ममेरे भाई-बहनों का जन्म हुआ था। उन सबमें अपनी पीढ़ी की मैं पहली ही संतान था और यह कहना तो हास्यास्पद होगा कि मैंने ख़ुद अपने आप को जन्म के क्षण से देख या पहचान लिया था, लेकिन उस अंधी घुप, लोबान, धुएँ और हरीरे की गंध से भरी हुई कोठरी के दरवाज़े तक इतनी बार जाने की यादें मन से उभरती हैं—गोकि उसके भीतर जाना हम बच्चों के लिए निषिद्ध था, वह केवल सद्यः प्रसवा माताओं और नवजात संतानों के लिए सुरक्षित था—लेकिन वह एक रहस्यलोक की भाँति सदा मेरे लिए रहा, जिसमें आँखें गड़ाकर देखने के बाद भी कुछ ख़ास नज़र नहीं आता था। केवल एक तरह की सीलन और दम घोंट देने वाला ठहराव...आज जब अपने जन्म के लगभग 65-70-80 वर्ष बाद मैं उस कोठरी को याद करता हूँ जिसके भीतर शायद मैंने ज़िंदगी के कुल तेरह दिन गुज़ारे होंगे तो एक तरह की छटपटाहट के साथ अहसास होता है कि नहीं तेरह दिन क्यों, तुम्हारी तो लगभग पूरी जिंदगी ही इस अंधी कोठरी में बीती है...

लेकिन इससे पहले कि यह आत्मदया मुझे पूरी तरह घेरकर अपने आप में डुबो ले एक और बिंब मेरी आँखों में कौंधता है और वह है उजलें पंखों वाली काँव-काँव करती बहुत-सी बत्तखों का, जो मेरे चारों ओर चक्कर काट रही हैं और जिनके नाते मैं गहरी नींद में सो नहीं पाता। फिर एक सपना-सा देखता हूँ कि उनमें से एक बत्तख आकर मेरे नन्हे तीन दिन के शरीर को अपने उजले पंखों से ढक लेती है और मैं एक गहरी नींद, एक सुहानी नींद, में खो जाता हूँ।

ज़रूर ही यह कोई शैशव की स्मृति नहीं बल्कि बचपन में माँ और नानी के मुँह से कई बार सुनी गई एक कहानी की पुनः रचना है, जिसे आज मैं भले ही सच मान लेना चाहूँ लेकिन है तो वह सुने हुए का पुनः स्मरण-भर ही, जिसे मैं चाहूँ तो भी जीवन का प्रथम अनुभव नहीं मान सकता। हाँ, यह कामना मैंने असंख्य बार अवश्य की है कि मृत्यु के आसन्न संकट में से कोई मुझे अपना कोमल स्पर्श देकर उबार ले। इतना कृतघ्न तो नहीं हूँ कि कहूँ ऐसा कभी नहीं हुआ। जब वह जीवन की पहली अँगड़ाई के साथ ही शुरू हुआ था तो शायद उसकी पुनरावृत्ति भी होनी ही थी।

मेरे परिवार की अत्यंत प्रिय कहानियों में से एक यह है कि जन्म के तुरंत बाद मैं इतना अधिक बीमार हो गया था कि माता-पिता, नाना-नानी सभी ने मेरे जीवन की आशा ही छोड़ दी थी। तब किसी जानकार या हकीम ने कहा था—बत्तखें मँगवाइए—अगर उनमें से कोई एक बत्तख अपने आप ही इस बच्चे को अंडे की तरह सेने के लिए तैयार हो गई तब तो इसकी ज़िंदगी बच जाएगी वरना इसके बचने की कोई उम्मीद नहीं। और—मेरी नानी बताया करती थीं—कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि सचमुच ही कई बत्तखों में से एक ने सौरी के भीतर आकर मुझे अपने अंक में भर लिया और अपनी उष्मता, परिचर्या या उपचार...जो भी नाम इस चमत्कार को दिया जा सके—से मेरी मुँदती हुई आँखों को उजाले की ओर वापस लौटाया। फिर उस बत्तख समेत बाकी सारी बत्तखें जहाँ से भी आई होंगी, वापस लौट गईं जबकि आज तक मुझे यह पता नहीं चल पाया—बावजूद कुछ बड़े होने पर बाबर और हुमायूँ की कहानी पढ़ने से जगी उत्सुकता बढ़ जाने के बाद—कि मुझे जीवनदान देनेवाली उस बत्तख का क्या हुआ होगा। वह स्वयं भी जीवित बची होगी या मर गई होगी। ख़ैर, मुझ जैसी बेहया वह हो भी नहीं सकती थी कि आज इतने सालों बाद भी न सिर्फ़ जी रही हो बल्कि एक दंतकथा को चटखारा लेकर दुहरा रही हो, लेकिन बहुत बार मुझे यह हैरत हुई है और मैंने आशा की है कि वह मेरी जीवनदायिनी पहली धाय दुनिया में कहीं न कहीं मौजूद ज़रूर होगी और अच्छा या बुरा जैसा भी हो, उसने अपना पूरा जीवन जिया होगा। बल्कि अपने बचपन की कुछ यादों में से एक याद मुझे यह भी है कि जब भी मुझे बत्तखों का झुंड दिखाई देता था मैं अपने डगमग पैरों से उनके पीछे काफ़ी दूर तक जाता था। फिर जब मेरी वह उम्र हुई कि हेंस क्रिश्चियन एंडरसन की प्रसिद्ध कहानी ‘द अगली डकलिंग’ (The Ugly Duckling) का हिंदी रूपांतर ‘बत्तख का बदसूरत बच्चा’ पढ़ सकूँ तो न जाने क्यों मेरी वह तलाश एक तरह से पूरी हुई और मैंने बत्तखों के पीछे दूर तक जाने की अपनी आदत छोड़ी।

एंडरसन की वह कहानी मुख्यतः क्या है ? शुरुआती ज़िंदगी का एक बदसूरत-सा बत्तख या हंस का नन्हा-सा चूज़ा अपनी माँ और बड़े भाई-बहनों की तरह तालाब में कुशलता के साथ तैर नहीं पाता...पानी में पैर डालते डरता है और पानी में पहुँच जाने पर भी डूबता-उतराता और तरह-तरह की भौंड़ी हरकतें करता है। तालाब के इर्द-गिर्द मौजूद तमाम बच्चे उस पर हँसते हैं और इशारा करके बताते हैं कि देखो-देखो, वह कितना फूहड़ है। लेकिन माँ बत्तख उसकी हिम्मत बढ़ाती है, उसे धैर्य का पाठ पढ़ाती है और कैसी मज़े की बात कि चार-छह दिन के भीतर ही वह भोंड़ा, भद्दा बच्चा भी बाकी सब हंसों-बत्तखों की ही तरह संतुलन और शोभा के साथ तैर सकने में कामयाब होता है, तालाब के इर्द-गिर्द मौजूद तमाम बच्चे उस हंस का बत्तख को देख मुग्ध होते हैं और उसकी सराहना करते नहीं थकते...

जब मैंने यह कहानी पढ़ी थी तो समझ नहीं पाया था कि बार-बार इसे पढ़ने का मन क्यों होता है। वह तो बहुत बाद में, लगभग अब कहीं जाकर समझ पाया हूँ कि इसे पसंद करने के पीछे मेरे मन की अपनी बेहद्द ज़रूरी यह ललक थी कि काश, जिस बत्तख माँ ने मुझे जीवन-दान दिया, वह मेरी शिक्षा-दीक्षा, संस्कार के लिए—मुझे धैर्य, साहस और शांति का पाठ पढ़ाने के वास्ते—मेरे आसपास ही कहीं होती। लेकिन यह दुर्भाग्य नहीं तो और क्या था कि एक बार चली जाने के बाद वह तो दुबारा कभी मुझे वापस नहीं मिली और मेरी निज की माँ ने जो भी शिक्षा मुझे देनी चाही उसे मैं अपने मन में अनुकूल नहीं पा सका। यह तो कैसे कहूँ कि उसे मैंने ग्रहण नहीं किया।

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