इतिहास और राजनीति >> पंचायती राज व्यवस्था : सिद्धान्त एवं व्यवहार पंचायती राज व्यवस्था : सिद्धान्त एवं व्यवहारनीतू रानी
|
3 पाठकों को प्रिय 235 पाठक हैं |
पंचायती राज व्यवस्था : सिद्धान्त एवं व्यवहार
पंचायतों के अधिकार, कार्य तथा शक्तियाँ कितनी स्वायत्त हैं, कितनी
जनोन्मुखी तथा सामाजिक, आर्थिक बदलाव और सामाजिक न्याय के लक्ष्य को भेद
पाने में कितनी सक्षम रहीं, इस सम्बन्ध में समस्याओं, समाधानों एवं
महत्त्व आदि का विवेचन-विश्लेषण विषय-वार इस पुस्तक में प्रस्तुत किया गया
है।
‘लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण’ में पंचायती राज संस्थाओं की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पंचायतों की परिकल्पना अपने देश में कोई नवीन नहीं, अपितु यह प्राचीन काल से ही मानव समाज के ताने-बाने का अभिन्न हिस्सा रही है। पंचायती राज संस्थाएँ भारत के ग्रामीण विकास में जो सहयोग प्रदान कर रही हैं वह किसी भी प्रकार कम नहीं है। पंचायती राज संस्थाओं का महत्त्व इस तथ्य से स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि अभी हाल में ही भारत सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप में एकरूपता लाने, उनको सुसंगठित एवं प्रभावी बनाने के उद्देश्य से भारतीय संविधान में संशोधन करके पंचायती राज अधिनियम 1993 को क्रियान्वित किया।
आजकल, 26 लाख से अधिक व्यक्ति पंचायतों के तीनों स्तरों पर चुने जाते हैं। प्रस्तुत शोध ग्रन्ध में पंचायती राज के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, सिद्धान्त एवं व्यवहार, महिलाओं और उनकी भागीदारी से उपजे प्रश्न तथा तृणमूल स्तर पर उभरते नेतृत्व एवं सम्बन्धित कार्यों की विस्तृत व्याख्या की गई है। साथ ही, उनके सम्मुख समस्याओं के निराकरण का यथासम्भव प्रयास भी किया गया है।
‘लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण’ में पंचायती राज संस्थाओं की अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पंचायतों की परिकल्पना अपने देश में कोई नवीन नहीं, अपितु यह प्राचीन काल से ही मानव समाज के ताने-बाने का अभिन्न हिस्सा रही है। पंचायती राज संस्थाएँ भारत के ग्रामीण विकास में जो सहयोग प्रदान कर रही हैं वह किसी भी प्रकार कम नहीं है। पंचायती राज संस्थाओं का महत्त्व इस तथ्य से स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि अभी हाल में ही भारत सरकार ने पंचायती राज संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप में एकरूपता लाने, उनको सुसंगठित एवं प्रभावी बनाने के उद्देश्य से भारतीय संविधान में संशोधन करके पंचायती राज अधिनियम 1993 को क्रियान्वित किया।
आजकल, 26 लाख से अधिक व्यक्ति पंचायतों के तीनों स्तरों पर चुने जाते हैं। प्रस्तुत शोध ग्रन्ध में पंचायती राज के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, सिद्धान्त एवं व्यवहार, महिलाओं और उनकी भागीदारी से उपजे प्रश्न तथा तृणमूल स्तर पर उभरते नेतृत्व एवं सम्बन्धित कार्यों की विस्तृत व्याख्या की गई है। साथ ही, उनके सम्मुख समस्याओं के निराकरण का यथासम्भव प्रयास भी किया गया है।
अध्याय 1
पंचायती राज व्यवस्था : इतिहास एवं नवनिर्माण
(1)
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
‘‘पाँच पंच मिलिं कीजै काज। हारे जीत न होवे
लाज।।’’
पाँच व्यक्तियों की सभा एवं पंचायत हमारा बहुत प्राचीन और सुन्दर शब्द है,
जिसके साथ प्राचीनता की मिठास जुड़ी हुई हैं। ‘‘पाँच
बोले
परमेश्वर’–पाँचों पंच जब एक साथ से कोई निर्णय देते
थे तो वह
परमेश्वर की आवाज मानी जाती थी। प्राचीन काल से ही भारत में पंचायतों को
असीमित स्वतन्त्रता प्राप्त थी। ग्रामों की पंचायतें व संस्थायें
‘भारत में सर्वप्रथम प्रारम्भ हुई और संसार के सभी देशों के
मुकाबले
यहाँ ही सबसे अधिक दिनों तक स्थापित रहीं।’ पाँच पंच ग्राम की
जनता
द्वारा निर्वाचित होते थे, जिसके द्वारा भारत के असंख्य ग्राम लोकराज्यों
का शासन चलता था। भारतीय समाज में ‘पंच परमेश्वर’ न
केवल कुछ
प्रशासकीय कार्य ही करते थे वरन् आपसी विवादों को हल करने एवं विकास
सम्बन्धी कार्यों को करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।
प्राचीन इतिहास का यही एकमात्र स्थायी आधार है जिसपर भारत का प्रत्येक साम्राज्य फला-फूला है। पंचायत शब्द हिन्दी भाषा में बहुत समय से प्रयुक्त हो रहा है। संस्कृत में एक ‘पंचायतन’ शब्द है जिसका व्यवहार देवपूजन में किया जाता है। प्रतीत होता है कि यह पंचायत इसी ‘पंचायतन’ से सम्बन्ध रखता है। पुरातत्त्ववेत्ताओं द्वारा की गई खोज के फलस्वरूप जो पुराने ताम्रपत्र इत्यादि प्राप्त हुए हैं उनसे ज्ञान होता है कि भारत में ग्राम पंचायतों का इतिहास शताब्दियों पुराना है। पंचायत उस सभा का नाम है जहाँ पंच इकट्ठे होते हों, किसी विषय पर विचार-विमर्श करते हों या फिर कोई निर्णय करते हों।
‘‘पंचायत हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता, सुदृढ़ता और सुव्यवस्था तथा हमारे मृत्युंजयी लोकतन्त्र का रक्षा कवच है।’’
किसी भी समुदाय, समाज या राष्ट्र की समृद्धि एवं उन्नति सम्बन्ध संस्थाओं के उन अन्तर्तन्तुओं के प्रसार का प्रतिफलन होता है जिनकी सन्दर्भीय समाज या समुदाय में पूर्णतः पैठ होती है। पंचायत एक सर्वमान्य संस्था के रूप में प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अधिष्ठित रही है। भारत अपने साहचर्य एवं न्याय और त्याग के लिए विख्यात रहा है। न्याय ही यहाँ का आदर्श है। न्याय के लिए अनेक प्रकार की संस्थाओं का निर्माण भारत में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। भारत एक कृषिप्रधान देश है। कृषि अर्थतंत्र में स्वशासित ग्रास समुदायों का अस्तित्व रहा है। प्राचीन काल में 80% जनता कृषि कार्य करती थी और ग्रामों में निवास करती थी। ग्राम का मुखिया/नेता ‘ग्रामणी’ कहलाता था अतः ग्रामवासियों के न्याय हेतु एक संस्था का निर्माण किया गया जो ग्राम पंचायत कहलाई। ग्राम पंचायत ग्रामीण समाज के लिए कोई नवीन वस्तु नहीं अपितु देश की जान रही है।
प्राचीन इतिहास का यही एकमात्र स्थायी आधार है जिसपर भारत का प्रत्येक साम्राज्य फला-फूला है। पंचायत शब्द हिन्दी भाषा में बहुत समय से प्रयुक्त हो रहा है। संस्कृत में एक ‘पंचायतन’ शब्द है जिसका व्यवहार देवपूजन में किया जाता है। प्रतीत होता है कि यह पंचायत इसी ‘पंचायतन’ से सम्बन्ध रखता है। पुरातत्त्ववेत्ताओं द्वारा की गई खोज के फलस्वरूप जो पुराने ताम्रपत्र इत्यादि प्राप्त हुए हैं उनसे ज्ञान होता है कि भारत में ग्राम पंचायतों का इतिहास शताब्दियों पुराना है। पंचायत उस सभा का नाम है जहाँ पंच इकट्ठे होते हों, किसी विषय पर विचार-विमर्श करते हों या फिर कोई निर्णय करते हों।
‘‘पंचायत हमारी राष्ट्रीय एकता और अखण्डता, सुदृढ़ता और सुव्यवस्था तथा हमारे मृत्युंजयी लोकतन्त्र का रक्षा कवच है।’’
किसी भी समुदाय, समाज या राष्ट्र की समृद्धि एवं उन्नति सम्बन्ध संस्थाओं के उन अन्तर्तन्तुओं के प्रसार का प्रतिफलन होता है जिनकी सन्दर्भीय समाज या समुदाय में पूर्णतः पैठ होती है। पंचायत एक सर्वमान्य संस्था के रूप में प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में अधिष्ठित रही है। भारत अपने साहचर्य एवं न्याय और त्याग के लिए विख्यात रहा है। न्याय ही यहाँ का आदर्श है। न्याय के लिए अनेक प्रकार की संस्थाओं का निर्माण भारत में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। भारत एक कृषिप्रधान देश है। कृषि अर्थतंत्र में स्वशासित ग्रास समुदायों का अस्तित्व रहा है। प्राचीन काल में 80% जनता कृषि कार्य करती थी और ग्रामों में निवास करती थी। ग्राम का मुखिया/नेता ‘ग्रामणी’ कहलाता था अतः ग्रामवासियों के न्याय हेतु एक संस्था का निर्माण किया गया जो ग्राम पंचायत कहलाई। ग्राम पंचायत ग्रामीण समाज के लिए कोई नवीन वस्तु नहीं अपितु देश की जान रही है।
वैदिक पंचायत
‘‘पंचों की निष्पक्षता की पुष्टि हमारे साहित्य व
संस्कृति से
भी होती है।’’ हमारी संस्कृति और सभ्यता की भाँति ही
पंचायत
और पंचायती-राज की अतीत काल से एक गौरवशाली परम्परा रही है। पंचायत की
कल्पना संस्कृति और विशेषकर भारतीय राजव्यवस्था की आधारशिला है। यदि हम
भारतीय इतिहास में प्रजातन्त्र के बीच देखना चाहें, तो हमें इसके बीज
ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं। वैदिक ग्रंथ ही ऐसे प्राचीनतम साधन हैं,
जिनके द्वारा भारतीय सभ्यता को समझा जा सकता है। यह अनुमान किया जाता है
कि जब मानव समाज का उदय हुआ, लगभग उसी समय से पंचायती राज का भी उदय हुआ
होगा। वैदिक काल में ग्राम से लेकर राष्ट्र ही नहीं अपितु विश्व की शासन
व्यवस्था पंचायत पद्धति पर आधारित थी।
वैदिक कालीन भारत के ऋषि-मुनियों ने लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर मानव समाज की सुख-समृद्धि के लिए जिन सिद्धान्तों की प्रतिष्ठापना की थी उन्हीं में से प्रशासन पद्धति का पंचायती तन्त्र भी था। एक विद्वान के शब्दों में–‘‘पुरातन काल के प्रलेखों से ज्ञात होता है कि लोकप्रिय सभाओं एवं संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय जीवन तथा प्रवृत्तियाँ व्यक्त की जाती थीं। भारत में पंचायतों की प्राचीनता के प्रभाव ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में मिलते हैं। पंचायत व्यवस्था को प्रारम्भ करने का श्रेय राजा पृथु को है। राजा पृथु वेन के पुत्र थे, जो सर्वप्रथम राजा थे, जिन्होंने धर्मपूर्वक शासन करते हुए प्रजा को प्रसन्न किया जिससे उन्हें राजा कहा जाने लगा। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि पंचायत प्रणाली राजा पृथु ने गंगा और यमुना के बीच के धरातल में स्थापित की थी। वैदिक काल से ही ग्राम को प्रशासन की मौलिक इकाई माना जाता रहा है। जातक ग्रंथ में भी ग्राम सभाओं का वर्णन मिलता है। उत्तर वैदिक काल में भी एक सामूहिक राजनीतिक इकाई के रूप में ग्राम का महत्त्व रहा है। लघु गणराज्यों के रूप में हिन्दू-मुस्लिम तथा पेशवा शासन काल में ग्राम पंचायतों का विशेष महत्त्व रहा है।’’
भारत में वैदिक काल से ही ग्राम सभाओं अर्थात् ग्राम पंचायतों का गठन हो चुका था। अथर्ववेद (8,9,10,12) के अनुसार–
वैदिक कालीन भारत के ऋषि-मुनियों ने लोककल्याण की भावना से प्रेरित होकर मानव समाज की सुख-समृद्धि के लिए जिन सिद्धान्तों की प्रतिष्ठापना की थी उन्हीं में से प्रशासन पद्धति का पंचायती तन्त्र भी था। एक विद्वान के शब्दों में–‘‘पुरातन काल के प्रलेखों से ज्ञात होता है कि लोकप्रिय सभाओं एवं संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय जीवन तथा प्रवृत्तियाँ व्यक्त की जाती थीं। भारत में पंचायतों की प्राचीनता के प्रभाव ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में मिलते हैं। पंचायत व्यवस्था को प्रारम्भ करने का श्रेय राजा पृथु को है। राजा पृथु वेन के पुत्र थे, जो सर्वप्रथम राजा थे, जिन्होंने धर्मपूर्वक शासन करते हुए प्रजा को प्रसन्न किया जिससे उन्हें राजा कहा जाने लगा। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि पंचायत प्रणाली राजा पृथु ने गंगा और यमुना के बीच के धरातल में स्थापित की थी। वैदिक काल से ही ग्राम को प्रशासन की मौलिक इकाई माना जाता रहा है। जातक ग्रंथ में भी ग्राम सभाओं का वर्णन मिलता है। उत्तर वैदिक काल में भी एक सामूहिक राजनीतिक इकाई के रूप में ग्राम का महत्त्व रहा है। लघु गणराज्यों के रूप में हिन्दू-मुस्लिम तथा पेशवा शासन काल में ग्राम पंचायतों का विशेष महत्त्व रहा है।’’
भारत में वैदिक काल से ही ग्राम सभाओं अर्थात् ग्राम पंचायतों का गठन हो चुका था। अथर्ववेद (8,9,10,12) के अनुसार–
‘सा उदक्रामत् सा समायां न्यक्रामत।
सा उदक्रामत् सा समितौयां न्यक्रामत।
साउक्रामत् साऽऽमन्त्रणे न्यक्रामत।’’
सा उदक्रामत् सा समितौयां न्यक्रामत।
साउक्रामत् साऽऽमन्त्रणे न्यक्रामत।’’
अर्थात् जनशक्ति उत्क्रामत होकर ग्रामसभा, राष्ट्रसमिति और मंत्रिमण्डल
में परिणत हुई।
उस समय की पंचायतों को समिति एवं सभा कहा जाता था जो कभी परिषद के रूप में सामने आती थीं, कभी निगम के रूप में प्रस्तुत होती थीं, कभी पौर जनपद संस्था के रूप में सम्मानित होती थीं और आज पंचायत के रूप में ग्राम-ग्राम में प्रसार पा रही हैं और जनता की भलाई के लिए कार्य कर रही हैं।
वैदिक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि उस युग में कृषि एवं पशुपालन प्रधान उद्योग थे। ग्रामों का नगरों की अपेक्षा अधिक महत्त्व था और व्यक्ति स्थायी सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। अथर्ववेद के अन्तर्गत, पृथ्वीसूक्त के 63 यन्त्र केवल पृथ्वी की अभ्यर्थना में लिखे गए हैं। इसके स्वरूप में एक श्लोक भी मिलता है–
उस समय की पंचायतों को समिति एवं सभा कहा जाता था जो कभी परिषद के रूप में सामने आती थीं, कभी निगम के रूप में प्रस्तुत होती थीं, कभी पौर जनपद संस्था के रूप में सम्मानित होती थीं और आज पंचायत के रूप में ग्राम-ग्राम में प्रसार पा रही हैं और जनता की भलाई के लिए कार्य कर रही हैं।
वैदिक साहित्य से यह ज्ञात होता है कि उस युग में कृषि एवं पशुपालन प्रधान उद्योग थे। ग्रामों का नगरों की अपेक्षा अधिक महत्त्व था और व्यक्ति स्थायी सामुदायिक जीवन व्यतीत करते थे। अथर्ववेद के अन्तर्गत, पृथ्वीसूक्त के 63 यन्त्र केवल पृथ्वी की अभ्यर्थना में लिखे गए हैं। इसके स्वरूप में एक श्लोक भी मिलता है–
‘‘ये ग्रामा यदरण्यं या सभा अथिभूम्याम।
ये संग्रामाः समितियस्तेषु चारु वेदम ते।।’’
ये संग्रामाः समितियस्तेषु चारु वेदम ते।।’’
अर्थात् पृथ्वी पर जो ग्राम, वन, सभायें और समितियाँ हैं उन सभी में हम
सुन्दर वेदयुक्त वाणी का प्रयोग करें।
डॉ. सरयूप्रसाद चौबे ने कहा है–‘‘आर्यों के भारत आने से पूर्व यहाँ ग्राम राज्य तथा ग्राम-पंचायत का पूर्ण विकास हो गया था। प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम-पंचायत होती थी जिसमें एक मुखिया तथा अन्य प्रतिनिधि सदस्य होते थे। आर्यों के आगमन के पश्चात् भारतवर्ष में जाति व्यवस्था का पूर्ण विकास हुआ और ग्राम को शासन की प्राथमिक इकाई के रूप में स्वीकार किया गया जिससे सामाजिक व्यवस्था का आगमन हुआ।’’1
वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय प्रत्येक ग्राम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से आत्मनिर्भर तथा सम्पूर्ण इकाई होता था। समिति नाम की एक सार्वजनिक तथा सार्वभौम प्रतिनिध्यात्मक संस्था होती थी जिसे पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त थी, जो राजा का निर्वाचन करने में तथा उसके क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण रखने में सक्षम थी। राजा को सभा, समिति के कार्यों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था। राजा पूर्ण स्वेच्छाचारी नहीं होता था, अपितु समिति जैसी महान् सार्वभौम संस्था से नियन्त्रित रहता था।
समिति शब्द साथ-साथ मिलने के अर्थ से निर्मित हुआ है। भारत में प्रत्येक समय प्रत्येक स्तर पर ऐसी समितियों के लक्षण पाए गए।
‘‘समिति (सम+इ+ति) अर्थात् सभी का एक स्थान पर मिलना अथवा इकट्ठा होना।’’
राजा का निर्वाचन करते समय समिति व सभा राजा से निवेदन करती थीं कि वह अपना कर्त्तव्य दृढ़ता से पालन करे। वह अपने पद की प्रतिष्ठा का ध्यान रखे और शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करे। (अथर्ववेद 6/86/88) का पूरा सूक्त निम्नवत् है:
डॉ. सरयूप्रसाद चौबे ने कहा है–‘‘आर्यों के भारत आने से पूर्व यहाँ ग्राम राज्य तथा ग्राम-पंचायत का पूर्ण विकास हो गया था। प्रत्येक ग्राम में एक ग्राम-पंचायत होती थी जिसमें एक मुखिया तथा अन्य प्रतिनिधि सदस्य होते थे। आर्यों के आगमन के पश्चात् भारतवर्ष में जाति व्यवस्था का पूर्ण विकास हुआ और ग्राम को शासन की प्राथमिक इकाई के रूप में स्वीकार किया गया जिससे सामाजिक व्यवस्था का आगमन हुआ।’’1
वेदों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय प्रत्येक ग्राम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से आत्मनिर्भर तथा सम्पूर्ण इकाई होता था। समिति नाम की एक सार्वजनिक तथा सार्वभौम प्रतिनिध्यात्मक संस्था होती थी जिसे पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त थी, जो राजा का निर्वाचन करने में तथा उसके क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण रखने में सक्षम थी। राजा को सभा, समिति के कार्यों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं था। राजा पूर्ण स्वेच्छाचारी नहीं होता था, अपितु समिति जैसी महान् सार्वभौम संस्था से नियन्त्रित रहता था।
समिति शब्द साथ-साथ मिलने के अर्थ से निर्मित हुआ है। भारत में प्रत्येक समय प्रत्येक स्तर पर ऐसी समितियों के लक्षण पाए गए।
‘‘समिति (सम+इ+ति) अर्थात् सभी का एक स्थान पर मिलना अथवा इकट्ठा होना।’’
राजा का निर्वाचन करते समय समिति व सभा राजा से निवेदन करती थीं कि वह अपना कर्त्तव्य दृढ़ता से पालन करे। वह अपने पद की प्रतिष्ठा का ध्यान रखे और शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करे। (अथर्ववेद 6/86/88) का पूरा सूक्त निम्नवत् है:
‘‘आ
त्वाहार्षमन्त्रभूर्ध्रु वर्स्तिष्ठाविचाचलत्।
विश्वस्तवा सर्वा वाञ्छन्तु या व्वद् राष्ट्रमधिभ्रशत्।।’’
विश्वस्तवा सर्वा वाञ्छन्तु या व्वद् राष्ट्रमधिभ्रशत्।।’’
हे राजन् ! तुम प्रसन्नता के साथ हमारे मध्य में आओ, आविचलन होकर अवस्थित
हो जाओ। समस्त विशः–प्रजा तुमको चाहती रहें। तुम्हारे राष्ट्र
का
अकल्याण न हो अथवा तुमसे राष्ट्र को किसी प्रकार हानि न हो।
अथर्ववेद में (5/15)–
अथर्ववेद में (5/15)–
‘‘नास्यैसमितिः कल्पते।’’
यह शब्द बताता है कि अत्याचारी राजा की सहायता समिति भी नहीं कर सकती।
समिति राजा पर सभी प्रकार से नियन्त्रण करती थी जो राष्ट्र की महान्
संस्था होती थी।
वैदिक युग में राजाओं का समिति में उपस्थित होना अनिवार्य था। सभा और समिति दोनों राजा की रक्षा करती थीं व उचित सलाह भी देती थीं (सभा को ‘नरिष्टा’ भी कहा गया है)। राजा स्वयं कहता था कि सभा और समिति मेरी रक्षा करें। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि वैदिक काल में राजा होते तो थे लेकिन वे निरंकुश शासन नहीं कर सकते थे। ग्रामीण नेताओं से सलाह करना उनके लिए आवश्यक होता था। समिति द्वारा निर्वाचित राजा ‘समितिप्रिय’ कहलाता था।
सभा और समिति एक उच्च कोटि की निर्वाचित शासन प्रबन्ध की संस्थाएँ थीं जो लोकतन्त्रीय पद्धित पर विकसित होकर ग्रामीण समाज की स्वशासित संस्थाओं के रूप में समाज का एक आवश्यक अंग बन गई थी।
इनके अतिरिक्त ऋग्वेद में एक तीसरा शब्द ‘विद्थ’ भी अनेक बार आया है जिसका अर्थ साधारणतया ‘जत्था’ से है। यद्यपि विद्थ शब्द के प्रयोग से संस्था के विषय में कोई मुख्य बात प्रकट नहीं होती, फिर भी सभा और समिति से भलीभाँति प्रकट होता है कि ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ कहलाता था। वह मौरूसी अधिकारी था जो ग्राम के निवासियों द्वारा निर्वाचित होता था। ग्रामणी का पद बहुत ऊँचा था, उसकी गिनती राज्य शासन व्यवस्था के मुख्य अधिकारियों में होती थी। ग्राम का मुखिया ग्राम के अनुभवी श्रेष्ठ व वृद्ध व्यक्तियों से सलाह लेकर कार्य करता था। ग्राम के विशिष्ट व्यक्ति मिलकर ग्राम में शान्ति व्यवस्था बनाए रखते थे। यही ग्राम-पंचायत का आदि रूप था।
ग्राम पंचायतों के विषय में डॉ. अल्टेकर ने लिखा है–‘‘ये ग्राम पंचायतें ग्राम की रक्षा का प्रबन्ध करती थीं और राज्य का कर एकत्रित करती थीं तथा नए कर लगाती थीं:
1. सार्वजनिक ऋण आदि की सहायता से अकाल तथा संकटों के निवारण का उपाय करती थीं।
2. ग्राम के झगड़ों का फैसला तथा लोकहित की योजनाएँ क्रियान्वित करती थीं।
3. पाठशालाएँ, अनाथालय तथा विद्यालय चलाती थीं और मन्दिरों में अनेक सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य करती थीं।
4. युद्ध करने और सन्धि करने के दो अधिकारों को छोड़कर इन्हें राज्य के शेष अधिकार प्राप्त थे।
5. आपस में सदभाव और सामाजिक एकता अथवा मित्रता बढ़ाना, आपसी झगड़ों का निबटारा करना तथा भूमि प्रबन्ध करना इसके मुख्य उद्देश्य थे।
6. ग्राम-पंचायत स्थानीय रक्षा के लिए अपनी पुलिस रखती थी व ग्राम और नगर की सफाई का प्रबन्ध करती थी।
7. पंचायतें छोटे-छोटे दीवानी तथा फौजदारी झगड़ों का निबटारा स्वयं करती थीं। इस प्रकार के समस्त कार्य ग्राम की जनता स्वयं कर लेती थी।’’2
पंचायतों के विश्वास तथा प्रभाव का अनुमान इससे हो जाता है कि आज भी भारत में ‘पंचों में परमेश्वर’ की कहावत प्रचलित है। निःसंदेह स्वयं मनोनीत प्रतिनिधियों पर जनता की अपूर्व श्रद्धा होती है।
यह इतिहास के सामान्य ज्ञात की वस्तु है कि वैदिक काल से ही ग्रामों में सामूहिक निर्णय की एक अटूट परम्परा रही। यह सामूहिकता दो स्तरों पर प्रकट होती थी। ‘प्रथम’ स्तर यह था कि ग्राम के सभी बालिक और समर्थ व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित हों और किसी विवाद का समाधान करें। लेकिन अधिकांशतः निर्णय इतनी बड़ी ग्रामीण संसद के द्वारा नहीं लिए जा सकते थे। संवाद में अराजकता था निर्णय प्रक्रिया में अव्यवस्था आ जाने का डर रहता था। इसलिए प्रायः प्रतिनिधि सभा का एक छोटा-सा समूह ही पंचायत-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था।
वैदिक युग में राजाओं का समिति में उपस्थित होना अनिवार्य था। सभा और समिति दोनों राजा की रक्षा करती थीं व उचित सलाह भी देती थीं (सभा को ‘नरिष्टा’ भी कहा गया है)। राजा स्वयं कहता था कि सभा और समिति मेरी रक्षा करें। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि वैदिक काल में राजा होते तो थे लेकिन वे निरंकुश शासन नहीं कर सकते थे। ग्रामीण नेताओं से सलाह करना उनके लिए आवश्यक होता था। समिति द्वारा निर्वाचित राजा ‘समितिप्रिय’ कहलाता था।
सभा और समिति एक उच्च कोटि की निर्वाचित शासन प्रबन्ध की संस्थाएँ थीं जो लोकतन्त्रीय पद्धित पर विकसित होकर ग्रामीण समाज की स्वशासित संस्थाओं के रूप में समाज का एक आवश्यक अंग बन गई थी।
इनके अतिरिक्त ऋग्वेद में एक तीसरा शब्द ‘विद्थ’ भी अनेक बार आया है जिसका अर्थ साधारणतया ‘जत्था’ से है। यद्यपि विद्थ शब्द के प्रयोग से संस्था के विषय में कोई मुख्य बात प्रकट नहीं होती, फिर भी सभा और समिति से भलीभाँति प्रकट होता है कि ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ कहलाता था। वह मौरूसी अधिकारी था जो ग्राम के निवासियों द्वारा निर्वाचित होता था। ग्रामणी का पद बहुत ऊँचा था, उसकी गिनती राज्य शासन व्यवस्था के मुख्य अधिकारियों में होती थी। ग्राम का मुखिया ग्राम के अनुभवी श्रेष्ठ व वृद्ध व्यक्तियों से सलाह लेकर कार्य करता था। ग्राम के विशिष्ट व्यक्ति मिलकर ग्राम में शान्ति व्यवस्था बनाए रखते थे। यही ग्राम-पंचायत का आदि रूप था।
ग्राम पंचायतों के विषय में डॉ. अल्टेकर ने लिखा है–‘‘ये ग्राम पंचायतें ग्राम की रक्षा का प्रबन्ध करती थीं और राज्य का कर एकत्रित करती थीं तथा नए कर लगाती थीं:
1. सार्वजनिक ऋण आदि की सहायता से अकाल तथा संकटों के निवारण का उपाय करती थीं।
2. ग्राम के झगड़ों का फैसला तथा लोकहित की योजनाएँ क्रियान्वित करती थीं।
3. पाठशालाएँ, अनाथालय तथा विद्यालय चलाती थीं और मन्दिरों में अनेक सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य करती थीं।
4. युद्ध करने और सन्धि करने के दो अधिकारों को छोड़कर इन्हें राज्य के शेष अधिकार प्राप्त थे।
5. आपस में सदभाव और सामाजिक एकता अथवा मित्रता बढ़ाना, आपसी झगड़ों का निबटारा करना तथा भूमि प्रबन्ध करना इसके मुख्य उद्देश्य थे।
6. ग्राम-पंचायत स्थानीय रक्षा के लिए अपनी पुलिस रखती थी व ग्राम और नगर की सफाई का प्रबन्ध करती थी।
7. पंचायतें छोटे-छोटे दीवानी तथा फौजदारी झगड़ों का निबटारा स्वयं करती थीं। इस प्रकार के समस्त कार्य ग्राम की जनता स्वयं कर लेती थी।’’2
पंचायतों के विश्वास तथा प्रभाव का अनुमान इससे हो जाता है कि आज भी भारत में ‘पंचों में परमेश्वर’ की कहावत प्रचलित है। निःसंदेह स्वयं मनोनीत प्रतिनिधियों पर जनता की अपूर्व श्रद्धा होती है।
यह इतिहास के सामान्य ज्ञात की वस्तु है कि वैदिक काल से ही ग्रामों में सामूहिक निर्णय की एक अटूट परम्परा रही। यह सामूहिकता दो स्तरों पर प्रकट होती थी। ‘प्रथम’ स्तर यह था कि ग्राम के सभी बालिक और समर्थ व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित हों और किसी विवाद का समाधान करें। लेकिन अधिकांशतः निर्णय इतनी बड़ी ग्रामीण संसद के द्वारा नहीं लिए जा सकते थे। संवाद में अराजकता था निर्णय प्रक्रिया में अव्यवस्था आ जाने का डर रहता था। इसलिए प्रायः प्रतिनिधि सभा का एक छोटा-सा समूह ही पंचायत-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था।
|
विनामूल्य पूर्वावलोकन
Prev
Next
Prev
Next
लोगों की राय
No reviews for this book