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सूरज का सातवाँ घोड़ा

धर्मवीर भारती

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :101
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 417
आईएसबीएन :81-263-1486-7

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बिल्कुल अलग कथ्य, शैली और शिल्प का उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’

Suraj ka Satvan Ghoda - A Hindi Book by - Dharamvir Bharti सूरज का सातवाँ घोड़ा - धर्मवीर भारती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

(प्रथम संस्करण से)

लेखक को दो चीज़ों से बचना चाहिए : एक तो भूमिकाएँ लिखने से, दूसरे अपने समीपवर्ती लेखकों के बारे में अपना मत प्रकट करने से। यहाँ मैं दोनों भूलें करना जा रहा हूँ; पर इसमें मुझे जरा भी झिझक नहीं, खेद की तो बात ही क्या। मैं मानता हूँ; कि धर्मवीर भारती हिन्दी की उन उठती हुई प्रतिभावों में से हैं जिन पर हिन्दी का भविष्य निर्भर करता है और जिन्हें देखकर हम कह सकते हैं कि हिन्दी उस अँधियारे अन्तराल को पार कर चुकी है जो इतने दिनों से मानो अन्तहीन दीख पड़ता था।

प्रतिभाएँ और भी हैं, कृतित्व औरों का भी उल्लेख्य है। पर उनसे धर्मवीर जी में एक विशेषता है। केवल एक अच्छे, परिश्रमी, रोचक लेखक ही नहीं हैं; वे नयी पौध के सबसे मौलिक लेखक भी हैं। मेरे निकट यह बहुत बड़ी विशेषता है, और इसी की दाद देने के लिए मैंने यहाँ वे दोनों भूलें करना स्वीकार किया है जिनमें से एक तो मैं सदा से बचता आया हूँ; हाँ, दूसरी से बचने की कोशिश नहीं की क्योंकि अपने बहुत-से समकालीनों के अभ्यास के प्रतिकूल मैं अपने समकालीनों की रचनाएँ पढ़ता हूँ तो उनके बारे में कुछ मत प्रकट करना बुद्धिमानी न हो तो अस्वाभाविक तो नहीं है।

भारती जीनियस नहीं है : किसी को जीनियस कह देना उसकी प्रतिभा को बहुत भारी विशेषण देकर उड़ा देना ही है। जीनियस क्या है, हम जानते ही नहीं। लक्षणों को ही जानते हैं : अथक श्रम-सामर्थ्य और अध्यवसाय, बहुमुखी क्रियाशीलता, प्राचुर्य, चिरजाग्रत चिर-निर्माणशील कल्पना, सतत जिज्ञासा और पर्यावेक्षण, देश-काल या युग-सत्य के प्रति सतर्कता, परम्पराज्ञान, मौलिकता, आत्मविश्वास और हाँ, एक गहरी विनय। भारती में ये सभी विद्यमान हैं; अनुपात इनका जीनियसों में भी समान नहीं होता। और भारती में एक चीज़ और भी है जो प्रतिभा के साथ ज़रूरी तौर पर नहीं आती-हास्य।

ये सब बातें जो मैं कह रहा हूँ, इन्हें वही पाठक समझेगा जिसने वे नहीं पढ़ीं, व सोच सकता है कि इस तरह की साधारण बातें कहने से उसे क्या लाभ जिनकी कसौटी प्रस्तुत सामग्री से न हो सके ? और उसका सोचना ठीक होगा : स्थाली-पुलाक न्याय कहीं लगता है तो मौलिक प्रतिभा की परख में, उसकी छाप छोटी-सी  अलग कृति पर भी स्पष्ट होती है; और ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पर भी धर्मवीर की विशिष्ट प्रतिभा की छाप है।

सबसे पहली बात है उसका गठन। बहुत सीधी, बहुत सादी, पुराने ढंग की-बहुत पुराने, जैसा आप बचपन से जानते हैं—अलिफ़लैला वाला ढंग, पंचतन्त्र वाला ढंग, बोकेच्छियों वाला ढंग, जिसमें रोज़ किस्सगोई की मजलिस जुटती है, फिर कहानी में से कहानी निकलती है। ऊपरी तौर पर देखिए तो यह ढंग उस जमाने का है जब सब काम फुरसत और इत्मीनान से होते थे; और कहानी भी आराम से और मज़े लेकर कही जाती थी। पर क्या भारती को वैसी कहानी कहना अभीष्ट है ? नहीं, यह सीधापन और पुरानापन इसीलिए है कि आपमें भारती की बात के प्रति एक खुलापन पैदा हो जाये; बात फुरसत का वक्त काटने या दिल बहलाने वाली नहीं है, हृदय को कचोटने, बुद्धि को झँझोड़कर रख देने वाली है। मौलिकता अभूतपूर्व, पूर्ण श्रृंखला-विहीन नयेपन में नहीं, पुराने में नयी जान डालने में भी है (और कभी पुरानी जाने को नयी काया देने में भी); और भारती ने इस ऊपर से पुराने जान पड़ने वाले ढंग को भी बिलकुल नया और हिन्दी में अनूठा उपयोग किया है। और वह केवल प्रयोग-कौतुक के लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि वह जो कहना चाहते हैं उसके लिए यह उपुक्त ढंग है।

‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं अनेक कहानियों में एक कहानी है। एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है; और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर-सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर सम्भूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी। प्राचीन चित्रों में जैसे एक ही फलक पर परस्पर कई घटनाओं का चित्रण करके उसकी वर्णनात्मकता को सम्पूर्ण बनाया जाता है, उसमें एक घटना-चित्र की स्थिरता के बदले एक घटनाक्रम की प्रवाहमयता लायी जाती है, उसी प्रकार इस समाज-चित्र में एक ही वस्तु को कई स्तरों पर, कई लोगों से और कालों में देखने और दर्शाने का प्रयत्न किया गया है, जिससे उसमें देश और काल दोनों का प्रसार प्रतिबिम्बित हो सके। लम्बाई और चौड़ाई के दो आयामों के फलक में गहराई का तीसरा आयाम छाँही द्वारा दिखाया जाता है; समाज-चित्र में देश के तीन आयामों के अतिरिक्त काल के भी आयाम आवश्यक होते हैं और उन्हें दर्शाने के लिए चित्रकार को अन्य उपाय ढूँढ़ना आवश्यक होता है।

वह चित्र सुन्दर, प्रीतिकर या सुखद नहीं है; क्योंकि उस समाज का जीवन वैसा नहीं है और भारती ने चित्र को यथाशक्य सच्चा उतारना चाहा है। पर वह असुन्दर या अप्रीतिकर भी नहीं, क्योंकि वह मृत नहीं है, न मृत्युपूजक ही है। उसमें दो चीज़ें हैं जो उसे इस ख़तरे से उबारती हैं—और इनमें से एक भी काफी होती है : एक तो उसका हास्य, भले ही वह वक्र और कभी कुटिल या विद्रूप भी हो; दूसरे एक अदम्य और निष्ठामयी आशा। वास्तव में जीवन के प्रति यह अडिग आस्था ही सूरज का सातवाँ घोड़ा है, ‘‘जो हमारी पलकों में भविष्य के सपने और वर्तमान के नवीन आकलन भेजता है ताकि हम वह रास्ता बना सकें जिस पर होकर भविष्य का घोड़ा आयेगा।’’ इस वस्तु का इतना सुन्दर निर्वाह, उसके गम्भीरतर तात्पर्यों का इस साहसपूर्ण ढंग से स्वीकार, और उस स्वीकृति में भी उससे न हारकर उठने का निश्चय—ये सब ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ को एक महत्त्वपूर्ण कृति बनाते हैं।

‘‘पर कोई न कोई चीज़ ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।’ ये पुस्तक के कथा-नायक और प्रमुख पात्र माणिक मुल्ला के शब्द हैं। किसी उक्ति के निमित्त से एक पात्र के साथ लेखक को सम्पूर्ण रूप से एकात्म करने की प्रचलित मूर्खता मैं नहीं करूँगा, पर इस उक्ति में बोलने वाला विश्वास स्वयं भारती का भी विश्वास है, ऐसा मुझे मेरी लगता है; और वह विश्वास हम सबमें अटूट रहे, ऐसी कामना है।

अज्ञेय

निवेदन


‘गुनाहों का देवता’ के बाद यह मेरी दूसरी कथा-कृति है। दोनों कृतियों में काल-क्रम का अन्तर पड़ने के अलावा उन बिन्दुओं में भी अन्तर आ गया है जिन परसवार होकर मैंने समस्या का विश्लेषण किया है।
कथा-शैली भी कुछ अनोखे ढंग की है, जो है तो वास्तव में पुरानी ही, पर इतनी पुरानी कि आज के पाठक को थोड़ी नयी या अपरिचित सी लग सकती है। बहुत छोटे-से चौखटे में काफी लम्बा घटना-क्रम और काफी विस्तृत क्षेत्र का चित्रण करने की विवशता के कारण यह ढंग अपनाना पड़ा है।

मेरा दृष्टिकोण इन कथाओं में स्पष्ट है; किन्तु इनमें आये हुए मार्क्सवाद के जि़क्र के कारण थोड़ा-सा विवाद किसी क्षेत्र से उठाया जा सकता है। जो लोग सत्या की ओर से आँख मूँदकर अपने पक्ष को गलत या सही ढंग से प्रचारित करने को समालोचना समझते हैं, उनसे मुझे कुछ नहीं कहना है, क्योंकि साहित्य की प्रगति में उनका कोई रचनात्मक महत्त्व मैं मानता ही नहीं; हाँ जिसमें थोड़ी-सी समझदारी, सहानुभूति और परिहास-प्रवृत्ति है उनसे मुझे एक स्पष्ट बात कहनी है :


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