आचार्य श्रीराम शर्मा >> स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रियाश्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत है स्वर्ग-नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।
चाणक्य
जीव स्वयं कर्म करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है। स्वयं ही संसार में
भ्रमण करता है और स्वयं ही उससे मुक्त होता है।
संसार कर्मफल-व्यवस्था के आधार पर चल रहा है।
यह संसार कर्मफल व्यवस्था के आधार पर चल रहा है—जो जैसा बोता
है, वह
वैसा काटता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। पैंडुलम एक ओर चलता है तो
लौटकर उसे फिर वापस अपनी जगह आना पड़ता है। गेंद को जहाँ फेंककर मारा जाए
वहाँ से लौटकर उसी स्थान पर आना चाहेगी, जहाँ से फेंकी गई थी। शब्दभेदी
बाण की तरह भले-बुरे विचार अंतरिक्ष में चक्कर काटकर उसी मस्तिष्क पर आ
विराजते हैं, जहाँ से उन्हें छोड़ा गया है। कर्म के संबंध में भी यही बात
है। दूसरों के हित-अहित के लिए जो किया गया है, उसकी प्रतिक्रिया कर्ता के
ऊपर तो अनिवार्य रूप से बरसेगी, जिसके लिए वह कर्म किया गया था, उसे हानि
या लाभ भले ही न हो। गेहूँ से गेहूँ उत्पन्न होता है और गाय अपनी ही
आकृति-प्रकृति का बच्चा जनती है। कर्म के संबंध में भी यही बात है, वे
बंध्य, नपुंसक नहीं होते। अपनी प्रतिक्रिया संतति उत्पन्न करते हैं। उनके
प्रतिफल निश्चित रूप से उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसा न होता तो इस सृष्टि
में घोर अंधेर छाया हुआ दीखता, तब कोई कुछ भी कर गुजरता और प्रतिफल की
चिंता न करता। शास्त्रों का अभिमत इस संदर्भ में स्पष्ट है—
यत् करोत्यशुभं कर्म शुभं वा यदि सत्तम।
अवश्यं तत् समाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः।।
अवश्यं तत् समाप्नोति पुरुषो नात्र संशयः।।
महाभारत वन. अ. 209/5
मनुष्य जो शुभ या अशुभ कार्य करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है,
इसमें संशय नहीं है।
ज्ञानोदयात् पुराऽऽरब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति।
अदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टबाणवत्।।
अदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टबाणवत्।।
-अध्यात्मोपनिषद 2/53
ज्ञान का उदय हो जाने पर भी पूर्वकृत कर्मों के प्रारब्ध भोग तो भोगने ही
पड़ते हैं। उनका नाश नहीं होता। धनुष से छूटा हुआ तीर प्रहार करता ही है।
आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
दारिद्रयदुःखरोगानि बन्धनव्यसनानि च।।
दारिद्रयदुःखरोगानि बन्धनव्यसनानि च।।
-चाणक्य
मनुष्यों को अपने अपराध रूपी वृक्ष के दरिद्रता, रोग, दुःख, बंधन और
विपत्ति आदि के फल मिलते हैं।
उभयमेव तत्रोपयुज्यते फलं धर्मस्यैवेतरस्य च।
-महाभारत, उद्योगपर्व 42/23
राजन् ! धर्म और पाप दोनों के पृथक्-पृथक् फल होते हैं और उन दोनों का ही
उपयोग करना पड़ता है।
अपने किए हुए पाप अथवा पुण्य के फल मनुष्यों को भोगने ही पड़ते हैं। भोगने से ही कर्मफल भुगता जाता है। भोगे बिना कोई रास्ता नहीं, भोगे बिना शुद्धि नहीं होती और तभी (भोगने के बाद ही) कर्म-बंधन से छुटकारा मिलता है।
जो पापी हैं, वे दरिद्र हैं। क्लेश, भय और संकट, संतापों से वे घिरे रहते हैं और बेमौत मरते हैं, पुण्यात्माओं के सन्मुख उनके शुभ कर्मों के सत्परिणाम अनेक सुख-साधनों के रूप में उपस्थित होते रहते हैं।
अपने किए हुए पाप अथवा पुण्य के फल मनुष्यों को भोगने ही पड़ते हैं। भोगने से ही कर्मफल भुगता जाता है। भोगे बिना कोई रास्ता नहीं, भोगे बिना शुद्धि नहीं होती और तभी (भोगने के बाद ही) कर्म-बंधन से छुटकारा मिलता है।
जो पापी हैं, वे दरिद्र हैं। क्लेश, भय और संकट, संतापों से वे घिरे रहते हैं और बेमौत मरते हैं, पुण्यात्माओं के सन्मुख उनके शुभ कर्मों के सत्परिणाम अनेक सुख-साधनों के रूप में उपस्थित होते रहते हैं।
पादन्यासकृतंदुःखंकण्डकोत्थंप्रयच्छति।
तत्प्रभूततरंस्थूलशंकुकीलकसम्भवम्।।
दुःखंयच्छतितद्वच्चशिरोरोगादिदुःसहम्।
अपथ्याशनशीतोष्णश्रमतापादिकारकम्।।
तत्प्रभूततरंस्थूलशंकुकीलकसम्भवम्।।
दुःखंयच्छतितद्वच्चशिरोरोगादिदुःसहम्।
अपथ्याशनशीतोष्णश्रमतापादिकारकम्।।
-मार्कंडेय पुराण (कर्मफल) 14/25
पैर में काँटा लगने पर तो एक ही जगह पीड़ा होती है, पर पाप-कर्मों के फल
से तो शरीर और मन में निरंतर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।
न केचित्प्राणिनः सन्ति ये न यान्ति यमक्षयम्।
अवश्यं हि कृतं कर्म भोक्तव्यं तद्विचार्य्यताम्।।
अवश्यं हि कृतं कर्म भोक्तव्यं तद्विचार्य्यताम्।।
-शिव पुराण
अपना किया हुआ कर्म सभी को अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसलिए ऐसा कोई भी
प्राणी नहीं है, जो यमराज के लोक को नहीं जाता हो। शुभ-अशुभ कर्मों का
निर्णय वहाँ पर ही होता है।
आत्मनैव कृतं कर्म ह्यात्मनैवोपभुज्यते।
इह च प्रेत्य वा राजस्त्वया प्राप्तं यथातथम्।।
इह च प्रेत्य वा राजस्त्वया प्राप्तं यथातथम्।।
-महाभारत भीष्म. आ. 77/4
आत्मा से अर्थात् स्वयं किया हुआ कर्म, आत्मा से ही अर्थात् स्वयं ही
भोगता है। चाहे इस जगह में हो या चाहे परलोक में, स्वयं ही भोगता है।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।
अश्वमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।।
अश्वमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।।
-ब्रह्मवैवर्त प्रकृति अ.37
बिना भोग के सौ करोड़ कल्प तक भी कर्म का नाश नहीं होता। जो कुछ किया है,
उसका फल जरूर भोगना पड़ेगा। इस भोग का कारण कर्तृत्वाभिमान है। जीव अभिमान
के वशीभूत होकर सोचता है कि मैं ही कर्ता हूँ, किंतु वास्तव में जीव
अकर्ता है।
स्वयमात्सकृतं कर्म शुभं वा दि वाऽशुभम्।
प्राप्ते काले तु तत्कर्म दृश्यते सर्व देहिमान्।।
प्राप्ते काले तु तत्कर्म दृश्यते सर्व देहिमान्।।
-हरि. प. उग्रसेन अभि. 25
संसार के संपूर्ण प्राणियों को अपने कर्म का फल भुगतना ही पड़ता है, चाहे
वह शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म हो। शुभ कर्मों का परिणाम सुखद होता है और
अशुभ कर्मों का फल दुःखद होता है।
स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयंतत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।
-चाणक्य
जीव आप ही कर्म करता है, उनका फल भी आप ही भोगता है, आप ही संसार में
भ्रमण करता है और आप ही उससे मुक्त भी होता है, इसमें उसका कोई साझी नहीं।
तस्मिन् वर्षे नरः पापं कृत्वा धर्म्मच भो द्विजाः।
अवश्यं फलमाप्नोति अशुभस्य शुभस्य च।।
अवश्यं फलमाप्नोति अशुभस्य शुभस्य च।।
-ब्रह्म पुराण
मनुष्य पाप कर्म करके तथा धर्म का कर्म करके अवश्य ही फल प्राप्त किया
करता है, चाहे वह कोई शुभ कर्म करे, तो उसका अच्छा फल उसे अवश्य मिलता है
और चाहे वह अशुभ कर्म करे तो उसका भी वह फल प्राप्त किया करता है।
सुखं वा यदि वा दुःखं यत्किञ्चित् क्रियते परे।
ततस्ततु पुनः पश्चात् सवोत्मनि जायते।।
ततस्ततु पुनः पश्चात् सवोत्मनि जायते।।
-दक्ष स्मृति 21
सुख या दुःख के कर्म जो भी दूसरों के लिए किए जाते हैं, कुछ समय बाद में
वे सब अपने ही लिए उत्पन्न होते हैं।
यथा मृत्पिण्डतः कर्ता कुरुते यद्यदिच्छति।
एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते।।
यथा छाया तपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्।
तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः।।
एवमात्मकृतं कर्म मानवः प्रतिपद्यते।।
यथा छाया तपौ नित्यं सुसम्बद्धौ निरन्तरम्।
तथा कर्म च कर्ता च सम्बद्धावात्मकर्मभिः।।
-म.अनु. प.अ. 1/74-75
जैसे मिट्टी के पिंड से कर्ता (कुम्हारा) जो-जो चाहता है सो करता है, उसी
प्रकार मनुष्य अपने किए हुए कर्मानुसार फल प्राप्त करता है। जैसे छाया एवं
धूप नित्य-निरंतर साथ-साथ रहते हैं, वैसे ही कर्म और कर्ता अपने किए
कर्मों से बँधे हैं।
शुभानामशुभाना च नेह नाशोस्ति कर्मणाम्।
प्राप्यप्राप्यनुपच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा।
क्षेत्र कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाऽशुभम्।।
प्राप्यप्राप्यनुपच्यन्ते क्षेत्रं क्षेत्रं तथा तथा।
क्षेत्र कर्मजमाप्नोति शुभं वा यदि वाऽशुभम्।।
-म.आश्वमे.प.अ. 18/5
इस संसार में शुभ और अशुभ कर्मों का नाश नहीं होता; यथा खेत-खेत को
प्राप्त कर पकता जाता है, फल लाता जाता है, इसी प्रकार कर्मों के पाक या
फल का भी क्रम चलता रहता है। तदनुसार ही शुभ एवं अशुभ शरीर को मनुष्य
कर्मानुसार प्राप्त किया करता है।
देर है, अंधेर नहीं
कर्म का प्रतिफल मिलने में थोड़ी देर लगने से अधीर लोग आस्था खो बैठते हैं और दुष्कर्म के दंड से बचे रहने की बात सोचने लगते हैं। विलंब के कारण कोई आस्था न खोये, यह चेतावनी देते हुए शास्त्र कहते हैं—
देर है, अंधेर नहीं
कर्म का प्रतिफल मिलने में थोड़ी देर लगने से अधीर लोग आस्था खो बैठते हैं और दुष्कर्म के दंड से बचे रहने की बात सोचने लगते हैं। विलंब के कारण कोई आस्था न खोये, यह चेतावनी देते हुए शास्त्र कहते हैं—
नाधर्मः कारणोपेक्षी कर्तामिभिमुञ्चति।
कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते।।
कर्ताखलु यथा कालं ततः समभिपद्यते।।
(महा. शान्ति.अ. 298)
अधर्म किसी भी कारण की अपेक्षा से कर्ता को नहीं छोड़ता। निश्चय रूप से
करने वाला समयानुसार किए कर्म के फल को प्राप्त होता है। 8।
अश्मेव लभते फलं पापस्य कर्मण।
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः।।
भर्तः पर्यागते काले कर्ता नास्त्यत्र संशयः।।
(बाल्मी. युद्ध. स. 111)
पाप कर्म का फल अवश्य ही प्राप्त होता है। हे पते ! समय आने पर कर्ता फल
पाता है, इसमें संशय नहीं है। 25।
यदा चरति कल्याणि शुभं वा यदि वाऽशुभम्।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः।।
तदेव लभते भद्रे कर्ता कर्मजमात्मनः।।
(बाल्मी. अरण्य. स. 63)
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