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देखो जग बौराना

गिरिराज किशोर

प्रकाशक : राजपाल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4151
आईएसबीएन :81-7028-856-8

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यह पुस्तक गिरिराज किशोर के व्यापक चिंतन का उदाहरण है।

Dekho Jag Baurana - A Hindi Book - by Giriraj Kishore

यह पुस्तक गिरिराज किशोर के व्यापक चिंतन का उदाहरण है। इससे उनकी साहित्यिक प्रौढ़ता के साथ उनकी राजनीतिक सूझबूझ, भारतीय संस्कृति एवं समाज की मनोदशा पर उनकी पकड़ का पता चलता है। इस पुस्तक में उन्हेंने जीवन के अनेक क्षेत्रों में मौजूद समस्याओं पर प्रकाश डाला है, समस्या चाहे राजनीतिक हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो या पर्यावरण की हो, उन्होंने सबकी समीक्षा करके समाधान भी बताया है।

सवाल पूछने की आदत डालनी होगी


साँप के निकल जाने पर हमें कोई आपत्ति नहीं, बस लकीर न छोड़े। जब सत्ता के केन्द्र संसद पर हमला हुआ था, उस वक्त भी यही सब हुआ था। इस बार मुंबई पर हुए हमले ने जनता पर चोट की है। वी.टी. स्टेशन पर बेगुनाह लोग मारे गए। ओबेराय और ताज होटलों में विदेशी टूरिस्ट और साधन-सम्पन्न लोग मारे गए। लेकिन जनता का गुस्सा उन लोगों को लेकर ज़्यादा है जो अनहपहाचने चले गए। उसी ने लोगों को जोड़ा। दबाव बनाया।

इस देश का मनोविज्ञान है कि उपेक्षित और पीड़ित लोगों के साथ सहानुभूति सक्रियता के साथ उपन्न होती है। वैसे संसद पर हुए हमले के कारण जन-आक्रोश तो था, लेकिन सहानुभूति की सक्रियता अपेक्षाकृत कम थी। प्रतीक पर हमला सम्मान को आहत करता है, जन पर होने वाला हमला संवेदना को ज़ख़्मी करता है। मुंबई पर हमले ने बहुत कुछ बदला। उस सरकार के गृहमन्त्री को न तो त्यागपत्र देने की बाध्यता का सामना करना पड़ा और न किसी सरकारी ढाँचे में बदलाव की बाध्यता महसूस हुई। सब पूर्ववत चलता रहा। इस बार तीन हफ्ते में आतंकवाद रोकने के लिए कानून भी बनाए गए।

पूरी दुनिया में आतंकवाद के खिलाफ वातावरण बनाया जा रहा है। लेकिन सरकार के ऊपर यह दबाव कब तक बना रहेगा ? जनता का दबाव दिल से उपजता है राजनीति का दबाव वक्ती होता, मौकापरस्ती का। जनता के जुड़ते ही नक्शा बदल गया। किसी ने किसी से नहीं कहा। इंसानी फितरत ख़ुद-ब-ख़ुद सामने आ गई। कश्मीर तक बदल गया। 26 दिसम्बर को मैं मुंबई में था। किसी के मन में किसी के प्रति बैर या गुस्सा नहीं था। 60 साल में जनता ने क्यों और कैसे का जवाब खोजना सीख लिया।

यह जनता की परिपक्वता का प्रमाण है। अगले दिन हम लोग पहले ओबेराय में चाय पीने गए। वहाँ लगा जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ हो। पूछने पर एक कारकुन ने कहा, ‘‘हमारी भी गलती थी। हम सरकार के दम पर हाथ छोड़कर गाड़ी चला रहे थे। धोखा खा गए। कोशिश करेंगे दोबारा ऐसा न हो।’’

ताज होटल गए। दसवीं क्लास के दिनों में लड़कों के साथ टूर में बंबई गया था। तब ताजमहल की तरह ताज होटल भी मुंबई की शान का प्रतीक था। हम दो-तीन लड़के ताज में चाय पीने गए थे। महीनों गाते फिरे थे ताज में चाय पिए हुए हैं। वे साथी चकित थे, जिन्होंने उसके बारे में सुन रखा था। खैर, जब ताज पहुँचे तो चारों तरफ सिक्योरिटी पड़ी थी। गाड़ियाँ तो जाने ही नहीं दी जा रही थीं। हमसे पूछा गया–आपका रिज़र्वेशन है। हमने कहा—नहीं। उसने रास्ता दिखा दिया।

रतन टाटा ने कहा था कि हम अपनी सुरक्षा आप करेंगे। सरकार पर विश्वास नहीं किया जा सकता। लेकिन यहाँ सुरक्षा इतनी तगड़ी थी कि सरकारी ज़मीन तक पर चलने की मनाही थी। ओबेराय में सब खुला था। उनकी आवाज में जनता का-सा आत्मविश्वास था। यहाँ पर आत्मनिर्भरता की घोषणा के बावजूद परनिर्भरता थी। लेकिन एक सन्देश जो ओबेराय में सुनने को मिला था उसमें जनता की उस इच्छा का प्रतिबिम्ब था जिसके ज़रिये हमले के बाद बिना कुछ कहे सब कुछ कह दिया था।

भारतीय जनता की परिपक्वता का यह भी एक प्रमाण है कि इतना सब हो जाने के बाद लड़ने को अनावश्यक समझती है। प्रधानमंत्री ने भी लड़ाई की संभावना को नकारा है। सबसे पहली ज़रूरत है आर्थिक स्थायित्व की। यहाँ की जनता ने इस मन्दी के दौरान इसके महत्त्व को समझा है। उस स्थायित्व के पीछे सामान्य जन हैं। अगर लड़ाई होती है तो यह दो देशों तक ही सीमित नहीं रहेगी। सारा एशिया आर्थिक संकट की चपेट में आ जाएगा। सब समीकरण बदल जाएँगे।

जनमानस को अपने निर्णय स्वयं लेने की आदत डालनी होगी। निर्णय ही लेना काफ़ी नहीं होगा, उसे उन हुक्मरानों के कानों तक भी पहुँचाना होगा जो उसे क्रियान्वित करने के लिए ज़िम्मेदार बनाए गए हैं।
उसे हुक्मरानों से सवाल पूछने की मानसिकता भी विकसित करनी होगी। वरना निर्णय कहीं लिया जाएगा और भुगतेगा कोई और यानी हम और वो।

(‘हिन्दुस्तान’, 8 जनवरी 2009)

साईं बाबा के नाम एक चिट्ठी


बाबा, पांय लागी। जब सत्य साईं बाबा के बारे में कोई कहता था कि वह शिरडी के बाबा के अवतार हैं, तो मुझे यकीन नहीं होता था। उसका कारण था। सच्चाई कुछ भी हो। जो कुछ सुना था, उससे जो चित्र मन ही मन बने थे, उनमें और सत्य साईं बाबा के बीच की कोई निस्बत बैठती ही नहीं थी। बाबा, तुम मुझे एक अलमस्त फकीर लगते थे। थे भी। हाँ, अगर कोई कहता, पाँच सौ साल पहले जन्मे कबीर से तुम्हारा रिश्ता था, तो मैं तुरन्त मान लेता। न मैंने तुम्हें देखा, ना बाबा कबीर को। उनका भी खड्डी चलाते जुलाहे के रूप में चित्र देखा और तुम्हारी भी भिक्षा पात्र लिए तस्वीर देखी। तुम भी सुना मुसलमान थे, कबीर भी। वह निर्गुनिया थे, तुम सगुनिया होकर भी निर्गुनिया ही ज़्यादा लगे। तुम्हारा यह सूत्र वाक्य कि सबका मालिक एक है, मुझे हमेशा कबीर का पद वाक्य याद दिलाता था, मोको कहाँ ढूँढ़े रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।

बाबा, तुम चक्की चलाते थे और रोग-शोक पीस डालते थे। वह खड्डी पर बैठकर ऐसी नायाब चादर बुनता था, जिसे ऋषि-मुनि सबने ओढ़ी, फिर जस की तस धर दीनी चदरिया। तुम चक्की में रोग-शोक पीसकर सबको मुक्त करते थे, पर बाबा कबीर चलती चाकी देख रोते थे। ‘चलती चाकी देख दिया कबीरा रोय’, चक्की में जाकर कोई साबुत नहीं बचता। पर तुम मानते, आटे की तरह बिखरो मत, केन्द्र की तरफ जाओ। न गेहूँ बचता है और न घुन। बाबा, आप दोनों के बीच चक्की जन कल्याण का अद्भुत उपकरण हैं। कैसी विचित्र बात है कि कबीर के चार सौ साल बाद तुमने चक्की को जनकल्याण के सन्देश का माद्यम बनाया और तुम्हारे लगभग पाँच दशक के बाद गाँधी बाबा ने चरखे को परिवर्तन का ज़रिया बनाया। ये जड़ के नीचे भी अगर कोई जड़ हो सकती है, उससे जुड़े थे। ये दोनों आध्यात्मिक और सामाजिक परिवर्तन के प्रभावी माध्यम बन गए। शायद कुछ अंचलों में आज भी हैं। लगता है, आप तीनों ही अपनी-अपनी तरह वैज्ञानिक थे। आध्यात्मिक वैज्ञानिक। तीनों ने परिवर्तन के अपने-अपने यन्त्र ढूँढ़ लिए थे।

बाबा, आपने अध्यात्म को कर्मकाण्ड नहीं बनने दिया, बल्कि जनकल्याण का सेकुलर यन्त्र बना डाला। मन्दिर में सोये और मस्जिद में जगे। लेकिन सौदागरों ने तुम्हें सोने के सिंहासन पर बिठाकर तुम्हारे ज़मीनी अनुयायियों से दूर कर दिया, जो तुम्हारी द्वारका में आकर तुमसे अपना दुख-सुख बाँटते थे, तुमसे शक्ति पाते थे। अब भी क्या उनका तुमसे कोई संवाद बचा है ? नहीं ना। उनका भी अब नया संस्करण आ गया है। वह अपने स्वार्थ को ही पहचानते हैं। आपके दया भाव को फायदा का सौदा मानते हैं। तुम स्वभाववश करते हो, वे स्वार्थवश।

बाबा, मैं जानता हूँ कि तुम्हें सब कुछ मालूम है, लेकिन फिर भी कुछ बातें अर्ज़ करना चाहता हूँ। पिछले दो-तीन साल से हम लोग मुंबई आते हैं। बचपन से मैं और मीरा शिरडी के साईं बाबा, यानी आपके चमत्कारों के बारे में सुनते रहे हैं, इसलिए हर साल सोचते थे कि तुम्हारे दरबार में हाज़िरी दे आएँ। लेकिन हर बार टाल जाता रहा। न पहुँच पाने को, जैसे कि होता है, हमने आपके ऊपर थोप दिया, बाबा ने नहीं बुलाया। बाबा क्या निमन्त्रण देंगे ? हम लोगों की प्रवृत्ति है, अपनी बला दूसरों पर टालने की। लेकिन 22 दिसम्बर की सुबह अपने दामाद की कार से शिरडी की दिशा में बढ़े, तब पता नहीं, हमने यह सोचा या नहीं कि बाबा ने बुलाया है।

लेकिन बाबा, मेरी कुछ पीड़ाएँ हैं। आपके यहाँ तो मजबूर और महकूम ही अपनी अरदास सुनाने आते हैं। बड़े और धनाढ्य तो पिछले दरवाज़े से आए, कुछ तुम्हारे पुजारियों को पूजा, कुछ तुम्हें। वह पूजा भी तुम्हें कितनी पहुँचती होगी, वह तो न्यासी जानते होंगे। वह बेचारे, जिनके बीच तुम रहे या जिनको तुमने अपनी कृपा का नूर बिना भेदभाव के बाँटा, वे लोग तो मूर्ति के सामने मुँह तक नहीं खोल पाते, धकेल दिए जाते हैं। बाबा, कुछ कहते नहीं बनता। तुम्हारे सिवाय किससे कहूँ ? सामान्य आदमी की तरह जाना कितना दुश्वार है ! विशिष्ट आदमी पहले। न्यास में इतना धन आता है लेकिन उस धन का न आपके लिए उपयोग है और न आपके जन के लिए। आपका जन तो मारा-मारा फिरता है। वॉलंटियर्स तक नहीं रहते, जो दर्शन करने में मदद करें। धक्कम-धक्का करते चलते चले जाओ। ऊपर जाकर तुम्हारा सिंहासन। तुम्हारी कृपा है, सब ठीक है। कभी कुछ उल्टा-सीधा हो गया, तेरे जन ही जाएँगे, क्योंकि वहाँ कोई रास्ता बताने वाला तक नहीं होता। यह तक बताने वाला नहीं कि वरिष्ठ नागरिक के जाने का दरवाज़ा किधर है।

वर्दी वाले तक भरमाते हैं। एक नम्बर दरवाज़े पर जाओ, वहाँ से तीन नम्बर पर भेज देंगे। लोगों में सहूलियत से बात करने की सलाहियत तक नहीं। एक विकलांग बच्चो को आपकी प्रतिमा के सामने से धकेल दिया गया। मुझे उन लोगों से करना पड़ा कि साईं बाबा से कहना होगा कि बाबा, इन्हें जो कुछ देना हो दो, पर थोड़ी इन्सानियत भी दो। एक महिला स्वयंसेविका बोली, जा कह दे। वह तुझसे नहीं डरते, न डरें, लिहाज़ तो करें। साईं बाबा के सेवक हैं। वह तो अपने को मालिक समझते हैं। बाबा, आपको इन मालिकों से क्या लेना ? इन्हें तुमसे लेना है, इसलिए तुम्हें इस सिंहासन पर बैठाकर, बाँधकर, तुम्हें अपनों से दूर कर देना चाहते हैं। बाबा, क्या तुम अपनों से दूर रहकर खुश रह सकते हो ?

—तुम्हारा एक कृपाकांक्षी
(‘अमर उजाला’ 19 जनवरी 2009)

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