आधुनिक >> मृगतृष्णा मृगतृष्णाके. एल. मोहन वर्मा
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शेयर बाजार के चमत्कारिक गणित और दाँव-पेंच के आधार पर रचा मलयालम उपन्यास "ओहरि" का हिन्दी रूपान्तरण
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शेयर बाजार के चमत्कारिक गणित और दाँव-पेंच के आधार पर रचा मलयालम उपन्यास "ओहरि" किसी भारतीय भाषा में शेयर बाजार की पृष्ठभूमि में रचा सबसे पहला और प्रामाणिक उपन्यास है। इस रचना में भारत के मध्यवर्गीय समाज का वह
चेहरा जिसे अनावृत्त करने का साहस अभी तक किसी अन्य लेखक ने नहीं दिखाया।
मलयालम में प्रकाशित होते ही रचना-जगत् में इस कृति ने हलचल मचा दी।
प्रस्तुत है कुछ सम्मतियाँ:
व्यवसाय के क्षेत्र के चुनी कथावस्तु एवं उसकी चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति ने प्रकाशन जगत् में तहलका मचा दिया। किसी भी भारतीय भाषा में शेयर बाजार की थीम पर बनी यह सर्वप्रथम रचना है।
व्यवसाय के क्षेत्र के चुनी कथावस्तु एवं उसकी चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति ने प्रकाशन जगत् में तहलका मचा दिया। किसी भी भारतीय भाषा में शेयर बाजार की थीम पर बनी यह सर्वप्रथम रचना है।
- इंडियन एक्सप्रेस
उपन्यास में बिल्कुल नया कथ्य है "मृगतृष्णा"। उपन्यासकार ने इस पर बखूबी
अपना होमवर्क किया है। केवल कथ्य की नवीनता ही इस रचना की श्रेष्ठता का
कारण नहीं है। जीवित मानव इसमें से निकल कर हमारे हाथ पकड़कर हिलाते हैं।
हाँ, कुछ महिलाएं भी उसमें शामिल हैं। मिनी, उसकी माँ, सावित्री आदि
स्त्री पात्रों के चित्रण में लेखक ने जोर दिया है कि दिमागी कौशल के विषय
में स्त्रियाँ पुरुषों से कम नहीं हैं।
- दैनिक मलयाला "मनोरमा"
मोहन वर्मा मँजे हुए लेखक हैं जिनकी अनेक रचनाओं में नौ उपन्यास भी शामिल
हैं। शेयर बाजार की जटिलताओं का उन्होंने गहरा अध्ययन किया है और उपन्यास
पढ़ते-पढ़ते पाठक भी इस जानकारी से लाभान्वित हो उठते हैं। शेयर बाजार में
एक छोटी-मोटी कम्पनी पर किये जाने वाले कब्जे के प्रयासों और कम्पनी की
मालिक महिला द्वारा उसके कुशल प्रतिरोध को केन्द्र बनाकर रचे गये इस
उपन्यास की सबसे बड़ी विशिष्टता है इसकी पठनीयता। -
-दि हिन्दू
प्रस्तावना
सामाजिक यथार्थ का चित्रण साहित्य का एक प्रमुख लक्ष्य है, तो इस लक्ष्य
को साधने का सबसे सशक्त माध्यम उपन्यास है। वैचारिक, आर्थिक और राजनीतिक
परिवर्तनों के जिस दौर से आधुनिक समाज गुजर रहा है, उसने उपन्यासकार के
लिए अपनी रचना की पृष्ठभूमि और विषय-वस्तु के चयन में अभूतपूर्व
सम्भावनाएँ उपस्थित कर दी हैं। इस विषय-वैविध्य का यद्यपि हमारे
साहित्यकारों ने लाभ उठाया है, तथापि आधुनिक जीवन के कुछ ऐसे पहलू भी हैं,
जिन पर या तो उनका ध्यान बिलकुल नहीं गया, या बहुत सीमति मात्रा में ही
गयी। शेयर और सट्टेबाजी की दुनिया ऐसा ही एक विषय है, जिसका सूक्ष्म और
यथार्थ चित्रण करनेवाला यह उपन्यास इस कमी को पूरा करनेवाला पहला सशक्त
उपन्यास है। मलयालम के प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री के.एल. मोहन वर्मा में
प्रस्तुत उपन्यास (मूलनाम ‘शेयर’) में जहाँ एक ओर
विषय-वस्तु
के चयन में नयी जमीन जोड़ी है, वहाँ दूसरी ओर अपने सधे हुए शिल्प-कौशल के
कारण उपन्यास की पठनीयता एवं कलात्मकता बनाये रखने में महारत हासिल की है।
केरल की एक प्रसिद्ध आयुर्वेद औषधि कम्पनी, धन्वन्तरि हर्बल प्रोडक्टस कम्पनी के इर्द-गिर्द कथावस्तु का ताना-बाना बुना गया है। पिछले पाँच दशकों में कई संकटों से गुजरने के बाद भी अपना वर्चस्व बनाये रखनेवाली कम्पनी अब विभिन्न प्रकार की समस्या से रू-ब-रू होती है। कम्पनी के शेयर-मूल्यों में अचानक आयी अभूतपूर्व उछाल वर्तमान मैनेजिंग डाइरेक्टर मिनी बालचन्द्रन समेत सभी को हैरान कर देती है। कम्पनी के शेयरों के लिए हो रही छीना-झपटी का आधार था तीन भिन्न-भिन्न केन्द्रों द्वारा भिन्न-भिन्न कारणों से कम्पनी को हथियाने का प्रयास। इस प्रयास को नाकाम करने में मिनी बालचन्द्रन को जो सफलता मिलती है, उसके चित्रण के द्वारा शेयर बाजार की अद्भुत दुनिया लेखक ने हमारे सामने अनावृत कर दी है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलता, प्रेम, ईर्ष्या, लम्पटता जैसा सहज मानव भावनाओं आदि का केरल के सामाजिक, आर्थिक परिवेश की पृष्ठभूमि में लेखक ने यथार्थ चित्रण किया है। मोहन वर्मा मलयालम के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्हें नौकरी के सिलसिले में दीर्घकाल तक हिन्दी-प्रदेश में रहने का अवसर मिला था। अपनी कई रचनाओं में हिन्दी-प्रदेश के पात्रों तथा परिवेश का सम्यक चित्रण करने में यह अनुभव उनका सहायक हुआ है। ‘मृगतृष्णा’ उपन्यास में भी इसकी झलक मिलती है।
प्रस्तुत उपन्यास पहले-पहल जब साप्ताहिक ‘मातृभूमि’ में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था तब पाठकों ने इसका खूब स्वागत किया था। हम आशा करते हैं कि हिंदी पाठक भी इसका सहर्ष स्वागत करेंगे।
केरल की एक प्रसिद्ध आयुर्वेद औषधि कम्पनी, धन्वन्तरि हर्बल प्रोडक्टस कम्पनी के इर्द-गिर्द कथावस्तु का ताना-बाना बुना गया है। पिछले पाँच दशकों में कई संकटों से गुजरने के बाद भी अपना वर्चस्व बनाये रखनेवाली कम्पनी अब विभिन्न प्रकार की समस्या से रू-ब-रू होती है। कम्पनी के शेयर-मूल्यों में अचानक आयी अभूतपूर्व उछाल वर्तमान मैनेजिंग डाइरेक्टर मिनी बालचन्द्रन समेत सभी को हैरान कर देती है। कम्पनी के शेयरों के लिए हो रही छीना-झपटी का आधार था तीन भिन्न-भिन्न केन्द्रों द्वारा भिन्न-भिन्न कारणों से कम्पनी को हथियाने का प्रयास। इस प्रयास को नाकाम करने में मिनी बालचन्द्रन को जो सफलता मिलती है, उसके चित्रण के द्वारा शेयर बाजार की अद्भुत दुनिया लेखक ने हमारे सामने अनावृत कर दी है। स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलता, प्रेम, ईर्ष्या, लम्पटता जैसा सहज मानव भावनाओं आदि का केरल के सामाजिक, आर्थिक परिवेश की पृष्ठभूमि में लेखक ने यथार्थ चित्रण किया है। मोहन वर्मा मलयालम के उन गिने-चुने साहित्यकारों में से हैं, जिन्हें नौकरी के सिलसिले में दीर्घकाल तक हिन्दी-प्रदेश में रहने का अवसर मिला था। अपनी कई रचनाओं में हिन्दी-प्रदेश के पात्रों तथा परिवेश का सम्यक चित्रण करने में यह अनुभव उनका सहायक हुआ है। ‘मृगतृष्णा’ उपन्यास में भी इसकी झलक मिलती है।
प्रस्तुत उपन्यास पहले-पहल जब साप्ताहिक ‘मातृभूमि’ में धारावाहिक प्रकाशित हुआ था तब पाठकों ने इसका खूब स्वागत किया था। हम आशा करते हैं कि हिंदी पाठक भी इसका सहर्ष स्वागत करेंगे।
-अनुवादक
मृगतृष्णा
शुरुआत
जब कार ओवरब्रिज पहुँचने वाली थी, तब मिनी ने क्षण-भर के लिए आँखें मूँदकर
भगवान गुरुवायूरप्पन का स्मरण किया।
मिनी बालचन्द्रन हर रोज इस पुल के पास आने पर प्रार्थना करती, ‘‘हे भगवान ! गुरुवायूरप्पन ! इस चढ़ाई पर ट्रैफिक जाम न हो !’’
प्रार्थना अक्सर सफल न होती। सप्ताह में कम-से-कम दो-तीन दिन चढ़ते समय में कार को ब्रेक लगानी पड़ती। ज्यादातर कोई आटोरिक्शा ही ठीक सामने मिलता। बीच में जरा-सी जगह होता, तो एक-दो स्कूटर और मोटर साइकिलें अपने लिए जगह बना लेतीं। पुरानी गाड़ियाँ, जो चढ़ाई पार नहीं कर सकती थीं, जब थूकती-फफकती बड़ी मुश्किल से आगे को सरक जातीं, तो पीछेवाली कार की गति धीमी कर देनी पड़ती। ब्रेक लगानी होती। कभी-कभी कार रुक भी जाती थी। फिर स्टार्ट करने की दिक्कत अलग से। ऐक्सिलेटर और ब्रेक पर एक साथ दायाँ पाँव रखते हुए एक को दबाना और दूसरे को ढीला करना होता। पीछे से गाड़ियों के हॉर्न बजते रहते। यह पता चलने पर कि ड्राइवर कोई औरत है, लोग व्यंग्य-भरी दृष्टि डालते और टिप्पणियाँ करते। तनाव-ही-तनाव। पुल पार कर लेने पर भी मन को शान्त होने में देर लगती।
यद्यिप कम्पनी के कई ड्राइवर थे, तो भी पिता जी खुद कार चलाकर ऑफिस जाते थे। मिनी उस परम्परा को तोड़ना नहीं चाहती थी बल्कि उसका पालन करने की टेक-सी लगा रखी थी।
कण्टेसा कार ऑफिस में छोड़कर उसने छोटे भाई की फियट कार को पर्सनल कार बना लिया था। फियट को वह खुद मैनेज कर सकती थी। ऑफिस पहुँचने के बाद की यात्राओं के लिए कण्टेसा लेती थी। जैसे एयरपोर्ट जाना, झील के उस पार के आगे फैक्ट्री की यात्रा करना और इस प्रकार के अन्य कार्य। उसके लिए ड्राइवर भी था।
घर से ऑफिस और शाम को वापस घर की यात्राओं में अकेली हो तो उसका अलग ही मजा था। समस्याएँ अनेक थीं जिनका सूक्ष्म विश्लेषण हाथ, पाँव और आँखों के जागरुक होकर काम करने की इन घड़ियों में सम्भव हो सकता था।
हाँ, एक मुसीबत थी—ओवरब्रिज पर खतरे की सम्भावना।
एर्णाकुलम के बीच उत्तर-दक्षिण की तरफ करधनी-सी बिछी रेल की पटरियाँ पार करने के लिए दो ही ओवरब्रिज थे। एक उत्तर में और दूसरा दक्षिण में। कई लेवल-क्रासिंग भी थे, पर गाड़ियों की भीड़ ओवरब्रिजों पर ही अधिक होती थी।
शहर के पश्चिमी भाग में ही ऑफिस, मार्केट, दुकानें, हवाई अड्डा, नेवल बेस, बन्दरगाह आदि थे। पूर्वी हिस्से में घनी आबादीवाले छोटे-छोटे उपनगर और दलदली जमीन पर उठी बस्तियाँ और बड़ी-बड़ी इमारतें थीं। पूरब की पहाड़ी इलाकों में आते ट्रकों, तमिलनाडु से आती माल-लदी लॉरियों और कलामश्शेरी उद्योग-क्षेत्र के लिए जीवनदायक बन्दरगाह की तरफ की आवा-जाही सब इन ओवरब्रिजों की तंग चढ़ाई के लिए भारी पड़ते थे। पूरब से आती गाड़ियों का निरन्तर प्रवाह, जो सुबह साढ़े आठ बजे शुरू होता था, बारह बजे तक चलता था। उल्टा प्रवाह दुपहर तीन बजे शुरू होता। साढ़े आठ बजे रात को ही उसकी तीव्रता कम हो पाती।
दोनों ओवरब्रिज उस समय घुटन महसूस करते।
आज भी भीड़ थी। पर कोई गड़बड़ नहीं हुई।
मिनी की कार से बीस फीट आगे एक बस जा रही थी। कोई आटोरिक्शा या स्कूटर बीच में नहीं आ धमका। बस ने रफ्तार कम किये बिना चढ़ाई पार की। मिनी ने सेकेण्ड गियर में ही ऐक्सिलरेटर पर पैर दबाया और कार की रप्तार बढ़ाकर ओवरब्रिज के ऊपर पहुँच गयी।
उसे खुशी महसूस हुई। आज खुशक्समती का दिन है।
दायीं ओर के देवी-मन्दिर के पास से कार धीरे-धीरे चली, तो मिनी ने फिर आँखें मूँदकर प्रार्थना की, ‘हे देवी, महामये ! रक्षा करो !’’
कल रात जब वह सोयी, तो ढाई बजे थे ! सोयी नहीं थी, नींद को बरबस बुला लायी थी। उसने नींद की एक गोली खायी, फिर भी न जाने क्या-क्या सपने देखे। झील के ठहरे हुए पानी में जैसे कोई उसके पैर पकड़कर पीछे को खींच रहा था। कानों में झींगुरों की झंकार भर गयी थी।
हिसाब, आँकड़े और चार्ट। पिछले चार महीनों से हर रोज, हर समय समस्याएँ ही थीं। कोई भी फोन काल या कोई भी सरकारी चिट्ठी मानो खतरे की घण्टी बजा देती थी। रोज बैंकवालों से झड़प होती। कैश फ्लॉ और लिक्विडिटी की बात करते-करते फाइनेंस डायरेक्टर अडियोडी मुँह फुला लेते। तोडुपुषा के पास लगनेवाला नया प्लाण्ट पिछले महीने चालू होना चाहिए था। पर जब से उसकी नींव पड़ी समस्याएँ ही सामने थीं। अब लगता है, एक साल से पहले वहाँ उत्पादन शुरू नहीं होगा। अब इतने समय के लिए बैंक को ब्याज देना होगा। पिछला एस्टिमेट तीन बार बदला गया। हर बार लागत में बढ़त होती। पहले के एस्टिमेट की ढाई गुना बार अब तक खर्च हो गयी। और काम पूरा हुआ मुश्किल से सत्तर प्रतिशत।
नेल्लियाम्पती का एस्टेट आज भी जंगल बना हुआ है।
खर्च और खर्च। केवल खर्च।
सब की सब भविष्य की योजनाएँ थीं। पाँच साल, दस साल, पच्चीस साल, पर आज ?
सिर्फ कल ही नहीं, कौन-सी रात ऐसी है जब वह चैन से सो सकती थी ? वरदराजन की रिपोर्ट की पंक्तियों के बीच पढ़ा जा सकता था कि मिनी ने जरूरत से ज्यादा भार अपने कन्धों पर उठा रखा है।
किसी भी संस्था के विकास के लिए एक सीमा होती है। ओप्टिमम प्वाइण्ट। पिता जी उसे जानते थे। उस प्वाइण्ट के करीब आने पर नये क्षेत्र ढूँढ़ लेना चाहिए, वरना बुढ़ापा हम पर हावी हो जाएगा।
वरदानराज की डेढ़ लाख रुपये मूल्य की मैनेजमेण्ट कंसल्टेंसी रिपोर्ट उसने पढ़ ली। अकेले रिपोर्ट के ही पचास पृष्ठ थे। लेखा, चार्ट, तश्वीरें सब मिलाकर एक सौ पृष्ठ अलग से। पिछले तीन वर्षों के बैलेंस शीट, कॉस्ट अनालिसिस। नयी प्रोजेक्ट रिपोर्टों पर टिप्पणियाँ।
वरदानराज ने वस्तुपस्थिति का ठीक से अध्ययन किया है।
जब उसे शंका हुई कि डेढ़ लाख रुपया देकर हमारी संस्था की किसी बाहरी व्यक्ति से रिपोर्ट लिखवानी है या नहीं, तब जकरिया अंकल ने ठीक ही कहा था, ‘किसी भी खिलाड़ी को अपनी क्षमता की सीमा और सम्भावनाओं की पूरी जानकारी नहीं रहती। उसका पता लगाने के लिए एक कोच की, ऐनालाइजर की जरूरत है।’
शतरंज के खेल के सेकेण्ड्स की तरह हर खेल से पहले प्रतिद्वन्द्वी के पुराने खेलों की पड़ताल करके उसकी चालों का पता लगाना चाहिए। खेल के बाद अपनी चालों की खामियों और गलतियों को बारीकी से पहचानकर अपनी शक्ति पर बल देना चाहिए।
सेकेण्ड्स। कोचों की तरह मैनेजमेण्ट कंसल्टेण्ट्स भी जरूरी हैं, कम्पनियों और औद्योगिक संस्थाओं के लिए। वरदानराज की रिपोर्ट के वाक्यों में गैरजरूरी तकनीकी की भरमार थी। ऐसा अक्सर होता था। उन्हें समझे बिना भी काम चल जाएगा। उसे जकारिया अंकल की चेतावनी याद आयी।
‘‘वरदान राज अकदम ऐनालाइज करके रिपोर्ट देंगे, पर उसके कुछ वाक्यों को पढ़कर समझाने के लिए उन्हें अलग से फीस देना होगी। लेकिन मिनी के लिए छूट है। वे सिर्फ आर्नमेण्टल हुआ करते हैं, बस।’’
‘‘एक्सप्रेस करने से ज्यादा इम्प्रेस करना चाहते होंगे शायद ?’’
‘‘नहीं। इन लोगों की आदत पड़ गयी है, बस।’’ कल रात आठ बजे ही वरदानराज के दऱफ्तर से रिपोर्ट लिये प्रकाशन आया था। हाथ लगने के बाद उसे ठीक से पढ़कर, तैयार होकर ही अनियन राजा का सामना करना चाहिए।
मिनी बालचन्द्रन हर रोज इस पुल के पास आने पर प्रार्थना करती, ‘‘हे भगवान ! गुरुवायूरप्पन ! इस चढ़ाई पर ट्रैफिक जाम न हो !’’
प्रार्थना अक्सर सफल न होती। सप्ताह में कम-से-कम दो-तीन दिन चढ़ते समय में कार को ब्रेक लगानी पड़ती। ज्यादातर कोई आटोरिक्शा ही ठीक सामने मिलता। बीच में जरा-सी जगह होता, तो एक-दो स्कूटर और मोटर साइकिलें अपने लिए जगह बना लेतीं। पुरानी गाड़ियाँ, जो चढ़ाई पार नहीं कर सकती थीं, जब थूकती-फफकती बड़ी मुश्किल से आगे को सरक जातीं, तो पीछेवाली कार की गति धीमी कर देनी पड़ती। ब्रेक लगानी होती। कभी-कभी कार रुक भी जाती थी। फिर स्टार्ट करने की दिक्कत अलग से। ऐक्सिलेटर और ब्रेक पर एक साथ दायाँ पाँव रखते हुए एक को दबाना और दूसरे को ढीला करना होता। पीछे से गाड़ियों के हॉर्न बजते रहते। यह पता चलने पर कि ड्राइवर कोई औरत है, लोग व्यंग्य-भरी दृष्टि डालते और टिप्पणियाँ करते। तनाव-ही-तनाव। पुल पार कर लेने पर भी मन को शान्त होने में देर लगती।
यद्यिप कम्पनी के कई ड्राइवर थे, तो भी पिता जी खुद कार चलाकर ऑफिस जाते थे। मिनी उस परम्परा को तोड़ना नहीं चाहती थी बल्कि उसका पालन करने की टेक-सी लगा रखी थी।
कण्टेसा कार ऑफिस में छोड़कर उसने छोटे भाई की फियट कार को पर्सनल कार बना लिया था। फियट को वह खुद मैनेज कर सकती थी। ऑफिस पहुँचने के बाद की यात्राओं के लिए कण्टेसा लेती थी। जैसे एयरपोर्ट जाना, झील के उस पार के आगे फैक्ट्री की यात्रा करना और इस प्रकार के अन्य कार्य। उसके लिए ड्राइवर भी था।
घर से ऑफिस और शाम को वापस घर की यात्राओं में अकेली हो तो उसका अलग ही मजा था। समस्याएँ अनेक थीं जिनका सूक्ष्म विश्लेषण हाथ, पाँव और आँखों के जागरुक होकर काम करने की इन घड़ियों में सम्भव हो सकता था।
हाँ, एक मुसीबत थी—ओवरब्रिज पर खतरे की सम्भावना।
एर्णाकुलम के बीच उत्तर-दक्षिण की तरफ करधनी-सी बिछी रेल की पटरियाँ पार करने के लिए दो ही ओवरब्रिज थे। एक उत्तर में और दूसरा दक्षिण में। कई लेवल-क्रासिंग भी थे, पर गाड़ियों की भीड़ ओवरब्रिजों पर ही अधिक होती थी।
शहर के पश्चिमी भाग में ही ऑफिस, मार्केट, दुकानें, हवाई अड्डा, नेवल बेस, बन्दरगाह आदि थे। पूर्वी हिस्से में घनी आबादीवाले छोटे-छोटे उपनगर और दलदली जमीन पर उठी बस्तियाँ और बड़ी-बड़ी इमारतें थीं। पूरब की पहाड़ी इलाकों में आते ट्रकों, तमिलनाडु से आती माल-लदी लॉरियों और कलामश्शेरी उद्योग-क्षेत्र के लिए जीवनदायक बन्दरगाह की तरफ की आवा-जाही सब इन ओवरब्रिजों की तंग चढ़ाई के लिए भारी पड़ते थे। पूरब से आती गाड़ियों का निरन्तर प्रवाह, जो सुबह साढ़े आठ बजे शुरू होता था, बारह बजे तक चलता था। उल्टा प्रवाह दुपहर तीन बजे शुरू होता। साढ़े आठ बजे रात को ही उसकी तीव्रता कम हो पाती।
दोनों ओवरब्रिज उस समय घुटन महसूस करते।
आज भी भीड़ थी। पर कोई गड़बड़ नहीं हुई।
मिनी की कार से बीस फीट आगे एक बस जा रही थी। कोई आटोरिक्शा या स्कूटर बीच में नहीं आ धमका। बस ने रफ्तार कम किये बिना चढ़ाई पार की। मिनी ने सेकेण्ड गियर में ही ऐक्सिलरेटर पर पैर दबाया और कार की रप्तार बढ़ाकर ओवरब्रिज के ऊपर पहुँच गयी।
उसे खुशी महसूस हुई। आज खुशक्समती का दिन है।
दायीं ओर के देवी-मन्दिर के पास से कार धीरे-धीरे चली, तो मिनी ने फिर आँखें मूँदकर प्रार्थना की, ‘हे देवी, महामये ! रक्षा करो !’’
कल रात जब वह सोयी, तो ढाई बजे थे ! सोयी नहीं थी, नींद को बरबस बुला लायी थी। उसने नींद की एक गोली खायी, फिर भी न जाने क्या-क्या सपने देखे। झील के ठहरे हुए पानी में जैसे कोई उसके पैर पकड़कर पीछे को खींच रहा था। कानों में झींगुरों की झंकार भर गयी थी।
हिसाब, आँकड़े और चार्ट। पिछले चार महीनों से हर रोज, हर समय समस्याएँ ही थीं। कोई भी फोन काल या कोई भी सरकारी चिट्ठी मानो खतरे की घण्टी बजा देती थी। रोज बैंकवालों से झड़प होती। कैश फ्लॉ और लिक्विडिटी की बात करते-करते फाइनेंस डायरेक्टर अडियोडी मुँह फुला लेते। तोडुपुषा के पास लगनेवाला नया प्लाण्ट पिछले महीने चालू होना चाहिए था। पर जब से उसकी नींव पड़ी समस्याएँ ही सामने थीं। अब लगता है, एक साल से पहले वहाँ उत्पादन शुरू नहीं होगा। अब इतने समय के लिए बैंक को ब्याज देना होगा। पिछला एस्टिमेट तीन बार बदला गया। हर बार लागत में बढ़त होती। पहले के एस्टिमेट की ढाई गुना बार अब तक खर्च हो गयी। और काम पूरा हुआ मुश्किल से सत्तर प्रतिशत।
नेल्लियाम्पती का एस्टेट आज भी जंगल बना हुआ है।
खर्च और खर्च। केवल खर्च।
सब की सब भविष्य की योजनाएँ थीं। पाँच साल, दस साल, पच्चीस साल, पर आज ?
सिर्फ कल ही नहीं, कौन-सी रात ऐसी है जब वह चैन से सो सकती थी ? वरदराजन की रिपोर्ट की पंक्तियों के बीच पढ़ा जा सकता था कि मिनी ने जरूरत से ज्यादा भार अपने कन्धों पर उठा रखा है।
किसी भी संस्था के विकास के लिए एक सीमा होती है। ओप्टिमम प्वाइण्ट। पिता जी उसे जानते थे। उस प्वाइण्ट के करीब आने पर नये क्षेत्र ढूँढ़ लेना चाहिए, वरना बुढ़ापा हम पर हावी हो जाएगा।
वरदानराज की डेढ़ लाख रुपये मूल्य की मैनेजमेण्ट कंसल्टेंसी रिपोर्ट उसने पढ़ ली। अकेले रिपोर्ट के ही पचास पृष्ठ थे। लेखा, चार्ट, तश्वीरें सब मिलाकर एक सौ पृष्ठ अलग से। पिछले तीन वर्षों के बैलेंस शीट, कॉस्ट अनालिसिस। नयी प्रोजेक्ट रिपोर्टों पर टिप्पणियाँ।
वरदानराज ने वस्तुपस्थिति का ठीक से अध्ययन किया है।
जब उसे शंका हुई कि डेढ़ लाख रुपया देकर हमारी संस्था की किसी बाहरी व्यक्ति से रिपोर्ट लिखवानी है या नहीं, तब जकरिया अंकल ने ठीक ही कहा था, ‘किसी भी खिलाड़ी को अपनी क्षमता की सीमा और सम्भावनाओं की पूरी जानकारी नहीं रहती। उसका पता लगाने के लिए एक कोच की, ऐनालाइजर की जरूरत है।’
शतरंज के खेल के सेकेण्ड्स की तरह हर खेल से पहले प्रतिद्वन्द्वी के पुराने खेलों की पड़ताल करके उसकी चालों का पता लगाना चाहिए। खेल के बाद अपनी चालों की खामियों और गलतियों को बारीकी से पहचानकर अपनी शक्ति पर बल देना चाहिए।
सेकेण्ड्स। कोचों की तरह मैनेजमेण्ट कंसल्टेण्ट्स भी जरूरी हैं, कम्पनियों और औद्योगिक संस्थाओं के लिए। वरदानराज की रिपोर्ट के वाक्यों में गैरजरूरी तकनीकी की भरमार थी। ऐसा अक्सर होता था। उन्हें समझे बिना भी काम चल जाएगा। उसे जकारिया अंकल की चेतावनी याद आयी।
‘‘वरदान राज अकदम ऐनालाइज करके रिपोर्ट देंगे, पर उसके कुछ वाक्यों को पढ़कर समझाने के लिए उन्हें अलग से फीस देना होगी। लेकिन मिनी के लिए छूट है। वे सिर्फ आर्नमेण्टल हुआ करते हैं, बस।’’
‘‘एक्सप्रेस करने से ज्यादा इम्प्रेस करना चाहते होंगे शायद ?’’
‘‘नहीं। इन लोगों की आदत पड़ गयी है, बस।’’ कल रात आठ बजे ही वरदानराज के दऱफ्तर से रिपोर्ट लिये प्रकाशन आया था। हाथ लगने के बाद उसे ठीक से पढ़कर, तैयार होकर ही अनियन राजा का सामना करना चाहिए।
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