आचार्य श्रीराम शर्मा >> अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रहश्रीराम शर्मा आचार्य
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जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
‘अन्त्याक्षरी’ प्रतियोगिताओं के प्रति छात्रों, बाल और किशोर
वय के बालक-बालिकाओं में काफी अभिरुचि पाई जाती है। विज्ञजनों ने इस विधा
का स्वरूप गढ़ने तथा उसे लोक-प्रिय बनाने के लिए काफी प्रयास किए। इसके
पीछे कई प्रयोजन रहे हैं। अन्त्याक्षरी एक स्वस्थ-साहित्यिक, स्मृति वर्धक
जीवनवर्धक खेल है। स्पर्धा के भाव से जो पद याद कर लेते हैं, उनमें
सन्नहित श्रेष्ठ विचार-जीवन सूत्र उनके जीवन को जाने-अनजाने प्रभावित भी
करते हैं। इसलिए समाज के विचारशील लोग, शिक्षक, अभिभावक आदि सभी यह चाहते रहे हैं कि अधिकाधिक बच्चे ‘अन्त्याक्षरी’ खेल/स्पर्धा में
भाग लेते रहें।
रामचरित मानस में रोचकता के साथ व्यक्ति, परिवार एवं समाजगत आदर्शों का काव्यमय वर्णन है। बच्चे सूत्रों को पढ़े-समझें-याद करें, इसलिए रामचरित मानस पर आधारित अन्त्याक्षरियों का बोलबाला लम्बे समय तक रहा। क्रमशः उसका दायरा बढ़ाने के लिए अन्य काव्य संग्रहों के पद भी शामिल करने का प्रचलन चला; लेकिन उस दिशा में बच्चों को सुविधा एवं मार्गदर्शन देने के लिए अकारादि क्रम से संपादित पद्य संग्रहों का काफी अभाव रहा। बच्चे अपनी अधकचरी बुद्धि से प्रतियोगिताएँ जीतने के उत्साह में अधिक से अधिक पद्यांश चुनने एवं याद करने लगे। परिणाम यह हुआ कि उसके साथ फिल्मी गीतों के अनगढ़ पद जोड़ने लगे। अन्त्याक्षरी एक स्पर्धा मात्र रह गई, उसके साथ बच्चों की स्मृति में श्रेष्ठ जीवन सूत्रों को स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य दरकिनार कर दिया गया।
युग निर्माण आन्दोलन के अन्तर्गत उस प्रत्येक विधा को दिशा एवं प्रोत्साहन देने का प्रयास किया जा रहा है। जो सुसंस्कृत व्यक्ति, परिवार एवं समाज के निर्माण में योगदान कर सके। इस विश्वव्यापी आन्दोलन के संस्थापक-संरक्षक ऋषि युग्म (वेदमूर्ति तपोनिष्ठ, युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं स्नेह सलिला वन्दनीय माता भगवती देवी शर्मा) बच्चों तक विचार क्रान्ति के सूत्र पहुँचाने के लिए, उन्हें जीवन आदर्शों की ओर उन्मुख करने के लिए हर संभव प्रयास करते रहने की प्रेरणा देते रहे हैं। ‘अन्त्याक्षरी’ को भी उन्होंने इस कार्य के लिए अत्यधिक उपयोगी माना है। इसलिए सन् 1967-68 के लगभग उन्होंने ‘दोहा अन्त्याक्षरी’ के नाम से एक संग्रह भी प्रकाशित करवाया था। वह पुस्तिका काफी लोकप्रिय भी हुई थी।
पिछले कुछ वर्षों से क्षेत्र के विचारशील कार्यकर्ता एवं शुभ चिंतक इस बात का आग्रह करते रहे हैं कि दोहा अन्त्याक्षरी के फिल्मी अनगढ़ स्वरूप के स्थान पर उसे मौलिक गरिमामय स्वरूप को पुनः स्थापित करने के लिए कुछ किया जाय। इस उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में पहली जरूरत अनुभव हुई एक ऐसे पद्य संग्रह की, जिसमें अकारादि क्रम से संपादित श्रेष्ठ प्रेरणादायक पद पर्याप्त संख्या में हों। इस दिशा में शान्तिकुञ्ज के वेद विभाग एवं संगीत विभाग के माध्यम से सुनिश्चित प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरूप ‘अन्त्याक्षरी पद्यसंग्रह’ का पहला संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस संग्रह में अकारादि क्रम से अनेक संत कवियों द्वारा रचित पदों के साथ ‘युगनिर्माण’ गीतों के समृद्ध कोष से श्रेष्ठ प्रेरणादायक पद्यांश भी संकलित किए गये हैं। अपेक्षा यह की गई है कि छात्रों, बाल एवं किशोरों वय के बालक-बालिका के बीच इसके सहयोग से सउद्देश्य अन्त्याक्षरी प्रतियोगिताएँ कराई जाएँ। इस श्रृंखला में आमंत्रित की जाने वाली अन्त्याक्षरी प्रतियोगिताओं में यह भी शर्त रखी जाय कि पद्यांश बोलने के साथ प्रतियोगी को उसमें सन्निहित प्रेरणा को भी स्पष्ट करना होगा। इस संग्रह के बाहर के भी पद्यांश लिए जा सकते हैं, लेकिन निर्णायकों को यह अधिकार होगा कि यदि गाये गये पद में कोई उपयुक्त प्रेरणा नहीं है, तो उस पद को अमान्य किया जा सकेगा।
आशा है युगनिर्माण आन्दोलन से जुड़े परिजन नई पीढ़ी में श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए सार्थक प्रयास करेंगे तथा उन प्रयासों को सफल बनाने में ‘अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह’ का महत्त्वपूर्ण योगदान मिलता रहेगा।
रामचरित मानस में रोचकता के साथ व्यक्ति, परिवार एवं समाजगत आदर्शों का काव्यमय वर्णन है। बच्चे सूत्रों को पढ़े-समझें-याद करें, इसलिए रामचरित मानस पर आधारित अन्त्याक्षरियों का बोलबाला लम्बे समय तक रहा। क्रमशः उसका दायरा बढ़ाने के लिए अन्य काव्य संग्रहों के पद भी शामिल करने का प्रचलन चला; लेकिन उस दिशा में बच्चों को सुविधा एवं मार्गदर्शन देने के लिए अकारादि क्रम से संपादित पद्य संग्रहों का काफी अभाव रहा। बच्चे अपनी अधकचरी बुद्धि से प्रतियोगिताएँ जीतने के उत्साह में अधिक से अधिक पद्यांश चुनने एवं याद करने लगे। परिणाम यह हुआ कि उसके साथ फिल्मी गीतों के अनगढ़ पद जोड़ने लगे। अन्त्याक्षरी एक स्पर्धा मात्र रह गई, उसके साथ बच्चों की स्मृति में श्रेष्ठ जीवन सूत्रों को स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण उद्देश्य दरकिनार कर दिया गया।
युग निर्माण आन्दोलन के अन्तर्गत उस प्रत्येक विधा को दिशा एवं प्रोत्साहन देने का प्रयास किया जा रहा है। जो सुसंस्कृत व्यक्ति, परिवार एवं समाज के निर्माण में योगदान कर सके। इस विश्वव्यापी आन्दोलन के संस्थापक-संरक्षक ऋषि युग्म (वेदमूर्ति तपोनिष्ठ, युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य एवं स्नेह सलिला वन्दनीय माता भगवती देवी शर्मा) बच्चों तक विचार क्रान्ति के सूत्र पहुँचाने के लिए, उन्हें जीवन आदर्शों की ओर उन्मुख करने के लिए हर संभव प्रयास करते रहने की प्रेरणा देते रहे हैं। ‘अन्त्याक्षरी’ को भी उन्होंने इस कार्य के लिए अत्यधिक उपयोगी माना है। इसलिए सन् 1967-68 के लगभग उन्होंने ‘दोहा अन्त्याक्षरी’ के नाम से एक संग्रह भी प्रकाशित करवाया था। वह पुस्तिका काफी लोकप्रिय भी हुई थी।
पिछले कुछ वर्षों से क्षेत्र के विचारशील कार्यकर्ता एवं शुभ चिंतक इस बात का आग्रह करते रहे हैं कि दोहा अन्त्याक्षरी के फिल्मी अनगढ़ स्वरूप के स्थान पर उसे मौलिक गरिमामय स्वरूप को पुनः स्थापित करने के लिए कुछ किया जाय। इस उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में पहली जरूरत अनुभव हुई एक ऐसे पद्य संग्रह की, जिसमें अकारादि क्रम से संपादित श्रेष्ठ प्रेरणादायक पद पर्याप्त संख्या में हों। इस दिशा में शान्तिकुञ्ज के वेद विभाग एवं संगीत विभाग के माध्यम से सुनिश्चित प्रयास किया गया, जिसके फलस्वरूप ‘अन्त्याक्षरी पद्यसंग्रह’ का पहला संस्करण प्रस्तुत किया जा रहा है।
इस संग्रह में अकारादि क्रम से अनेक संत कवियों द्वारा रचित पदों के साथ ‘युगनिर्माण’ गीतों के समृद्ध कोष से श्रेष्ठ प्रेरणादायक पद्यांश भी संकलित किए गये हैं। अपेक्षा यह की गई है कि छात्रों, बाल एवं किशोरों वय के बालक-बालिका के बीच इसके सहयोग से सउद्देश्य अन्त्याक्षरी प्रतियोगिताएँ कराई जाएँ। इस श्रृंखला में आमंत्रित की जाने वाली अन्त्याक्षरी प्रतियोगिताओं में यह भी शर्त रखी जाय कि पद्यांश बोलने के साथ प्रतियोगी को उसमें सन्निहित प्रेरणा को भी स्पष्ट करना होगा। इस संग्रह के बाहर के भी पद्यांश लिए जा सकते हैं, लेकिन निर्णायकों को यह अधिकार होगा कि यदि गाये गये पद में कोई उपयुक्त प्रेरणा नहीं है, तो उस पद को अमान्य किया जा सकेगा।
आशा है युगनिर्माण आन्दोलन से जुड़े परिजन नई पीढ़ी में श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को स्थापित करने के लिए सार्थक प्रयास करेंगे तथा उन प्रयासों को सफल बनाने में ‘अन्त्याक्षरी पद्य-संग्रह’ का महत्त्वपूर्ण योगदान मिलता रहेगा।
प्रकाशक
अन्त्याक्षरी
अ
अंगार दहकते लाये हैं, यह महाकाल ने पहुँचाये हैं।
जिसको लेने में लाभ दिखे, वह मूल्य चुकाये ले जाये।।
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ।
कै हरि आयाँ भजिसी, कै हरि ही पास गयाँ।।
अंधकार आसुरी वृत्ति को, जिसने दूर भगाया।
देवदूत उतरा धरती पर, जग पहचान न पाया।।
अंषणिया झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।
अगर आपका स्नेह मिलता रहेगा।
तो यह कारवाँ साथ चलता रहेगा।।
अगर चाहते हो बने स्वर्ग धरती।
तो संकल्प तुमको उठाने पड़ेंगे।।
अगर हम नहीं देश के काम आये।
धरा क्या कहेगा गगन क्या कहेगा।।
अति अगाध अति ओथरे, नदी कूप सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ, जाकी प्यास बुझाय।।
अति अपार जे सरित बर, जो नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु, बिनु श्रम पारहिं जाहिं।।
अति हठ मति कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय।
ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय।।
अति ही सरल न हूजिए, देखो जो वन राय।
सीधे-सीधे काटिये, बाँके तरु बचि जाय।।
अद्वितीय है निर्माणों में, गुरुओं का निर्माण।
जिनने फूँके चलती-फिरती, प्रतिमाओं में प्राण।।
अधर धरत हरि के परत, ओठ डीठि पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुषि सी होति।।
अनुग्रह यही आपका कौन कम है।
दिशा हीन जीवन न रहने दिया है।।
अटल आस्था जिन्दगी में जगाकर।
दलित दीन जीवन न रहने दिया है।।
अनसमझे अनसोचना अबसि समुझिए आप।
तुलसी आप न समुझिए पल-पल पर परिताप।।
अनुचित उचित विचार तजि, जे पालहि पितु बैन।
ते भाजन सुख-सुजस के, बसहिं अमरपति ऐन।।
अनुचित वचन न मानिए, जदपि गरायसु गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि।।
अनुदान और वरदान प्रभो, जो माँगें उनको दे देना।
गुरुदेव हमें निज अन्तर की, पीड़ा में हिस्सा दे देना।।
अनुदानों का ऋण चुका सकें, वह शक्ति हमें देना गुरुवर।
उपकार नहीं हम भुला सकें, अभिव्यक्ति हमें देना गुरुवर।।
अन्तर दावा लगि रहे, धुआँ न प्रगटै सोय।
कै जिय जाने आपनो, जा सिर बीती होय।।
अपजस जोग कि जानकी, मानि चोरी की कान्ह।
तुलसी लोग रिझाइबो, करषि कातिबो नाहि।।
अपना दीप जलाओ साथी, करो ज्योति अगवानी।
साथी करो ज्योति अगवानी।।
अपना देश बनाने वाले हम बच्चे।
नव निर्माण रचाने वाले हम बच्चे।।
अपनी-अपनी गरज सब, कोलत करत निहारे।
बिन गरजे बोले नहिं, गिरवर हूँ को मारे।।
अपनी कहै मेरी सुनै, सुनि मिलि एको होय।
हमरे देखत जग जात है, ऐसा मिला न कोय।।
अपनी राह चला लो भगवान्, अपनी राह चला लो।
हमे साथ ले हाथ-हाथ ले, अपनी रास रचा लो भगवान्।।
अपनी राह चला लो।।
अपनी संस्कृति के मन में, आदर भाव जगाओ।
यही जननी है विश्व संस्कृति की, सबको बतलाओ।।
अपनी भक्ति का अमृत पिला दो प्रभु।
पार नैया मेरी अब लगा दो प्रभु।।
अपने-अपने ठौर पर, शोभा रहत विशेख।
चरन महावर ही भली, नैनन अंजन रेख।।
जिसको लेने में लाभ दिखे, वह मूल्य चुकाये ले जाये।।
अंदेसड़ा न भाजिसी, संदेसो कहियाँ।
कै हरि आयाँ भजिसी, कै हरि ही पास गयाँ।।
अंधकार आसुरी वृत्ति को, जिसने दूर भगाया।
देवदूत उतरा धरती पर, जग पहचान न पाया।।
अंषणिया झाईं पड़ीं, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।
अगर आपका स्नेह मिलता रहेगा।
तो यह कारवाँ साथ चलता रहेगा।।
अगर चाहते हो बने स्वर्ग धरती।
तो संकल्प तुमको उठाने पड़ेंगे।।
अगर हम नहीं देश के काम आये।
धरा क्या कहेगा गगन क्या कहेगा।।
अति अगाध अति ओथरे, नदी कूप सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ, जाकी प्यास बुझाय।।
अति अपार जे सरित बर, जो नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु, बिनु श्रम पारहिं जाहिं।।
अति हठ मति कर हठ बढ़े, बात न करिहै कोय।
ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय।।
अति ही सरल न हूजिए, देखो जो वन राय।
सीधे-सीधे काटिये, बाँके तरु बचि जाय।।
अद्वितीय है निर्माणों में, गुरुओं का निर्माण।
जिनने फूँके चलती-फिरती, प्रतिमाओं में प्राण।।
अधर धरत हरि के परत, ओठ डीठि पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इन्द्रधनुषि सी होति।।
अनुग्रह यही आपका कौन कम है।
दिशा हीन जीवन न रहने दिया है।।
अटल आस्था जिन्दगी में जगाकर।
दलित दीन जीवन न रहने दिया है।।
अनसमझे अनसोचना अबसि समुझिए आप।
तुलसी आप न समुझिए पल-पल पर परिताप।।
अनुचित उचित विचार तजि, जे पालहि पितु बैन।
ते भाजन सुख-सुजस के, बसहिं अमरपति ऐन।।
अनुचित वचन न मानिए, जदपि गरायसु गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि।।
अनुदान और वरदान प्रभो, जो माँगें उनको दे देना।
गुरुदेव हमें निज अन्तर की, पीड़ा में हिस्सा दे देना।।
अनुदानों का ऋण चुका सकें, वह शक्ति हमें देना गुरुवर।
उपकार नहीं हम भुला सकें, अभिव्यक्ति हमें देना गुरुवर।।
अन्तर दावा लगि रहे, धुआँ न प्रगटै सोय।
कै जिय जाने आपनो, जा सिर बीती होय।।
अपजस जोग कि जानकी, मानि चोरी की कान्ह।
तुलसी लोग रिझाइबो, करषि कातिबो नाहि।।
अपना दीप जलाओ साथी, करो ज्योति अगवानी।
साथी करो ज्योति अगवानी।।
अपना देश बनाने वाले हम बच्चे।
नव निर्माण रचाने वाले हम बच्चे।।
अपनी-अपनी गरज सब, कोलत करत निहारे।
बिन गरजे बोले नहिं, गिरवर हूँ को मारे।।
अपनी कहै मेरी सुनै, सुनि मिलि एको होय।
हमरे देखत जग जात है, ऐसा मिला न कोय।।
अपनी राह चला लो भगवान्, अपनी राह चला लो।
हमे साथ ले हाथ-हाथ ले, अपनी रास रचा लो भगवान्।।
अपनी राह चला लो।।
अपनी संस्कृति के मन में, आदर भाव जगाओ।
यही जननी है विश्व संस्कृति की, सबको बतलाओ।।
अपनी भक्ति का अमृत पिला दो प्रभु।
पार नैया मेरी अब लगा दो प्रभु।।
अपने-अपने ठौर पर, शोभा रहत विशेख।
चरन महावर ही भली, नैनन अंजन रेख।।
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