आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की पंचविधि दैनिक साधना गायत्री की पंचविधि दैनिक साधनाश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री की दैनिक साधना कैसे करें
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री की पञ्चविधि दैनिक साधना
गायत्री मंत्र से आत्मिक कायाकल्प हो जाता है। इस महामंत्र की उपासना
आरम्भ करते ही साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे आन्तरिक क्षेत्र में एक
नई हलचल एवं रद्दोबदल आरम्भ हो गई है। सतोगुणी तत्वों की अभिवृद्धि होने,
दुर्गुण, कुविचार, दुःस्वभाव एवं दुर्भाव घटने आरम्भ हो जाते हैं और संयम,
नम्रता, पवित्रता, उत्साह, स्फूर्ति, श्रमशीलता, मधुरता, ईमानदारी,
सत्य-निष्ठा, उदारता, प्रेम, सन्तोष, शान्ति, सेवा-भाव, आत्मीयता आदि
सद्गुणों की मात्रा दिन-दिन बड़ी तेजी से बढ़ती जाती है। फलसवरूप लोग उनके
स्वभाव एवं आचरण से सन्तुष्ट होकर बदले में प्रशंसा, कृतज्ञता, श्रद्धा
एवं सम्मान के भाव रखते हैं और समय-समय पर उसकी अनेक प्रकार से सहायता
करते हैं। इसके अतिरिक्त ये सद्गुण स्वयं मधुर होते हैं, जिस हृदय में
इनका निवास होगा, वहाँ आत्म-संतोष की परम शान्तिदायक शीतल
निर्झरणी
सदा बहती रहेगी।
गायत्री साधना से साधक के मनः क्षेत्र में साधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, तत्त्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञान-जन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों में जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यतुल्य कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संयम, ईश्वर-विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द का मार्ग ढूँढ़ निकालता है और मस्ती एवं प्रसन्नता का जीवन बिताता है।
संसार का सबसे बड़ा लाभ ‘आत्मबल’ गायत्री साधक को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के सांसारिक लाभ भी होते देखे गये हैं। बीमारी, कमजोरी, बेकारी, घाटा, गृह-कलह, मनोमालिन्य, मुकदमा, शत्रुओं का आक्रमण, दाम्पत्य सुख का आभाव, मस्तिष्क की निर्बलता, चित्त की अस्थिरता, सन्तान दुख कन्या के विवाह की कठिनाई, बुरे भविष्य की आशंका, परीक्षा में उत्तीर्ण न होने का भय, बुरी आदतों के बन्धन ऐसी कठिनाइयों में ग्रसित अगणित व्यक्तियों ने आराधना करके अपने दुःखों से छुटकारा पाया है।
कारण यह है कि हर कोई कठिनाई के पीछे जड़ में निश्चय ही कुछ न कुछ अपनी त्रुटियाँ, अयोग्यताएँ एवं खराबियाँ रहती हैं। सद्गुणों की वृद्धि के साथ अपने आहार-विहार, दिनचर्या, दृष्टिकोण, स्वभाव एवं कार्यक्रम में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन ही आपत्तियों के निवारण का सुख-शान्ति की स्थापना का राजमार्ग बन जाता है। कई बार हमारी इच्छाएँ तृष्णाएँ, लालसाएँ, कामनाएं ऐसी होती हैं, जो अपनी योग्यता एवं परिस्थियों से मेल नहीं खातीं। मस्तिष्क शुद्ध होने पर भी बुद्धिमान व्यक्ति मृग-तृष्णाओं को त्यागकर अकारण दुःखी रहने से, भ्रम-जंजाल से छूट जाता है। अवश्यमभावी न टलने वाले प्रारब्ध का भोग जब सामने आता है, तो साधरण व्यक्ति बुरी तरह रोते-चिल्लाते हैं, किन्तु गायत्री साधक में इतना आत्मबल एवं साहस बढ़ जाता है कि वह उन्हें हँसते-हँसते झेल लेता है।
किसी विशेष आपत्ति का निवारण करने एवं किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी गायत्री की साधना की जाती है। बहुधा इसका परिणाम बड़ा ही आशाजनक होता है। देखा गया है कि जहाँ चारों ओर निराशा, असफलता, आंशका और भय का अन्धकार ही छाया हुआ था, वहाँ वेदमाता की कृपा से एक दैवी प्रकाश उत्पन्न हुआ और निराशा आशा में परिणत हो गई, बड़े कष्टसाध्य कार्य तिनके की तरह सुगम हो गये। ऐसे अनेक अवसर अपनी आँखों के सामने देखने के कारण हमारा यह अटूट विश्वास हो गया है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती।
गायत्री साधना, आत्मबल बढ़ाने का अचूक आध्यात्मिक व्यायाम है। किसी को कुश्ती में पछाड़ने एवं दंगल में जीतकर इनाम पाने के लिए कितने लोग पहलवानी और व्यायाम का अभ्यास करते हैं। यदि कदाचित् कोई अभ्यासी किसी कुश्ती को हार जाय। तो भी ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उनका प्रयत्न निष्फल गया। इसी बहाने उसका शरीर तो मजबूत हो गया, वह जीवन भर अनेक प्रकार से, अनेकों अवसरों पर बड़े-बड़े लाभ उपस्थित करता रहेगा। निरोगता, सौन्दर्य, दीर्घजीवन, कठोर परिश्रम करने की क्षमता दाम्पत्य सुख, सुसन्तति, अधिक कमाना, शत्रुओं से निर्भयता आदि कितने ही लाभ ऐसे हैं जो कुश्ती पछाड़ने से कम महत्वपूर्ण नहीं। साधना से यदि कार्य विशेष प्रयोजन प्रारब्धवश पूरा भी न हो, तो इतना तो निश्चय है कि किसी प्रकार साधना की अपेक्षा कई गुना लाभ अवश्य मिलकर रहेगा।
आत्मा स्वयं अनेक ऋषि-सिद्धियों का केन्द्र है। जो शक्तियाँ परमात्मा में हैं, वे ही उनके अमर युवराज आत्मा में है। समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का केन्द्र आत्मा में है; परन्तु जिस प्रकार राख से ढका हुआ अंगारा मन्द हो जाता है वैसे ही आन्तरिक मलिनता के कारण आत्मतेज कुंठित हो जाता है। गायत्री साधना से मलिनता का पर्दा हटता है और राख हटा देने से, जैसे अंगार अपने प्रज्वलित स्वरूप में दिखाई पड़ने लगता है, वैसे ही साधक की आत्मा भी अपने ऋद्धि-सिद्ध समन्वित ब्रह्मतेज के साथ प्रकट होती है। योनियों को जो लाभ दीर्घकाल तक कष्टसाध्य तपस्यायें करने से प्राप्त होता है, वही लाभ गायत्री साधकों को स्वल्प प्रयास से ही प्राप्त हो जाता है।
गायत्री उपासना का यह प्रभाव इस समय भी समय-समय पर दिखाई पड़ता है। इन सौ-पचास वर्षों में ही सैकड़ों व्यक्ति इसके फलस्वरूप आश्चर्यजनक सफलताएँ पा चुके हैं और अपने जीवन को इतना उच्च और सार्वजनिक दृष्टि से कल्याणकारी तथा परोपकारी बना चुके हैं कि उनमें अन्य सहस्रों लोगों को प्रेरणा प्राप्त हुई है। गायत्री साधना में आत्मोत्कर्ष का गुण इतना पाया जाता है कि उसके सिवाय कल्याण और जीवन सुधार का कोई अनिष्ट हो ही नहीं सकता।
प्राचीनकाल में महर्षियों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ और योगसाधनाएं करके अणिमा, महिमा आदि ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनकी चमत्कारी शक्तियों के वर्णन के इतिहास-पुराण भरे पड़े हैं, वह तपस्या और योग-साधना गायत्री के आधार पर ही की थी। अब भी अनेक ऐसे महात्मा मौजूद हैं, जिनके पास दैवी शक्तियों और सिद्धियों का भण्डार हैं, उनका कथन है कि गायत्री से बढ़कर योगमार्ग में सुगमता की स्थिति प्राप्त करने का दूसरा मार्ग नहीं है। सिद्ध पुरुषों के अतिरिक्त सूर्यवंशी और चंद्रवंशी सभी राजा गायत्री के उपासक रहे हैं। ब्राह्मण लोग गायत्री की ब्रह्म शक्ति के बल पर जगदगुरु थे, क्षत्रिय गायत्री के गर्भ से तेज को धारण कर चक्रवर्ती शासक थे।
यह सनातन सत्य आज भी वैसा ही है। गायत्री माता का आंचल श्रद्धापूर्वक पकड़ने वाला मनुष्य कभी भी निराश नहीं रहता।
गायत्री साधना से साधक के मनः क्षेत्र में साधारण परिवर्तन हो जाता है। विवेक, तत्त्वज्ञान और ऋतम्भरा बुद्धि की अभिवृद्धि हो जाने के कारण अनेक अज्ञान-जन्य दुःखों का निवारण हो जाता है। प्रारब्धवश अनिवार्य कर्मफल के कारण कष्टसाध्य परिस्थितियाँ हर एक के जीवन में आती रहती हैं। हानि, शोक, वियोग, आपत्ति, रोग, आक्रमण, विरोध, आघात आदि की विभिन्न परिस्थितियों में जहाँ साधारण मनोभूमि के लोग मृत्यतुल्य कष्ट पाते हैं, वहाँ आत्मबल सम्पन्न गायत्री साधक अपने विवेक, ज्ञान, वैराग्य, साहस, आशा, धैर्य, संयम, ईश्वर-विश्वास के आधार पर इन कठिनाइयों को हँसते-हँसते आसानी से काट लेता है। बुरी अथवा साधारण परिस्थितियों में भी अपने आनन्द का मार्ग ढूँढ़ निकालता है और मस्ती एवं प्रसन्नता का जीवन बिताता है।
संसार का सबसे बड़ा लाभ ‘आत्मबल’ गायत्री साधक को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के सांसारिक लाभ भी होते देखे गये हैं। बीमारी, कमजोरी, बेकारी, घाटा, गृह-कलह, मनोमालिन्य, मुकदमा, शत्रुओं का आक्रमण, दाम्पत्य सुख का आभाव, मस्तिष्क की निर्बलता, चित्त की अस्थिरता, सन्तान दुख कन्या के विवाह की कठिनाई, बुरे भविष्य की आशंका, परीक्षा में उत्तीर्ण न होने का भय, बुरी आदतों के बन्धन ऐसी कठिनाइयों में ग्रसित अगणित व्यक्तियों ने आराधना करके अपने दुःखों से छुटकारा पाया है।
कारण यह है कि हर कोई कठिनाई के पीछे जड़ में निश्चय ही कुछ न कुछ अपनी त्रुटियाँ, अयोग्यताएँ एवं खराबियाँ रहती हैं। सद्गुणों की वृद्धि के साथ अपने आहार-विहार, दिनचर्या, दृष्टिकोण, स्वभाव एवं कार्यक्रम में परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन ही आपत्तियों के निवारण का सुख-शान्ति की स्थापना का राजमार्ग बन जाता है। कई बार हमारी इच्छाएँ तृष्णाएँ, लालसाएँ, कामनाएं ऐसी होती हैं, जो अपनी योग्यता एवं परिस्थियों से मेल नहीं खातीं। मस्तिष्क शुद्ध होने पर भी बुद्धिमान व्यक्ति मृग-तृष्णाओं को त्यागकर अकारण दुःखी रहने से, भ्रम-जंजाल से छूट जाता है। अवश्यमभावी न टलने वाले प्रारब्ध का भोग जब सामने आता है, तो साधरण व्यक्ति बुरी तरह रोते-चिल्लाते हैं, किन्तु गायत्री साधक में इतना आत्मबल एवं साहस बढ़ जाता है कि वह उन्हें हँसते-हँसते झेल लेता है।
किसी विशेष आपत्ति का निवारण करने एवं किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए भी गायत्री की साधना की जाती है। बहुधा इसका परिणाम बड़ा ही आशाजनक होता है। देखा गया है कि जहाँ चारों ओर निराशा, असफलता, आंशका और भय का अन्धकार ही छाया हुआ था, वहाँ वेदमाता की कृपा से एक दैवी प्रकाश उत्पन्न हुआ और निराशा आशा में परिणत हो गई, बड़े कष्टसाध्य कार्य तिनके की तरह सुगम हो गये। ऐसे अनेक अवसर अपनी आँखों के सामने देखने के कारण हमारा यह अटूट विश्वास हो गया है कि कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती।
गायत्री साधना, आत्मबल बढ़ाने का अचूक आध्यात्मिक व्यायाम है। किसी को कुश्ती में पछाड़ने एवं दंगल में जीतकर इनाम पाने के लिए कितने लोग पहलवानी और व्यायाम का अभ्यास करते हैं। यदि कदाचित् कोई अभ्यासी किसी कुश्ती को हार जाय। तो भी ऐसा नहीं समझना चाहिए कि उनका प्रयत्न निष्फल गया। इसी बहाने उसका शरीर तो मजबूत हो गया, वह जीवन भर अनेक प्रकार से, अनेकों अवसरों पर बड़े-बड़े लाभ उपस्थित करता रहेगा। निरोगता, सौन्दर्य, दीर्घजीवन, कठोर परिश्रम करने की क्षमता दाम्पत्य सुख, सुसन्तति, अधिक कमाना, शत्रुओं से निर्भयता आदि कितने ही लाभ ऐसे हैं जो कुश्ती पछाड़ने से कम महत्वपूर्ण नहीं। साधना से यदि कार्य विशेष प्रयोजन प्रारब्धवश पूरा भी न हो, तो इतना तो निश्चय है कि किसी प्रकार साधना की अपेक्षा कई गुना लाभ अवश्य मिलकर रहेगा।
आत्मा स्वयं अनेक ऋषि-सिद्धियों का केन्द्र है। जो शक्तियाँ परमात्मा में हैं, वे ही उनके अमर युवराज आत्मा में है। समस्त ऋद्धि-सिद्धियों का केन्द्र आत्मा में है; परन्तु जिस प्रकार राख से ढका हुआ अंगारा मन्द हो जाता है वैसे ही आन्तरिक मलिनता के कारण आत्मतेज कुंठित हो जाता है। गायत्री साधना से मलिनता का पर्दा हटता है और राख हटा देने से, जैसे अंगार अपने प्रज्वलित स्वरूप में दिखाई पड़ने लगता है, वैसे ही साधक की आत्मा भी अपने ऋद्धि-सिद्ध समन्वित ब्रह्मतेज के साथ प्रकट होती है। योनियों को जो लाभ दीर्घकाल तक कष्टसाध्य तपस्यायें करने से प्राप्त होता है, वही लाभ गायत्री साधकों को स्वल्प प्रयास से ही प्राप्त हो जाता है।
गायत्री उपासना का यह प्रभाव इस समय भी समय-समय पर दिखाई पड़ता है। इन सौ-पचास वर्षों में ही सैकड़ों व्यक्ति इसके फलस्वरूप आश्चर्यजनक सफलताएँ पा चुके हैं और अपने जीवन को इतना उच्च और सार्वजनिक दृष्टि से कल्याणकारी तथा परोपकारी बना चुके हैं कि उनमें अन्य सहस्रों लोगों को प्रेरणा प्राप्त हुई है। गायत्री साधना में आत्मोत्कर्ष का गुण इतना पाया जाता है कि उसके सिवाय कल्याण और जीवन सुधार का कोई अनिष्ट हो ही नहीं सकता।
प्राचीनकाल में महर्षियों ने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ और योगसाधनाएं करके अणिमा, महिमा आदि ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उनकी चमत्कारी शक्तियों के वर्णन के इतिहास-पुराण भरे पड़े हैं, वह तपस्या और योग-साधना गायत्री के आधार पर ही की थी। अब भी अनेक ऐसे महात्मा मौजूद हैं, जिनके पास दैवी शक्तियों और सिद्धियों का भण्डार हैं, उनका कथन है कि गायत्री से बढ़कर योगमार्ग में सुगमता की स्थिति प्राप्त करने का दूसरा मार्ग नहीं है। सिद्ध पुरुषों के अतिरिक्त सूर्यवंशी और चंद्रवंशी सभी राजा गायत्री के उपासक रहे हैं। ब्राह्मण लोग गायत्री की ब्रह्म शक्ति के बल पर जगदगुरु थे, क्षत्रिय गायत्री के गर्भ से तेज को धारण कर चक्रवर्ती शासक थे।
यह सनातन सत्य आज भी वैसा ही है। गायत्री माता का आंचल श्रद्धापूर्वक पकड़ने वाला मनुष्य कभी भी निराश नहीं रहता।
साधकों के लिए कुछ आवश्यक नियम
गायत्री-साधना करने वालों के लिए कुछ आवश्यक जानकारियाँ नीचे दी जाती हैं।
1. शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिए। साधारणतः स्नान के द्वारा ही शुद्घि होती है, पर किसी विविशता, ऋतुप्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ-मुँह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।
2. साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिए। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत निवारण कर लेना उत्तम है।
3. साधना के लिए एकान्त, खुली हवा की ऐसी जगह ढूँढ़नी चाहिए, जहां का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव मंदिर इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं, पर जहाँ ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो, वहां घर का कोई स्वच्छ, शान्त भाग भी चुना जा सकता है।
4. धुला हुआ वस्त्र पहनकर साधना करना उचित है।
5. पालथी मारकर सीधे–सीधे ढंग से बैठना चाहिए। कष्टसाध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार-बार उचटता है, इसलिए इस तरह बैठना चाहिए कि देर तक बैठे रहने में असुविधा न हो।
6. रीढ़ की हड्डी को सदा सीधा रखना चाहिए। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है।
7. बिना बिछाये जमीन पर साधना करने के लिए न बैठना चाहिए। इससे साधना काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन में उतर जाती है। घास या पत्तों से बने आसन सर्वश्रेष्ठ हैं। कुश का आसन, चटाई रस्सियों का बना फर्श सबसे अच्छा है। इसके बाद सूती आसनों का नम्बर है। ऊन के तथा चर्म के आसन तान्त्रिक कर्मों में प्रयुक्त होते हैं।
1. शरीर को शुद्ध करके साधना पर बैठना चाहिए। साधारणतः स्नान के द्वारा ही शुद्घि होती है, पर किसी विविशता, ऋतुप्रतिकूलता या अस्वस्थता की दशा में हाथ-मुँह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछकर भी काम चलाया जा सकता है।
2. साधना के समय शरीर पर कम से कम वस्त्र रहने चाहिए। शीत की अधिकता हो तो कसे हुए कपड़े पहनने की अपेक्षा कम्बल आदि ओढ़कर शीत निवारण कर लेना उत्तम है।
3. साधना के लिए एकान्त, खुली हवा की ऐसी जगह ढूँढ़नी चाहिए, जहां का वातावरण शान्तिमय हो। खेत, बगीचा, जलाशय का किनारा, देव मंदिर इस कार्य के लिए उपयुक्त होते हैं, पर जहाँ ऐसा स्थान मिलने में असुविधा हो, वहां घर का कोई स्वच्छ, शान्त भाग भी चुना जा सकता है।
4. धुला हुआ वस्त्र पहनकर साधना करना उचित है।
5. पालथी मारकर सीधे–सीधे ढंग से बैठना चाहिए। कष्टसाध्य आसन लगाकर बैठने से शरीर को कष्ट होता है और मन बार-बार उचटता है, इसलिए इस तरह बैठना चाहिए कि देर तक बैठे रहने में असुविधा न हो।
6. रीढ़ की हड्डी को सदा सीधा रखना चाहिए। कमर झुकाकर बैठने से मेरुदण्ड टेढ़ा हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी में प्राण का आवागमन होने में बाधा पड़ती है।
7. बिना बिछाये जमीन पर साधना करने के लिए न बैठना चाहिए। इससे साधना काल में उत्पन्न होने वाली शारीरिक विद्युत जमीन में उतर जाती है। घास या पत्तों से बने आसन सर्वश्रेष्ठ हैं। कुश का आसन, चटाई रस्सियों का बना फर्श सबसे अच्छा है। इसके बाद सूती आसनों का नम्बर है। ऊन के तथा चर्म के आसन तान्त्रिक कर्मों में प्रयुक्त होते हैं।
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