आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री का स्वरूप और रहस्य गायत्री का स्वरूप और रहस्यश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री का स्वरूप और उनकी उत्पत्ति कैसे हुई
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री का स्वरूप और रहस्य
वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
वेद कहते हैं ज्ञान को। ज्ञान के चार भेद हैं- ऋक्, यजु, साम और अथर्व।
कल्याण, प्रभु-प्राप्ति, ईश्वर-दर्शन, दिव्यत्व, आत्म-शान्ति,
ब्रह्म-निर्वाण, धर्म भावना, कर्त्तव्य-पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार,
उदारता, सेवा आदि ‘ऋक्’ के अन्तर्गत आते हैं।
पराक्रम,
पुरुषार्थ, साहस, वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेतृत्व, यज्ञ, विजय, पद,
प्रतिष्ठा यह सब ‘यजु:’ के अंतर्गत आते हैं। क्रीड़ा,
विनोद,
मनोरंजन, संगीत, कला साहित्य, स्पर्श, इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन
भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को
‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। धन-वैभव, वस्तुओं का
संग्रह,
शस्त्र, औषधि, अन्न, वस्त्र, धातु, गृह, वाहन आदि सुख साधनों की
सामग्रियाँ अथर्व की परिधि में आती हैं।
किसी भी जाति, प्राणधारी को लीजिए, उसकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गंभीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिए, प्रतीत होगा कि इन्हीं चारों क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही है (1) ऋकु कल्याण, (2) यजु: पौरुष, (3) साम क्रीड़ा, (4) अथर्व अर्थ- इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक् को धर्म, यजु: को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्मा जी के मुख होते हुए भी चार प्रकार की ज्ञानधारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है- ‘ज्ञान’। इस प्रकार वह एक है; इसलिए एक वेद को सुविधा के लिए चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान विष्णु की चार भुजायें भी यही हैं। इन चार विभागों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिए चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गई।
बालक क्रीड़ावस्था में, तरुण अर्थव्यवस्था में, वानप्रस्थ पौरुषावस्था में और कल्याणवस्था में संन्यासी रहता है। ब्राह्मण ऋक् है, क्षत्री यजु: है, वैश्य अथर्व है, शूद्र साम। इस प्रकार यह चतुर्विध विभागीकरण हुआ।
यह चारों प्रकार के ज्ञान उस एक चैतन्य शक्ति के ही प्रस्फुरण हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न की थी और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चारों वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा गया। जिस प्रकार जल तत्त्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोडन, ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के भरे रूपों में देखा जाता है। जिस प्रकार अग्रि तत्त्व को ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है, उसी प्रकार एक ज्ञान गायत्री के 4 वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है, तो वेद उसके चार सूक्ष्म पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मंत्र की रचना की। इस एक मन्त्र के एक-एक अक्षर में ऐसे सूक्ष्म तत्त्व आधारित किये, जिनके पल्लवित होने पर चारों वेदों की शाखा-प्रशाखाएँ तथा त्रुटियाँ उद्भूत हो गयीं। एक बीज के गर्भ में महान् वट वृक्ष छिपा होता है। जब वह बीज के रूप में उगता है, तो उसमें असंख्य शाखायें, टहनियाँ, पत्ते, फूल-फल लद जाते हैं। उन सबका इतना बड़ा विस्तार होता है। जो उस मूल वट बीज की अपेक्षा करोड़ों-अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महा विस्तार के रूप में अवस्थित हो गये।
व्याकरण शास्त्र का उद्गम शंकरजी के वे चौदह सूत्र हैं। जो उनके डमरू से निकले हैं। एक बार महादेवीजी ने आनन्द मग्न होकर अपना प्रिय वाद्य डमरू बजाया। उस डमरू में से 14 ध्वनियाँ निकलीं। इन- (अइउण, ऋलक्, एओङ; ऐऔच, हयवरट्, लण आदि) 14 सूत्रों को लेकर पाणिनी ने महाव्याकरण शास्त्र रच डाला। उस रचना के पश्चात् उसकी व्याख्याएँ होते-होते आज इतना बड़ा व्याकरण शास्त्र प्रस्तुत है, जिनका एक भारी संग्रहालय बन सकता है। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों से इसी प्रकार वैदिक साहित्यों के अंग-प्रत्यंग का प्रादुर्भाव हुआ है। गायत्री सूत्र है तो ऋचायें उसकी विस्तृत व्याख्या।
किसी भी जाति, प्राणधारी को लीजिए, उसकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गंभीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिए, प्रतीत होगा कि इन्हीं चारों क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही है (1) ऋकु कल्याण, (2) यजु: पौरुष, (3) साम क्रीड़ा, (4) अथर्व अर्थ- इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक् को धर्म, यजु: को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्मा जी के मुख होते हुए भी चार प्रकार की ज्ञानधारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है- ‘ज्ञान’। इस प्रकार वह एक है; इसलिए एक वेद को सुविधा के लिए चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान विष्णु की चार भुजायें भी यही हैं। इन चार विभागों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिए चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गई।
बालक क्रीड़ावस्था में, तरुण अर्थव्यवस्था में, वानप्रस्थ पौरुषावस्था में और कल्याणवस्था में संन्यासी रहता है। ब्राह्मण ऋक् है, क्षत्री यजु: है, वैश्य अथर्व है, शूद्र साम। इस प्रकार यह चतुर्विध विभागीकरण हुआ।
यह चारों प्रकार के ज्ञान उस एक चैतन्य शक्ति के ही प्रस्फुरण हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न की थी और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चारों वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा गया। जिस प्रकार जल तत्त्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोडन, ऑक्सीजन) तथा पतले पानी के भरे रूपों में देखा जाता है। जिस प्रकार अग्रि तत्त्व को ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है, उसी प्रकार एक ज्ञान गायत्री के 4 वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है, तो वेद उसके चार सूक्ष्म पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मंत्र की रचना की। इस एक मन्त्र के एक-एक अक्षर में ऐसे सूक्ष्म तत्त्व आधारित किये, जिनके पल्लवित होने पर चारों वेदों की शाखा-प्रशाखाएँ तथा त्रुटियाँ उद्भूत हो गयीं। एक बीज के गर्भ में महान् वट वृक्ष छिपा होता है। जब वह बीज के रूप में उगता है, तो उसमें असंख्य शाखायें, टहनियाँ, पत्ते, फूल-फल लद जाते हैं। उन सबका इतना बड़ा विस्तार होता है। जो उस मूल वट बीज की अपेक्षा करोड़ों-अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महा विस्तार के रूप में अवस्थित हो गये।
व्याकरण शास्त्र का उद्गम शंकरजी के वे चौदह सूत्र हैं। जो उनके डमरू से निकले हैं। एक बार महादेवीजी ने आनन्द मग्न होकर अपना प्रिय वाद्य डमरू बजाया। उस डमरू में से 14 ध्वनियाँ निकलीं। इन- (अइउण, ऋलक्, एओङ; ऐऔच, हयवरट्, लण आदि) 14 सूत्रों को लेकर पाणिनी ने महाव्याकरण शास्त्र रच डाला। उस रचना के पश्चात् उसकी व्याख्याएँ होते-होते आज इतना बड़ा व्याकरण शास्त्र प्रस्तुत है, जिनका एक भारी संग्रहालय बन सकता है। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षरों से इसी प्रकार वैदिक साहित्यों के अंग-प्रत्यंग का प्रादुर्भाव हुआ है। गायत्री सूत्र है तो ऋचायें उसकी विस्तृत व्याख्या।
ब्रह्म की स्फुरणा से गायत्री का प्रादुर्भाव
अनादि परमात्मा तत्त्व ब्रह्म से सब कुछ उत्पन्न हुआ है। सृष्टि उत्पन्न
करने का विचार उठते ही ब्रह्म में एक स्फुरणा हुई, जिसका नाम है- शक्ति।
शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि हुई। एक जड़ दूसरी चैतन्य। जड़ शक्ति
का संचालन करने वाली शक्ति प्रकृति और चैतन्य सृष्टि को उत्पन्न करने वाली
शक्ति का नाम सावित्री है।
पुराणों में वर्णन मिलता है कि सृष्टि के आदि काल में भगवान् की नाभि में से कमल उत्पन्न हुआ। कमल के पुष्प से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा से सावित्री हुई, सावित्री और ब्रह्मा के संयोग से चारों वेद उत्पन्न हुए। वेद से समस्त प्रकार के ज्ञान का उद्भव हुआ। तदनन्तर ब्रह्माजी ने पंच भौतिक सृष्टि रचना की। इस आलंकारिक गाथा का रहस्य यह है कि निर्लिप्त, निर्विकार, निर्विकल्प परमात्मतत्त्व की नाभि में से, केन्द्र भूमि में से- अन्त:करण में से कमल उत्पन्न हुआ। श्रुति ने कहा कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा की इच्छा हुई कि ‘एकोऽहम् बहुस्याम्’ मैं एक से बहुत हो जाऊँ। यह उसकी इच्छा स्फुरणा नाभि में से निकल कर स्फुटित हुई अर्थात् कमल की लतिका उत्पन्न हुई और उसकी कली खिल गई।
इस कमल पुष्प पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। यह ब्रह्मा सृष्टि निर्माण की त्रिदेव शक्ति का प्रथम अंश है। आगे चलकर यह त्रिदेव शक्ति उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कार्य करती हुई ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में दृष्टिगोचर होती है। आरम्भ में कमल पुष्प पर केवल ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, क्योंकि सर्वप्रथम उत्पत्ति करने वाली शक्ति की आवश्यकता हुई।
अब ब्रह्माजी का कार्य आरम्भ होता है। उन्होंने दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, एक चैतन्य, दूसरी जड़। चैतन्य सृष्टि के अन्तर्गत सभी जीव आ जाते हैं, जिनमें इच्छा, अनुभूति तथा अहं भावना पाई जाती हैं। चैतन्य की एक स्वतंत्र सृष्टि है, जिसे विश्व का ‘प्राणमय कोश’ कहते हैं। निखिल विश्व में एक चैतन्य तत्त्व भरा हुआ है जिसे ‘प्राण’ नाम से पुकारा जाता है। विचार, संकल्प, भाव इस प्राण तत्त्व के तीन वर्ग हैं अर्थात् सत्, रज, तम ये तीन इसके वर्ग हैं। इन्हीं तत्वों को लेकर आत्माओं के सूक्ष्म, कारण और लिंग शरीर बनते हैं। सभी प्रकार के प्राणी इसी प्राण-तत्त्व से चैतन्यता एवं जीवन सत्ता प्राप्त करते हैं।
जड़ सृष्टि निर्माण के लिए ब्रह्माजी ने पंचभूतों का निर्माण किया। पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश के द्वारा विश्व के सभी परमाणुमय पदार्थ ठोस, द्रव, गैस इन्हीं तीन रूपों में प्रकृति के परमाणु अपनी गतिविधि जारी रखते हैं। नदी, पर्वत, धातु, धरती आदि का सभी सार इन पंच-भौतिक परमाणुओं का खेल है, प्राणियों के स्थूल शरीर भी इन्हीं प्रकृतिजन्य पंचतत्त्वों के बने होते हैं।
क्रिया दोनों सृष्टि में है। प्राणमय चैतन्य सृष्टि में अहंभाव, संकल्प और प्रेरणा की गतिविधियाँ विविध रूपों में दिखाई देती हैं। भूतमय जड़ सृष्टि में शक्ति, हलचल और सत्ता इन आधारों के द्वारा विविध प्रकार के रंग-रूप, आकार-प्रकार बनते-बिगड़ते हैं। जड़ सृष्टि का आधार परमाणु और चैतन्य सृष्टि का आधार संकल्प है। दोनों ही आधार अत्यन्त सूक्ष्म और अत्यन्त बलशाली हैं, इनका नाश नहीं होता केवल रूपान्तर होता रहता है।
जड़-चेतन सृष्टि के निर्माण में ब्रह्माजी की दो शक्तियाँ काम कर रही हैं- (1) संकल्प शक्ति, (2) परमाणु शक्ति। इन दोनों में प्रथम संकल्प शक्ति की आवश्यकता हुई, क्योंकि बिना उसके चैतन्य का आविर्भाव नहीं होता और बिना चैतन्य के परमाणु का उपयोग किसलिए होगा ? अचैतन्य सृष्टि तो अपने अंधकार में थी; क्योंकि न तो उसका किसी को ज्ञान होता है और न उसका कोई उपयोग होता है। चैतन्य के प्रकटीकरण की सुविधा के लिये उसकी प्रधान सामग्री के रूप में ‘जड़’ का उपयोग होता है। अस्तु, आरम्भ में ब्रह्माजी ने चैतन्य बनाया। ज्ञान के संकल्प का आविष्कार किया। पौराणिक भाषा में यह कहिये कि सर्वप्रथम वेदों का उद्घाटन हुआ।
पुराणों में वर्णन मिलता है कि ब्रह्मा के एक शरीर से एक सर्वांग-सुन्दरी तरुणी हुई। वह उनके अंग से उत्पन्न होने के कारण उसकी पुत्री हुई, इसी तरुणी की सहायता से उन्होंने सृष्टि निर्माण कार्य जारी रखा। इसके पश्चात् उस अकेली रूपवती युवती को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने उसे पत्नी के रूप में रमण किया। इस मैथुन से मैथुनी संयोजक परमाणुमय पंच भौतिक सृष्टि उत्पन्न हुई। इस कथा के अलंकारिक रूप को, रहस्यमय पहेली को न समझ कर कई व्यक्ति अपने मन में प्राचीन तत्वों को उथली और अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। वे भूल जाते हैं कि ब्रह्मा कोई मनुष्य नहीं है और न उससे उत्पन्न हुई शक्ति पुत्री या स्त्री है और न पुरुष-स्त्री की तरह उनके बीच में समागम होता है। यहाँ तो सृष्टि निर्माण काल के एक तत्त्व को गूढ़ पहेली के रूप में आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत करके कवि ने अपनी कलाकारिता का परिचय दिया है।
ब्रह्मा निर्विकार परमात्मा की वह शक्ति है जो सृष्टि का निर्माण करती है। इस निर्माण कार्य को चालू करने के लिये उसकी दो भुजाएँ हैं; जिन्हें संकल्प और परमाणु शक्ति कहते हैं। संकल्प शक्ति चेतन सत्-सम्भव होने से ब्रह्मा की पुत्री है। परमाणु शक्ति स्थूल क्रियाशील एवं तम सम्भव होने से ब्रह्मा की पत्नी है। इस प्रकार गायत्री और सावित्री ब्रह्मा की पुत्री तथा पत्नी नाम से प्रसिद्ध हुईं।
पुराणों में वर्णन मिलता है कि सृष्टि के आदि काल में भगवान् की नाभि में से कमल उत्पन्न हुआ। कमल के पुष्प से ब्रह्मा हुए, ब्रह्मा से सावित्री हुई, सावित्री और ब्रह्मा के संयोग से चारों वेद उत्पन्न हुए। वेद से समस्त प्रकार के ज्ञान का उद्भव हुआ। तदनन्तर ब्रह्माजी ने पंच भौतिक सृष्टि रचना की। इस आलंकारिक गाथा का रहस्य यह है कि निर्लिप्त, निर्विकार, निर्विकल्प परमात्मतत्त्व की नाभि में से, केन्द्र भूमि में से- अन्त:करण में से कमल उत्पन्न हुआ। श्रुति ने कहा कि सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा की इच्छा हुई कि ‘एकोऽहम् बहुस्याम्’ मैं एक से बहुत हो जाऊँ। यह उसकी इच्छा स्फुरणा नाभि में से निकल कर स्फुटित हुई अर्थात् कमल की लतिका उत्पन्न हुई और उसकी कली खिल गई।
इस कमल पुष्प पर ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं। यह ब्रह्मा सृष्टि निर्माण की त्रिदेव शक्ति का प्रथम अंश है। आगे चलकर यह त्रिदेव शक्ति उत्पत्ति, स्थिति और नाश का कार्य करती हुई ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में दृष्टिगोचर होती है। आरम्भ में कमल पुष्प पर केवल ब्रह्माजी प्रकट होते हैं, क्योंकि सर्वप्रथम उत्पत्ति करने वाली शक्ति की आवश्यकता हुई।
अब ब्रह्माजी का कार्य आरम्भ होता है। उन्होंने दो प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, एक चैतन्य, दूसरी जड़। चैतन्य सृष्टि के अन्तर्गत सभी जीव आ जाते हैं, जिनमें इच्छा, अनुभूति तथा अहं भावना पाई जाती हैं। चैतन्य की एक स्वतंत्र सृष्टि है, जिसे विश्व का ‘प्राणमय कोश’ कहते हैं। निखिल विश्व में एक चैतन्य तत्त्व भरा हुआ है जिसे ‘प्राण’ नाम से पुकारा जाता है। विचार, संकल्प, भाव इस प्राण तत्त्व के तीन वर्ग हैं अर्थात् सत्, रज, तम ये तीन इसके वर्ग हैं। इन्हीं तत्वों को लेकर आत्माओं के सूक्ष्म, कारण और लिंग शरीर बनते हैं। सभी प्रकार के प्राणी इसी प्राण-तत्त्व से चैतन्यता एवं जीवन सत्ता प्राप्त करते हैं।
जड़ सृष्टि निर्माण के लिए ब्रह्माजी ने पंचभूतों का निर्माण किया। पृथ्वी, जल, वायु, तेज, आकाश के द्वारा विश्व के सभी परमाणुमय पदार्थ ठोस, द्रव, गैस इन्हीं तीन रूपों में प्रकृति के परमाणु अपनी गतिविधि जारी रखते हैं। नदी, पर्वत, धातु, धरती आदि का सभी सार इन पंच-भौतिक परमाणुओं का खेल है, प्राणियों के स्थूल शरीर भी इन्हीं प्रकृतिजन्य पंचतत्त्वों के बने होते हैं।
क्रिया दोनों सृष्टि में है। प्राणमय चैतन्य सृष्टि में अहंभाव, संकल्प और प्रेरणा की गतिविधियाँ विविध रूपों में दिखाई देती हैं। भूतमय जड़ सृष्टि में शक्ति, हलचल और सत्ता इन आधारों के द्वारा विविध प्रकार के रंग-रूप, आकार-प्रकार बनते-बिगड़ते हैं। जड़ सृष्टि का आधार परमाणु और चैतन्य सृष्टि का आधार संकल्प है। दोनों ही आधार अत्यन्त सूक्ष्म और अत्यन्त बलशाली हैं, इनका नाश नहीं होता केवल रूपान्तर होता रहता है।
जड़-चेतन सृष्टि के निर्माण में ब्रह्माजी की दो शक्तियाँ काम कर रही हैं- (1) संकल्प शक्ति, (2) परमाणु शक्ति। इन दोनों में प्रथम संकल्प शक्ति की आवश्यकता हुई, क्योंकि बिना उसके चैतन्य का आविर्भाव नहीं होता और बिना चैतन्य के परमाणु का उपयोग किसलिए होगा ? अचैतन्य सृष्टि तो अपने अंधकार में थी; क्योंकि न तो उसका किसी को ज्ञान होता है और न उसका कोई उपयोग होता है। चैतन्य के प्रकटीकरण की सुविधा के लिये उसकी प्रधान सामग्री के रूप में ‘जड़’ का उपयोग होता है। अस्तु, आरम्भ में ब्रह्माजी ने चैतन्य बनाया। ज्ञान के संकल्प का आविष्कार किया। पौराणिक भाषा में यह कहिये कि सर्वप्रथम वेदों का उद्घाटन हुआ।
पुराणों में वर्णन मिलता है कि ब्रह्मा के एक शरीर से एक सर्वांग-सुन्दरी तरुणी हुई। वह उनके अंग से उत्पन्न होने के कारण उसकी पुत्री हुई, इसी तरुणी की सहायता से उन्होंने सृष्टि निर्माण कार्य जारी रखा। इसके पश्चात् उस अकेली रूपवती युवती को देखकर उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने उसे पत्नी के रूप में रमण किया। इस मैथुन से मैथुनी संयोजक परमाणुमय पंच भौतिक सृष्टि उत्पन्न हुई। इस कथा के अलंकारिक रूप को, रहस्यमय पहेली को न समझ कर कई व्यक्ति अपने मन में प्राचीन तत्वों को उथली और अश्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। वे भूल जाते हैं कि ब्रह्मा कोई मनुष्य नहीं है और न उससे उत्पन्न हुई शक्ति पुत्री या स्त्री है और न पुरुष-स्त्री की तरह उनके बीच में समागम होता है। यहाँ तो सृष्टि निर्माण काल के एक तत्त्व को गूढ़ पहेली के रूप में आलंकारिक ढंग से प्रस्तुत करके कवि ने अपनी कलाकारिता का परिचय दिया है।
ब्रह्मा निर्विकार परमात्मा की वह शक्ति है जो सृष्टि का निर्माण करती है। इस निर्माण कार्य को चालू करने के लिये उसकी दो भुजाएँ हैं; जिन्हें संकल्प और परमाणु शक्ति कहते हैं। संकल्प शक्ति चेतन सत्-सम्भव होने से ब्रह्मा की पुत्री है। परमाणु शक्ति स्थूल क्रियाशील एवं तम सम्भव होने से ब्रह्मा की पत्नी है। इस प्रकार गायत्री और सावित्री ब्रह्मा की पुत्री तथा पत्नी नाम से प्रसिद्ध हुईं।
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