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आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री और यज्ञ का सम्बन्ध

गायत्री और यज्ञ का सम्बन्ध

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4123
आईएसबीएन :000000

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गायत्री और यज्ञ का सम्बन्ध

Gayatri Aur Yagya Ka Samabandh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गायत्री और यज्ञ का सम्बन्ध

यज्ञ भारतीय धर्म का मूल है। आत्म-साक्षात्कार, स्वर्ग-सुख, बन्धन-मुत्ति, मन, पाप-प्रायश्चित, आत्म-बल वृद्धि और ऋषि-सिद्धियों के केन्द्र भी यज्ञ ही थे। यज्ञों द्वारा मनुष्य को अनेक आध्यात्मिक एवम् भौतिक शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। वेद-मंत्रों के साथ-साथ शास्त्रोक्त विधियों के द्वारा जो विधिवत् हवन किया जाता है, उससे एक दिव्य वातावरण की उत्पत्ति होती है। उस वातावरण में बैठने मात्र से रोगी मनुष्य निरोग हो सकते हैं। चरक ऋषि ने लिखा है कि ‘‘आरोग्य प्राप्त करने वालों को विधिवत् हवन करना चाहिए।’’ बुद्धि शुद्ध करने की यज्ञ में अपूर्व शक्ति है। जिनके मस्तिष्क दुर्बल हैं या मलीन हैं, वे यदि यज्ञ करें तो उनकी अनेक मानसिक दुर्बलताएं शीघ्र दूर हो सकती हैं। यज्ञ से प्रसन्न हुए देवता मनुष्य को धन-वैभव, सौभाग्य तथा सुख, साधन प्रदान करते हैं। यज्ञ करने वाला कभी दरिद्र नहीं रह सकता। यज्ञ  करने वाले स्त्री-पुरुष की सन्तान बलवान् बुद्धिमान, सुन्दर दीर्घजीवी होती है।

 गीता आदि शास्त्रों में यज्ञ को आवश्यक धर्मकृत्य बताया जाता है और कहा गया है कि यज्ञ न करने वाले को यह आवश्यक बताया गया है और कहा गया है कि यज्ञ न करने वाले को यह लोक और परलोक कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो साधारण मनुष्य देव-योनि प्राप्त करते हैं। और स्वर्ग के अधिकारी बनते हैं। यज्ञ को सर्व कामना पूर्ण करने वाली कामधेनु और स्वर्ग की सीढ़ी कहा गया है। याज्ञिकों की आत्मा में ईश्वरीय प्रकाश उत्पन्न होता है और इससे स्वल्प प्रयत्न द्वारा ही सदगति का द्वार खुल जाता है। आत्म-साक्षात्कार और ईश्वर प्राप्ति का तो यज्ञ अमोध साधन है। यज्ञ से अमृतमयी वर्षा होती है, उससे अन्न, पशु, वनस्पति, दूध, धातु, खनिज पदार्थ आदि की प्रचुर मात्रा में उत्पत्ति होती है और प्राणियों का पालन होता है। यज्ञ से आकाश में अदृश्य रूप से ऐसा सद्भावनापूर्ण सूक्ष्म वातावरण पैदा होता है, जिससे संसार में फैले हुए अनेक प्रकार के रोग-शोक, भय, क्लेश, कलह, द्वेष, अन्याय, अत्याचार नष्ट हो सकते हैं और सब लोग प्रेम और सुख-शान्तिपूर्वक रह सकते हैं।

प्राचीन काल में ऋषियों ने यज्ञ के इन लाभों को भली प्रकार समझा था इसलिए वे उसे लोक-कल्याण का अतीव आवश्यक कार्य समझ कर अपने जीवन का एक तिहाई समय यज्ञों के आयोजन में ही लगाते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कर्म था। जब घर-घर में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी। तब यह भारत भूमि स्वर्ण सम्पदाओं की स्वामिनी थी। आज यज्ञ को त्यागने से ही हमारी दुर्गति हो रही है।

यज्ञ भारतीय संस्कृति आदि का प्रतीक है। हमारे धर्म में जितनी महत्ता यज्ञ को दी गई है। उतनी और किसी को नहीं दी गई। हमारा कोई शुभ-अशुभ धर्म कृत्य-यज्ञ के बिना पूर्ण नहीं होता है। जन्म से लेकर अन्त्येष्टि तक 16 संस्कार होते हैं इनमें अग्रिहोत्र आवश्यक है। जब बालक का जन्म होता है तो उसकी रक्षार्थ सूतक-निवृत्ति तक घरों में अखण्ड अग्नि स्थापित रखी जाती है। नामकरण, यज्ञोपवीत, विवाह आदि संस्कारों में भी हवन अवश्य होता है। अन्त में जब शरीर छूटता है तो उसे अग्नि को ही सौंपते हैं। अब लोग मत्यु के समय चिता जलाकर यों ही लाश को भस्म कर देते हैं, पर शास्त्रों में देखा जाए तो वह भी एक संस्कार है इसमें वेद मंत्रों से विधिपूर्वक आहुतियाँ चढ़ाई जाती हैं और शरीर को यज्ञ भगवान् को अर्पण किया जाता है।

प्रत्येक कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, त्यौहार, उत्सव, उद्यापन में हवन को आवश्यक माना जाता है। अब लोग उसका महत्त्व एवं विधान भूल गये हैं और केवल चिन्ह पूजा करके काम चला लेते हैं। घरों में स्त्रियां भी यज्ञ की चिन्ह पूजा करती हैं। वे त्यौहारों या पर्वों पर ‘अग्नि को जिमाने’ या ‘आगियारी’ करने का कृत्य किसी न किसी रूप में करती रहती हैं। थोड़ी सी अग्नि को लेकर उस पर घी डालकर प्रज्वलित करना और उस पर पकवान के छोटे-छोटे ग्रास चढ़ाना और फिर जल से उस अग्नि की परिक्रमा कर देना-यह विधान हम पर प्रत्येक पर्व एवं त्यौहार पर होते देख सकते हैं। पितरों का श्राद्ध जिस दिन होगा, उस दिन ब्राह्मण भोजन से भी पूर्व इस प्रकार अग्नि को भोजन अवश्य कराया जायगा, क्योंकि यह स्थिर मान्यता है कि अग्नि के मुख में दी हुई आहुति देवताओं एवं पितरों को अवश्य पहुँचती है।

विशेष अवसर पर तो हवन करना ही पड़ता है।  नित्य की चूल्हा, चक्की, बुहारी आदि से होने वाली जीव हिंसा एवं पातकों के निवारणार्थ नित्य पंचयज्ञ करने का विधान है। इन पांचों में बलिवैश्व भी है। बलिवैश्य अग्नि में आहुति देने से होता है। इस प्रकार शास्त्रों की आज्ञानुसार तो नित्य हवन भी हमारे लिए आवश्यक है, त्यौहरों में भी प्रत्येक त्यौहार पर अग्निहोत्र आवश्यक है। होली तो यज्ञ का ही त्यौहार है। आज-कल लोग लकड़ी, उपले जलाकर होली मनाते हैं। शास्त्रों में देखा जाय तो वह यज्ञ है। लोग यज्ञ की आवश्यकता और विधि को भूल गये, पर केवल ईंधन जलाकर उस प्राचीन परम्परा की किसी प्रकार पूर्ति कर देते हैं। इसी प्रकार श्रवणी, दशहरा, दीपावली के त्यौहारों पर किसी न किसी रूप में हवन अवश्य होता है। नवरात्रियों में स्त्रियाँ देवी पूजा करती हैं, तो अग्नि मुख में देवी के निमित्त घी, लौंग, जायफल आदि अवश्य चढ़ाती हैं। सत्यनारायण-व्रत कथा-रामायण-परायण, गीता-पाठ, भागवत-सप्ताह आदि कोई भी शुभ कार्य क्यों न हो, हवन इनमें अवश्य रहेगा।

साधनाओं में भी हवन अनिवार्य है। जितने भी पाठ, पुराश्चरण, जप साधन किये जाते हैं, वे चाहे वेदोत्त हों चाहें तान्त्रिक, हवन उनमें किसी न किसी रूप में अवश्य करना पड़ेगा। गायत्री उपासना में भी हवन आवश्यक हैं। अनुष्ठान या पुरश्चरण में जप से दसवां भाग हवन का विधान है। परिस्थितिवश दशवें भाग की आहुति न दी जा सके, तो शतांश (सौवाँ भाग) आवश्यक ही है। गायत्री को माता-और यज्ञ को पिता माना गया है। इन्हीं दोनों के संयोग से मनुष्य का आध्यात्मिक जन्म होता है, जिसे ‘द्विजत्व’ कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को द्विज कहते हैं। द्विज का  अर्थ है दूसरा जन्म। जैसे अपने शरीर को जन्म देने वाले-पिता की सेवा-पूजा करना मनुष्य का नित्य कर्म है, उसी प्रकार गायत्री माता और यज्ञ पिता की पूजा भी प्रत्येक द्विज का आवश्यक धर्म कर्तव्य है।

धर्म-ग्रन्थों में पग-पग पर यज्ञ की महिमा का गान है। वेद में यज्ञ का विषय प्रधान है, क्योंकि यज्ञ एक ऐसा विज्ञानमय विधान है, जिससे मनुष्य का भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से कल्याणकारक उत्कर्ष होता है। भगवान यज्ञ से प्रसन्न होते है कहा गया है-

यो यज्ञे यज्ञ परमैरिज्यते यज्ञ संज्ञितः।
तं यज्ञपुरुषं विष्णु नमामि प्रभुमीश्वरम्।।

‘‘जो यज्ञ द्वारा पूजे जाते हैं, यज्ञमय है, यज्ञरूप हैं, उन यज्ञरूप विष्णु भगवा्न् को नमस्कार है।’’
यज्ञ मनुष्य की अनेक कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा स्वर्ग एवं मुक्ति प्रदान करने वाला है। यज्ञ को छोड़ने वालों की शास्त्रों में बहुत निन्दा की गई है।

 
कस्त्वा विमुच्ञ्ति स त्वा विमुञ्चति कस्मै त्वाविमुञ्चति तस्मै त्वाविमुञ्चति। पोषाय रक्षसां भागोऽसि।

-यजु ० 2/23,/

 
‘‘सुख शान्ति चाहने वाला कोई व्यक्ति यज्ञ का परित्याग नहीं करता। जो यज्ञ को छोड़ता है, उसे यज्ञ को छोड़ता हैं, उसे यज्ञरूप परमात्मा भी छोड़ देते हैं। सबकी उन्नति के लिए आहुतियाँ यज्ञ में छोड़ी जाती हैं, जो नहीं छोड़ता वह राक्षस हो जाता है।’’

यज्ञेन पापैः बहुभिर्विमुक्तः प्राप्रोति लोकान् परमस्य विष्णोः।

-हारीत

 
‘यज्ञ से अनेक पापों से छुटकारा मिलता है तथा परमात्मा के लोक की भी प्राप्ति होती है।’


पुत्रार्थी लभते पुत्रान् धनार्थी लभते धनम्।
भार्यार्थी शोभनां भर्या, कुमारी च शुभम् पतिम्।।
भ्रष्टराज्यस्तथा राज्य, श्रीकामः श्रियमाप्नुयात्।
यं यं प्रार्थयते कामं, स वै भवति पुष्कलः।।
निष्कामः कुरुते वस्तु स परंब्रह्म गच्छाति।

-मत्स्यपुराण 93 / 117, 118

‘यज्ञ से पुत्रार्थी को पुत्र लाभ, धनार्थी को धन लाभ, विवाहार्थी को सुन्दर भार्या, कुमारी को सुन्दर पति, राज्य से च्युत को राज्य श्री कामना वाले को ऐश्वर्य प्राप्त होता है, जो पुरुष जिस-जिस को प्राप्त करने की प्रार्थना करता है, वह सभी कुछ प्राप्त होता है और निष्काम भाव से यज्ञानुष्ठाम से परमात्मा की प्राप्ति होती है।’

न तस्य ग्रहपीड़ा स्यान्न च बन्धुधनक्षयः
ग्रहयज्ञ व्रतं गेहे लिखितं यत्र तिष्ठिति।।
न तत्र पीडा पापानां न रोगो न च बन्धनम्।
अशेषा यज्ञ फलदमशेषाघौघ नाशनम्।।

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