आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँ गायत्री की उच्चस्तरीय पाँच साधनाएँश्रीराम शर्मा आचार्य
|
3 पाठकों को प्रिय 285 पाठक हैं |
गायत्री की पांच प्रमुख साधनाएँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सोऽहम् साधना का तत्वज्ञान और विधि-विधान
जीवात्मा जिन पाँच आवरणों में आबद्ध है, गायत्री उपासना में उनका
दिग्दर्शन पाँच कोशों के रूप में कराया जाता है। गायत्री को कहीं- कहीं
पंचमुखी चित्रित किया जाता है, उसका अभिप्राय यही है कि आत्मा पाँच आवरणों
से ढका हुआ है, जो उसे समझ लेता है उनका अनावरण कर लेता है, वह आत्मसत्य
भगवती गायत्री का साक्षात्कार करता है। इसी श्रृंखला की पुस्तक
‘गायत्री पंचमुखी और एकमुखी’ में इस पर विस्तृत
प्रकाश डाला
गया है।
साधना-विधान का जिक्र आने पर यह कहा गया है कि यह उच्चस्तरीय साधानाएं यद्यपि साधक को सामान्य उपासक की उपेक्षा अत्यधिक और शीघ्र लाभान्वित करती हैं, तथापि यह पूर्णताः निरापद नहीं। कुछ विधान तो ऐसे होते हैं, जो परमाणु विखंडन की तरह क्षण भर में अद्भुत शक्ति का भण्डार उपलब्ध करा देने वाले हैं, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि मैडम क्यूरी की मृत्यु ऐसे ही एक कठिन प्रयोग करते समय हो गई थी। उच्चस्तरीय साधनाओं की इसी कठिनाई को पार करने के लिए प्राचीनकाल से आरण्यक परंपरा रही है। उच्चस्तरीय साधना के इच्छुक इन आरण्यकों में रहकर योग्य मार्गदर्शकों के सान्निध्य-संरक्षण में ये साधनाएं संपन्न किया करते थे। यह परम्परा आज यद्यपि रही नहीं, तथापि वह स्थान अपने स्थान पर ज्यों-के-त्यों हैं।
आज न तो उस तरह के आरण्य रहे, न मार्गदर्शन सदगुरु। इस तरह के सुयोग कहीं उपलब्ध भी हों तो इस व्यस्त और अभावग्रस्त युग में हर किसी को इतना समय और सुविधा भी नहीं रहती कि वे दीर्घकाल तक बाहर रहकर साधनाएं कर सके। इस कठिनाई का हल उन निरापद साधनाओं के प्रशिक्षण द्वारा किया जा रहा है, जिन्हें कोई भी व्यक्ति सामान्य गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को निभाते हुए भी घर पर ही रहकर कर सकें। तीन प्रणायामों का उल्लेख ’गायत्री की प्रचंड प्राण उर्जा’ पुस्तक में किया गया है। गायत्री कुंडलिनी अथवा पंचकोशों का अनावरण नाम कोई भी लें वस्तुतः वह सभी प्राण-साधनाओं से ही पर्याय हैं। पंचाग्नि विद्या भी उसे ही कहते हैं। सावित्री-साधना का ही दूसरा नाम है। स्पष्टतः प्राणायाम साधना की भूमिका इन साधनाओं में प्रमुख रहती है, अन्य साधनाओं के पाँच विधान भी ऐसे हैं, जिनका अभ्यास कोई भी व्यक्ति घर पर रहकर भी कर सकता है। ये हैं- (1) गायत्री का अजपा जप या सोऽहम् साधना (2) खेचरी मुद्रा (3) शक्तिचालिनी मुद्रा (4) त्राटक-साधना तथा (5) नादयोग। इन पाँचों साधनाओं में सोऽहम् साधना या हंसयोग की महत्ता सर्वाधिक है।
प्राणायाम के दो आधार हैं।–(1) श्वास-प्रश्वास क्रिया का विशिष्ट विधि-विधान, कृत्य-उपकर्म द्वारा मंथन। (2) प्रचंड शक्ति द्वारा उत्पन्न चुंबकत्व के सहारे प्राण-चेतना को खींचने और धारण करने का आकर्षण। मंथन और आकर्षण का द्विविध समन्वय ही प्राणयोग का उदेश्य पूरा करता है। इनमें से किसी एक को ही लेकर चला जाए तो ध्यानयोग का अभीष्ट उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। गहरी साँस लेना (डीप ब्रीदिंग) फेंफड़ो का व्यायाम भी है। इसकी कई विधियाँ शरीरशात्रियों ने ढूँढ़ निकाली हैं और उनका उपयोग स्वास्थ्य -लाभ के लिए किया है। अमुख विधि से दौडा़ने से दंड-बैठक, सूर्य नमस्कार आदि क्रियाएं करने से भी यह प्रयोजन एक सीमा तक हो जाता है और फेंफड़े मजबूत होने के साथ-साथ स्वास्थ्य सुधारने में सहायता मिलती है। इस श्वास क्रिया की विविधता का साधना विज्ञान में चौसठ के प्रकार विधानों का वर्णन है। भारत के बाहर इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार कि विधियों का प्रचलन है यह प्राणायम का और इससे उसका स्वास्थ्य-संवर्द्धन वाला प्रयोजन पूरा होता है।
दूसरा पक्ष संकल्प है, जिसके निमित्त अमुख मंत्रों का उच्चारण, अमुख आकृतियों का, अमुक ध्वनियों का ध्यान जोड़ा जाता है। इस ध्यान में दिव्य-चेतना शक्ति के रूप में प्राणतत्व के शरीर में प्रवेश करने की आस्था विकसित की जाती है। आस्था का चुम्बकीय, संकल्प का आकर्षण मात्र कल्पना की उड़ान नहीं है, विचार विज्ञान के ज्ञाता समझते हैं कि संकल्प कितना सशक्त तत्व है। उस आधार पर समूचा मनः संस्थान-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अंतःकरण चतुष्टय काम करता है और उसी से शरीर की विविध विध, क्रियाओं की हलचलें गतिशील होती हैं। शरीर और मन के संयोग से ही कर्म बनते हैं और उन्हीं के भले-बुरे परिणाम सुख दुःख के हानि-लाभ के रूप में सामने आते रहते है। संक्षेप में यहाँ जो कुछ भी बन-बिगड़ रहा है, वह संकल्प का ही फल है प्राणी अपने संकल्प के अनुरूप ही अपना स्तर बनाते, बढ़ाते और बदलते हैं। समष्टि के संकल्प से सार्वजनीन वातावरण बनता है। ब्रह्म के संकल्प से ही इस विश्व के सृजन, अभिवर्द्धन एवं परिवर्तन का क्रम चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में बदलने की आवश्यकता जब ब्रह्मचेतना की होती है, तब उसका संकल्प ही अवतार रूप में प्रकट होता है और अभीष्ट प्रयोजन पूरा करके चला जाता है।
योगाभ्यास में जिस श्रद्धा-विश्वास को आत्मिक प्रगति का आधारस्तंभ माना गया है, वह तथ्यतः भावभरा सुनिश्चित संकल्प भर ही है। साधनात्मक कर्मकांडों की शक्ति अधिक से अधिक एक चौथाई मानी जा सकती है। तीन-चौथाई सफलता तो संकल्प की प्रखरता पर अवलंबित रहती है। संकल्प शिथिल हो तो कई तरह के क्रियाकृत्य करते रहने पर भी योग-साधना के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित न की जी सकेगी।
प्राणायाम का प्राण यह संकल्प ही है। योगकृत्य तो उसका कलेवर भर है। सफल प्राणयोग के लिए जहाँ निर्धारित विधि-विधान को तत्परतापूर्वक क्रियान्वित करना पड़ता है, वहाँ संकल्प को भी प्रखर रखते हुए उस साधना को सर्वांगपूर्ण बनाना पड़ता है।
प्राणायामों के विधान एवं स्वरूप अनेक हैं, पर इनमें हमें से हमें दो ही पर्याप्त जँचे हैं। एक वह जो आत्मशुद्धि के षड्कर्मों में सामान्य रूप से किया जाता है, जो सर्वसुलभ और बाल कक्षा के छात्रों तक के लिए सुविधाजनक है। उसमें श्वास पर नियंत्रण किया जाता है। धीरे-धीरे भरपूर श्वास खींचना, जब तक रोका जा सके उसे रोकना, धीरे-धीरे वायु को बाहर निकालना और फिर कुछ समय श्वास को बाहर रोके रहना, बिना श्वास लिए ही काम चलाना। वह प्राणायाम इतना भर है, उससे मनोनिग्रत की तरह श्वास निग्रह का एक बड़ा प्रयोजन पूरा होता है। मन के निग्रह का प्राण निग्रह के साथ घनिष्ठ संबंध है। प्राण निग्रह करने के लिए प्राणायम साधक के लिए मनोनिग्रह सरल पड़ता है। उस प्राणायम में प्राणतत्व का शरीर में प्रवेश, स्थापना, विकास स्थिरीकरण हो रहा है, ऐसी भावना की जाती है और ध्यान किया जाता है कि जो भी विकृतियाँ तीनों शरीरों में थीं वे सभी श्वास के साथ निकलकर बाहर जा रही हैं।
फेफ़ड़े अपना कार्य संचालन करके सारे शरीर की गतिविधियों को आगे धकेलते रहने के लिए श्वास द्वारा हवा खींचती हैं, यह प्रथम चरण हुआ। दूसरे चरण में रक्तकोष्ठ प्रविष्ठ वायु में से केवल ऑक्सीजन तत्त्व खींचते हैं अपना खुराक पाते हैं। ये दो क्रियाएँ शारीरिक हैं और साधारण रीति से होती रहती हैं। तीसरा चरण विशिष्ट है संकल्प शक्ति वायु के अंतराल में घुले हुए प्राण को खींचती है। प्राणचेतन है, वह संकल्प चेतना द्वारा ही खींचा जा सकता है। प्राणायामकर्ता का संकल्प, प्राणसत्ता के अस्तित्व, उसके खींच जाने तथा धारण किए जाने, तीनों शरीरों पर उसकी सुखद प्रतिक्रिया होने के संबंध में जितना सघन होगा, उतना ही उसका चमत्कार उत्पन्न होगा। संकल्प रहित अथवा दुर्बल धुँधली भाव-संवेदना का प्राणायाम श्वास व्यायम भर बनकर रह जाता है और उसका लाभ श्वास-संस्थान तक में मिलने तक सीमित रह जाता है। यदि प्राणतत्व का चेतनात्मक लाभ उठाना हो तो, उसके लिए श्वास क्रिया से भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्राणायम के लिए नितांत आवश्यक संकल्प बल को जगाया जाना चाहिए। यह निष्ठा परिपक्व की जानी चाहिए कि प्राण का आगमन, प्रवेश, कण-कण में उसका संस्थापन एवं शक्ति- अनुदान सुनिश्चित तथ्य है, इसमें संदेह के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है।
संध्या-वंदन के समय प्रयुक्त होने वाला प्राणायाम उपासना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बिना व मनोनिग्रह में गड़बड़ी बनी रहेगी और प्रत्याहार धारण एवं ध्यान के अगले चरण ठीक तरह से उठा सकना कठिन पड़ेगा।
साधना-विधान का जिक्र आने पर यह कहा गया है कि यह उच्चस्तरीय साधानाएं यद्यपि साधक को सामान्य उपासक की उपेक्षा अत्यधिक और शीघ्र लाभान्वित करती हैं, तथापि यह पूर्णताः निरापद नहीं। कुछ विधान तो ऐसे होते हैं, जो परमाणु विखंडन की तरह क्षण भर में अद्भुत शक्ति का भण्डार उपलब्ध करा देने वाले हैं, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते होंगे कि मैडम क्यूरी की मृत्यु ऐसे ही एक कठिन प्रयोग करते समय हो गई थी। उच्चस्तरीय साधनाओं की इसी कठिनाई को पार करने के लिए प्राचीनकाल से आरण्यक परंपरा रही है। उच्चस्तरीय साधना के इच्छुक इन आरण्यकों में रहकर योग्य मार्गदर्शकों के सान्निध्य-संरक्षण में ये साधनाएं संपन्न किया करते थे। यह परम्परा आज यद्यपि रही नहीं, तथापि वह स्थान अपने स्थान पर ज्यों-के-त्यों हैं।
आज न तो उस तरह के आरण्य रहे, न मार्गदर्शन सदगुरु। इस तरह के सुयोग कहीं उपलब्ध भी हों तो इस व्यस्त और अभावग्रस्त युग में हर किसी को इतना समय और सुविधा भी नहीं रहती कि वे दीर्घकाल तक बाहर रहकर साधनाएं कर सके। इस कठिनाई का हल उन निरापद साधनाओं के प्रशिक्षण द्वारा किया जा रहा है, जिन्हें कोई भी व्यक्ति सामान्य गृहस्थ के उत्तरदायित्वों को निभाते हुए भी घर पर ही रहकर कर सकें। तीन प्रणायामों का उल्लेख ’गायत्री की प्रचंड प्राण उर्जा’ पुस्तक में किया गया है। गायत्री कुंडलिनी अथवा पंचकोशों का अनावरण नाम कोई भी लें वस्तुतः वह सभी प्राण-साधनाओं से ही पर्याय हैं। पंचाग्नि विद्या भी उसे ही कहते हैं। सावित्री-साधना का ही दूसरा नाम है। स्पष्टतः प्राणायाम साधना की भूमिका इन साधनाओं में प्रमुख रहती है, अन्य साधनाओं के पाँच विधान भी ऐसे हैं, जिनका अभ्यास कोई भी व्यक्ति घर पर रहकर भी कर सकता है। ये हैं- (1) गायत्री का अजपा जप या सोऽहम् साधना (2) खेचरी मुद्रा (3) शक्तिचालिनी मुद्रा (4) त्राटक-साधना तथा (5) नादयोग। इन पाँचों साधनाओं में सोऽहम् साधना या हंसयोग की महत्ता सर्वाधिक है।
प्राणायाम के दो आधार हैं।–(1) श्वास-प्रश्वास क्रिया का विशिष्ट विधि-विधान, कृत्य-उपकर्म द्वारा मंथन। (2) प्रचंड शक्ति द्वारा उत्पन्न चुंबकत्व के सहारे प्राण-चेतना को खींचने और धारण करने का आकर्षण। मंथन और आकर्षण का द्विविध समन्वय ही प्राणयोग का उदेश्य पूरा करता है। इनमें से किसी एक को ही लेकर चला जाए तो ध्यानयोग का अभीष्ट उद्देश्य पूरा न हो सकेगा। गहरी साँस लेना (डीप ब्रीदिंग) फेंफड़ो का व्यायाम भी है। इसकी कई विधियाँ शरीरशात्रियों ने ढूँढ़ निकाली हैं और उनका उपयोग स्वास्थ्य -लाभ के लिए किया है। अमुख विधि से दौडा़ने से दंड-बैठक, सूर्य नमस्कार आदि क्रियाएं करने से भी यह प्रयोजन एक सीमा तक हो जाता है और फेंफड़े मजबूत होने के साथ-साथ स्वास्थ्य सुधारने में सहायता मिलती है। इस श्वास क्रिया की विविधता का साधना विज्ञान में चौसठ के प्रकार विधानों का वर्णन है। भारत के बाहर इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार कि विधियों का प्रचलन है यह प्राणायम का और इससे उसका स्वास्थ्य-संवर्द्धन वाला प्रयोजन पूरा होता है।
दूसरा पक्ष संकल्प है, जिसके निमित्त अमुख मंत्रों का उच्चारण, अमुख आकृतियों का, अमुक ध्वनियों का ध्यान जोड़ा जाता है। इस ध्यान में दिव्य-चेतना शक्ति के रूप में प्राणतत्व के शरीर में प्रवेश करने की आस्था विकसित की जाती है। आस्था का चुम्बकीय, संकल्प का आकर्षण मात्र कल्पना की उड़ान नहीं है, विचार विज्ञान के ज्ञाता समझते हैं कि संकल्प कितना सशक्त तत्व है। उस आधार पर समूचा मनः संस्थान-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का अंतःकरण चतुष्टय काम करता है और उसी से शरीर की विविध विध, क्रियाओं की हलचलें गतिशील होती हैं। शरीर और मन के संयोग से ही कर्म बनते हैं और उन्हीं के भले-बुरे परिणाम सुख दुःख के हानि-लाभ के रूप में सामने आते रहते है। संक्षेप में यहाँ जो कुछ भी बन-बिगड़ रहा है, वह संकल्प का ही फल है प्राणी अपने संकल्प के अनुरूप ही अपना स्तर बनाते, बढ़ाते और बदलते हैं। समष्टि के संकल्प से सार्वजनीन वातावरण बनता है। ब्रह्म के संकल्प से ही इस विश्व के सृजन, अभिवर्द्धन एवं परिवर्तन का क्रम चल रहा है। असंतुलन को संतुलन में बदलने की आवश्यकता जब ब्रह्मचेतना की होती है, तब उसका संकल्प ही अवतार रूप में प्रकट होता है और अभीष्ट प्रयोजन पूरा करके चला जाता है।
योगाभ्यास में जिस श्रद्धा-विश्वास को आत्मिक प्रगति का आधारस्तंभ माना गया है, वह तथ्यतः भावभरा सुनिश्चित संकल्प भर ही है। साधनात्मक कर्मकांडों की शक्ति अधिक से अधिक एक चौथाई मानी जा सकती है। तीन-चौथाई सफलता तो संकल्प की प्रखरता पर अवलंबित रहती है। संकल्प शिथिल हो तो कई तरह के क्रियाकृत्य करते रहने पर भी योग-साधना के क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अर्जित न की जी सकेगी।
प्राणायाम का प्राण यह संकल्प ही है। योगकृत्य तो उसका कलेवर भर है। सफल प्राणयोग के लिए जहाँ निर्धारित विधि-विधान को तत्परतापूर्वक क्रियान्वित करना पड़ता है, वहाँ संकल्प को भी प्रखर रखते हुए उस साधना को सर्वांगपूर्ण बनाना पड़ता है।
प्राणायामों के विधान एवं स्वरूप अनेक हैं, पर इनमें हमें से हमें दो ही पर्याप्त जँचे हैं। एक वह जो आत्मशुद्धि के षड्कर्मों में सामान्य रूप से किया जाता है, जो सर्वसुलभ और बाल कक्षा के छात्रों तक के लिए सुविधाजनक है। उसमें श्वास पर नियंत्रण किया जाता है। धीरे-धीरे भरपूर श्वास खींचना, जब तक रोका जा सके उसे रोकना, धीरे-धीरे वायु को बाहर निकालना और फिर कुछ समय श्वास को बाहर रोके रहना, बिना श्वास लिए ही काम चलाना। वह प्राणायाम इतना भर है, उससे मनोनिग्रत की तरह श्वास निग्रह का एक बड़ा प्रयोजन पूरा होता है। मन के निग्रह का प्राण निग्रह के साथ घनिष्ठ संबंध है। प्राण निग्रह करने के लिए प्राणायम साधक के लिए मनोनिग्रह सरल पड़ता है। उस प्राणायम में प्राणतत्व का शरीर में प्रवेश, स्थापना, विकास स्थिरीकरण हो रहा है, ऐसी भावना की जाती है और ध्यान किया जाता है कि जो भी विकृतियाँ तीनों शरीरों में थीं वे सभी श्वास के साथ निकलकर बाहर जा रही हैं।
फेफ़ड़े अपना कार्य संचालन करके सारे शरीर की गतिविधियों को आगे धकेलते रहने के लिए श्वास द्वारा हवा खींचती हैं, यह प्रथम चरण हुआ। दूसरे चरण में रक्तकोष्ठ प्रविष्ठ वायु में से केवल ऑक्सीजन तत्त्व खींचते हैं अपना खुराक पाते हैं। ये दो क्रियाएँ शारीरिक हैं और साधारण रीति से होती रहती हैं। तीसरा चरण विशिष्ट है संकल्प शक्ति वायु के अंतराल में घुले हुए प्राण को खींचती है। प्राणचेतन है, वह संकल्प चेतना द्वारा ही खींचा जा सकता है। प्राणायामकर्ता का संकल्प, प्राणसत्ता के अस्तित्व, उसके खींच जाने तथा धारण किए जाने, तीनों शरीरों पर उसकी सुखद प्रतिक्रिया होने के संबंध में जितना सघन होगा, उतना ही उसका चमत्कार उत्पन्न होगा। संकल्प रहित अथवा दुर्बल धुँधली भाव-संवेदना का प्राणायाम श्वास व्यायम भर बनकर रह जाता है और उसका लाभ श्वास-संस्थान तक में मिलने तक सीमित रह जाता है। यदि प्राणतत्व का चेतनात्मक लाभ उठाना हो तो, उसके लिए श्वास क्रिया से भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्राणायम के लिए नितांत आवश्यक संकल्प बल को जगाया जाना चाहिए। यह निष्ठा परिपक्व की जानी चाहिए कि प्राण का आगमन, प्रवेश, कण-कण में उसका संस्थापन एवं शक्ति- अनुदान सुनिश्चित तथ्य है, इसमें संदेह के लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है।
संध्या-वंदन के समय प्रयुक्त होने वाला प्राणायाम उपासना क्षेत्र में प्रवेश करने वाले प्रत्येक छात्र के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसके बिना व मनोनिग्रह में गड़बड़ी बनी रहेगी और प्रत्याहार धारण एवं ध्यान के अगले चरण ठीक तरह से उठा सकना कठिन पड़ेगा।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book