आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री का सूर्योपस्थान गायत्री का सूर्योपस्थानश्रीराम शर्मा आचार्य
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गायत्री माता का स्थान सूर्योपस्थान क्यों है
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
गायत्री अर्थात् सावित्री और सविता
गायत्री मंत्र की व्याख्या का विस्तार चारों वेदों के रूप में हुआ, इसी से
गायत्री को वेदमाता कहते हैं। वेद जननी होते हुए भी गायत्री एक वेद मन्त्र
है। वेद के प्रत्येक मन्त्र का एक छन्द, एक ऋषि और एक देवता होता है। उनका
स्मरण, उच्चारण करते हुए विनियोग किया जाता है। गायत्री महामन्त्र का
गयात्री छन्द, विश्वामित्र ऋषि और सविता देवता है। बोलचाल की भाषा में
सविता को सूर्य कहते हैं। सविता और सावित्री का युग्म माना गया है।
प्राथमिक उपासना में गायत्री का मातृ सत्ता के रूप में दिव्य शक्ति के रूप
में नारी कलेवर का निर्धारण हुआ है।
मानवी आकृति में उसे देवी प्रतीक प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। यह उचित भी है। इसमें पवित्रता, सहृदयता, उत्कृष्टता, सद्भावना, सेवा-साधना जैसे मातृ-शक्ति में विशिष्ट रूप से पाये जाने वाले गुणों का साधक को अनुदान मिलता है। इस प्रतीक पूजा से नारी तत्व के प्रति पूज्य भाव की सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है। सद्बुद्धि, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, विवेकशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को साहित्य में स्त्रीलिंग माना गया है। अस्तु इस चिन्तन के इस दिव्य प्रवाह को यदि अलंकारिक रूप से नारी प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है तो उसे उचित ही कहा जा सकता है। इस प्राथमिक प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत किये गये नारी विग्रह से भी गायत्री महाशक्ति के उच्चस्तरीय स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता।
साकार उपासना में भी गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मण्डल के मध्य विराजमान महाशक्ति के रूप में किया जाता है। सूर्यमण्डल मध्यस्था विशेषण के साथ ही उसे समझा और समझाया जाता है। साकार उपासना करने वाले –पुस्तक, पुष्प, कमण्डल धारण किए हुए मातृ-शक्ति का सूर्य- मण्डल के मध्य में विराजमान ध्यान करते हैं। निराकार उपासना करने वाले चिदाकाश एवं महदाकाश में प्रतिष्ठित तेज मण्डल के रूप में उसका ध्यान करते हैं। उपासना का क्रम निराकार हो अथवा साकार दोनों ही स्थितियों में सूर्य मण्डल की स्थापना अनिवार्य रूप से रहेगी। प्रकाश के तेजोबल को समन्वित किए बिना गायत्री महाशक्ति का ध्यान हो ही नहीं सकता।
मानवी आकृति में उसे देवी प्रतीक प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। यह उचित भी है। इसमें पवित्रता, सहृदयता, उत्कृष्टता, सद्भावना, सेवा-साधना जैसे मातृ-शक्ति में विशिष्ट रूप से पाये जाने वाले गुणों का साधक को अनुदान मिलता है। इस प्रतीक पूजा से नारी तत्व के प्रति पूज्य भाव की सहज श्रद्धा उत्पन्न होती है। सद्बुद्धि, ऋतम्भरा, प्रज्ञा, विवेकशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को साहित्य में स्त्रीलिंग माना गया है। अस्तु इस चिन्तन के इस दिव्य प्रवाह को यदि अलंकारिक रूप से नारी प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है तो उसे उचित ही कहा जा सकता है। इस प्राथमिक प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत किये गये नारी विग्रह से भी गायत्री महाशक्ति के उच्चस्तरीय स्वरूप में कोई अन्तर नहीं आता।
साकार उपासना में भी गायत्री माता का ध्यान सदा सूर्य मण्डल के मध्य विराजमान महाशक्ति के रूप में किया जाता है। सूर्यमण्डल मध्यस्था विशेषण के साथ ही उसे समझा और समझाया जाता है। साकार उपासना करने वाले –पुस्तक, पुष्प, कमण्डल धारण किए हुए मातृ-शक्ति का सूर्य- मण्डल के मध्य में विराजमान ध्यान करते हैं। निराकार उपासना करने वाले चिदाकाश एवं महदाकाश में प्रतिष्ठित तेज मण्डल के रूप में उसका ध्यान करते हैं। उपासना का क्रम निराकार हो अथवा साकार दोनों ही स्थितियों में सूर्य मण्डल की स्थापना अनिवार्य रूप से रहेगी। प्रकाश के तेजोबल को समन्वित किए बिना गायत्री महाशक्ति का ध्यान हो ही नहीं सकता।
गायत्री भावयेद्देवी सूर्यांसारकृताश्रयाम्।
प्रातमध्याह्नसन्ध्यायां ध्यानं कृत्वा जपेत्सुधीः।।
प्रातमध्याह्नसन्ध्यायां ध्यानं कृत्वा जपेत्सुधीः।।
-शाकानन्दतरंगिणी 3/4/1
‘बुद्धिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थिति गायत्री देवी का
प्रातः मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करके जप करना चाहिए।
निराकार उपासक तो जप के साथ सूर्यमण्डल की आभा को गयात्री के प्रतीक के रूप में ध्यान करते हैं। साकार उपासना में भी गायत्री माता के नारी स्वरूप को सूर्यमण्डल के बीच प्रतिष्ठापित चित्रित किया जाता है। उसके मुख मण्डल पर तेजोवलय के रूप में सूर्य मण्डल का संयुक्त किया जाना तो अनिवार्य रूप से आवश्यक ही माना जाता है। गायत्री माता का ऐसा चित्र किसी ने कदाचित् ही बनाने की भूल की होगी जिसमें सू्र्य के तेजो मण्डल का समावेश न किया गया हो। गायत्री उपासना के अन्त में सूर्यार्ध्यदान के रूप में जप की पूर्णाहुति की जाती है। उपासना के समय में दीपक की, अगरबत्ती की, अग्नि स्थापना की आवश्यकता भी सूर्य शक्ति का प्रतिनिधित्व रखने के रूप में ही की जाती है। यज्ञाग्नि में आहुति देने का विधान भी पुरश्चरणों का अंग है। इसमें भी दूरस्थ सूर्य की निकटस्थ प्रतिनिधि अग्नि की प्रतिष्ठा करने की भावना है।
सविता और सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधारित है। अग्नि तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता-चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्मण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है। उसी के साथ आत्म चेतना की घनिष्ठता बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप में सूर्य, अग्नि, पिण्ड, ध्यान, साधना में प्रयुक्त किया जाता है। प्रकारान्तर से सूर्य उपासना का तात्पर्य ब्रह्मतेज अवतरण आत्म-चेतना को सूर्य की उपमा दी जा सकती है। पृथ्वी पर जो जीवन दृष्टिगोचर होता है वह सूर्य की ही अनुदान है। ‘सूर्य आत्मा जगत्स्थुश्च’ सूर्य को जगत की आत्मा बताया गया है। पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य-क्रेन्द्र से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण तेज की तेज वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती- फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
इस प्रकार उपचार में उपासनात्मक कलेवर की प्रतीक पूजा नारी रूप में करने के साथ ही उच्चस्तरीय ध्यान में स्थापना भी प्राण की करनी पड़ेगी। गायत्री का प्राण सविता है। शरीर के देख लेने के बाद किसी की वस्तुस्थिति उसके आन्तरिक स्तर को समझने में ही विदित होती है। सविता सम्पर्क के लिए अग्रिम कदम बढ़ाने के पीछे भी यही कारण है। इसमें विरोध विग्रह एवं सामंजस्य जैसी कोई बात नहीं है। इसे क्रमिक प्रगति के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जाना चाहिए।
गायत्री को प्राण, प्राण को सविता, कहा गया है। इस त्रिकोण विवेचन के सवितामय होने का ही निष्कर्ष निकलता है।
गायत्री सद्बुद्धि की ऋतम्भरा प्रज्ञा की देवी है। प्राण और सविता को भी इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति करने वाला बताया गया है। शास्त्र वचनों में इस त्रिकोण को रेखागणित के त्रिभुज की तरह एक दूसरे के साथ जुड़ा समझा जा सकता है। गायत्री का देवता सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं—
निराकार उपासक तो जप के साथ सूर्यमण्डल की आभा को गयात्री के प्रतीक के रूप में ध्यान करते हैं। साकार उपासना में भी गायत्री माता के नारी स्वरूप को सूर्यमण्डल के बीच प्रतिष्ठापित चित्रित किया जाता है। उसके मुख मण्डल पर तेजोवलय के रूप में सूर्य मण्डल का संयुक्त किया जाना तो अनिवार्य रूप से आवश्यक ही माना जाता है। गायत्री माता का ऐसा चित्र किसी ने कदाचित् ही बनाने की भूल की होगी जिसमें सू्र्य के तेजो मण्डल का समावेश न किया गया हो। गायत्री उपासना के अन्त में सूर्यार्ध्यदान के रूप में जप की पूर्णाहुति की जाती है। उपासना के समय में दीपक की, अगरबत्ती की, अग्नि स्थापना की आवश्यकता भी सूर्य शक्ति का प्रतिनिधित्व रखने के रूप में ही की जाती है। यज्ञाग्नि में आहुति देने का विधान भी पुरश्चरणों का अंग है। इसमें भी दूरस्थ सूर्य की निकटस्थ प्रतिनिधि अग्नि की प्रतिष्ठा करने की भावना है।
सविता और सावित्री की युग्म भावना एक कल्पना पर नहीं तथ्यों पर आधारित है। अग्नि तत्त्व से बना दृश्यमान सूर्य तो चेतन सविता देव का स्थूल प्रतीक भर है। प्रतीक पूजा का स्वरूप ही यह है कि जड़ पदार्थों के माध्यम से चेतनात्मक प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी कराई जाय। सविता-चेतना ब्रह्मतेज को कहते हैं। वह अदृश्य है। ब्रह्मण्डीय चेतना के रूप में, दिव्य प्रखरता के रूप में सर्वत्र व्यापक और विद्यमान है। उसी के साथ आत्म चेतना की घनिष्ठता बढ़ाने के लिए प्रतीक रूप में सूर्य, अग्नि, पिण्ड, ध्यान, साधना में प्रयुक्त किया जाता है। प्रकारान्तर से सूर्य उपासना का तात्पर्य ब्रह्मतेज अवतरण आत्म-चेतना को सूर्य की उपमा दी जा सकती है। पृथ्वी पर जो जीवन दृष्टिगोचर होता है वह सूर्य की ही अनुदान है। ‘सूर्य आत्मा जगत्स्थुश्च’ सूर्य को जगत की आत्मा बताया गया है। पृथ्वी पर जिस तरह सूर्य-क्रेन्द्र से जीवन बरसता है उसी प्रकार आत्मा रूपी पृथ्वी पर ब्रह्मसत्ता के प्राण तेज की तेज वर्षा होती है। इसी से अन्तः भूमि विभूतियों की हरीतिमा उगती और फूलती- फलती है। गायत्री के साथ उनके देवता सविता का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध इसी आधार पर जुड़ा हुआ है। गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है।
इस प्रकार उपचार में उपासनात्मक कलेवर की प्रतीक पूजा नारी रूप में करने के साथ ही उच्चस्तरीय ध्यान में स्थापना भी प्राण की करनी पड़ेगी। गायत्री का प्राण सविता है। शरीर के देख लेने के बाद किसी की वस्तुस्थिति उसके आन्तरिक स्तर को समझने में ही विदित होती है। सविता सम्पर्क के लिए अग्रिम कदम बढ़ाने के पीछे भी यही कारण है। इसमें विरोध विग्रह एवं सामंजस्य जैसी कोई बात नहीं है। इसे क्रमिक प्रगति के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा जाना चाहिए।
गायत्री को प्राण, प्राण को सविता, कहा गया है। इस त्रिकोण विवेचन के सवितामय होने का ही निष्कर्ष निकलता है।
गायत्री सद्बुद्धि की ऋतम्भरा प्रज्ञा की देवी है। प्राण और सविता को भी इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति करने वाला बताया गया है। शास्त्र वचनों में इस त्रिकोण को रेखागणित के त्रिभुज की तरह एक दूसरे के साथ जुड़ा समझा जा सकता है। गायत्री का देवता सविता होने के संदर्भ में कुछ उक्तियाँ इस प्रकार हैं—
दैवतं सविताप्यस्यां गायत्रं छन्द एव च।
विश्वामित्र ऋषिश्चैव प्रोच्यते ऋषिसत्तम।।
विश्वामित्र ऋषिश्चैव प्रोच्यते ऋषिसत्तम।।
हे ऋषि श्रेष्ठ ! इसका देवता सविता है—गायत्री छन्द है और
विश्वामित्र इसका ऋषि कहा जाता है।
सवितुश्चाधिदेवो या मन्त्राधिष्ठातृदेवता।
सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता।।
सावित्री ह्यपि वेदाना सावित्री तेन कीर्तिता।।
-देवी भागवत
इस सावित्री मन्त्र का देवता सविता- (सूर्य) है। वेद मंत्रों की
अधिष्ठात्री देवी वही है। इसी से उसे सावित्री कहते हैं।
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः।
प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे।।
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके
श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व
लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते।
यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।
यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।
-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए
‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के
देवता
‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को
‘सावित्री’
कहते हैं।’’
मनोवै सविता। प्राणधियः।
-शतपथ 3/6/1/13
प्राण एव सविता, विद्युतरेव सविता।
-शतपथ 7/7/9
यो देवः सविताऽस्माकं धियो धर्मादिगोचरः।
प्रेरयत्तस्य तद्भर्गस्यध्रवेण्यमुपास्महे।।
प्रेरयत्तस्य तद्भर्गस्यध्रवेण्यमुपास्महे।।
‘जो देव सविता सूर्य मण्डल के रूप में प्रत्यक्ष होकर धर्माधर्म
संस्कारों को देखता हुआ हमारी बुद्धि को प्रेरणा देता है, उसका प्रसिद्ध
भर्ग (स्व-प्रकाश चेतना रूप तेज) स्पृहा करने योग्य है, उसी की हम उपासना,
ध्यान करते हैं।’
यो वै स प्राण एषा सा गायत्री।
-शतपथ 1/3/5/15
जो प्रण है उसे ही निश्चित रूप से गायत्री जानना।
गायत्री को प्राण कहा गया है और प्राण ही सूर्य है। श्रुति कहती है—‘प्राण प्रजानां उदयत्येष सूर्यः’ अर्थात् यह उदीयमान सूर्य ही जीवधारियों में प्राण शक्ति के रूप में प्रकट होता है।
यह सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गयात्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है—
गायत्री को प्राण कहा गया है और प्राण ही सूर्य है। श्रुति कहती है—‘प्राण प्रजानां उदयत्येष सूर्यः’ अर्थात् यह उदीयमान सूर्य ही जीवधारियों में प्राण शक्ति के रूप में प्रकट होता है।
यह सूर्य ही तेज कहा जाता है। ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं। गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है। सविता तेज का प्रतीक है। अस्तु सविता का तेज और गयात्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए। कहा गया है—
तेजसा वै गायत्री प्रथमं त्रिरात्र दाधार
पदैर्द्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। ता. 10/5/3
तेजो वै गयात्री। गो। उ। 5/3
ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्। ता 13/7/2
ज्योतिर्वै गायत्री। को. 17/6
दविद्युतती वै गायत्री। ता. 12/1/2
गायत्र्येव भर्ग।। गो. पू। 5/15
गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः ता. व्रा. 15/10/5
तेजो वै गायत्री। -कपि. सं. 30/2
पदैर्द्वितीयमक्षरैस्तृतीयम्। ता. 10/5/3
तेजो वै गयात्री। गो। उ। 5/3
ज्योतिर्वै गायत्री छन्दसाम्। ता 13/7/2
ज्योतिर्वै गायत्री। को. 17/6
दविद्युतती वै गायत्री। ता. 12/1/2
गायत्र्येव भर्ग।। गो. पू। 5/15
गायत्री वै रथन्तरस्य योनिः ता. व्रा. 15/10/5
तेजो वै गायत्री। -कपि. सं. 30/2
सविता तेज के सम्बन्ध में किसी प्रकार भ्रम न रह जाय, उसे भौतिक अग्नि
प्रकाश न मान लिया जाय, इसलिए यह स्पष्टीकरण आवश्यक समझा गया है कि यह
‘तेजस्’ विशुद्धा रूप से ब्रह्म तत्त्व का है। सविता
तेज को
ब्रह्मतेज के अतिरिक्त और कुछ समझ बैठने की भूल किसी अध्यात्म विद्या के
छात्र को नहीं ही करनी चाहिए। कहा है—
सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते।
सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चोच्यते।।
सवनात् पावनाच्चैव सवितानेन चोच्यते।।
सकल भूतों के उत्पादक तथा पावन कर्ता होने से परमात्मा सविता कहलाते
हैं।
आदित्यो ब्रह्मोत्यादेशस्तस्योपव्याख्यानम्।
-छान्दोग्योपनिषद्-3 प्र. 19/1
सूर्य ही ब्रह्म है, वह महर्षियों का आदेश है, सूर्य में परमेश्वर की
सत्ता को समझने का उपदेश है।
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लोगों की राय
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