बहु भागीय सेट >> बाल-निर्माण की कहानियाँ बाल-निर्माण की कहानियाँआशा सरसिज
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बाल-निर्माण की कहानियाँ १६ भागों में
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्राक्कथन
बच्चों के मन में अध्यात्म एवं जीवन कला के विभिन्न सूत्र कथाओं के माध्यम
से सरलता से स्थापित किये जा सकते हैं। इसी अवधि में मस्तिष्क का सर्वाधिक
विकास होता है। भला-बुरा जो भी प्रभाव होता है, वे ग्रहण करते व तदनुसार
अपना व्यक्तित्व विनिर्मित करते हैं। यह अभिभावकों व परिवार के संपर्क में
आने वाले माध्यमों पर निर्भर है कि बालक-मन को वह किस प्रकार गढ़ते
हैं।
बाल निर्माण की कहानियों के बारह भाग पिछले दिनों युग निर्माण योजना
द्वारा प्रकाशित किए गए। प्रसन्नता की बात है कि विदेशी अथवा फूहड़
कॉमिक्स के सामने ये कहानियाँ सुरुचि, श्रेष्ठ ठहरी एवं परिजनों ने इन कथा
पुस्तकों की भूरि-भूरि सराहना की। इनके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।
सोचा यह गया कि बालकों के लिए तो साहित्य लिखा गया और पसंद भी किया गया।
उठती वय के किशोरों के लिए ऐसे साहित्य का सृजन अभी नहीं हुआ है। प्रस्तुत
पुस्तक माला इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। इसमें मूलतः किशोरों की दृष्टि
में रखते हुए कथा साहित्य रचा गया है। लेखिका ने बाल मनोविज्ञान का बड़ी
गहराई से अध्ययन किया है, वही अध्ययन अनुभव इन कथानकों के रूप में पाठकों
के समक्ष प्रस्तुत हैं। हमें पाठकों अभिभावकों की प्रतिक्रिया की
प्रतीक्षा रहेगी।
डॉ. प्रणव पंड्या
घनश्याम की वीरता
‘तुम्हें रुपये देने हैं या नहीं’ क्रुद्ध आवाज में
दीवान भीमराव भी चिल्ला रहे थे।
‘मैं जल्दी ही दे दूँगा। इस बार सूखा पड़ गया इसलिए नहीं दे पाया। आपने तो मेरी सदा ही सहायता की है। थोड़ी दया और कीजिए साहब।’ दोनों हाथ जोड़कर गरीब कृषक कह रहा था।
‘मैं कुछ नहीं जानता। बस मैं इतना ही कह रहा हूँ कि यदि तुमने एक सप्ताह के अन्दर पैसे नहीं दिये तो तुम्हारे घर की नीलामी करा दूँगा। तुम्हें रुपये इसलिये नहीं दिये थे कि उन्हें दबाकर बैठ जाओ। मूल देना तो दूर रहा, तुमने तो दो वर्ष में ब्याज तक नहीं दी है।’ दीवान जी चिल्लाकार बोले फिर वे क्रोध से पैर पटकते बैलगाड़ी में जाकर बैठ गये। उनके दोनों बेटे एक कोने में सहमें खड़े यह सब सुन रहे थे। पिता की दृष्टि उन पर गयी। तो बोले- ‘अरे तुम लोग क्या कर रहे हो यहाँ। स्कूल जाओ जल्दी से नहीं तो देर हो जायेगी।’
पिता का आदेश सुनकर घनश्याम और उसके भाई ने बस्ता उठाया और स्कूल की ओर दौड़ चले। रास्ते भर घनश्याम के मन में वही दृश्य उभरता रहा। दीवान जी का क्रोध से तमतमाया चेहरा और रौबीली आवाज जैसे उसके सामने अभी भी साकार थे। पिता का करुण चेहरा भी उसकी आँखों के आगे आ रहा था। उसने सुना था कि दीवान बड़ा कठोर है। जो कहता है, वह करते उसे देर नहीं लगती। वह अनेक गरीब व्यक्तियों को ऋण देकर उन्हें ऐसे ही सताया करता था। कई बार तो घनश्याम ने लोगों को उसकी मौत की कामना करते हुए भी सुना था।
यही बात सोचते-सोचते घनश्यामकृष्ण काले आगे बढ़ रहा था कि बाजार के बीच में उसे दीवान जी की बैलगाड़ी दिखाई दी। कुछ हल्ला-सा भी सुनाई दिया। लोग इधर-उधर भाग रहे थे। घनश्याम भी एक ऊँची दुकान पर चढ़ गया और देखने लगा कि मामला क्या है ? उसने देखा कि दीवान की गाड़ी के बैल बिगड़ गए थे, वे तेजी से भाग रहे थे। उनके साथ जुती गाड़ी घिसटती पीछे चल रही थी। गाड़ी पर बैठे दीवानजी के हाथ से लगाम छूट चुकी थी। कुछ पल बाद ही उसने देखा कि गाड़ी उलट गयी। जुआ तुड़ाकर एक बैल तो भाग गया, पर दूसरा दीवान जी को अपनी सींगों से मारने दौड़ा। लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। किसी का यह साहस न हो पा रहा था कि दीवान जी को बचाए। एक बार घनश्याम के मन में आया- ‘इसको अपनी करनी का दण्ड मिल रहा है।’ पर शीघ्र ही उसे मास्टरजी की सीख याद आ गयी, जो सदा यह कहा करते थे कि संकट में पड़े हुए की रक्षा करना ही मनुष्यता है। वे बालकों को वीर बच्चों की कहानियाँ सुना-सुना कर उनमें वीरता का संचार किया करते थे।
घनश्याम अपने प्राणों की परवाह न कर वहाँ से कूदा और दौड़कर बैल के सामने जा खड़ा हुआ। लोग साँस रोके यह दृश्य देख रहे थे। घनश्याम ने तेजी से बैल की रस्सी पकड़ी और अपनी ओर खींचने लगा। क्रुध बैल और भी चिढ़ गया और दीवान को छोड़कर घनश्याम पर झपटा, पर घनश्याम तो पहले से ही इसके लिए तैयार था। उसने बिना समय खोए और साहस छोड़े विलक्षण चतुराई से जल्दी बैल की रस्सी एक खंभे से लपेट दी। बैल को बँधा देख और भय का कारण दूर जानकर लोग पास आने लगे। थोड़ी देर में बैल भी शांत हो गया। घनश्याम और दूसरे व्यक्तियों ने मिलकर दीवान जी को उठाया।
उन्होंने घनश्याम को गले लगाते हुए कहा- ‘बेटा ! आज तुमने अपने प्राणों की परवाह न करके मेरी रक्षा की है। मैं तुम्हारे उपकार से झुक गया हूँ। किसके बेटे हो तुम ?’
घनश्याम ने अपने पिता का नाम बताया तो उन्होंने ध्यान से उसकी ओर देखा। उन्हें याद आया कि जब वे किसान को डांट रहे थे, तो यही बच्चा सहमा-सा एक कोने में खड़ा था। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा- ‘एक मैं पापी हूँ, जो दूसरों को सताता हूँ और एक यह है, जिसने मुझ अपकारी का भी ऐसा उपकार किया है।’
उन्होंने घनश्याम का हाथ पकड़ा और बोले- ‘चलो मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूँ।’
वह किसान तो दीवानजी को फिर से आया देखते ही काँपने लगा। घनश्याम को उनके साथ देखकर उसका मन और भी भयभीत हो गया। इस शरारती बालक ने न जाने क्या अपराध किया है। अब तो भगवान ही रक्षक हैं।’ वह मन ही मन सोचने लगा।
दीवानजी ने किसान को पूरी बात बतायी और कहा कि पूरा पैसा उसने माफ कर दिया है। किसान बहुतेरा कहता रहा- ‘नहीं-नहीं मैं आपका पैसा दे दूँगा, बस मुझे थोड़ा समय और दे दीजिए।’’ परन्तु दीवान ने उसकी बात स्वीकार न की। वे बोले- ‘मैं तुम्हारे ऋण को कभी चुका नहीं सकता।’
घनश्याम कृष्ण काले के साहस और दयालुता ने पिता के संकट को भी दूर कर दिया उसे वीर बच्चे के रूप में भी पुरस्कृत किया गया।
‘मैं जल्दी ही दे दूँगा। इस बार सूखा पड़ गया इसलिए नहीं दे पाया। आपने तो मेरी सदा ही सहायता की है। थोड़ी दया और कीजिए साहब।’ दोनों हाथ जोड़कर गरीब कृषक कह रहा था।
‘मैं कुछ नहीं जानता। बस मैं इतना ही कह रहा हूँ कि यदि तुमने एक सप्ताह के अन्दर पैसे नहीं दिये तो तुम्हारे घर की नीलामी करा दूँगा। तुम्हें रुपये इसलिये नहीं दिये थे कि उन्हें दबाकर बैठ जाओ। मूल देना तो दूर रहा, तुमने तो दो वर्ष में ब्याज तक नहीं दी है।’ दीवान जी चिल्लाकार बोले फिर वे क्रोध से पैर पटकते बैलगाड़ी में जाकर बैठ गये। उनके दोनों बेटे एक कोने में सहमें खड़े यह सब सुन रहे थे। पिता की दृष्टि उन पर गयी। तो बोले- ‘अरे तुम लोग क्या कर रहे हो यहाँ। स्कूल जाओ जल्दी से नहीं तो देर हो जायेगी।’
पिता का आदेश सुनकर घनश्याम और उसके भाई ने बस्ता उठाया और स्कूल की ओर दौड़ चले। रास्ते भर घनश्याम के मन में वही दृश्य उभरता रहा। दीवान जी का क्रोध से तमतमाया चेहरा और रौबीली आवाज जैसे उसके सामने अभी भी साकार थे। पिता का करुण चेहरा भी उसकी आँखों के आगे आ रहा था। उसने सुना था कि दीवान बड़ा कठोर है। जो कहता है, वह करते उसे देर नहीं लगती। वह अनेक गरीब व्यक्तियों को ऋण देकर उन्हें ऐसे ही सताया करता था। कई बार तो घनश्याम ने लोगों को उसकी मौत की कामना करते हुए भी सुना था।
यही बात सोचते-सोचते घनश्यामकृष्ण काले आगे बढ़ रहा था कि बाजार के बीच में उसे दीवान जी की बैलगाड़ी दिखाई दी। कुछ हल्ला-सा भी सुनाई दिया। लोग इधर-उधर भाग रहे थे। घनश्याम भी एक ऊँची दुकान पर चढ़ गया और देखने लगा कि मामला क्या है ? उसने देखा कि दीवान की गाड़ी के बैल बिगड़ गए थे, वे तेजी से भाग रहे थे। उनके साथ जुती गाड़ी घिसटती पीछे चल रही थी। गाड़ी पर बैठे दीवानजी के हाथ से लगाम छूट चुकी थी। कुछ पल बाद ही उसने देखा कि गाड़ी उलट गयी। जुआ तुड़ाकर एक बैल तो भाग गया, पर दूसरा दीवान जी को अपनी सींगों से मारने दौड़ा। लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे। किसी का यह साहस न हो पा रहा था कि दीवान जी को बचाए। एक बार घनश्याम के मन में आया- ‘इसको अपनी करनी का दण्ड मिल रहा है।’ पर शीघ्र ही उसे मास्टरजी की सीख याद आ गयी, जो सदा यह कहा करते थे कि संकट में पड़े हुए की रक्षा करना ही मनुष्यता है। वे बालकों को वीर बच्चों की कहानियाँ सुना-सुना कर उनमें वीरता का संचार किया करते थे।
घनश्याम अपने प्राणों की परवाह न कर वहाँ से कूदा और दौड़कर बैल के सामने जा खड़ा हुआ। लोग साँस रोके यह दृश्य देख रहे थे। घनश्याम ने तेजी से बैल की रस्सी पकड़ी और अपनी ओर खींचने लगा। क्रुध बैल और भी चिढ़ गया और दीवान को छोड़कर घनश्याम पर झपटा, पर घनश्याम तो पहले से ही इसके लिए तैयार था। उसने बिना समय खोए और साहस छोड़े विलक्षण चतुराई से जल्दी बैल की रस्सी एक खंभे से लपेट दी। बैल को बँधा देख और भय का कारण दूर जानकर लोग पास आने लगे। थोड़ी देर में बैल भी शांत हो गया। घनश्याम और दूसरे व्यक्तियों ने मिलकर दीवान जी को उठाया।
उन्होंने घनश्याम को गले लगाते हुए कहा- ‘बेटा ! आज तुमने अपने प्राणों की परवाह न करके मेरी रक्षा की है। मैं तुम्हारे उपकार से झुक गया हूँ। किसके बेटे हो तुम ?’
घनश्याम ने अपने पिता का नाम बताया तो उन्होंने ध्यान से उसकी ओर देखा। उन्हें याद आया कि जब वे किसान को डांट रहे थे, तो यही बच्चा सहमा-सा एक कोने में खड़ा था। उनका मन उन्हें धिक्कारने लगा- ‘एक मैं पापी हूँ, जो दूसरों को सताता हूँ और एक यह है, जिसने मुझ अपकारी का भी ऐसा उपकार किया है।’
उन्होंने घनश्याम का हाथ पकड़ा और बोले- ‘चलो मैं तुम्हारे पिता से मिलना चाहता हूँ।’
वह किसान तो दीवानजी को फिर से आया देखते ही काँपने लगा। घनश्याम को उनके साथ देखकर उसका मन और भी भयभीत हो गया। इस शरारती बालक ने न जाने क्या अपराध किया है। अब तो भगवान ही रक्षक हैं।’ वह मन ही मन सोचने लगा।
दीवानजी ने किसान को पूरी बात बतायी और कहा कि पूरा पैसा उसने माफ कर दिया है। किसान बहुतेरा कहता रहा- ‘नहीं-नहीं मैं आपका पैसा दे दूँगा, बस मुझे थोड़ा समय और दे दीजिए।’’ परन्तु दीवान ने उसकी बात स्वीकार न की। वे बोले- ‘मैं तुम्हारे ऋण को कभी चुका नहीं सकता।’
घनश्याम कृष्ण काले के साहस और दयालुता ने पिता के संकट को भी दूर कर दिया उसे वीर बच्चे के रूप में भी पुरस्कृत किया गया।
यथार्थ का मूल्य
कदली के अंक उस कक्षा में सबसे अधिक आते थे। वह पढ़ने में तो कुशल थी ही,
परन्तु व्यवहार में भी बहुत कुशल थी। जो अध्यापिकायें उसे पढ़ाया करतीं,
उनके आस-पास वह किसी न किसी बहाने चक्कर लगाया करती। सभी से उसने कक्षा से
अलग व्यक्तिगत संबंध बना रखे थे। कभी किसी शिक्षिका की प्रशंसा करती, कभी
किसी को घर के बगीचे के पुष्प उपहार में ला देती, तो कभी कलैण्डर आदि। नये
वर्ष व दीपावली पर वह शुभकामना पत्र भेजना भी न भूलती। परिणाम यह था कि
शिक्षिकायें उससे अच्छी तरह परिचित थीं। सभी उसकी प्रशंसा करती थीं।
ऐसा न था कि कदली यह केवल दिखावे भर के लिये करती हो। उसके मन में अपनी शिक्षिकाओं के प्रति आदर था, श्रद्धा थी। वह थी ही व्यवहार कुशल। परन्तु इस बार वह अपनी श्रद्धा का कुछ अधिक ही प्रदर्शन कर रही थी। उसका कारण था, कालिज का स्वर्ण पदक, जो इण्टर कक्षा की सर्वश्रेष्ठ छात्रा को प्रतिवर्ष दिया जाता था। कदली शिक्षिकाओं को प्रभावित कर इस वर्ष का यह पदक स्वयं पाना चाहती थी। जो छात्रा खेलकूद, पढ़ाई, सांस्कृतिक कार्यक्रम, भाषण, अनुशासन आदि सभी गतिविधियों से श्रेष्ठ होती, उसे ही यह पदक दिया जाता। परन्तु कदली जानती थी कि निर्णायिकायें तो शिक्षिकायें ही हैं। यदि वह उन्हें ही प्रभावित कर ले, तो थोड़ा उन्नीस होने पर भी बाबत बन ही जायेगी।
कदली की प्रतिद्वन्दी छात्रा थी अचला। वह भी पढ़ाई में तेज थी और कालिज की भी सभी गतिविधियों में भाग लेती थी, परन्तु उसका स्वभाव कदली से भिन्न था। वह शर्मीली लड़की थी, शिक्षिकाओं के आस-पास चक्क नहीं लगाती थी। यद्यपि मन ही मन वह शिक्षिकाओं का बहुत आदर करती थी, परन्तु कभी उसका प्रदर्शन न करती थी। गुरुजनों के सम्मुख जाते ही वह विनम्रता से झुक-सी जाती, कदली की भाँति बातें न बना पाती।
सत्र की समाप्ति होने लगी, तो शिक्षिकाओं की बैठक में यह विषय भी उठाया गया कि स्वर्ण पदक किसे दिया जाये। अधिकांश का मत कदली की ओर था। कुछ ही शिक्षिकायें ऐसी थीं, जो अचला का भी नाम ले रही थीं, परन्तु उनकी आवाज कदली का समर्थन करने वाली शिक्षिकाओं की आवाज में दबकर रह गयी थी। प्राचार्या स्वयं कदली के व्यवहार से प्रभावित थीं और उसी का नाम ले रही थीं। शैक्षिक तथा अन्य गतिविधियों के विवरण देखकर छात्रा के नाम को अन्तिम रूप में स्वीकार किया जाता था।
कदली और अचला दोनों के समस्त कार्यों और योग्यताओं के विवरण प्राचार्या के कार्यालय में पहुँचे। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि न केवल शैक्षिक स्तर पर अपितु अन्य विविध गतिविधियों में अचला कदली से आगे थी। ‘अरे इस छात्रा पर अभी तक हमारा इतना ध्यान क्यों नहीं गया ?’ वह मन ही मन सोचने लगीं। उन्हें ध्यान आया कि दो वर्ष पूर्व ही इस छात्रा ने दूसरे कालिज से आकर प्रवेश लिया है। एक सीधी, संकोची, कम बोलने वाली छात्रा का प्रतिबिम्ब उनके सामने आ गया। कदली उस विद्यालय में प्रारम्भ से ही पढ़ी थी। वह भी प्रतिभाशाली थी, अतएव उसकी ओर ममत्व होना स्वाभाविक ही था। ‘कदली ही इस पदक के योग्य है’ प्राचार्या ने स्वयं से कहा। फिर वे दूसरे कार्य में लग गयीं।
ऐसा न था कि कदली यह केवल दिखावे भर के लिये करती हो। उसके मन में अपनी शिक्षिकाओं के प्रति आदर था, श्रद्धा थी। वह थी ही व्यवहार कुशल। परन्तु इस बार वह अपनी श्रद्धा का कुछ अधिक ही प्रदर्शन कर रही थी। उसका कारण था, कालिज का स्वर्ण पदक, जो इण्टर कक्षा की सर्वश्रेष्ठ छात्रा को प्रतिवर्ष दिया जाता था। कदली शिक्षिकाओं को प्रभावित कर इस वर्ष का यह पदक स्वयं पाना चाहती थी। जो छात्रा खेलकूद, पढ़ाई, सांस्कृतिक कार्यक्रम, भाषण, अनुशासन आदि सभी गतिविधियों से श्रेष्ठ होती, उसे ही यह पदक दिया जाता। परन्तु कदली जानती थी कि निर्णायिकायें तो शिक्षिकायें ही हैं। यदि वह उन्हें ही प्रभावित कर ले, तो थोड़ा उन्नीस होने पर भी बाबत बन ही जायेगी।
कदली की प्रतिद्वन्दी छात्रा थी अचला। वह भी पढ़ाई में तेज थी और कालिज की भी सभी गतिविधियों में भाग लेती थी, परन्तु उसका स्वभाव कदली से भिन्न था। वह शर्मीली लड़की थी, शिक्षिकाओं के आस-पास चक्क नहीं लगाती थी। यद्यपि मन ही मन वह शिक्षिकाओं का बहुत आदर करती थी, परन्तु कभी उसका प्रदर्शन न करती थी। गुरुजनों के सम्मुख जाते ही वह विनम्रता से झुक-सी जाती, कदली की भाँति बातें न बना पाती।
सत्र की समाप्ति होने लगी, तो शिक्षिकाओं की बैठक में यह विषय भी उठाया गया कि स्वर्ण पदक किसे दिया जाये। अधिकांश का मत कदली की ओर था। कुछ ही शिक्षिकायें ऐसी थीं, जो अचला का भी नाम ले रही थीं, परन्तु उनकी आवाज कदली का समर्थन करने वाली शिक्षिकाओं की आवाज में दबकर रह गयी थी। प्राचार्या स्वयं कदली के व्यवहार से प्रभावित थीं और उसी का नाम ले रही थीं। शैक्षिक तथा अन्य गतिविधियों के विवरण देखकर छात्रा के नाम को अन्तिम रूप में स्वीकार किया जाता था।
कदली और अचला दोनों के समस्त कार्यों और योग्यताओं के विवरण प्राचार्या के कार्यालय में पहुँचे। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि न केवल शैक्षिक स्तर पर अपितु अन्य विविध गतिविधियों में अचला कदली से आगे थी। ‘अरे इस छात्रा पर अभी तक हमारा इतना ध्यान क्यों नहीं गया ?’ वह मन ही मन सोचने लगीं। उन्हें ध्यान आया कि दो वर्ष पूर्व ही इस छात्रा ने दूसरे कालिज से आकर प्रवेश लिया है। एक सीधी, संकोची, कम बोलने वाली छात्रा का प्रतिबिम्ब उनके सामने आ गया। कदली उस विद्यालय में प्रारम्भ से ही पढ़ी थी। वह भी प्रतिभाशाली थी, अतएव उसकी ओर ममत्व होना स्वाभाविक ही था। ‘कदली ही इस पदक के योग्य है’ प्राचार्या ने स्वयं से कहा। फिर वे दूसरे कार्य में लग गयीं।
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लोगों की राय
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