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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4099
आईएसबीएन :000

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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...

उपेक्षा न कीजिए


फ्रांसीसी वैज्ञानिक प्रो० देल्गादो ने बताया है कि नसों में रक्त चढ़ाने जैसा ही सहज कार्य मस्तिष्क में इच्छानुकूल आदतों का प्रवेश करा सकना भी है और अगले दिनों ही यह सहज संभव होगा कि प्रवृत्तियों और अभ्यासों की वैसी ही काट-छाँट की जा सके, जैसे अभी फोड़े-फंसियों की होती है।

यह जानने की दिशा में तेजी से कार्य हो रहा है कि मस्तिष्क के किस स्थान पर किस प्रकार की क्षमता के संचालक-नियामक केंद्र हैं। मस्तिष्क में गहरी दबी पड़ी विस्मृतियों को बिजली के झटके देकर ताजी बनाया जा सकता है, जिससे लगने लगे कि संबंधित घटना अभी-अभी घटित हुई है। कनाडा के मनोवैज्ञानिक डॉ० डब्ल्यू० जी० पेनफील्ड ऐसे इलेक्ट्रोड खोजने में सफल हुए हैं, जिनका स्थान विशेष की कुछ विशेष कोशिकाओं से संबंध जोड़ने पर मनुष्य अतीत की घटनाएँ अपने सामने पुनः घटित हो रही सी ही ताजी अनुभव कर सकता है। विगत संवादों, विवादों, चर्चाओं आदि को भी तत्काल संपन्न अनुभव कर सकता है।

स्नायु विज्ञानी काल लैसले ने खोज की है कि मस्तिष्क के किस स्तर पर किस शक्ति से कितना विद्युत् प्रवाह किये जाने पर किस काल खंड की (पुरानी से पुरानी) किस किस्म की स्मृतियाँ ताजी हो सकती हैं। मैकगिल विश्वविद्यालय, मांट्रीयल (कनाडा) के डॉ० विल्डर पेनफील्ड ने विचार, ध्वनि और दृश्य का संबंध स्थापित करते हुए उस दिशा में प्रगति की संभावना व्यक्त की है, जहाँ लोगों के मस्तिष्क निर्दिष्ट चिंतन के लिए प्रेरित-प्रशिक्षित किये जा सकेंगे। कैलीफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालाजी के डॉ० रोगर स्पेरी ने सुदीर्घ काल से संचित आदतों-अभ्यासों से मुक्त होने तथा सर्वथा नये अभ्यासों को गहराई से अपना लेने के लिए मस्तिष्क को प्रेरित कर सकने के अपने प्रयोगों में सफलता प्राप्त की है।

स्वीडन के डॉ० हाल्गर हाइडन ने अपने प्रयोगों द्वारा पाया कि मस्तिष्कीय चेतना के आधार स्तंभ रिवोन्यूक्लिक एसिड (आर० एन० ए०) नामक रसायन की मात्रा को चेतना की विभिन्न परतों में घटा-बढ़ाकर प्राणियों के चिंतन की विधि एवं दिशा में परिवर्तन संभव है।

जीवशास्त्री जेम्स ओल्डस ने चूहों के मस्तिष्क पर आंशिक नियंत्रण की प्रक्रिया खोज निकाली और उनके मस्तिष्क से बिल्लियों के प्रति भय का भाव निकाल दिया। परिणाम यह हुआ कि वे चूहे बिल्लियों की पीठ पर बेझिझक चढने-दौडने लगे। उनके प्रति भय का भाव ही विदा हो गया और वे बिल्लियों को अपने हितैषी वर्ग का मानने लगे।

डॉ० डी० एलबर्ट ने भी चूहों पर ही प्रयोग किया और उनकी एक ऐसी जाति पैदा की, जो रूपाकार में तो वैसी ही है, पर कार्य विधि एवं चिंतन विधि में सर्वथा नयी हैं। डॉ० जे० वी० ल्यूको ने यही प्रयोग तिलचट्टों के साथ किया। डॉ० राबर्ट थामसन ने यही प्रयोग 'प्लेरियन' नामक कीड़े पर किये हैं। यह आध इंच आकार का जलचर कीडा है. इसे रेडियो संकेतों के सहारे कुछ भी करने के लिए विवश करना पूरी तरह संभव हो गया है।

मस्तिष्क का बहिरंग और अंतरंग संरचना में संबंध में अब पहले की अपेक्षा बहुत अधिक जान लिया गया है। एक समय था जब मस्तिष्क के भीतर भरी वसा कोशिकाएँ, तंत्रिकाएँ ही चिंतन की आधारशिला मानी जाती रहीं और समझा जाता रहा कि जिसका मस्तिष्क जितना भारी और बड़ा होगा वह उतना ही बुद्धिमान् होगा। इस मान्यता के कारण मस्तिष्क के स्वरूप का विकास करने के लिए ऐसी औषधियों और खाद्य-पदार्थों का सरंजाम जुटाया जाता रहा, जो उस अवयव को परिपुष्ट बनाने में सहायक सिद्ध हो सके। अब वह अध्ययन समाप्त होने जा रहा है और समझा जा रहा है कि इस संस्थान के अंतरंग क्षेत्र में काम करने वाली विद्युत् शक्ति ही विचार शक्ति बनती है। इस विद्युत् को लगभग उसी स्तर की भौतिक विद्युत् द्वारा प्रभावित किया जा सकता है और चिंतन के बाहरी दबाव से उभारा या दबाया जा सकता है।

कपाल के भीतर भरी मज्जा के अंतर्गत सूक्ष्म घटक जो 'न्यूरान' कहलाते हैं, जितने अधिक सूक्ष्म व सक्षम होते हैं, बुद्धिमत्ता का विकास उसी अनुपात से होता है। ये घटक अगणित वर्ग के हैं और इन्हीं वर्गों के विकास पर मानसिक गतिविधियों का निर्धारण, निर्देशन होता है। समझदारी का संबंध इस बात से है कि ये सूक्ष्म घटक "न्यूरान" कितने हैं और परस्पर कितनी सघनता से संबद्ध हैं।

मानव मस्तिष्क में प्रायः १ खरब ४ अरब न्यूरान होते हैं। प्रत्येक न्यूरान स्वयं का काम तो करता ही है, दूसरे न्यूरानों के कार्य में भी भारी योगदान करता है।

मनुष्य की बुद्धिमत्ता पिछले हजारों वर्षों में लगातार बढ़ी है, किंतु उसमें मस्तिष्क के आकार और भार में कोई खास फर्क नहीं आया है। यदि वजन और विस्तार के अनुसार बुद्धिमत्ता होती तब तो अब तक मस्तिष्क आदमी के शरीर का बहुत बड़ा हिस्सा बन गया होता।

मस्तिष्कीय कणों का मध्यवर्ती न्यूक्लिक एसिड रासायनिक बैटरी का काम करता है तथा मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के, विभिन्न स्तरों के संवेग और संवेदनाएँ एक विद्युत संवेग के रूप में उत्पन्न करता एवं उस विद्युत् संवेग को नियंत्रित भी करता है। इस न्यूक्लिक अम्ल के समुचित उत्पादन के लिए मैग्नेशियम पेंसिलीन खोजी गई है। केन्सास विश्वविद्यालय के रसायनवेत्ताओं ने कुछ प्रोटीन एटम्स भी इसी हेतु ढूँढ़े हैं।

मस्तिष्कीय कोशिकाओं के अलावा संबंध सत्रों को जोड़ता है एक विद्युत्-प्रवाह। यह प्रवाह मनःश्चेतना की इच्छानुसार मस्तिष्क की विभिन्न परतों में तीव्र गति से कौंधता है और अरबों कोशिकाओं में बिखरी पड़ी क्षमताओं की स्मृतियों में से अमुक क्षण विशेष में मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर आवश्यक तथ्य ढूँढ लाता है। यह विद्युत्-प्रवाह जितना ही सुव्यवस्थित, द्रुतगामी एवं संवेदनशील होगा, मनुष्य उतना ही कुशल व बुद्धिमान् होगा। यह प्रवाह धीमा रुका-सा चले तो मनुष्य अस्त-व्यस्त, भुलक्कड़, मंदबुद्धि बन जायेगा।

मस्तिष्क को मेरुदंड से जोड़ने वाले रेक्टिक्युलर फार्मेशन की गतिविधियों को जितनी अधिक मात्रा में समझा और प्रभावित किया जा सकेगा उतनी ही मानवीय संवेदनाएँ नियंत्रित हो सकेंगी। बिना किसी घटना या उपलब्धि में भी इस नियंत्रण द्वारा हर्ष, शोक आदि की अनुभूतियों की तरंगें दौड़ाई, अनुभव कराई जा सकती हैं।

मात्र विद्युत् शक्ति से रेडियो ऊर्जा से ही नहीं, यह कार्य रासायनिक पदार्थों, औषधियों के सहारे भी एक सीमा तक संभव हो सकता है। नशे का प्रभाव बहुत पहले ही विदित है, अब रासायनिक पदार्थों से चिंतन को मोड़ने-मरोड़ने और इच्छित प्रयोजन की दिशा में घसीट ले जाने में भी सफल बनाया जा सकता है।

रूसी वैज्ञानिक प्रो० एनोखोव ने एमीनोजाइन नामक एक दवा तैयार की है, जो रेक्टिक्युलर फार्मेशन में स्थित पीड़ा-संवेदन केंद्र को जकड़ लेती है। इससे पीड़ित अंगों में होने वाले दर्द की, रोगी को अनुभूति नहीं होती। भले ही शरीर का कोई मांस काट डाले, तो भी दर्द न होगा। इसके लिए निद्रा लानी आवश्यक नहीं। यह एड्रेनेलीन वर्ग की औषधि कहलाती है। इसके प्रयोग से प्रसव, साइटिका, तीव्र उदरशूल, सिरदर्द आदि रहते हुए भी आदमी को कोई कष्ट न अनुभव होगा और वह अपना काम निपटाता रहेगा। जब आपरेशन आदि की जरूरत पड़े भी तो वह भी बिना किसी कष्ट के सरलता से संपन्न हो सकेगा। चीर-फाड़, प्लास्टिक सर्जरी, अंगों का प्रत्यारोपण, विकिरण आदि के क्षेत्र में जिस प्रकार प्रगति होती रही हैं, उसी तरह मनोरोगों, मनोव्यथाओं से मुक्ति की दिशा में भी प्रयास हो रहे हैं। साथ ही मन को निर्दिष्ट दिशा में बहाया जा सके, इसके प्रयोग भी प्रगति पर हैं।

नवीनतम शोधे भी यह बताती हैं कि बीमारियों के कारण मात्र विषाणुओं को, प्रकृति की प्रतिकूलता को अथवा आहार-विहार की अस्त-व्यस्तता तक सीमित मान बैठना उचित नहीं। वस्तुतः रोगों का बहुत बड़ा कारण मनुष्य की मानसिक विकृतियाँ होती हैं। मनोविकारों का आरोग्य पर जितना घातक प्रभाव पड़ता है उतना और किसी का नहीं। यदि क्रोध, चिंता, भय, निराशा, आशंका, ईर्ष्या जैसे आवेशों से मस्तिष्क भरा रहे तो स्वास्थ्य-संरक्षण की सारी सुविधाएँ रहने पर भी निरोग रह सकना संभव न होगा। इसके विपरीत-निश्चित, निर्भय, साहसी और मस्त तबियत का आदमी अपनी व्यथाओं का बिना उपचार के अनायास ही आधा निवारण कर लेता है। दीर्घजीवन के अनेकों आधार बताये जाते हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण है-जीवनेच्छा की प्रबलता। जो अपनी जिंदगी को समाप्त हुआ नहीं मानता, देर तक जीने पर गहरा विश्वास रखता है, वह कष्ट-साध्य और असाध्य रोगों से देर तक लड़ता रह सकता है और भयावह संकट को परास्त भी कर सकता है।

मनोविज्ञानी डॉ० ले का कथन है-"क्रोधी और झगड़ालू मनुष्यों के शरीर में आवेशजन्य उत्तेजन से एड्रेनेलिन पैदा होता है और वह रक्त में मिलकर पहले तो कई तरह की हानियाँ पहँचाता है, पीछे नशे सेवन करने वालों की तरह वह विष ही शरीर की एक भूख बन जाता है। उसके बिना रहा ही नहीं जाता। ऐसी दशा में उस व्यक्ति की अंत चेतना किसी से न किसी से झगड़ा करने की प्रेरणा करती है और वह मनुष्य कोई न कोई बहाना किसी से लड़ने का ढूँढ निकालता है। आये दिन बातों ही बातों में लड़ाई करने के लिए उसे आकुलता बनी रहती है। क्रोध के कारण शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक हानियों की बात तो अलग रही यह न छूटने वाली झगड़ने की आदत इतनी बड़ी हानि है, जिससे मनुष्य का स्वास्थ्य और संतुलन ही नहीं, समग्र व्यक्तित्व नष्ट होता चला जाता है।"

यही बात अन्यान्य मनोविकारों पर लागू होती है, वे इतना अधिक अहित करते हैं, जिनकी तुलना किसी भी बाहरी शत्रु के भयानक आक्रमण से नहीं की जा सकती। इसके विपरीत यदि मानसिक-संतुलन ठीक से बना रहे, तो मूर्ख मनुष्य बुद्धिमान् बन सकता है और प्रगति के अवरुद्ध मार्गों को खोल सकता है।

उपेक्षा में पड़ी हर वस्तु नष्ट होती चली जाती है। मस्तिष्क के संबंध में भी यही होता है। हम चेहरे की सुंदरता बनाये रखने के लिए जितना प्रयत्न करते हैं, यदि उससे आधा प्रयास भी मस्तिष्कीय क्षमता को समझने और उसे सुसंतुलित, समुन्नत बनाने के लिए करते रहें तो निस्संदेह हमारी अंतर्निहित क्षमताओं का सहज ही विकास हो सकता है और उस आधार पर हम अभीष्ट दिशा में आशातीत प्रगति कर सकते हैं।

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