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आचार्य श्रीराम शर्मा >> मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

मानवीय मस्तिष्क विलक्षण कंप्यूटर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4099
आईएसबीएन :000

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शरीर से भी विलक्षण मस्तिष्क...

दृष्टिकोण बदलें


भली बुरी परिस्थितियों के कारण अधिकांश लोग प्रसन्नउद्विग्न होते हैं। उचित तो यह है कि दोनों परिस्थितियों में अपने आपको स्थिर रखा जाए। इतना न हो सके तो भी परिस्थितियों के बुरे प्रभाव से तो अपने को बचाना ही चाहिए। 'विपर्यय' संसार का स्वाभाविक नियम है। दो विपरीत भावों को लेकर इसकी रचना की गई। रात-दिन, आलोक-अंधकार, धूप-छाँह, अनादि, अविच्छिन्न क्रम का दूसरा नाम ही संसार है। जिस प्रकार संसार इस प्रतिभावात्मक क्रम के अंतर्गत गतिशील उसी प्रकार इसका परिणाम भी प्रतिभावात्मक ही है। सुख और दुःख संसार के केवल मात्र दो फल हैं। विविध रूपों और प्रकारों से प्रत्येक प्राणी इन फलों का स्वाद लेता हुआ जीवनयापन कर रहा है।

यद्यपि सुख और दुःख संसार के दो फल हैं तथापि देखने में यही आता है कि अधिकतर लोग दुःखपूर्ण जीवन ही व्यतीत कर रहे हैं। हजारो में कदाचित् ही कोई एक व्यक्ति ऐसा मिले, जो वास्तविक रूप में सुखी कहा जा सके। संसार में सुख होते हुए भी मनुष्य जो उससे वंचित दीखता है, उसका प्रमुख कारण उसकी अपनी मानसिक कमजोरी है। बाह्य परिस्थितियाँ मनुष्य को उतना परेशान नहीं करतीं जितना कि वह अपनी आंतरिक दुर्बलता से दुःखी और व्यग्र होता है।

सुख-दुःख का अपना कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है। इनका उदय एक-दूसरे के अभाव में ही होता है और इन दोनों का उदय स्थल मनुष्य का मन है। जिस समय मन प्रसन्न और प्रफुल्ल होता है, संसार में चारों ओर सुख ही सुख दिखाई देता है। इसके विपरीत जब मन विषाद और निराशा से घिरा होता है तो हर दिशा में दुःख के ही दर्शन होते हैं।

अस्तु, दुःख से बचने के लिए मन को सदा प्रसन्न, प्रफुल्ल, उत्साह और आशापूर्ण बनाये रखना आवश्यक है। प्रत्येक अनुभूति का मूल केंद्र 'मन' जितना ही अधिक सबल और सशक्त होगा मनुष्य उतना ही सुखी और संतुष्ट रहेगा।

यदि अनुपात लगाकर देखा जाये तो ज्ञात होगा कि सुख की अपेक्षा मनुष्य दुःख ही अधिक भोग रहा है। इसका कारण यह नहीं है कि संसार में सुख की अपेक्षा दुःख अधिक है, बल्कि इसका कारण यह है कि मनुष्य ने अपनी दशा को दुःख के अनुकूल बना लिया है।

सांसारिक क्रम के अनुसार मनुष्य पर परेशानियों, कठिनाइयों और मुसीबतों का आना कोई अचंभे की बात नहीं है। परेशान करने वाली परिस्थितियाँ सबके सम्मुख आती हैं और सभी को उनसे निपटना पड़ता है। अब यह एक भिन्न बात है कि कोई आई हुई विपत्ति पर विजय पा लेता है और कोई उनसे दब कर कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करता रहता है।

आई हुई विपत्तियों को अपने पर हावी न होने देकर जो शांत-चित्त और स्थिर बुद्धि से उनके निराकरण का प्रयत्न करता है, वह शीघ्र ही उन्हें दूर भगा देता है, किंतु जो व्यक्ति किसी विपत्ति की संभावना अथवा उसके आने पर घबराकर अशांत और उद्विग्न हो उठता है तो उसका सारा जीवन ही कटुतापूर्ण हो जाता है।

अशांत और उद्विग्न रहने वाले व्यक्ति के भाग्य से जीवन के सारे सुख उठ जाते हैं। उसके विकास और उन्नति की सारी संभावनाएँ नष्ट हो जाती हैं। निराशा और विषाद उसे रोग की तरह घेर लेते हैं। न उसे भोजन भाता है और न नींद आती है। जरा-जरा सी बात पर कुढ़ता, चिढ़ता और खीजता है। बड़ी-बड़ी अप्रिय एवं अस्वास्थ्यकर कुंठाओं से उसका हृदय भरा रहता है।

अनेक वैज्ञानिक प्रयोगों से यह सिद्ध हो चुका है कि मानसिक अशांति मनुष्य के स्नायु संस्थान पर अनुचित बोझ डालकर उसे निर्बल बना देता है, जिससे विश्राम करने की अवस्था में भी उसे आराम नहीं मिलता। चिंतित एवं उद्विग्न चित्त व्यक्ति गहरी नींद न आने के कारण जब सोकर उठता है, तो ताजगी और स्फूर्ति के स्थान पर भारी थकान अनुभव करता है। घंटों तक उसका शरीर उसके कब्जे में नहीं आता। आलस्य, शैथिल्य एवं निर्बलता आदि उसको बुरी तरह से दबाये रहते हैं। इस प्रकार कष्टपूर्ण दिन बिताने के कारण उसका स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है और आयु घट जाती है। मानसिक अशांति को मानव-जीवन का जीता-जागता नरक ही कहना चाहिए।

जिस प्रकार शरीर में ताप की अधिकता हो जाने से 'ज्वर' नामक रोग हो जाता है, उसी प्रकार अधिक चिंतित और उद्विग्न रहने वाले व्यक्ति को अशांति और चिंता का मानसिक रोग उत्पन्न हो जाता है। मानसिक अशांति का एक ऐसा आंतरिक आंदोलन है, जिसके उठने से मनुष्य के सारे विवेक, विचार एवं ज्ञान नष्ट हो जाते हैं। उसकी बुद्धि असंतुलित हो जाती है, जिसके फलस्वरूप वह अशांति के कारणों का निराकरण कर सकने में सर्वथा असमर्थ रहता है और यदि उद्विग्न अवस्था में कोई उलटे-सीधे प्रयत्न करता भी है तो उसके परिणाम उलटे ही निकलते हैं। एक आपत्ति से छूटकर दूसरी में पड़ जाना, विषाद से छूटकर निराश हो उठना, क्रोध से छूटकर शोक और शोक से छूटकर भय के वशीभूत हो जाने का एक क्रम-सा बन जाता है। मानसिक असंतुलन एक प्रकार की विक्षिप्तता ही होती है, जिसमें फँसकर मनुष्य किसी योग्य नहीं रहता। हर समय दुःखी, चिंतित और परेशान रहना उसके जीवन क्रम का एक विशिष्ट अंग बन जाता है।

कोई कठिनाई अथवा आपत्ति अपने में उतनी भयंकर नहीं होती जितना कि उसे उसकी मानसिक अशांति जटिल और दुरूह बना देती है। आपत्तियों से छूटने का उपाय चिंता, भय, निराशा, आशंका आदि की प्रतिगामी भावना नहीं है बल्कि साहस, धैर्य और उत्साह की वृत्तियाँ ही होती हैं।

मानसिक अशांति मनुष्य के शरीर में एक भयंकर उत्तेजना में रहने वाले व्यक्ति के रक्त में विष का प्रभाव हो जाता है, जो रक्त के क्षार को नष्ट करके गठिया, यक्ष्मा आदि भयंकर रोगों में प्रकट होता है।

मानसिक अशांति एक भयंकर आपत्ति है। मनुष्य को हर संभव उपाय से इससे बचते रहने का प्रयत्न करना चाहिए। विपत्तियों से घबराने, भयभीत होने, उनसे भागने अथवा उन्हें लेकर चिंतित होने से आज तक कोई व्यक्ति छुटकारा न पा सका है। बहुधा देखा जाता है कि जो जितना अधिक चिंतित और अशांत रहता है वह और अधिक विपत्ति में फँसता है। इसके विपरीत जो शांत चित्त संतुलित मन और स्थिर बुद्धि से उनका सामना करता है, परेशानी उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं पाती। विपत्ति आने पर मनुष्य अपनी जितनी शक्ति को उद्विग्न और अशांत रहकर नष्ट कर देता है, उसका एक अंश भी यदि वह शांत चित्त रहकर कष्टों को दूर, करने में व्यय करे तो शीघ्र ही मुक्त हो सकता है।

आपत्तियों के आने पर घबराना नहीं चाहिए बल्कि धैर्यपूर्वक उनको हटाने का उपाय करना चाहिए। अधिकतर लोग कठिनाइयों को पार करने का मार्ग निकालने के बजाय अपनी सारी क्षमताओं को व्यग्र और विकल होकर नष्ट कर देते हैं। किंकर्तव्यविमूढ़ बनकर क्या करें ? 'कहाँ जायें ? 'कैसे बचें ? आदि विर्तकना करते हुए बैठे रहते हैं, जिससे आई हुई विपत्ति भी सौगुनी होकर उन्हें दबा लेती हैं।

जीवन में जो भी दुःख-सुख आए उसे धैर्यपूर्वक तटस्थ भाव से सहन करना चाहिए। क्या सुख और क्या दुःख दोनों को अपने ऊपर से ऐसे गुजर जाने देना चाहिए जैसे वे कोई राहगीर हैं, जिनसे अपना कोई संबंध नहीं।

मनुष्य की मानसिक शांति और बौद्धिक संतुलन-दो ऐसी अमोघ शक्तियाँ हैं, जिनके बल पर विकट से विकट परिस्थिति का भी सामना किया जा सकता है। विपत्तियाँ आती हैं और चली जाती हैं। परिस्थितियाँ बदल जाती हैं, किंतु जो व्यक्ति इनका प्रभाव ग्रहण कर लेता है, वह मानसिक अशांति के रूप में आजीवन बनाये रहता है और ऐसे मनुष्य के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल फल ही उत्पन्न करती हैं। इस तरह न केवल दुःख अपितु सुख की अवस्था में भी वह दुःखी रहता है।

जीवन को सुखी और संतुष्ट बनाये रखने के लिए मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक अवस्था में अपनी मानसिक शांति को भंग न होने दें, इसकी उपस्थिति में सुख और अभाव में दुःख की वृद्धि होती है।

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