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श्रंगार - प्रेम >> न हन्यते

न हन्यते

मैत्रेयी देवी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :354
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4097
आईएसबीएन :81-7119-733-3

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साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत मैत्रेयी देवी का आद्यंत रसपूर्ण उपन्यास...

Na Hanyate

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत मैत्रेयी देवी के आद्यंत रसपूर्ण इस उपन्यास में प्रेम के अमर तत्त्व ने समय की अबाध गति को न केवल रोक दिया है,वरन् उसे अतीत की ओर मोड़ दिया है-बयालीस वर्ष पूर्व नवयौवन के निश्चल निष्पाप प्रेम के सहज और अबोध दिनों की ओर। निस्तरंग, शस्य श्यामल सुन्दर आज के जीवन पर उस स्मृति से तपते सहरा की एक विचित्र दारुण अतृप्ति का बवंडर एकाएक छा गया है।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयम् पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।


आत्मा जन्म-रहित, शाश्वत व पुरातन है,
शरीर का नाश होने पर भी यह नहीं मरता।


न हन्यते : प्रथम पर्व


1 सितम्बर 1972 ।
पार्वती व गौतमी, आज मेरे जन्म-दिन के समारोह पर तुम आयी थीं। तुम्हीं लोगों ने ही यह समारोह किया था, किन्तु तुम लोगों को पता नहीं था कि तभी, ठीक तभी-जब इस कमरे में गाना हो रहा था, गप-शप चल रही थी, और मैं हँस रही थी। उस वक्त मैं यहाँ से जा भी रही थी। समय का प्रवाह मेरे मन में उछल रहा था, उसने मुझे छुआ था और मैं चली जा रही थी, चली जा रही थी भविष्य की ओर नहीं, अतीत की ओर।
अभी आधी रात जा चुकी है, शायद दो बजे हैं-मैं बरामदे में खड़ी हूं-यहां से पूरा आकाश नज़र नहीं आ सकता है, आधे आकाश से सप्तऋषि अनन्त प्रश्न की तरह मेरे मुँह की ओर टुकुर-टुकुर निहार रहे हैं। प्रश्न-प्रश्न-प्रश्न, आज यह प्रश्न कितने युगों को पार कर फिर क्यों मेरे मन में आया ? क्यों मेरे जीवन में एक ऐसी घटना घटी जिसकी कोई ज़रूरत नहीं थी ? फिर, देख रही हूं, इसका तो आदि-अन्त भी नहीं है।

आकाश में तारे चमक रहे हैं; कितने लोगों की कितनी यन्त्रणाओं के साक्षी हैं वे। यह आकाश मेरा तो समस्त मन खींच रहा है-मैं जैसे यहां नहीं हूँ, यहाँ नहीं हूँ, किन्तु मैं तो यही हूँ। यहां से क्या कहीं जा सकती हूँ ? यही तो मेरा परिचित घर संसार है। कमरे में मेरे पति निश्चिन्त होकर सो रहे हैं। कितने निःसंशय हैं मेरे सम्बन्ध में ? मुझे वे अच्छी तरह नहीं पहचानते हैं, और कितना अधिक प्यार करते हैं, कितना विश्वास करते हैं मुझ पर ! मैं ही हूँ उनकी सब कुछ। मुझे ही केन्द्र बना कर उनकी दुनिया घूम रही है, परन्तु वे तो मेरे सब कुछ नहीं है, वे किसी तरह इसे निश्चय पूर्वक जानते हैं, तो भी इससे उन्हें कोई क्षोभ नहीं है। क्षोभ तो मुझे भी नहीं है। मेरा जीवन तो सब ओर से लबालब भरा हुआ है। संसार को जो कुछ देने को था, लगा था, वह दे सकी हूँ ! प्यार की जो महिमा है, लगा था, उसे जानती हूँ। श्रद्धा और पूजा के साथ घुल मिलकर उसके अलौकिक अर्ध्वगामी निवेदन ने मुझे अपने गुरु के प्रति कृतार्थ किया है। फिर भी कल से मेरे जीवन का आस्वाद ऐसा कैसे बदल गया ? तपते सहरा की बालू की तरह विचित्र दारुण अतृप्ति मेरी शस्यश्यामल, सुन्दर दुनिया पर छा गयी। मैं जानती हूँ उसके नीचे सब कुछ है, जैसा था ठीक वैसा ही। अभी भी उनके अवचेतन में मैं उसी तरह मौजूद हूँ-और ऊपर अपने माँ बाप की बग़ल में सोया हुआ है मेरा पोता। कल सवेरे जब व्रत उतरकर आयेगा तब उसके नरम-नरम छोटे से हाथ मुझे उसी तरह चिपटा लेंगे-मेरी दुनिया तो वैसी ही है-कोमल, सजीव, हरी-भरी। फिर भी, इसके ऊपर पिघला हुआ लावा लुढ़ककर क्यों आता है ? मेरे मुँह पर तो गरम हवा की ताप लगती है। नहीं-नहीं लावा नहीं, पिघला हुआ सोना भी तो हो सकता है-यह तो लौटा देने लायक नहीं है, इसमें तो आनन्द है, इसका तो मूल्य है। मैं जानती हूँ, यह राख नहीं हो जायेगा; क्योंकि राख को जाने पर भी जो बचेगा-यह तो वही अवशिष्ट है।

तो भी आज दो दिनों से कितना कष्ट, कितना भयानक कष्ट पा रही हूँ मैं। कैसा कष्ट ? ‘रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्’-जिस तरह मन व्याकुल होता है, जननान्तर सुहृद मन को क्या उसी तरह याद आता है-‘पर्युत्सुकी भवति यत् सुखितोऽपि जन्तु:’ ? ऐसा भी तो नहीं, यह तो किसी और जनम की बात नहीं है, यह तो बस उसदिन की बात है-केवल बयालीस वर्ष पहले की बात है। केवल बयालीस वर्ष पीछे लौट गयी हूँ मैं-मनुष्य के लिए तो यह समय की लम्बी अवधि है, परन्तु अनन्त के लिए?

 समय का तो कहीं कोई पड़ाव ठहराव नहीं है; उसका ओर भी क्या, छोर भी क्या, और पार्श्व भाग भी क्या ? उसका उदय-अस्त कहाँ है-सिर्फ मेरे सम्बन्ध में यह अनादि, अनन्त महाकाल खंडित है-सिर्फ़ मुझे प्रकट करने के लिए यह सीमाबद्ध है, किन्तु आज हठात् बयालीस वर्षों की सीमा-रेखा को उसने खड़ा कर दिया है-मैं महाकाल में समा गयी हूँ-मेरा भूत भविष्य कुछ नहीं है-मैं इस 1972 ई. में क़दम रखकर भी स्थिर ध्रुव खड़ी हूँ। 1930 ई. में।
घटना घटी कैसे, घटी किस तारीख़ को ?
1972 ई. के 1 सितम्बर के सवेरे की बात है। एक दिन पहले मेरे बचपन के मित्र गोपाल ने मुझे फोन किया और कहा, ‘‘अमृता, तुम्हें यूक्लिड की याद है ?’’
‘‘हाँ, है तो कुछ-कुछ। पर क्यों?’’

‘‘उसके देश से एक सज्जन आये हुए हैं, उसके परिचित हैं ये। यूक्लिड तुम्हारे पिता का छात्र रह चुका है। पर वे तो अब रहे नहीं, इसीलिए तुम्हीं से ये सज्जन मिलना चाहते हैं।’’
एक हल्की खुशी की बिजली एक क्षण के लिए मेरे तन-मन के भीतर दौड़ गयी।
गोपाल टेलीफ़ोन पर धमकी दे रहा है :
‘‘चुप क्यों हो ? उसे ले आऊँ ?’’
‘‘नहीं, नहीं, मैं ही जाऊँगी। उसका पता दे दो।’’
उस दिन सवेरे से ही वर्षा हा रही थी। मैंने किसी तरह एक टैक्सी की तलाश की और गन्तव्य स्थल पर जा पहुँची। सोच रही हूँ, भला क्यों आयी ? चिट्ठी लिखने पर जो उत्तर नहीं देता उसकी ख़बर जानकर मुझे क्या मिलेगा ? किन्तु कुतूहल तो छोड़ना ही नहीं चाहता। सोच रही हूँ, मैं कुतूहली हूँ। एक परिचित व्यक्ति की ख़बर जानने की इच्छा करना क्या बहुत ही अनुचित है ?
सचाई की ख़ातिर कहना ही पड़ेगा कि साधारण लड़कियों की तरह मैंने ज़रा बनाव-सिंगार भी किया है...एक अच्छी सी साड़ी पहनी है, तो भी आईने के सामने मुझे बड़ा बुरा लग रहा है। चेहरा तो बहुत ही ख़राब हो गया है; महाकाल की थपेड़ों की चोट में आने से कुछ भी नहीं बचता-वह कुछ तोड़-फोड़कर जीर्ण बना डालता है, किन्तु क्या इतना ही है ? काल क्या सिर्फ़ पुराना ही कर देता है, नया नहीं बनाता ? बेशक, चेहरा तो मेरा पुराना हो गया है, पर मन ? जो मन आज मिर्चा यूक्लिड के बारे में जानना चाहता है वह कुतूहली और उत्सुक मन तो नया है, और यह भी तो काल की ही सृष्टि है ! एक दिन मैंने लिखा था :

जो काल पीछे था
अनवगुंठित मुख पर तारा-खचित उत्तरीय में-
वह काल सामने लौट आता है-
किसने उसे भूषण दिये, दिये अलंकार
क्षण स्थायी ऐश्वर्य की वसन्त-बहार ?
स्पर्श-हीन स्रोत में, उसके रूपहीन आवेग में अतुल किसने खिलाये फूल ?
शून्य के समुद्र से प्रतिफल धरती काया-
वेला-हीन तट पर लहरों की मृत्युमयी माया।

जब लिखा था, तब पता नहीं था कि अतीत सामने कैसे आता है-कैसे पुराना नया हो उठता है ? या शायद नया-पुराना मानकर सोचना ही एक भ्रम मात्र है !
गाड़ी में बैठकर मैं हँस रही हूँ-मुझे तो बड़ा मजा आ रहा है ! हालत तो देखो, मुझे इतना सजने सँवरने की आख़िर ज़रूरत क्या थी ? चेहरे को लेकर इतना पछताने का भला कारण ही क्या है ? आख़िर, मिर्चा यूक्लिड से तो मेरी मुलाक़ात हो नहीं रही है, मुलाक़ात होगी उसके देश के एक अपरिचित आदमी से।
दरवाज़ा खुला हुआ ही था। वह आदमी मेज़ पर झुककर कुछ लिख रहा था। उसका रंग ताँबई है, यूरोपियन जैसा सफेद नहीं, क़द बहुत बड़ा नहीं है, और चेहरे पर बुद्धिमत्ता की छाप है। मेरी आहट पाकर वह उठ खड़ा हुआ। बोला, ‘‘मैं हूँ सेरगेई सेबास्टिन।’’ उसके बाद हाथ बढ़ाकर मेरे दाहिने हाथ को पकड़ा और मेरी उल्टी हथेली को चूमा-यह उन लोगों के देश की रीति है। यह अति परिचित ढंग जैसे बहुत भूले युग की पद-चाप की भाँति लगा।
‘‘तो तुम्हीं अमृता हो ?’’

मैं जानती हूँ, यह विदेशी व्यक्ति जिसके बारे में कह रहा है, मेरी ओर ताक कर वह जिसे देख रहा है, वह आज की, 1972 ई. की अमृता नहीं है। जो विस्मय उसके इस छोटे से प्रश्न में ध्वनित हुआ है और आज की इस अमृता को देखकर नहीं जागेगा। आज तो उसके चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल सफ़ेद हो गये हैं, देह सौष्ठवहीन हो चुकी है। वह देख रहा है स्थिर दृष्टि से मुझको पार करके उसकी दृष्टि बहुत दूर चली गयी है, वह देख रहा है-1930 ई. की अमृता को।
‘‘तुम मुझे पहचानते हो ?’’
‘‘तुम्हें तो हमारे देश के सभी लोग पहचानते हैं, तुम तो हमारे देश की परियों की कहानी की नायिका हो।’’
‘‘क्यों, मिर्चा की किताब से क्या ?’’
‘‘हाँ, उसकी किताब के कारण। उसने तुमसे ब्याह करना चाहा था, मगर तुम्हारे पिता ने नहीं होने दिया, क्योंकि तुम लोग हिन्दू थे और वह ईसाई।’’
‘‘बेकार की बात है।’’
‘‘क्या बेकार की बात है ?’’

‘‘यही कि हम लोग हिन्दू थे और वह ईसाई, इसलिए हम लोगों की शादी नहीं हुई। ऐसी कोई बात नहीं थी। जो कुछ था, वह था उसका दम्भ। आज बयालीस वर्ष हो गये, बीच-बीच में लोगों से उसकी किताब की चर्चा सुनी है लेकिन कभी किसी से पूछा नहीं कि वह किताब है कैसी-उपन्यास है, कविता है या निबन्ध है ? पर आज बताओ तो बन्धु कि उस किताब में आखिर है क्या ?’’ प्रश्न करके मैं हँस रही हूँ। क्या कमाल है, आज जितना आसानी से पूछ सकी तो इतने दिनों तक क्यों नहीं पूछा ? मगर वह तो कोई दूसरी अमृता थी। चालीस वर्ष पहले के आदमी से आख़िर मेरा क्या सम्पर्क ? उसका कर्माकर्म क्या मुझे अब स्पर्श करता है ? बारह वर्ष के बाद तो हत्या के अपराध में दण्ड भी नहीं दिया जाता ! फिर मुझे ही इतनी शर्म क्यों आती है ? शर्म आती है इसलिए कि मैं मोरॅलिस्ट हूँ। न्याय-अन्याय और उचित अनुचित को लेकर मैंने बहुत कुछ सोच रखा है; निर्मम होकर मैं विचार किया करती हूँ। मैं सम्मान के ऊँचे आसन पर बैठी हुई हूँ; खुद अपने आपको मैंने कभी नहीं बख़्शा है। जब भी मिर्चा की बातें याद आयी हैं तभी मैंने अपने आपको झिड़का है। आख़िर क्यों ऐसी घटना घटी ? न घटी होती तो अच्छा था- तभी लज्जा ने, एक विषय को अवचेतन की गहराई में निर्वासित कर दिया। किन्तु में आज कितनी आसानी से इससे पूछ डाला उसकी किताब के बारे में ! मन में कहीं कोई संकोच तक नहीं हुआ।
सेरगेई बोला, ‘‘वह किताब तो एक आत्मकथापरक उपन्यास है।’’

यह आदमी अच्छी खासी अँग्रेज़ी नहीं बोल पाता है, टूटी-फूटी अँग्रेज़ी में ही रुक-रुककर बताने लगा, उस किताब के बारे में।
‘‘जानती हो, इस किताब से भारतवर्ष के बारे में कलकत्ते के बारे में जानकर हमारे देश के लोग स्तब्ध रह गये थे।’’ उसकी आवाज़ सुन रही हूँ और परिचित बहुत-सारे नाम याद आ रहे हैं; कलेजे में हल्का-हल्का सा धक्का लग रहा है, जैसे झिलमिलियाँ एक-एक करके खुल रही हों। कमरे के अन्दर अंधकार छाया हुआ है, किन्तु मालूम है कि कहाँ क्या है। वहाँ घुसने को तो जी चाह रहा है, पर मारे डर के दम अटकने लगा है।
‘‘सेरगेई, सच-सच बताओ तो, उस किताब में मेरे बारे में क्या लिखा हुआ है ?’’
वह मन्द-मन्द हँस रहा है, बाद में अपने कॉन्टिनेंटल उच्चारण में ‘त’ के आधिक्य के साथ उसने कहा, ‘‘फस्ते शी लब्ध ए स्त्री’’ (पहले वह एक पेड़ से प्यार करती थी।)।
मैं चौंक उठी। कलेजे के भीतर झक-से स्मृति का एक दीप जल उठा, ‘‘ठीक, ठीक, ठीक ही है, पर और बताओ तो सेरगेई, उसमें ऐसा भी कुछ क्या जिसके चलते मैं लज्जित होऊँ ?’’

सेरगेई ने सिर नीचा किया और बोला, ‘‘उसने लिखा है कि रात की तुम उसके कमरे में जाया करती थीं। अवश्य, इसमें लज्जित होने की कोई बात है, ऐसा तो मुझे नहीं लगता।’’
मैं तो स्तम्भित ! ‘‘क्या मुसीबत है ! क्या अन्याय है ! विश्वास करो सेरगेई, यह सच नहीं है, बिलकुल सच नहीं है।’’
वह मुझे हिम्मत बँधा रहा था, ‘‘यह तो समझ में आता है, इसीलिए तो तुम्हारा वर्णन नहीं कर पाया है-लिखा है, तुम अंधकार में मूर्ति की भाँति खड़ी हो-उसे तो कोई दूसरा रास्ता नहीं था, उसे तो तब बड़ा कष्ट हो रहा था...।’’
निस्सहायता का बोध मुझे तो हो रहा है, मानो पानी में गिर पड़ी हूँ। अप्रिय सत्य को तो ग्रहण करने के लिए मन को प्रस्तुत कर सकती हूं, किन्तु अप्रिय मिथ्या का आघात तो असहनीय है।
इस विदेशी सज्जन ने सिगरेट को राखदान में बुझाया और बोला, ‘‘क्षमा करना, मैंने तुम्हें सब कुछ बता दिया; आखिर सच्ची बात ही बतानी पड़ी।’’

अच्छा तो बता सकते हो सेरगेई, आखिर मेरा नाम लेकर उसने किताब क्यों लिखी है ?’’
‘‘तुम्हारे नाम का बन्धन वह टाल नहीं सका, तब जो उसे बड़ा कष्ट, बड़ा ही कष्ट हो रहा था-तुम वह किताब पढ़ोगी तो आँसुओं के सागर में डूब जाओगी।’’
‘‘तो इसी के लिए वह क्या एक ऐसा झूठा कलंक थोप देगा ?’’
‘‘यह तो उसको कल्पना है-तब अपनी यंत्रणाओं के हाथों छुटकारा पाने के लिए उसे वही एक रास्ता मिला। पर तुम्हें तो वह अभी भी नहीं भूला है।’ मुझे अचम्भा हो रहा है, कहूँ तो क्या कहूँ-‘‘विचित्र युक्ति है तुम्हारी सेरगेई, यंत्रणाओं से मुक्ति पाने के लिए मिथ्या का आश्रय लेना कहाँ तक उचित है ! और उतना ही उसे यदि मुझसे प्यार था तो मेरे पिता की एक डाँट खाकर ही मुझे छोड़कर क्यों चला गया ? ऐसा कभी होता है ? सुना है ऐसा कभी ?’’
‘‘नहीं होता ? नहीं सुना ? ऐसे ही उदाहरणों से तो इतिहास भरा पड़ा है। तुम तब सोलह साल की एक छोटी-सी लड़की थीं और वह तेईस साल का एक तरुण हाय, तुम्हारे पिता ने तुम्हारा जीवन बरबाद  कर दिया !’’

मेरे शरीर को बिजली छू गयी। यह आदमी क्या बकता है ! ‘‘सेरगेई, तुम मेरे जीवन के बारे में जानते ही क्या हो ? किसकी मजाल है मेरे जीवन को बरबाद करने की ! मेरा जीवन समृद्ध है, लड़के लड़कियों और नाती-पोतों को लेकर मेरा एक आदर्श परिवार है। कितने आदमियों का प्यार मिला है, मुझे सम्मान मिला है। और सर्वोपरि हैं मेरे गुरु जिनके बारे में तुम्हारे मित्र को इतनी ईर्ष्या थी ! उनके अद्भुत स्नेह से अभिषिक्त मेरे मन ने एक ऐसे अतीन्द्रिय प्यार को खोज पाया है जो शब्दों और मन के परे की वस्तु है। उस एक तेईस बरस के लड़के के लिए मेरे इस अट्ठावन बरस के जीवन में कोई स्थान है क्या ?’’
मैं ख़ूब उत्तेजित होकर बातें कर रही हूँ, मेरे सिर की शिराएँ-उप शिराएँ जल-सी रही हैं-मुझे भय भी हो रहा है, मेरी तो काफ़ी अधिक उम्र है, कहीं स्ट्रोक न हो जाये।

सेरगेई अपने विपन्न-से मुख पर परेशानी-भरी हँसी लिये ताक रहा है।
‘‘....नहीं-नहीं, जीवन बरबाद नहीं हुआ, बल्कि तब जीवन कुछ और तरह का होता।’’
‘‘हाँ, यह कह सकते हो। तब यह जीवन कुछ और तरह का होता, बस इतना ही।’’
‘‘तुम्हारी कविताओं की पहली किताब मेरे पास है। उसे जब देश छोड़कर चला जाना पड़ा तब मैं उसकी लाइब्रेरी की सारी किताबें ले आया था, उनमें तुम्हारी किताब भी थी।’’
‘‘अच्छा बताओ तो वह कैसी है देखने में ?’’
‘‘उसमें नीले कपड़े की मज़बूत जिल्द लगी हुई है सुनहले रंग का एक बड़े से फूल का नक्शा है उसके बीचोंबीच।’’
मैं हँस रही हूँ। ‘‘क्या आश्चर्य है ! ठीक ही तो है। यह तो युगों पहले की बात है। तुमने कैसे जाना कि वह मेरी लिखी हुई किताब है ?’
‘‘आखिरी पन्नों पर तुम्हारे हाथ की तिरछी सी लिखावट है जो कि एक पृष्ठ से दूसरे पृष्ठ तक चली गयी है। तुमने लिखा है-मिर्चा, मिर्चा, मिर्चा मैंने अपनी माँ से बतला दिया है कि तुमने केवल मेरे माथे का चुम्बन लिया था।’’1

सेरगेई के मुँह की बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि तभी मेरे तलवों में सिहरन सी हुई। मैं एक कम ऊँची चौकी पर बैठी हुई थी और मेरे पाँव फर्श को छू रहे थे, मुझे लगा मेरे पाँव अब ज़मीन पर नहीं हैं-इस कमरे की छत नहीं है। मैं शून्य में, महाशून्य में गिरी जा रही हूँ-हालाँकि मैं जानती हूँ, मैं सेरगेई की ओर निहार रही हूँ, और वह मन्द-मन्द हँस रहा है, मैं भी हँस रही हूँ...। किन्तु क्या आश्चर्यजनक है यह शारीरिक अनुभूति मैं द्विधा-विभक्त हूँ ! मैं यहाँ हूँ, हालाँकि यहाँ नहीं हूँ। मैं अपने-आप को देख पा रही हूं, मैं भवानीपुर के मकान के दो-तल्ले के बरामदे में हूँ-बरामदे का फ़र्श सफ़ेद और काले चौकोर पत्थरों से जड़ा हुआ है, ठीक जैसे शतरंज की बिसात बिछी हुई हो। उस चिकने पत्थरों के फ़र्श पर मैं औंधी पड़ी हूँ और मेरे हाथ में वह किताब है। यह तो रही मैं, यह तो रही मैं-मैं अपने आप को देख पा रही हूँ, मेरे कलेजे में हठात् जलप्रपात की भाँति फिर से उस दिन वाली रुलाई उमड़ आयी है। क्या आश्चर्य है लेकिन मैं सेरगेई के साथ कुछ-न-कुछ बातें करती जा रही हूँ और वह उनका साफ़-साफ़ उत्तर देता जा रहा है। मेरे हाथ तो कुर्सी के हत्थों पर हैं, किन्तु मैं पत्थरों के उस फ़र्श की चिकनाहट का स्पर्श महसूस कर रही हूँ : मेरे सामने मुन्ना खड़ा है। मैं उसकी गन्दे नाखूनों वाली पैरों
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1.‘Mircea, Mircea, Mircea, I have told my mother that you have only kissed me on my forehead…’’

की उँगलियाँ देख पा रही हूँ मैली धोती का एक छोर फ़र्श को छू रहा है। यह तो एक सुबह है ! शायद 20 सितम्बर की सुबह। 18 सितम्बर को मिर्चा चला गया था। मुन्ना मुझसे कह रहा है, मैं साफ़ सुन पा रही हूँ-‘रू, झटपट लिख दो भाई’-उसके बाद ज़रा मुँह बनाता हुआ वह फुस-फुसाकर कह रहा है-‘‘चारों ओर स्पाई घूम रहे हैं।’ पर यह तो वह मज़ाक में कह रहा है, वह खूब मज़ाक कर सकता है, हँसा सकता है।

मुन्ना हम लोगों का कोई नहीं है, किन्तु भाई जैसा है। वे लोग बड़े गरीब हैं, उसकी माँ को मेरी दादी ने पाल पोसकर बड़ा किया है। उसके बाद उसका ब्याह करा दिया। मुन्ने की माँ को इसलिए हम लोग बुआ कहा करते हैं। बुआ के कुल अठारह सन्तान हैं, इसीलिए उन लोगों की ग़रीबी कभी दूर नहीं हुई। मुन्ना और उसकी बहन शान्ति हम लोगों के आश्रित हैं। यद्यपि उनके साथ हमारा बड़ा हेल-मेल है, हम लोग एक दूसरे के मित्र हैं, खेल के साथी हैं, फिर भी उनकी कोई मर्यादा नहीं है। आश्रितों का जो हाल हुआ करता है, वही हाल उनका था-यही कि दया तो उन्हें मिलती है, पर मर्यादा नहीं मिलती। यहाँ तक कि मिर्चा भी मुन्ने पर खुश नहीं है। ख़ैर, सो तो कुछ दूसरे कारण से-कारण यह है कि मुन्ना मुझे हँसाया करता है। वह मामूली सी बात को कुछ इस ढंग से कहता है, कुछ ऐसा मुँह बनाता है कि हँसते-हँसते हम लोग लोटपोट हो जाते हैं। मिर्चा तो आधी बातें समझ ही नहीं पाता है, इसीलिए वह गम्भीर हो जाता है। एक दिन लाइब्रेरी के दरवाज़े पर मैंने एक नया सा पर्दा टाँगा था। तरह-तरह के पर्दों से कमरे सजाने का मुझे शौक है। मुन्ना पर्दा हटाकर लाइब्रेरी में घुस रहा था, कुछ इस तरह से मुद्रा बनाता हुआ कि जैसे पत्थर हटा रहा हो, और मानो घुस ही नहीं पा रहा हो ! उसका हाव-भाव देखकर मैं हँसी के मारे जितनी अस्त-व्यस्त होती जाती थी, मिर्चा का मुँह उतना ही लटकता जाता था।


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