नाटक-एकाँकी >> युगान्त युगान्तमहेश एलकुंचवार
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‘युगान्त’ एक नाट्यत्रयी है जिसमें एक ही परिवार की तीन पीढ़ियों की जीवन शैली, विचार-धारा और द्वन्द्व समाहित हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘युगान्त’ एक नाट्यत्रयी है जिसमें एक ही परिवार की तीन पीढ़ियों की जीवन
शैली, विचार-धारा और द्वन्द्व समाहित हैं। इसके तीन अंक हैं-‘बाड़े की
घेराबन्दी’, ‘तालाब के पास खण्डहर’ और ‘युगान्त’। कथासूत्र और आश्रय में
एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भारतीय नाट्यविधा में ऐसी शैली का प्रयोग कम
ही देखने को मिलता है।
परम्परा पोषित संयुक्त परिवार की ग्रामीण व्यवस्था अर्थप्रधान, भोगवादी एवं व्यक्तिमुखी शहरी संस्कृति के आक्रमण से घटित होने वाले आवंछित परिणामों के साथ ही यह कृति भविष्य की दारुण परिणतियों का निदर्शन करती हैं। इस नाटक में धरण गाँव के देशपांडे परिवार की तीन पीढ़ियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सहजता, समन्वयवादिता, एकरूपता के साथ सामूहिक निष्क्रियता, भीरूता, मिथ्या प्रदर्शनप्रियता, धार्मिक रूढ़िवादिता, चारित्रिक भ्रष्टता जैसी प्रवृत्तियों को प्रभावी ढंग से उद्घाटित किया गया है। वर्तमान ग्रामीण और शहरी जीवन के विभिन्न स्तरों पर जारी संघर्षों का भी यथार्थ एवं मार्मिक चित्रण इस नाट्यकृति में देखा जा सकता है। इसमें गाँव में पड़ने वाले अकाल और मृत्यु को माध्यम बनाकर जीवन को समझने की एक कोशिश भी है।
मूल मराठी में लिखी गई एवं सरस्वती सम्मान आदि से अलंकृत यह नाट्यकृति अपने विशिष्ट वस्तुत्त्व और अभिनव शिल्प कौशल से आधुनिक नाट्यकला के क्षितिज का अर्थपूर्ण विस्तार करती है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी के नाट्यप्रेमियों को यह कृति एक नया आभास देगी।
बाड़े की घेराबन्दी
परम्परा पोषित संयुक्त परिवार की ग्रामीण व्यवस्था अर्थप्रधान, भोगवादी एवं व्यक्तिमुखी शहरी संस्कृति के आक्रमण से घटित होने वाले आवंछित परिणामों के साथ ही यह कृति भविष्य की दारुण परिणतियों का निदर्शन करती हैं। इस नाटक में धरण गाँव के देशपांडे परिवार की तीन पीढ़ियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन की सहजता, समन्वयवादिता, एकरूपता के साथ सामूहिक निष्क्रियता, भीरूता, मिथ्या प्रदर्शनप्रियता, धार्मिक रूढ़िवादिता, चारित्रिक भ्रष्टता जैसी प्रवृत्तियों को प्रभावी ढंग से उद्घाटित किया गया है। वर्तमान ग्रामीण और शहरी जीवन के विभिन्न स्तरों पर जारी संघर्षों का भी यथार्थ एवं मार्मिक चित्रण इस नाट्यकृति में देखा जा सकता है। इसमें गाँव में पड़ने वाले अकाल और मृत्यु को माध्यम बनाकर जीवन को समझने की एक कोशिश भी है।
मूल मराठी में लिखी गई एवं सरस्वती सम्मान आदि से अलंकृत यह नाट्यकृति अपने विशिष्ट वस्तुत्त्व और अभिनव शिल्प कौशल से आधुनिक नाट्यकला के क्षितिज का अर्थपूर्ण विस्तार करती है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि हिन्दी के नाट्यप्रेमियों को यह कृति एक नया आभास देगी।
बाड़े की घेराबन्दी
प्रथम अंक
प्रथम दृश्य
[विदर्भ क्षेत्र के एक छोटे से गाँव धरण के देशपाण्डे परिवार की खस्ताहाल
खानदानी हवेली। सामने की ओर बरामदा है। बरामदे की बायीं ओर
‘अ’ कमरा शयनकक्ष है। बरामदे की दाहिनी ओर ‘ब’
कक्ष है। बरामदे के पीछे डेढ़ फीट की ऊँचाई पर बीच का कमरा है। उसके पीछे
अनेक कमरों के होने का आभास मिलता है। बरामदे में अलग-अलग किस्म की
टूटी-फूटी कुर्सियाँ रखी हैं। फर्श पर पुराना जाजिम बिछा है। एक झूला भी
लटक रहा है। फर्श पर जीर्ण-शीर्ण मसनद पड़े हैं। ‘अ’ कमरे में
एक नक्काशीदार शीशम का पलंग और एक भव्य दर्पण है। बीच के कमरे में लोहे के
पुराने बक्से भरे पड़े हैं। रंगमंच के सामने अर्द्धगोलाकार एप्रन। यह आँगन
है।
रात साढ़े दस बजे का समय। बीच वाले कमरे में एक लालटेन जल रही है। उसी के पास माँ घुटनों पर ठोढ़ी टिकाये विचारमग्न बैठी है। उस शान्ति को चीरती हुई दादी की आवाज।]
दादी : व्यंकटेश...अरे व्यंकटेश ! कहाँ चला गया। कितना बज गया रे ?
(किसी पुरुष के लयवद्ध खुर्राटे की आवाज)
दादी : यह वक्त मरा तो काटे नहीं कटता।
(रंजू हाथ में लालटेन और पुस्तक लेकर आती है। आते हुए दादी की अनदेखी करती है। बीच वाले घर में आकर आईने में अपना चेहरा देखती है। लट को माथे पर लटकाये वह देखने की कोशिश करती है कि वह कैसी लग रही है। प्रभा अपना बिस्तर लिये हुए आती है। रंजू पर निगाह डालते हुए माँ के समीप बिछाती है। खुर्राटों की आवाज़ चालू रहती है।)
प्रभा : (माँ से) माँ, तुम कब तक राह देखती रहोगी ? अब लेट जाओ !
माँ : कितना बजा ?
रंजू : (एकदम जोर से पढ़ने लगती है।) डज़ हेमामालिनी गेट मिडनाइट कॉल्स? हू वाज़ प्रवेलिंग अराउण्ड हर स्पीन्स बँगलो ?
प्रभा : रंजू !
माँ : चन्दू से कहो कि बस स्टैण्ड पर जाकर देखे।
प्रभा : माँ आखिरी बस आकर चली गयी होगी। तू उठ। अब तो कल ही आएँगे।
(माँ उठकर अन्दर जाने लगती है।)
प्रभा : अँधेरे में कहाँ चल पड़ी ?
माँ : पिछवाड़े का दरवाजा मैं खुला ही छोड़ आयी थी।
प्रभा : माँ ! तुम ठहरो ! मैं बन्द कर दूँगी।
(माँ पुन: बैठ जाती है।)
बाहर सीटी बजाने की आवाज़ आती है, रंजू चौकन्नी हो जाती है। वह उठने का प्रयत्न करती है किन्तु उस समय चन्दू आ जाता है। रंजू तुरन्त बैठकर पढ़ने लगती है।
रंजू : इज़ द विटल स्टैटिस्टिक ऑफ़ झीनिया बेबी चेंजिंग ?
चन्दू : ऐ लड़की, यह तू क्या पढ़ रही है ?
रंजू : फिल्मफेयर।
चन्दू : तेरी पढ़ाई ठीक चल रही है ?
रंजू : मास्टर जी कहते हैं, अंग्रेजी खूब पढ़ा करो, तुम्हारी अंग्रेजी सुधर जाएगी।
चन्दू : बहुत होशियार है तुम्हारा मास्टर।
(खुर्राटों की आवाज आती है।)
दादी : इधर कोई है नहीं क्या रे ? व्यंकटेश मुझ अन्धी को फेंक ही दिया क्या ?
(चन्दू दादी के पास जाकर बैठता
है, उसके शरीर पर हाथ रखता है।)
दादी : बप्पा, तू आ गया ?
(दादी को समझा-बुझाकर चन्दू भीतर जाता है। दादी बिस्तर पर लेट जाती है। प्रभा माँ के पास बैठकर पुस्तक पढ़ती है।)
प्रभा : (रंजू से) मन में चुपचाप पढ़ रंजू।
(खामोशी। खुर्राटों की धीमी लय। एकाएक सीटी बजने की आवाज। रंजू बैठकर दरवाजे की ओर जाने के लिए तत्पर होती है।)
प्रभा : (उसने भी सीटी की आवाज़ सुन ली है) दरवाजे के पास क्या है ?
रंजू : कुछ नहीं।
प्रभा : तू भीतर आ जा।
रंजू : (भुनभुनाती हुई) जब देखो तब मुझी पर सभी गुस्सा होते हैं।
भाभी : (बीचवाले कमरे से लालटेन लेकर अपने कमरे की ओर जाते हुए रंजू से) मरी सभी से गाली खाती है। ठीक से पढ़ा कर। नासपीटी।
(भाभी बेडरूप में जाती है। लालटेन रखती है। खुर्राटे भरते भास्कर को देखती है। फिर पैरों में फटी बिवाइयों में मरहम लगाया। रंजू बेडरूम में आती है।)
रंजू : मुझे नासपीटी-नासपीटी क्यों कहती हैं ?
भाभी : तू नासपीटी नहीं है क्या ? (समझकर) अच्छी तरह पढ़ाकर बिट्टी।
रंजू : माँ ! आज मैं तिजोरी वाले कमरे में सो जाऊँ ?
भाभी : नहीं, काका-काकी आ गये तो उसी कमरे में सोएँगे। आज तू दादी के पास सो जा।
रंजू : मैं नहीं सोती। रात-भर चिल्लाकर सबको पुकारती रहती हैं।
भाभी : फिर पराग भैया के कमरे में जाकर सो जा।
रंजू : मैं अकेली पुरुषों के कमरे में नहीं सोऊँगी।
(भास्कर करवट बदलता है। सिरहाने रखा पीतल का डिब्बा नीचे गिर जाता है। भास्कर चौंककर उठता है। डिब्बा गिरने की आवाज़ माँ और प्रभा ने भी सुनी। माँ चौकन्नी हुईं।)
भाभी : (भास्कर से) क्या गिरा जी।
भास्कर : कुछ नहीं ! सो जाइए।
भाभी : किस जमाने का पुराना डिब्बा निकाला यह ?
भास्कर : यह तात्याजी का पुराना पान का डिब्बा है। सोचा, इसका उपयोग करें। कोठे पर बेकार पड़ा था।
रंजू : पान का डिब्बा और तकिये के नीचे ! अजीब बात है।
भास्कर : तू बीच-बीच में चबर-चबर न किया कर । जाके सो जा।
(रंजू चली जाती है।)
भाभी : सूतक में पलंग पर क्यों सो रहे हो ? सारी निवार धोनी पड़ेगी।
भास्कर : तुम्हारे लाड़ले देवर और देवरानी तो अभी तक आए नहीं।
भाभी : सुना है कि बस रद्द कर दी गयी है। पता नहीं बेचारे कहाँ फँसे होंगे।
भास्कर : (व्यंग्य से) पैदल आ रहे होंगे। बड़ा प्रेम रखते हैं न !
(भास्कर बीच वाले कमरे से उठकर हाथ में डिब्बा लिये मन्दिर की ओर निकलता है। भाभी आश्चर्य में पड़ती है। भास्कर माँ और प्रभा के बीच से होता हुआ अन्दर आ जाता है। माँ उसे एकटक देखती है। भास्कर तेजी से अन्दर जाकर एक क्षण में ही पुन: लौटता है। उसके हाथ में अब डिब्बा नहीं है। माँ उसे ध्यान से देखती है। वह कुछ सकपका जाता है।)
भास्कर : माँ ! तुम सो जाओ। आज अब सुधीर आनेवाला नहीं।
(माँ चकित। भास्कर बेडरूप में जाता है। भाभी कुतूहल से उसे देखती है।)
भास्कर : (अकारण अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए) देव घर का दरवाजा किसने खुला छोड़ दिया था ? चूहों ने भीतर ऊधम मचा रखा है।
भाभी : सूतक में तुम देवघर क्यों गये ? माँ क्या कहेंगी ? यही सब तो...।
(भास्कर लेट जाता है। भाभी उठकर बीचवाले कमरे के पिछले दरवाजे पर जाकर पुकारती है।)
भाभी : चन्दू भैया, रात में लड़कियों का काम अब रहने दो। दादी को पहले बिस्तर पर सुला दो (फिर बीचवाले कमरे में आकर माँ से) आपको कुछ और चाहिए ?
(खामोशी। भाभी बेडरूम में जाती है। माँ उठकर भीतर जाने लगती है।)
प्रभा : अब कहाँ चल पड़ी ?
माँ : उसने रसोई घर की खिड़की बन्द नहीं की होगी।
प्रभा : तू कब किसलिए इन बातों में उलझी रहती है ?
(माँ तब तक जा चुकी है।)
प्रभा : ठहरो : मैं आती हूँ। अँधेरे में अकेले मत जाओ।
(प्रभा लालटेन लेकर जाती है। भाभी लालटेन धीमी करके लेट जाती है। कुछ देर खामोशी ! बाहर टार्च का प्रकाश फैलता है। उतावली का स्वर। किसी स्त्री का स्वर, ‘हाय मैं....’ पुरुष स्वर ‘सँभल के....’ फिर सुधीर और अंजली डरे हुए प्रवेश करते हैं। उनके हाथों में बैग है। रुककर सुधीर दादी की ओर देखता है। अंजली का पल्लू किसी चीज में फँसकर फट गया है। उसे वह सँभालने का प्रयत्न कर रही है।)
सुधीर : लगता है सब लोग सो गये। (रुककर) तू अन्दर चल।
अंजली : मैं पहले अन्दर नहीं जाऊँगी।
सुधीर : दादी को हमारे आने की खबर नहीं है।
अंजली : तुम पहले भीतर जाकर माँ से मिलो। आज पाँच दिन बीत चुके हैं।
सुधीर : हिम्मत नहीं पड़ रही है। तू चल।
अंजली : एक बार कह दिया न। ऐसे मौकों पर तुम्हें ही आगे होना चाहिए।
(खामोशी। दोनों बीचवाले कमरे में आते हैं। भीतर से भास्कर आता है। कुछ क्षणों तक कोई कुछ नहीं बोलता।)
भास्कर : तार कब मिला ?
सुधीर : परसों। तुरन्त ही निकला।
रात साढ़े दस बजे का समय। बीच वाले कमरे में एक लालटेन जल रही है। उसी के पास माँ घुटनों पर ठोढ़ी टिकाये विचारमग्न बैठी है। उस शान्ति को चीरती हुई दादी की आवाज।]
दादी : व्यंकटेश...अरे व्यंकटेश ! कहाँ चला गया। कितना बज गया रे ?
(किसी पुरुष के लयवद्ध खुर्राटे की आवाज)
दादी : यह वक्त मरा तो काटे नहीं कटता।
(रंजू हाथ में लालटेन और पुस्तक लेकर आती है। आते हुए दादी की अनदेखी करती है। बीच वाले घर में आकर आईने में अपना चेहरा देखती है। लट को माथे पर लटकाये वह देखने की कोशिश करती है कि वह कैसी लग रही है। प्रभा अपना बिस्तर लिये हुए आती है। रंजू पर निगाह डालते हुए माँ के समीप बिछाती है। खुर्राटों की आवाज़ चालू रहती है।)
प्रभा : (माँ से) माँ, तुम कब तक राह देखती रहोगी ? अब लेट जाओ !
माँ : कितना बजा ?
रंजू : (एकदम जोर से पढ़ने लगती है।) डज़ हेमामालिनी गेट मिडनाइट कॉल्स? हू वाज़ प्रवेलिंग अराउण्ड हर स्पीन्स बँगलो ?
प्रभा : रंजू !
माँ : चन्दू से कहो कि बस स्टैण्ड पर जाकर देखे।
प्रभा : माँ आखिरी बस आकर चली गयी होगी। तू उठ। अब तो कल ही आएँगे।
(माँ उठकर अन्दर जाने लगती है।)
प्रभा : अँधेरे में कहाँ चल पड़ी ?
माँ : पिछवाड़े का दरवाजा मैं खुला ही छोड़ आयी थी।
प्रभा : माँ ! तुम ठहरो ! मैं बन्द कर दूँगी।
(माँ पुन: बैठ जाती है।)
बाहर सीटी बजाने की आवाज़ आती है, रंजू चौकन्नी हो जाती है। वह उठने का प्रयत्न करती है किन्तु उस समय चन्दू आ जाता है। रंजू तुरन्त बैठकर पढ़ने लगती है।
रंजू : इज़ द विटल स्टैटिस्टिक ऑफ़ झीनिया बेबी चेंजिंग ?
चन्दू : ऐ लड़की, यह तू क्या पढ़ रही है ?
रंजू : फिल्मफेयर।
चन्दू : तेरी पढ़ाई ठीक चल रही है ?
रंजू : मास्टर जी कहते हैं, अंग्रेजी खूब पढ़ा करो, तुम्हारी अंग्रेजी सुधर जाएगी।
चन्दू : बहुत होशियार है तुम्हारा मास्टर।
(खुर्राटों की आवाज आती है।)
दादी : इधर कोई है नहीं क्या रे ? व्यंकटेश मुझ अन्धी को फेंक ही दिया क्या ?
(चन्दू दादी के पास जाकर बैठता
है, उसके शरीर पर हाथ रखता है।)
दादी : बप्पा, तू आ गया ?
(दादी को समझा-बुझाकर चन्दू भीतर जाता है। दादी बिस्तर पर लेट जाती है। प्रभा माँ के पास बैठकर पुस्तक पढ़ती है।)
प्रभा : (रंजू से) मन में चुपचाप पढ़ रंजू।
(खामोशी। खुर्राटों की धीमी लय। एकाएक सीटी बजने की आवाज। रंजू बैठकर दरवाजे की ओर जाने के लिए तत्पर होती है।)
प्रभा : (उसने भी सीटी की आवाज़ सुन ली है) दरवाजे के पास क्या है ?
रंजू : कुछ नहीं।
प्रभा : तू भीतर आ जा।
रंजू : (भुनभुनाती हुई) जब देखो तब मुझी पर सभी गुस्सा होते हैं।
भाभी : (बीचवाले कमरे से लालटेन लेकर अपने कमरे की ओर जाते हुए रंजू से) मरी सभी से गाली खाती है। ठीक से पढ़ा कर। नासपीटी।
(भाभी बेडरूप में जाती है। लालटेन रखती है। खुर्राटे भरते भास्कर को देखती है। फिर पैरों में फटी बिवाइयों में मरहम लगाया। रंजू बेडरूम में आती है।)
रंजू : मुझे नासपीटी-नासपीटी क्यों कहती हैं ?
भाभी : तू नासपीटी नहीं है क्या ? (समझकर) अच्छी तरह पढ़ाकर बिट्टी।
रंजू : माँ ! आज मैं तिजोरी वाले कमरे में सो जाऊँ ?
भाभी : नहीं, काका-काकी आ गये तो उसी कमरे में सोएँगे। आज तू दादी के पास सो जा।
रंजू : मैं नहीं सोती। रात-भर चिल्लाकर सबको पुकारती रहती हैं।
भाभी : फिर पराग भैया के कमरे में जाकर सो जा।
रंजू : मैं अकेली पुरुषों के कमरे में नहीं सोऊँगी।
(भास्कर करवट बदलता है। सिरहाने रखा पीतल का डिब्बा नीचे गिर जाता है। भास्कर चौंककर उठता है। डिब्बा गिरने की आवाज़ माँ और प्रभा ने भी सुनी। माँ चौकन्नी हुईं।)
भाभी : (भास्कर से) क्या गिरा जी।
भास्कर : कुछ नहीं ! सो जाइए।
भाभी : किस जमाने का पुराना डिब्बा निकाला यह ?
भास्कर : यह तात्याजी का पुराना पान का डिब्बा है। सोचा, इसका उपयोग करें। कोठे पर बेकार पड़ा था।
रंजू : पान का डिब्बा और तकिये के नीचे ! अजीब बात है।
भास्कर : तू बीच-बीच में चबर-चबर न किया कर । जाके सो जा।
(रंजू चली जाती है।)
भाभी : सूतक में पलंग पर क्यों सो रहे हो ? सारी निवार धोनी पड़ेगी।
भास्कर : तुम्हारे लाड़ले देवर और देवरानी तो अभी तक आए नहीं।
भाभी : सुना है कि बस रद्द कर दी गयी है। पता नहीं बेचारे कहाँ फँसे होंगे।
भास्कर : (व्यंग्य से) पैदल आ रहे होंगे। बड़ा प्रेम रखते हैं न !
(भास्कर बीच वाले कमरे से उठकर हाथ में डिब्बा लिये मन्दिर की ओर निकलता है। भाभी आश्चर्य में पड़ती है। भास्कर माँ और प्रभा के बीच से होता हुआ अन्दर आ जाता है। माँ उसे एकटक देखती है। भास्कर तेजी से अन्दर जाकर एक क्षण में ही पुन: लौटता है। उसके हाथ में अब डिब्बा नहीं है। माँ उसे ध्यान से देखती है। वह कुछ सकपका जाता है।)
भास्कर : माँ ! तुम सो जाओ। आज अब सुधीर आनेवाला नहीं।
(माँ चकित। भास्कर बेडरूप में जाता है। भाभी कुतूहल से उसे देखती है।)
भास्कर : (अकारण अपना पक्ष स्पष्ट करते हुए) देव घर का दरवाजा किसने खुला छोड़ दिया था ? चूहों ने भीतर ऊधम मचा रखा है।
भाभी : सूतक में तुम देवघर क्यों गये ? माँ क्या कहेंगी ? यही सब तो...।
(भास्कर लेट जाता है। भाभी उठकर बीचवाले कमरे के पिछले दरवाजे पर जाकर पुकारती है।)
भाभी : चन्दू भैया, रात में लड़कियों का काम अब रहने दो। दादी को पहले बिस्तर पर सुला दो (फिर बीचवाले कमरे में आकर माँ से) आपको कुछ और चाहिए ?
(खामोशी। भाभी बेडरूम में जाती है। माँ उठकर भीतर जाने लगती है।)
प्रभा : अब कहाँ चल पड़ी ?
माँ : उसने रसोई घर की खिड़की बन्द नहीं की होगी।
प्रभा : तू कब किसलिए इन बातों में उलझी रहती है ?
(माँ तब तक जा चुकी है।)
प्रभा : ठहरो : मैं आती हूँ। अँधेरे में अकेले मत जाओ।
(प्रभा लालटेन लेकर जाती है। भाभी लालटेन धीमी करके लेट जाती है। कुछ देर खामोशी ! बाहर टार्च का प्रकाश फैलता है। उतावली का स्वर। किसी स्त्री का स्वर, ‘हाय मैं....’ पुरुष स्वर ‘सँभल के....’ फिर सुधीर और अंजली डरे हुए प्रवेश करते हैं। उनके हाथों में बैग है। रुककर सुधीर दादी की ओर देखता है। अंजली का पल्लू किसी चीज में फँसकर फट गया है। उसे वह सँभालने का प्रयत्न कर रही है।)
सुधीर : लगता है सब लोग सो गये। (रुककर) तू अन्दर चल।
अंजली : मैं पहले अन्दर नहीं जाऊँगी।
सुधीर : दादी को हमारे आने की खबर नहीं है।
अंजली : तुम पहले भीतर जाकर माँ से मिलो। आज पाँच दिन बीत चुके हैं।
सुधीर : हिम्मत नहीं पड़ रही है। तू चल।
अंजली : एक बार कह दिया न। ऐसे मौकों पर तुम्हें ही आगे होना चाहिए।
(खामोशी। दोनों बीचवाले कमरे में आते हैं। भीतर से भास्कर आता है। कुछ क्षणों तक कोई कुछ नहीं बोलता।)
भास्कर : तार कब मिला ?
सुधीर : परसों। तुरन्त ही निकला।
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