कहानी संग्रह >> पैंतीस दरवाजे पैंतीस दरवाजेघनश्याम रंजन
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पंजाबी कहानियों का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पैंतीस दरवाज़ों का तिलिस्म
पंजाबी साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक को आधुनिक
कहानी का जन्मकाल माना जाता है। इस दशक में सन्तसिंह सेखों, कर्तार सिंह
दुग्गल और कुलवंत सिंह विर्क ने अपनी रचनाशीलता से कहानी को नया मोड़ दिया
था। दैनिक जीवन की घटनाओं और परिवेश को इन कहानीकारों ने विशेषकर अपनी
कहानियों का विषय बनाया। कुलवंत सिंह विर्क के बारे में तो कहा जाता है
कि वह ऐसी-ऐसी छोटी घटनाओं या बातों को अपनी कहानी के मूल में ले जाते
थे कि उन्हें पढ़कर लोग चौंक उठते थे, कि अरे इस विषय पर भी कहानी लिखी जा सकती है। वह ग्रामीण परिवेश को भी गहराई से समझते थे। और ऐसे ही सन्त सिंह सेखों भी ग्रामीण जनजीवन के कहानीकार थे,
पर उनकी निगाह आर्थिक विषमताओं की ओर अधिक जाती थी। इन कहानीकारों से प्रेरणा लेते हुए आज बीसियों कहानीकार महत्त्वपूर्ण रचनाएँ कर रहे हैं। और उन्होंने परिवेश के साथ ही मनोवैज्ञानिक तथा पारिवारिक सम्बन्धों को भी विषय बनाया है। इस संग्रह की कहानियों का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि पंजाबी कहानियों का लगभग सभी शैलियों और सभी पीढ़ियों के रचनाकारों की कहानियाँ एक जगह प्रस्तुत की जाएँ।
कुलवंत सिंह विर्क से लेकर नयी पीढ़ी को जिंदर तक को इसमें सम्मिलित किया गया है। मनमोहन बावा हमें बहुत प्राचीन काल में ले जाते हैं, मगर उनकी घटनाओं या मिथकों को अपनी कल्पना से वार्तालाप के द्वारा पुनर्जीवित करते हैं। वहीं दलबीर चेतन धर्म की कट्टरता पर चोट करते हुए मानवता की वकालत करते हैं।
जिंदर नव धनाढ्यों की मानसिकता और शोषण का पर्दाफाश करने से नहीं चूकते। सेखों एक लड़की की विवशता को सामने रखते हुए सामाजिक विद्रूपता को नंगा करते हैं, वहीं रामस्वरूप अणखी सामाजिक पारिवारिक रिश्तों की पवित्रता को हरनेक और मिन्दरों के माध्यम से बताते हैं। धर्म परिवर्तन होने के उपरान्त भी आदमी का खून अपने धर्म को कैसे प्रप्त कर लेता है, अजमेर सिद्धू ने इसी विषय को उठाया है।
एक बात और, विदेश में रहते हुए वहाँ बसे भारतीयों की सामाजिक और मानसिक स्थितियाँ भी कहानी का विषय बन रही हैं। इन परिस्थितियों, स्थितियों में रहते हुए उनके सामने जहाँ परिश्रम करने की बाध्यता है, वहीं वह पारिवारिक रिश्तों को दरकिनार करते हैं, और एक-दूसरे को इस्तेमाल करने की जुगत में रहते हैं। और पछताते भी हैं।
वीना वर्मा, हरजीत अटवाल, अमन पाल सारा, जनरैल सिंह आदि इन्हीं विषयों पर कहानियाँ रच रहे हैं। सभी अलग-अलग दरवाजों से पाठकों को अपने तिलिस्म में ले जाती हैं। जहाँ पहुँचकर वह भौचक हो जाता है। इन कहानियों से पंजाबी संस्कृति में आते हुए बदलाव और उनकी विचारधारा से भी दो-चार होने का अवसर मिलता है पंजाबी कहानी कहाँ से कहाँ जा रही है, इसका भी मूल्यांकन कुछ हद तक इस संग्रह के माध्यम से सम्भव होगा।
भाई रामस्वरूप अणखी का विशेष रूप से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने ‘पैंतीस दरवाज़े’ संग्रह को प्रकाशित करवाने में अमूल्य सहयोग और एवं मार्ग दर्शन किया। और उन सभी कहानीकारों का भी आभारी हूँ जिन्होंने अनुवाद करने और संग्रह में सम्मिलित करने की अनुमति देकर इसे आपके हाथों में पहुँचाना सुगम करवाया।
कि वह ऐसी-ऐसी छोटी घटनाओं या बातों को अपनी कहानी के मूल में ले जाते
थे कि उन्हें पढ़कर लोग चौंक उठते थे, कि अरे इस विषय पर भी कहानी लिखी जा सकती है। वह ग्रामीण परिवेश को भी गहराई से समझते थे। और ऐसे ही सन्त सिंह सेखों भी ग्रामीण जनजीवन के कहानीकार थे,
पर उनकी निगाह आर्थिक विषमताओं की ओर अधिक जाती थी। इन कहानीकारों से प्रेरणा लेते हुए आज बीसियों कहानीकार महत्त्वपूर्ण रचनाएँ कर रहे हैं। और उन्होंने परिवेश के साथ ही मनोवैज्ञानिक तथा पारिवारिक सम्बन्धों को भी विषय बनाया है। इस संग्रह की कहानियों का चयन करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि पंजाबी कहानियों का लगभग सभी शैलियों और सभी पीढ़ियों के रचनाकारों की कहानियाँ एक जगह प्रस्तुत की जाएँ।
कुलवंत सिंह विर्क से लेकर नयी पीढ़ी को जिंदर तक को इसमें सम्मिलित किया गया है। मनमोहन बावा हमें बहुत प्राचीन काल में ले जाते हैं, मगर उनकी घटनाओं या मिथकों को अपनी कल्पना से वार्तालाप के द्वारा पुनर्जीवित करते हैं। वहीं दलबीर चेतन धर्म की कट्टरता पर चोट करते हुए मानवता की वकालत करते हैं।
जिंदर नव धनाढ्यों की मानसिकता और शोषण का पर्दाफाश करने से नहीं चूकते। सेखों एक लड़की की विवशता को सामने रखते हुए सामाजिक विद्रूपता को नंगा करते हैं, वहीं रामस्वरूप अणखी सामाजिक पारिवारिक रिश्तों की पवित्रता को हरनेक और मिन्दरों के माध्यम से बताते हैं। धर्म परिवर्तन होने के उपरान्त भी आदमी का खून अपने धर्म को कैसे प्रप्त कर लेता है, अजमेर सिद्धू ने इसी विषय को उठाया है।
एक बात और, विदेश में रहते हुए वहाँ बसे भारतीयों की सामाजिक और मानसिक स्थितियाँ भी कहानी का विषय बन रही हैं। इन परिस्थितियों, स्थितियों में रहते हुए उनके सामने जहाँ परिश्रम करने की बाध्यता है, वहीं वह पारिवारिक रिश्तों को दरकिनार करते हैं, और एक-दूसरे को इस्तेमाल करने की जुगत में रहते हैं। और पछताते भी हैं।
वीना वर्मा, हरजीत अटवाल, अमन पाल सारा, जनरैल सिंह आदि इन्हीं विषयों पर कहानियाँ रच रहे हैं। सभी अलग-अलग दरवाजों से पाठकों को अपने तिलिस्म में ले जाती हैं। जहाँ पहुँचकर वह भौचक हो जाता है। इन कहानियों से पंजाबी संस्कृति में आते हुए बदलाव और उनकी विचारधारा से भी दो-चार होने का अवसर मिलता है पंजाबी कहानी कहाँ से कहाँ जा रही है, इसका भी मूल्यांकन कुछ हद तक इस संग्रह के माध्यम से सम्भव होगा।
भाई रामस्वरूप अणखी का विशेष रूप से आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने ‘पैंतीस दरवाज़े’ संग्रह को प्रकाशित करवाने में अमूल्य सहयोग और एवं मार्ग दर्शन किया। और उन सभी कहानीकारों का भी आभारी हूँ जिन्होंने अनुवाद करने और संग्रह में सम्मिलित करने की अनुमति देकर इसे आपके हाथों में पहुँचाना सुगम करवाया।
-घनश्याम रंजन
नमस्कार
कुलवंत सिंह विर्क
जब दूसरा महायुद्ध शुरू हुआ, तब हम विद्यालयों में पढ़ रहे या पढ़ चुके
बहुत से लड़के फौज में भर्ती हो गए। जिसको भी दोनों आँखों से दीखता था और
दसवीं पास था, वह लेफ्टीनेंट बनने के लिए प्रार्थना पत्र दे सकता था।
प्रार्थना पत्र देने के बाद लड़के अंग्रेजी बोलना सीखते, क्योंकि भर्ती के
लिए साक्षात्कार के समय बातचीत अंग्रेजी में ही होती। साथ ही बनना-ठनना भी
सीखते, ताकि वह बड़े-बड़े खानदानों से ही इस दुनिया में आए हुए दिखें।
स्तालिन और हिटलर, जो मोची आदि किस्म के आदमी थे, के संसार में प्रकट होने के पीछे भी अभी यह विचार आम था कि अंग्रेज केवल खाते-पीते हिन्दुस्तानियों को ही अफसरी के योग्य समझते हैं। इस आपत्ति के समय अंग्रेजों को इस तरह से वर्गीकरण करने की फुर्सत नहीं थी ! खासकर जब हिन्दुस्तान में भर्ती के समय उनका काम ठीक चल रहा था। जिन हजारों हिन्दुस्तानियों को उन्होंने लेफ्टीनेंट बनाया उनमें मैं भी था।
यह कोई ऊँची बात नहीं लगती थी, क्योंकि दाहिने-बाएँ सभी लड़के लेफ्टीनेंट बन रहे थे। गाँव-गाँव से गए लेफ्टीनेंट बन गये थे। प्रशिक्षण वाली जगह (जिसे ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल कहते थे) जाकर तो ऐसा लगा जैसे सारी फौज लेफ्टीनेंटों की होगी, सिपाही कोई नहीं होंगे।
पर प्रशिक्षण के बाद यूनिटों में जाकर पता लगा कि हिन्दुस्तानी फौज में भी हिन्दुस्तानी अफसर आटे में नमक के बराबर ही हैं। आम यूनिटों में तीस-पैंतीस अफसरों में दो-तीन ही होते और शेष अंग्रेज ! बड़ा अफसर तो कोई हिन्दुस्तानी था ही नहीं। यद्यपि हमारा वेतन, अधिकार और अफसरी मे कोई फर्क नहीं था, खाना-पीना और सोना-बैठना भी साथ था पर फिर भी न अंग्रेज हमें अपने बराबर का समझते थे
और न हम अपने को उनके बराबर का। किसी गोरे सिपाही का नम्रतापूर्वक नमस्कार करना या किसी अंग्रेज नर्स का प्यार से बातें करना हमारे लिए स्वर्ग जैसी बात थी। इस असमानता की हालत के लिए न वे पूरे कसूरवार थे न हम ही। डेढ़ सौ साल से हालात ही ऐसे थे। इस कुदरती फर्क का उस समय संकेत यह था कि हम तो अपनी फौजी नौकरी को परमात्मा और सरकार की एक बड़ी बख्शीश समझते थे
और इसका किसी तरह पक्का हो जाना हमारा एक सुन्दर सपना था, पर अंग्रेज जबरी-भर्ती में आये हुए थे। और इस प्रतीक्षा में रहते थे कि कब लड़ाई खत्म हो और कब फौजी नौकरी से छुट्टी मिले। वैसे उनमें से कई बहुत अच्छे आदमी थे, पर हमारी और उनकी कोई दिली निकटी नहीं बनती। हम साथ-साथ शराब पीते, औरतों की, अपने देश के रिवाजों की, धर्मो की और बोली की झूठी-सच्ची बातें करते और हँसते-हँसते आकर सो जाते। कभी किसी अंग्रेज ने यह भी नहीं कहा था कि अगर तू छुट्टी लेकर जा रहा है तो मैं भी तेरे साथ छुट्टी लेकर गाँव चलता हूँ।
हाँ, एक अंग्रेज अफसर था जो दूसरों की अपेक्षा हममें ज्यादा रमता था। उसका नाम मिलिंग्टन था।
मिलिंग्टन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ते-पढ़ते आया था। धर्म और दर्शन का विद्यार्थी था। बहुत सीधा-सा दिखता था। उसकी आँखों में सदा प्यार जैसा, एक स्नेह रहता था। जिसके कारण उसके पास बैठने को बड़ा जी करता था। अंग्रेज अफसरों में वह बहुत अच्छा नहीं गिना जाता था।
मैस में बहुत बोलता नहीं था। परेड में बहुत चुस्ती का प्रभाव नहीं देता था। पर उसे घटिया अफसर भी नहीं गिना जाता था। वास्तव में जो अंग्रेज अफसर सुबह तड़के उठकर दाढ़ी बनाकर परेड पर आ जाए और उल्टा-सीधा डग मार ले, उसे घटिया नहीं गिना जाता था। पर और अंग्रेज अफसर इस तरह चलते-फिरते थे जैसे सौ-सौ मील तक उनकी तरह का कोई आदमी न हो।
ड्यूटी से फारिग होकर वह हिन्दुस्तानी कपड़े पहन लेता, पठानों वाली सलवार, कमीज और सिर पर कल्लेदार पगड़ी। अपने बैरे से हिन्दुस्तानी में बातचीत करता, उसको अंग्रेजी सिखाने की जगह स्वयं उससे हिन्दुस्तानी सीखता रहता। भारतीय सभ्यता पर उसके पास कई किताबें थीं। मैं उसको कभी कोई नई बात नहीं बता पाता। उसको पहले से ही पता होता था। मेरे मुँह से बात सुनने की जगह वह मेरे अन्तर्मन की टोह लेता रहता।
हम बगैर बात किए भी कितनी देर तक बैठे रहते। छुट्टी वाले दिन शिकार खेलते-खेलते हम गाँवों में जा धँसते और वह मेरी मार्फत लोगों से बातें करता रहता और उनके घर-घाट देखता फिरता। आम कपड़े पहनकर हम शाहजहाँ के बाजारों में घूमते-फिरते। लखनऊ की तवायफों से गाने सुनते और उनका नृत्य देखते रहते।
जिस तरह फौजी अफसरों की कोठियाँ उसकी दुनिया थी और मैं केवल एक आमंत्रित या अनामंत्रित मेहमान था, इसी तरह यह बाजार मेरी दुनिया थे।
पर यहाँ वह मुझसे अधिक स्वाद ले सकता था। उसको हिन्दुस्तानी नृत्य और संगीत का अच्छा खासा ज्ञान हो गया था। मैं तो ऐलान हुए बिना यह भी नहीं बता सकता था कि ठुमरी गायी जा रही है या दादरा। बरेली में हम प्राईवेट तवायफों के घर जाते, उनके बिस्तरों पर बैठकर वह एक बच्चे की तरह उनसे बातें करता रहता। वहाँ से उठकर वह उनके घरों के बाहर बैठा या टहलता रहता, यह देखता रहता कि कौन लोग आते हैं। क्या बातें करते हैं ?
ऐसा लगता था कि जैसे अंग्रेजी राज्य के लिए देश को बचाने के निमित्त आए, उसको इस देश से स्नेह हो गया हो। अपनी नौकरी बजाने की जगह वह अधिकतर भारत की आत्मा की टोह में था। एक बार मोटर में अलमोड़ा जाते हुए रास्ते में बहुत सुन्दर पहाड़ी दृश्य आये। वह मुग्ध देखता रहा और फिर उसने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया।
‘‘तू किसको नमस्कार कर रहा है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘पता नहीं किसको, पर मेरा जी किया था।’’ उसने कहा।
उसी यूनिट में से ही मुझे फौज से छुट्टी मिल गयी।
जब मैं नौकरी छोड़कर आने लगा तब मिलिंग्टन से भी विदा लेनी थी।
‘‘यहाँ से छुट्टी पाकर मैं अपने देश चला जाऊँगा।’’ उसने कहा। ‘‘अगर तू कभी उधर आया तो चिट्ठी लिखना। मैं तुझसे मिलूँगा। मेरा स्थायी पता ग्रेण्डल बैंक, लन्दन है। मेरा खाता उनके ही यहाँ है। मैं जहाँ भी होऊँ उनको मेरा पता रहता है। हर पत्र वह मुझे वहीं भेज देते हैं। यह बहुत सीधा और आसान पता है। अब तुझे पता न देने का मेरे पास कोई बहाना नहीं हो सकता।’’
‘‘मुझे अगले कुछ सालों तक इंग्लैंड जा सकने की कोई आशा नहीं है।’’
मैंने कहा, ‘‘उसके बाद शायद मेरा जी जाने को न करे। इसलिए इस पते का कोई इस्तेमाल मैं नहीं कर सकूँगा। इस मुलाकात को तू आखिरी मुलाकात समझ।’’
‘‘नहीं-नहीं। क्या पता आखिरी हो। दुनिया बहुत छोटी हो गई है। शायद मैं ही कभी इधर आ जाऊँ। तू मुझे अपना स्थायी पता लिख दे।’’
एक कागज पर मैंने अपना नाम, गाँव, डाकखाना और जिला लिखकर उसके हाथ में पकड़ा दिया।
यह पक्का करने के लिए कि वह सारे अक्षर पढ़ सकता है, उसने शुरू से पढ़कर देखा।
‘‘यह तेरा स्थायी पता है ?’’ उसने पूछा। वह मेरे गाँव को इंग्लैंड के एक बड़े बैंक से कम स्थायी समझता था।
‘‘हाँ, अनगिनत सदियों से मेरे पुरखों का यही पता रहा है, तेरी उम्र तो अभी भुगता ही जाएगा।’’ मैंने गर्व से कहा।
उसने मेरी बात सुनी और खड़े-खड़े ही सिर झुका दिया।
‘‘तू ने किसे नमस्कार किया है ?’’
‘‘पता नहीं, मेरा जी किया था।’’
‘‘नहीं, तुझे पता है। तूने मुझे नमस्कार किया है।’’
‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं प्राणियों को इस तरह नमस्कार नहीं करता। तेरे जाते समय मैं तुझे बड़े अफसर वाला सैल्यूट मारूँगा।’’
मैं उससे कुछ समय पहले भर्ती हुआ था।
इसके कुछ समय बाद अंग्रेजी राज्य खत्म हो गया। हिन्दुस्तान आजाद हो गया। विदेशों में तरह-तरह की बातें हुईं। किसी ने कहा डूब जाएगा, टुकड़े हो कर खत्म हो जाएगा। किसी और ने कहा, अभी आजाद हुआ ही नहीं है, भुलावा है, छल है। कई कहते बात इसके बीच-बीच की है। नया जन्मा भारत धीर-धीरे घिसटने लगा है।
यह आशा बँधने लगी है कि किसी दिन उठ कर यह खड़ा हो जाएगा और चलकर या दौड़कर दूसरे बड़े देशों के साथ जा मिलेगा। कैसे काम हो रहा है ? इतनी करोड़ों की आबादी के साथ कैसे बीत रही है ? यह सब देखने के लिए कई लोग विदेशों से आते कुछ यह देखने आते कि दुनिया के दो बड़े धड़ों के बीच यह किसके साथ मिलेगा, जैसे जाटों के दो धड़े किसी जनानी से बयान करवाने के लिए किरपान खींचे कचहरी से बाहर फिरते रहते हैं।
कुछ वर्ष और बीत गए। एक दिन मेरी माँ ने कहा कि एक बाहरी जैसे टिकट वाली चिट्ठी आई है। मैंने चिट्ठी देखी। उसपर अंग्रेजी की मल्लिका की मोहर थी। टिकट पर इनके पिता की सूरत को मेरी माँ बाहरी नहीं मानती थी, पर इसकी सूरत इसे बाहरी लगी। चलो कुछ तो फर्क है न। मैंने सोचा। चिट्ठी खोली।
मिलिंग्टन की थी। वह भारत आ रहा था। वहीं बैठे-बैठे उसने दिल्ली के होटल में अपना कमरा ले लिया था और मुझे उस होटल में मिलने के लिए लिखा था।
मैं दिल्ली गया। मिलिंग्टन को पहचानना मुश्किल नहीं था। उसके पहले की तरह ही छोटी-छोटी मूछें थीं और वह पहले की तरह ही भूरी थीं।
‘‘चल, तेरे पंजाब चलें।’’ उसने कहा।
‘‘क्यों, दिल्ली पसन्द नहीं आई ?’’ मैंने पूछा।
‘‘पसन्द, न पसन्द का सवाल नहीं है। यह मेरी पकड़ में नहीं आ रही है। कोई दाना हाथ में नहीं आता, जिसको देखकर इस दाल का पता लगे। में नये भारत की नब्ज देखना चाहता हूँ।’’ उसने अखबारी अंदाज में कहा।
‘‘पंजाब में दो ही जगहें बहुत नई गिनी जाती हैं, एक भाखड़ा नांगल और दूसरी चण्डीगढ़।’’ मैं टूरिस्ट गाइड की तरह बोला।
‘‘इन दो विषय में मैंने सुना है, पर मैं यह देखने यहाँ नहीं आया हूँ। यह तो उस तरह भी बन सकते थे।’’
‘‘फिर मैं तुझे क्या दिखाऊँ ?’’
‘‘बस तू मुझे घुमाए फिर शायद मेरे पल्ले कुछ पड़ जाए।’
मैं उसे पंजाब ले आया और हम जगह-जगह घूमने लगे।
एक दिन जरनैली सड़क पर चलते चले जा रहे थे। चौरस्ते के बीच बने चबूतरे पर वह खड़ी थी। यदि किसी ने कभी कोई शहजादी चौराहे पर खड़ी देखी हो तो वह इस तरह की ही लगती होगी। अगर शहजादी इतनी सुन्दर और लम्बी नहीं होगी तो और कौन होगी ? वह बड़े फब्ते कपड़े पहने हुए थी। शोख भी कहे जा सकते थे।
हर गुजरते हुए का ध्यान खींच रही थी, पर उसका अपना ध्यान इस ओर नहीं था। वह बड़े गौर से सड़क पर आते किसी को खोज रही थी। ऐसा लगता था जैसे आंखों की राह ही सांस ले रही हो। जब हम उसकी नजरों में आये तो मुझे पहचानकर वह मुस्कराई। मेरा विचार है कि मिलिंग्टन भी मेरी तरह उसे देख रहा था। यद्यपि हमने उसके बारे में कोई बात नहीं की थी।
‘‘तू इसको जानता है ?’’ मिलिंग्टन ने एकदम कान खड़े करके पूछा।
‘‘हाँ, यह तो दीखता ही है।’’
‘‘कौन है ?’’
‘‘डॉक्टर है। इसने मेरे बच्चे का इलाज किया था। तभी से परिचित है।’’
‘‘मैं इसके साथ बातें करना चाहता हूँ।’’
‘‘मैं भी। क्योंकि जब मैंने पहले देखा था उससे अब उसके चेहरे पर बड़ी रौनक है, या शोखी है।’’
उसके पास जाकर हम दोनों भी चबूतरे पर चढ़ गए। आस-पास ट्रैफिक घूम रहा था। लोग आ जा रहे थे। मिलिंग्टन से परिचय कराने के बाद मैंने पूछा, ‘‘यहाँ क्या कर रही हो ?’’
‘‘कुछ विशेष तो नहीं। किसी की बाट जोह रही थी, पर अब वह आता नहीं लगता है।’’
‘‘चलो फिर कॉफी पिएँ।’’
‘‘चलो।’’
हम एक होटल में चले गए।
‘‘सुनाओ, तुम्हारी डॉक्टरी कैसी चल रही है ?’’ मैंने मिलिंग्टन की ओर से उसे अंग्रेजी में खरोचना शुरू किया।
‘‘डॉक्टरी ? ठीक है। पर एक बात हुई है। शहर छोड़कर इस गाँव में आ धसी हूँ।’’ फिर उसने स्पष्ट किया, ‘‘मैं अब बस अपने ही इलाके में फिरती रहती हूँ, जहाँ की मैं बेटी हूँ।’’
‘‘क्यों, शहर को क्यों खराब समझने लगी हो ?’’
वहाँ कुछ मशीनी जैसा काम लगता था। डॉक्टर बस रोग हटाने की एक मशीन है। पैसे दो, रोग हटवा लो। फर्क समझते हो न ? वैसे बारीक-सा है। ऐसा लगता था जैसे किसी का मेरे साथ वास्ता नहीं पड़ता, मेरे काम के साथ पड़ता है।’’
‘‘पर बीमार को तो डॉक्टर की जरूरत है, तेरी नहीं।’’
‘‘मान लिया। पर वहाँ बात और ही है।’’ फिर उसने कुछ नम्रता से और मखौल के साथ मिलिंग्टन से कहा, ‘‘मैं एक परकटी उड़ा लूँ ?’’
मिलिंग्टन स्नेह से उसकी ओर देखकर मुस्कुराया। जैसे कह रहा हो, ‘‘जो कुछ कहोगी तौलकर ही कहोगी। परकटी नहीं उड़ायगी।’’
‘‘कभी-कभी तो मुझे इस तरह लगता है जैसे मैं अपने गाँव में अपने तरीके से फिर कर वहाँ की औरतों में जान डाल रही होऊँ। जैसे उनके लिए जीने की राह खोल रही होऊँ।’’
मुझे उसकी हँसी धुँधली जैसी लगी। वह अपनी हस्ती से ही औरतों को आजादी दिलाने का अनुभव कर रही थी। यह गलतफहमी हटाने के लिए मैंने कहा, ‘‘पता नहीं तेरे वाले पल्ले का पड़ा हूँ कि नहीं, पर यदि हीर अपना किस्सा लिखवाकर और जन-जन के मुँह से गवाकर अन्य औरतों का रास्ता न खोल सकी तो तू घूम फिर कर ही कैसे खोल देगी।’’
‘‘नहीं, वह बात और है।’’ उसने झट से कहा, ‘‘आदर मरी हुई हीर का ही हुआ है।
जीवित हीर का कहीं कोई आदर नहीं था। मरने के बाद आदर मिलने के कारण किसी जीवित स्त्री का कोई आदर नहीं हो सकता। मेरे पद के कारण और मेरे कार्य के लाभ होने के कारण मेरे जीवित का आदर है, और स्त्रियाँ इसमें जीवित रहते हुए ही भागीदार हो सकती हैं।’’
‘‘पर सभी तो डॉक्टर नहीं हैं। वे किस तरह हिस्सेदार हो सकती हैं ?’’ मिलिंग्टन ने दलील का एक सिरा अपने हाथ में पकड़ लिया।
‘‘तुम अंग्रेजों के लिए यह आश्चर्यजनक बात होगी। पर यहाँ सही है। जब एक स्त्री जहाँ चाहे फिरती है, जिस तरह के चाहे कपड़े पहनती है, जो कुछ चाहे करती है और फिर भी समादरित होती है तो यह बात लोगों के मन में बैठ जाती है। उनकी एक लड़की उच्च शिक्षा प्राप्त है, जिसको लेकर वह उनकी भलाई के लिए गाँव-गाँव डोल रही है, तो फिर उससे बढ़कर आदरणीय कौन है ? मेरी सूरत इलाके के हर व्यक्ति और हर स्त्री के सामने है।
दूसरी स्त्रियों को किस प्रकार का जीवन मिलना चाहिए यह सीखने में, मैं कहती हूँ, मेरी इस सूरत का हिस्सा है।’’
मिलिंग्टन चुप हो गया और सीधे होटल के सामने की दीवार को देखता रह गया। वह शायद उसे अपने गाँवों में विचरती हुई देख रहा था, कभी साइकिल पर, कभी ताँगे पर। किसी तरह गाँव के बूढ़े निवासियों के लिए वह एक आदर्शमय स्त्री की मूर्ति थी।
‘‘ओह ! मैंने कितनी गप्पें मारी हैं कोई शर्म हम हिन्दुस्तानियों के पास नहीं फटकती।’’
उसने मिलिंग्टन को अपने साथ उलझे हुए अनुभव करके कहा। ‘‘अच्छा, अब मुझे आज्ञा दीजिए। आज आपने मुझसे न जाने किस तरह की बातें करवाई हैं।’’ उसने उठकर खड़े होते हुए मुझसे कहा।
होटल के वरांडे में आकर हमने उसे विदा दी।
जब वह कुछ दूर चली गयी तब मिलिंग्टन ने फिर पहले की तरह हाथ जोड़कर सिर झुकाया।
‘‘तूने किसको नमस्कार किया है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘उस स्त्री को।’’
‘‘तू तो कहता था कि तू किसी प्राणी को इस प्रकार नमस्कार नहीं करता है।’’
‘‘नहीं, यह कोई अकेला प्राणी नहीं है। यह तो एक लहर की तरह है, एक हवा है, एक रंग है। असल में यही तुम्हारा नया भारत है।
स्तालिन और हिटलर, जो मोची आदि किस्म के आदमी थे, के संसार में प्रकट होने के पीछे भी अभी यह विचार आम था कि अंग्रेज केवल खाते-पीते हिन्दुस्तानियों को ही अफसरी के योग्य समझते हैं। इस आपत्ति के समय अंग्रेजों को इस तरह से वर्गीकरण करने की फुर्सत नहीं थी ! खासकर जब हिन्दुस्तान में भर्ती के समय उनका काम ठीक चल रहा था। जिन हजारों हिन्दुस्तानियों को उन्होंने लेफ्टीनेंट बनाया उनमें मैं भी था।
यह कोई ऊँची बात नहीं लगती थी, क्योंकि दाहिने-बाएँ सभी लड़के लेफ्टीनेंट बन रहे थे। गाँव-गाँव से गए लेफ्टीनेंट बन गये थे। प्रशिक्षण वाली जगह (जिसे ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल कहते थे) जाकर तो ऐसा लगा जैसे सारी फौज लेफ्टीनेंटों की होगी, सिपाही कोई नहीं होंगे।
पर प्रशिक्षण के बाद यूनिटों में जाकर पता लगा कि हिन्दुस्तानी फौज में भी हिन्दुस्तानी अफसर आटे में नमक के बराबर ही हैं। आम यूनिटों में तीस-पैंतीस अफसरों में दो-तीन ही होते और शेष अंग्रेज ! बड़ा अफसर तो कोई हिन्दुस्तानी था ही नहीं। यद्यपि हमारा वेतन, अधिकार और अफसरी मे कोई फर्क नहीं था, खाना-पीना और सोना-बैठना भी साथ था पर फिर भी न अंग्रेज हमें अपने बराबर का समझते थे
और न हम अपने को उनके बराबर का। किसी गोरे सिपाही का नम्रतापूर्वक नमस्कार करना या किसी अंग्रेज नर्स का प्यार से बातें करना हमारे लिए स्वर्ग जैसी बात थी। इस असमानता की हालत के लिए न वे पूरे कसूरवार थे न हम ही। डेढ़ सौ साल से हालात ही ऐसे थे। इस कुदरती फर्क का उस समय संकेत यह था कि हम तो अपनी फौजी नौकरी को परमात्मा और सरकार की एक बड़ी बख्शीश समझते थे
और इसका किसी तरह पक्का हो जाना हमारा एक सुन्दर सपना था, पर अंग्रेज जबरी-भर्ती में आये हुए थे। और इस प्रतीक्षा में रहते थे कि कब लड़ाई खत्म हो और कब फौजी नौकरी से छुट्टी मिले। वैसे उनमें से कई बहुत अच्छे आदमी थे, पर हमारी और उनकी कोई दिली निकटी नहीं बनती। हम साथ-साथ शराब पीते, औरतों की, अपने देश के रिवाजों की, धर्मो की और बोली की झूठी-सच्ची बातें करते और हँसते-हँसते आकर सो जाते। कभी किसी अंग्रेज ने यह भी नहीं कहा था कि अगर तू छुट्टी लेकर जा रहा है तो मैं भी तेरे साथ छुट्टी लेकर गाँव चलता हूँ।
हाँ, एक अंग्रेज अफसर था जो दूसरों की अपेक्षा हममें ज्यादा रमता था। उसका नाम मिलिंग्टन था।
मिलिंग्टन कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में पढ़ते-पढ़ते आया था। धर्म और दर्शन का विद्यार्थी था। बहुत सीधा-सा दिखता था। उसकी आँखों में सदा प्यार जैसा, एक स्नेह रहता था। जिसके कारण उसके पास बैठने को बड़ा जी करता था। अंग्रेज अफसरों में वह बहुत अच्छा नहीं गिना जाता था।
मैस में बहुत बोलता नहीं था। परेड में बहुत चुस्ती का प्रभाव नहीं देता था। पर उसे घटिया अफसर भी नहीं गिना जाता था। वास्तव में जो अंग्रेज अफसर सुबह तड़के उठकर दाढ़ी बनाकर परेड पर आ जाए और उल्टा-सीधा डग मार ले, उसे घटिया नहीं गिना जाता था। पर और अंग्रेज अफसर इस तरह चलते-फिरते थे जैसे सौ-सौ मील तक उनकी तरह का कोई आदमी न हो।
ड्यूटी से फारिग होकर वह हिन्दुस्तानी कपड़े पहन लेता, पठानों वाली सलवार, कमीज और सिर पर कल्लेदार पगड़ी। अपने बैरे से हिन्दुस्तानी में बातचीत करता, उसको अंग्रेजी सिखाने की जगह स्वयं उससे हिन्दुस्तानी सीखता रहता। भारतीय सभ्यता पर उसके पास कई किताबें थीं। मैं उसको कभी कोई नई बात नहीं बता पाता। उसको पहले से ही पता होता था। मेरे मुँह से बात सुनने की जगह वह मेरे अन्तर्मन की टोह लेता रहता।
हम बगैर बात किए भी कितनी देर तक बैठे रहते। छुट्टी वाले दिन शिकार खेलते-खेलते हम गाँवों में जा धँसते और वह मेरी मार्फत लोगों से बातें करता रहता और उनके घर-घाट देखता फिरता। आम कपड़े पहनकर हम शाहजहाँ के बाजारों में घूमते-फिरते। लखनऊ की तवायफों से गाने सुनते और उनका नृत्य देखते रहते।
जिस तरह फौजी अफसरों की कोठियाँ उसकी दुनिया थी और मैं केवल एक आमंत्रित या अनामंत्रित मेहमान था, इसी तरह यह बाजार मेरी दुनिया थे।
पर यहाँ वह मुझसे अधिक स्वाद ले सकता था। उसको हिन्दुस्तानी नृत्य और संगीत का अच्छा खासा ज्ञान हो गया था। मैं तो ऐलान हुए बिना यह भी नहीं बता सकता था कि ठुमरी गायी जा रही है या दादरा। बरेली में हम प्राईवेट तवायफों के घर जाते, उनके बिस्तरों पर बैठकर वह एक बच्चे की तरह उनसे बातें करता रहता। वहाँ से उठकर वह उनके घरों के बाहर बैठा या टहलता रहता, यह देखता रहता कि कौन लोग आते हैं। क्या बातें करते हैं ?
ऐसा लगता था कि जैसे अंग्रेजी राज्य के लिए देश को बचाने के निमित्त आए, उसको इस देश से स्नेह हो गया हो। अपनी नौकरी बजाने की जगह वह अधिकतर भारत की आत्मा की टोह में था। एक बार मोटर में अलमोड़ा जाते हुए रास्ते में बहुत सुन्दर पहाड़ी दृश्य आये। वह मुग्ध देखता रहा और फिर उसने हाथ जोड़कर सिर झुका दिया।
‘‘तू किसको नमस्कार कर रहा है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘पता नहीं किसको, पर मेरा जी किया था।’’ उसने कहा।
उसी यूनिट में से ही मुझे फौज से छुट्टी मिल गयी।
जब मैं नौकरी छोड़कर आने लगा तब मिलिंग्टन से भी विदा लेनी थी।
‘‘यहाँ से छुट्टी पाकर मैं अपने देश चला जाऊँगा।’’ उसने कहा। ‘‘अगर तू कभी उधर आया तो चिट्ठी लिखना। मैं तुझसे मिलूँगा। मेरा स्थायी पता ग्रेण्डल बैंक, लन्दन है। मेरा खाता उनके ही यहाँ है। मैं जहाँ भी होऊँ उनको मेरा पता रहता है। हर पत्र वह मुझे वहीं भेज देते हैं। यह बहुत सीधा और आसान पता है। अब तुझे पता न देने का मेरे पास कोई बहाना नहीं हो सकता।’’
‘‘मुझे अगले कुछ सालों तक इंग्लैंड जा सकने की कोई आशा नहीं है।’’
मैंने कहा, ‘‘उसके बाद शायद मेरा जी जाने को न करे। इसलिए इस पते का कोई इस्तेमाल मैं नहीं कर सकूँगा। इस मुलाकात को तू आखिरी मुलाकात समझ।’’
‘‘नहीं-नहीं। क्या पता आखिरी हो। दुनिया बहुत छोटी हो गई है। शायद मैं ही कभी इधर आ जाऊँ। तू मुझे अपना स्थायी पता लिख दे।’’
एक कागज पर मैंने अपना नाम, गाँव, डाकखाना और जिला लिखकर उसके हाथ में पकड़ा दिया।
यह पक्का करने के लिए कि वह सारे अक्षर पढ़ सकता है, उसने शुरू से पढ़कर देखा।
‘‘यह तेरा स्थायी पता है ?’’ उसने पूछा। वह मेरे गाँव को इंग्लैंड के एक बड़े बैंक से कम स्थायी समझता था।
‘‘हाँ, अनगिनत सदियों से मेरे पुरखों का यही पता रहा है, तेरी उम्र तो अभी भुगता ही जाएगा।’’ मैंने गर्व से कहा।
उसने मेरी बात सुनी और खड़े-खड़े ही सिर झुका दिया।
‘‘तू ने किसे नमस्कार किया है ?’’
‘‘पता नहीं, मेरा जी किया था।’’
‘‘नहीं, तुझे पता है। तूने मुझे नमस्कार किया है।’’
‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं। मैं प्राणियों को इस तरह नमस्कार नहीं करता। तेरे जाते समय मैं तुझे बड़े अफसर वाला सैल्यूट मारूँगा।’’
मैं उससे कुछ समय पहले भर्ती हुआ था।
इसके कुछ समय बाद अंग्रेजी राज्य खत्म हो गया। हिन्दुस्तान आजाद हो गया। विदेशों में तरह-तरह की बातें हुईं। किसी ने कहा डूब जाएगा, टुकड़े हो कर खत्म हो जाएगा। किसी और ने कहा, अभी आजाद हुआ ही नहीं है, भुलावा है, छल है। कई कहते बात इसके बीच-बीच की है। नया जन्मा भारत धीर-धीरे घिसटने लगा है।
यह आशा बँधने लगी है कि किसी दिन उठ कर यह खड़ा हो जाएगा और चलकर या दौड़कर दूसरे बड़े देशों के साथ जा मिलेगा। कैसे काम हो रहा है ? इतनी करोड़ों की आबादी के साथ कैसे बीत रही है ? यह सब देखने के लिए कई लोग विदेशों से आते कुछ यह देखने आते कि दुनिया के दो बड़े धड़ों के बीच यह किसके साथ मिलेगा, जैसे जाटों के दो धड़े किसी जनानी से बयान करवाने के लिए किरपान खींचे कचहरी से बाहर फिरते रहते हैं।
कुछ वर्ष और बीत गए। एक दिन मेरी माँ ने कहा कि एक बाहरी जैसे टिकट वाली चिट्ठी आई है। मैंने चिट्ठी देखी। उसपर अंग्रेजी की मल्लिका की मोहर थी। टिकट पर इनके पिता की सूरत को मेरी माँ बाहरी नहीं मानती थी, पर इसकी सूरत इसे बाहरी लगी। चलो कुछ तो फर्क है न। मैंने सोचा। चिट्ठी खोली।
मिलिंग्टन की थी। वह भारत आ रहा था। वहीं बैठे-बैठे उसने दिल्ली के होटल में अपना कमरा ले लिया था और मुझे उस होटल में मिलने के लिए लिखा था।
मैं दिल्ली गया। मिलिंग्टन को पहचानना मुश्किल नहीं था। उसके पहले की तरह ही छोटी-छोटी मूछें थीं और वह पहले की तरह ही भूरी थीं।
‘‘चल, तेरे पंजाब चलें।’’ उसने कहा।
‘‘क्यों, दिल्ली पसन्द नहीं आई ?’’ मैंने पूछा।
‘‘पसन्द, न पसन्द का सवाल नहीं है। यह मेरी पकड़ में नहीं आ रही है। कोई दाना हाथ में नहीं आता, जिसको देखकर इस दाल का पता लगे। में नये भारत की नब्ज देखना चाहता हूँ।’’ उसने अखबारी अंदाज में कहा।
‘‘पंजाब में दो ही जगहें बहुत नई गिनी जाती हैं, एक भाखड़ा नांगल और दूसरी चण्डीगढ़।’’ मैं टूरिस्ट गाइड की तरह बोला।
‘‘इन दो विषय में मैंने सुना है, पर मैं यह देखने यहाँ नहीं आया हूँ। यह तो उस तरह भी बन सकते थे।’’
‘‘फिर मैं तुझे क्या दिखाऊँ ?’’
‘‘बस तू मुझे घुमाए फिर शायद मेरे पल्ले कुछ पड़ जाए।’
मैं उसे पंजाब ले आया और हम जगह-जगह घूमने लगे।
एक दिन जरनैली सड़क पर चलते चले जा रहे थे। चौरस्ते के बीच बने चबूतरे पर वह खड़ी थी। यदि किसी ने कभी कोई शहजादी चौराहे पर खड़ी देखी हो तो वह इस तरह की ही लगती होगी। अगर शहजादी इतनी सुन्दर और लम्बी नहीं होगी तो और कौन होगी ? वह बड़े फब्ते कपड़े पहने हुए थी। शोख भी कहे जा सकते थे।
हर गुजरते हुए का ध्यान खींच रही थी, पर उसका अपना ध्यान इस ओर नहीं था। वह बड़े गौर से सड़क पर आते किसी को खोज रही थी। ऐसा लगता था जैसे आंखों की राह ही सांस ले रही हो। जब हम उसकी नजरों में आये तो मुझे पहचानकर वह मुस्कराई। मेरा विचार है कि मिलिंग्टन भी मेरी तरह उसे देख रहा था। यद्यपि हमने उसके बारे में कोई बात नहीं की थी।
‘‘तू इसको जानता है ?’’ मिलिंग्टन ने एकदम कान खड़े करके पूछा।
‘‘हाँ, यह तो दीखता ही है।’’
‘‘कौन है ?’’
‘‘डॉक्टर है। इसने मेरे बच्चे का इलाज किया था। तभी से परिचित है।’’
‘‘मैं इसके साथ बातें करना चाहता हूँ।’’
‘‘मैं भी। क्योंकि जब मैंने पहले देखा था उससे अब उसके चेहरे पर बड़ी रौनक है, या शोखी है।’’
उसके पास जाकर हम दोनों भी चबूतरे पर चढ़ गए। आस-पास ट्रैफिक घूम रहा था। लोग आ जा रहे थे। मिलिंग्टन से परिचय कराने के बाद मैंने पूछा, ‘‘यहाँ क्या कर रही हो ?’’
‘‘कुछ विशेष तो नहीं। किसी की बाट जोह रही थी, पर अब वह आता नहीं लगता है।’’
‘‘चलो फिर कॉफी पिएँ।’’
‘‘चलो।’’
हम एक होटल में चले गए।
‘‘सुनाओ, तुम्हारी डॉक्टरी कैसी चल रही है ?’’ मैंने मिलिंग्टन की ओर से उसे अंग्रेजी में खरोचना शुरू किया।
‘‘डॉक्टरी ? ठीक है। पर एक बात हुई है। शहर छोड़कर इस गाँव में आ धसी हूँ।’’ फिर उसने स्पष्ट किया, ‘‘मैं अब बस अपने ही इलाके में फिरती रहती हूँ, जहाँ की मैं बेटी हूँ।’’
‘‘क्यों, शहर को क्यों खराब समझने लगी हो ?’’
वहाँ कुछ मशीनी जैसा काम लगता था। डॉक्टर बस रोग हटाने की एक मशीन है। पैसे दो, रोग हटवा लो। फर्क समझते हो न ? वैसे बारीक-सा है। ऐसा लगता था जैसे किसी का मेरे साथ वास्ता नहीं पड़ता, मेरे काम के साथ पड़ता है।’’
‘‘पर बीमार को तो डॉक्टर की जरूरत है, तेरी नहीं।’’
‘‘मान लिया। पर वहाँ बात और ही है।’’ फिर उसने कुछ नम्रता से और मखौल के साथ मिलिंग्टन से कहा, ‘‘मैं एक परकटी उड़ा लूँ ?’’
मिलिंग्टन स्नेह से उसकी ओर देखकर मुस्कुराया। जैसे कह रहा हो, ‘‘जो कुछ कहोगी तौलकर ही कहोगी। परकटी नहीं उड़ायगी।’’
‘‘कभी-कभी तो मुझे इस तरह लगता है जैसे मैं अपने गाँव में अपने तरीके से फिर कर वहाँ की औरतों में जान डाल रही होऊँ। जैसे उनके लिए जीने की राह खोल रही होऊँ।’’
मुझे उसकी हँसी धुँधली जैसी लगी। वह अपनी हस्ती से ही औरतों को आजादी दिलाने का अनुभव कर रही थी। यह गलतफहमी हटाने के लिए मैंने कहा, ‘‘पता नहीं तेरे वाले पल्ले का पड़ा हूँ कि नहीं, पर यदि हीर अपना किस्सा लिखवाकर और जन-जन के मुँह से गवाकर अन्य औरतों का रास्ता न खोल सकी तो तू घूम फिर कर ही कैसे खोल देगी।’’
‘‘नहीं, वह बात और है।’’ उसने झट से कहा, ‘‘आदर मरी हुई हीर का ही हुआ है।
जीवित हीर का कहीं कोई आदर नहीं था। मरने के बाद आदर मिलने के कारण किसी जीवित स्त्री का कोई आदर नहीं हो सकता। मेरे पद के कारण और मेरे कार्य के लाभ होने के कारण मेरे जीवित का आदर है, और स्त्रियाँ इसमें जीवित रहते हुए ही भागीदार हो सकती हैं।’’
‘‘पर सभी तो डॉक्टर नहीं हैं। वे किस तरह हिस्सेदार हो सकती हैं ?’’ मिलिंग्टन ने दलील का एक सिरा अपने हाथ में पकड़ लिया।
‘‘तुम अंग्रेजों के लिए यह आश्चर्यजनक बात होगी। पर यहाँ सही है। जब एक स्त्री जहाँ चाहे फिरती है, जिस तरह के चाहे कपड़े पहनती है, जो कुछ चाहे करती है और फिर भी समादरित होती है तो यह बात लोगों के मन में बैठ जाती है। उनकी एक लड़की उच्च शिक्षा प्राप्त है, जिसको लेकर वह उनकी भलाई के लिए गाँव-गाँव डोल रही है, तो फिर उससे बढ़कर आदरणीय कौन है ? मेरी सूरत इलाके के हर व्यक्ति और हर स्त्री के सामने है।
दूसरी स्त्रियों को किस प्रकार का जीवन मिलना चाहिए यह सीखने में, मैं कहती हूँ, मेरी इस सूरत का हिस्सा है।’’
मिलिंग्टन चुप हो गया और सीधे होटल के सामने की दीवार को देखता रह गया। वह शायद उसे अपने गाँवों में विचरती हुई देख रहा था, कभी साइकिल पर, कभी ताँगे पर। किसी तरह गाँव के बूढ़े निवासियों के लिए वह एक आदर्शमय स्त्री की मूर्ति थी।
‘‘ओह ! मैंने कितनी गप्पें मारी हैं कोई शर्म हम हिन्दुस्तानियों के पास नहीं फटकती।’’
उसने मिलिंग्टन को अपने साथ उलझे हुए अनुभव करके कहा। ‘‘अच्छा, अब मुझे आज्ञा दीजिए। आज आपने मुझसे न जाने किस तरह की बातें करवाई हैं।’’ उसने उठकर खड़े होते हुए मुझसे कहा।
होटल के वरांडे में आकर हमने उसे विदा दी।
जब वह कुछ दूर चली गयी तब मिलिंग्टन ने फिर पहले की तरह हाथ जोड़कर सिर झुकाया।
‘‘तूने किसको नमस्कार किया है ?’’ मैंने पूछा।
‘‘उस स्त्री को।’’
‘‘तू तो कहता था कि तू किसी प्राणी को इस प्रकार नमस्कार नहीं करता है।’’
‘‘नहीं, यह कोई अकेला प्राणी नहीं है। यह तो एक लहर की तरह है, एक हवा है, एक रंग है। असल में यही तुम्हारा नया भारत है।
यदि मैं लड़का होती
सन्त सिंह सेखों
जब कोई साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए अनजान स्त्री तुम्हारे साथ ताँगे की
पिछली सीट पर आकर बैठ जाए, तो तुम्हारे दिल में कुछ ऐसे विचार उत्पन्न
होने स्वाभाविक ही हैं। और फिर मेरा मित्र विक्रम तो बहुत ही फुर्तीला और
रंगीला व्यक्ति है। उसके साथ आकर जो स्त्री इस प्रकार बैठेगी, वह अपने में
कुछ सोचकर ही बैठेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
एक बार मैं और विक्रम ताँगे में बैठे किसी व्यक्ति से मिलने जा रहे थे। विक्रम को उस आदमी से कोई काम था। मैं अगली सीट पर बैठा था और विक्रम पिछली सीट पर। अभी हम मुश्किल से घर से एक फर्लांग ही गए होंगे कि एक नवयुवती ने ताँगे वाले को रुक जाने के लिए आवाज दी, ‘‘ए ताँगेवाले, स्टेशन ले चलेगा एक सवारी ?’’
हम लोगों ने पूरा तांगा किया था। ताँगे वाले ने घोड़े को एक चाबुक लगायी, जैसे वह युवती को बताना चाहता हो कि यह ताँगा इस समय किसी और की सेवा में है।
‘‘बैठा ले।’’ मैंने मजाक में अपने मित्र से कहा। वास्तव में वह कुछ इस अंदाज में मुस्कराई थी कि मुझे उससे किसी सम्भावना की उम्मीद हो गई थी। फिर विक्रम को तो मैं जानता ही था।
विक्रम तुरन्त मान गया और उसने ताँगे वाले को रुकने को कह दिया। ताँगेवाले ले ताँगा रोक लिया। वह कई कदम पीछे रह गयी थी, पर उसने समझ लिया था कि ताँगा उसको बैठाने के लिए ही रुका है। वह झट पास आ गयी। लम्बी और सुडौल, कुछ शरमायी हुई सी। और तुरन्त चढ़कर विक्रम के बगल में बैठ गयी।
मैं कनखियों से देख रहा था। जब वह बैठी तो उसके घुटने से विक्रम का घुटना छू रहा था।
एक बार मैं और विक्रम ताँगे में बैठे किसी व्यक्ति से मिलने जा रहे थे। विक्रम को उस आदमी से कोई काम था। मैं अगली सीट पर बैठा था और विक्रम पिछली सीट पर। अभी हम मुश्किल से घर से एक फर्लांग ही गए होंगे कि एक नवयुवती ने ताँगे वाले को रुक जाने के लिए आवाज दी, ‘‘ए ताँगेवाले, स्टेशन ले चलेगा एक सवारी ?’’
हम लोगों ने पूरा तांगा किया था। ताँगे वाले ने घोड़े को एक चाबुक लगायी, जैसे वह युवती को बताना चाहता हो कि यह ताँगा इस समय किसी और की सेवा में है।
‘‘बैठा ले।’’ मैंने मजाक में अपने मित्र से कहा। वास्तव में वह कुछ इस अंदाज में मुस्कराई थी कि मुझे उससे किसी सम्भावना की उम्मीद हो गई थी। फिर विक्रम को तो मैं जानता ही था।
विक्रम तुरन्त मान गया और उसने ताँगे वाले को रुकने को कह दिया। ताँगेवाले ले ताँगा रोक लिया। वह कई कदम पीछे रह गयी थी, पर उसने समझ लिया था कि ताँगा उसको बैठाने के लिए ही रुका है। वह झट पास आ गयी। लम्बी और सुडौल, कुछ शरमायी हुई सी। और तुरन्त चढ़कर विक्रम के बगल में बैठ गयी।
मैं कनखियों से देख रहा था। जब वह बैठी तो उसके घुटने से विक्रम का घुटना छू रहा था।
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