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विविध उपन्यास >> निछावर

निछावर

वेणीमाधव रामखेलावन

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4084
आईएसबीएन :81-7043-431-9

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भारतीय मजदूरों पर आधारित उपन्यास...

Nichhavar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्द महासागर के दक्षिण में स्थित लघु द्वीप मॉरिशस की पावन धरती पर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से भारतीय मज़दूरों को गन्ने के खेत में काम करने के लिए भारत से लाये जाते रहे। उसे शर्तबन्द प्रथा की संज्ञा दी गई थी जो कोई नब्बे वर्षों तक जारी रही।

‘निछावर’ शर्तबन्द प्रथा के खत्म होने के बाद भारती आप्रवासियों के गरीबी के दलदल से निकल कर आगे बढ़ने और बुने जा रहे ईसाइयत के जाल में फँसने से बचने के संघर्ष की मर्मान्तक कहानी है।

उपन्यास में यशोदा के त्याग और परिश्रम तथा बलवंत और मारी के प्रगाढ़ प्रेम का हृदयस्पर्शी वर्णन है। वहाँ प्रचलित जात-पाँत की घातक प्रथा पर यह उपन्यास करारी चोट करता है।

अपनी बात


यह उपन्यास मैंने 1984 में लिखा। उस समय मैं शिक्षा मंत्रालय में कार्यरत था नियम के अनुसार सरकारी कर्मचारी को अपनी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए सरकार की अनुमति लेना आवश्यक है। मैंने अनुमति माँगी और पुस्तक के संवीक्षण के लिए पाण्डुलिपि शिक्षा मंत्रालय को भेज दी। शिक्षा मंत्रालय ने महात्मा गांधी संस्थान को दी। महात्मा गांधी संस्थान ने पढ़ने के लिए क्रिएटिव यूनिट के मुखिया को दी। आपत्ति की कोई बात नहीं थी, इसलिए प्रकाशन के लिए अनुमति मिल गई।

प्रकाशन के लिए मैंने राजपाल एण्ड सन्स प्रकाशक के पास उपन्यास की पाण्डुलिपि भेज दी। राजपाल एण्ड सन्स अपनी पूर्व योजना के अनुसार पुस्तकों के प्रकाशन में लगा हुआ था। इसलिए इस उपन्यास को प्रकाशित करने में असमर्थता प्रकट की। पाण्डुलिपि वहीं पड़ी रह गई उस ओर ध्यान देना मैंने छोड़ दिया। 1989 में मैंने सरकारी सेवा से निवृत्ति ले ली। ‘सोमदत्ता’ उपन्यास लिखकर प्रकाशक को दे दिया। तब मेरा ध्यान ‘निछावर की ओर गया। ‘निछावर’ की एक कार्बन कॉपी मेरे पास थी। उसे मैंने पढ़ा। आठ साल बाद मेरी स्वयं की रचना पढ़कर मैं आह्लादित हो गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि ऐसी रोचक रचना मैंने क्यों दबाकर रखी है। इसे प्रकाश में आना चाहिए और पाठकों को इसका रसास्वादन करने के लिए अवसर देना चाहिए।

उपन्यास को मैंने फिर से लिखा। इस बार मैंने वर्णन का कुछ अधिक विस्तार किया। इतिहास के पन्नों में पाई न जाने वाली कुछ घटित घटनाओं का मैंने यथास्थान समावेश किया। उपन्यास को न सिर्फ मनोरंजक बनाने का प्रयत्न किया बल्कि सोच-विचार और चिन्तन की सामग्री भी दी।
साहित्य समाज का दर्पण होता है। व्यक्ति दर्पण में अपने मुख पर लगी धूल और धब्बे को देखकर पोंछ डालता है। उसका चेहरा साफ हो जाता है। समाज साहित्य में अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपनी भूल की सुधार करता है। तब एक स्वस्थ समाज का निर्णाण होता है। ‘निछावर’ समाज का एक ऐसा ही दर्पण है।

वेणीमाधव रामखेलावन


1


 यशोदा न्याय की दृष्टि से सम्पत्ति की असली अधिकारिणी थी। इस बात को स्वीकारते हुए ही भी कानून ने उसे उस सम्पत्ति से वंचित रखा और बलवन्त को जिसका उस सम्पत्ति के अर्जन में कोई योगदान नहीं था, उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

यशोदा जब घर विवाहित होकर आई तो बलवन्त दो-तीन साल का बच्चा था। उसकी सास का देहान्त हो चुका था और ससुर धनपत अपाहिज हो चुके था। यशवन्त और यशोदा दोनों पति-पत्ति कठोर परिश्रम करके उस घर का खर्च जुटाते थे। एक दुल्हन को कुछ काल के लिए जो सुख-सुविधा मिलनी चाहिए, वह यशोदा को मयस्सर नहीं हुई। चौथारी के दूसरे दिन से ही वह चक्की में पीसी जाने लगी। घर में और कोई स्त्री-सास ननद आदि नहीं थी। इसलिए शादी होते ही जब सब मेहमान विदा हो गए तो यशोदा को गृहस्थी का सारा भार अपने ऊपर लेना पड़ा। वह तड़के उठती, रसोई तैयार करती। अपाहिज ससुर को मुँह हाथ धुलाती, छोटे देवर बलवन्त के मुँह-हाथ धोकर खाना खिलाती, गाय को सानी-पानी डालती, फिर मजदूरी के लिए निकल पड़ती थी। शाम को लगभग दो-तीन बजे घर लौटती थी। उसके एक कन्धे पर हँसिया होता था और दूसरे पर कुदाल होती थी और सिर पर घास का गट्ठर होता था।

चिलचिलाती धूप में पसीने से लथपथ वह नवोढा़ कुम्हलाए हुए फूल सी लगती थी। घर आते ही चूल्हे-चक्की और चौके-बर्तन का काम शुरु हो जाता था जो करीब नौ बजे रात तक चलता था। यशोदा का कुन्दन-सा भरा-पूरा कोमल शरीर सूखकर काँटा हो गया था। चेहरे पर झाइयाँ पड़ गईं। यशवन्त अपने छोटे से परिवार के साथ गाँव में रहता था। इससे पहले वे पेरेबेर के शक्कर एस्टेट में रहते थे। उस समय वहाँ का शक्कर कारखाना चलता था। परन्तु साझेदार और हिस्सेदारों में अनबन हो गई जिससे कारखाना बन्द हो गया और तोड़ दिया गया। कारखने में काम करने वाले मजदूर बर्खास्त कर दिए गए। उन्हें एस्टेट छोड़कर चले जाने का आदेश दे दिया गया।

धनपत कारखाने में काम करता था इसलिए उसे भी एस्टेट छोड़कर जाना पड़ा। जब तक वे मकान में रहते थे, वे निश्चिंत थे, मकान की चिन्ता से मुक्त थे। परन्तु जब उन्हें एस्टेट छोड़कर जाने को कहा गया तो उनकी स्थिति पिंजरे में बन्द उस तोते की-सी हो गई जिसे यकायक पिंजड़ा खोलकर भगा दिया गया हो। बेचारा तोता कुछ काल के लिए हतप्रद रहता है कि क्या करे क्या नहीं। यही हालत धनपत की थी। अन्ततः वह ग्राँबे में क्राऊन-लैण्ड की एक टुकड़ी ज़मीन लेकर और काम के अभाव का मतलब अर्थाभाव था। इसी बीच उसकी पत्नी का देहान्त हो गया। कठिन परिस्थिति के लगातार दबाव से धनपत बीमार पड़ गया। अर्थाभाव के कारण उचित इलाज न हो पाया उसे लकवा मार गया। हमेशा के लिए अपाहिज हो गया।

2


 देश में आर्थिक संकट छा गया। शक्कर का दाम एकदम गिर गया। लागत से भी कम। शक्कर की पैदावार माँग से ज्यादा होने लगी। उन दिनों देश में अन्य उद्योग-धन्धे नहीं थे। देश की आय शक्कर पर ही निर्भर करती थी। शक्कर कौड़ी के मोल बिकती थी। शक्कर व्यवसाय में मिल-मालिकों को काफी नुकसान हो रहा था। इसलिए पैदावार की लागत कम करने के लिए कारखनों का केन्द्रीयकरण किया जाने लगा। दो-तीन छोटे-छोटे कारखानों को तोड़कर एक बड़ा कारखाना बनाया जाने लगा। कुछ मालिक जो कर्ज में डूब गए थे, अपने एस्टेट की कुछ ज़मीन टुकडों में बेचने लगे। पेरेबेर का कारखाना टूटने पर मालिक ने कुछ ज़मीन बेचने का विचार किया। बहुत समय पहले से धनपत की उत्कट इच्छा थी कि यदि अवसर आये तो वह कुछ ज़मीन खरीदेगा। परन्तु अब जब अवसर आया तो वह विवश था। अपाहिज था। काम करने की शक्ति नहीं रही। परन्तु यशवन्त को पिता की इच्छा का पता था। उसने ज़मीन खरीदने का निश्चय किया और अपना निश्चय पिता को प्रकट किया।

‘कहाँ से आएगा पैसा और कौन करेगा खेतों में काम ?’ धनपत ने एक साथ दो प्रश्न किए।
‘एक ही बार में सब पैसे नहीं देने हैं। धीरे-धीरे किस्त में चुकाएँगे यशोदा और मैं दोनों खेतों में काम करेंगे।’ यशवन्त ने कहा।
‘तुम दोनों खेतों में काम करोगे तो घर का खर्च कैसे चलेगा ? खेतों में काम करने से तन्ख्वाह जैसी निश्चित आय नहीं होगी जैसे मजदूरी करने से हर सप्ताह बँधी तनख्वाह मिलती है।’
‘हम सवेरे से अपने खेतों  में  काम नहीं करेंगे। एस्टेट में अपना लाताश1 पूरा करके खेतों में काम करेंगे।’
‘शक्ति से अधिक काम करना स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।’

‘अभी हम जवान हैं। अभी अधिक परिश्रम करके कुछ सम्पत्ति इकट्ठी करेंगे तभी बुढ़ापे में कुछ आराम मिलेगा।’ यशवन्त ने मुस्कराते हुए कहा।
धनपत ने आश्वस्त होकर पूछा, ‘कितनी ज़मीन लेने की इच्छा है ?’
‘पच्चीस बीघा,’ यशवन्त बोला। ‘दस बीघा एकदम समुद्रतट पर और पन्द्रह बीघा दूसरी ओर।’
‘समुद्रतट की बलुई ज़मीन लेकर क्या करोगे ? धनपत ने कहा। ‘यहाँ तो गन्ने नहीं होते हैं। देखते नहीं, साहब समुद्रतट पर गन्ने नहीं बोते हैं उनकी सारी समुद्रतटीय ज़मीन यूँ ही परती पड़ी रहती है। वह ज़मीन खरीदकर मानो उनके गले की रस्सी अपने गले में डाल लेना है।’

‘यह बात नहीं है पिताजी,’ यशवन्त ने समझाते हुए कहा।’ समुद्रतट की बलुई ज़मीन सब्जियों की खेती के लिए उपयुक्त है। प्याज, लहसुन, टमाटर, बैगन, मिर्च, भिन्डी आदि सब्जियाँ खूब हो सकती हैं। सब्जियों की खेती करने से एक लाभ यह है कि प्रतिदिन कुछ-कुछ फुटकर आय होती रहेगी जिससे घर के रोज का खर्चा चलेगा। हर सप्ताह बड़ी मात्रा में जो सब्जियाँ बाजार में बेचेंगे उसकी आय अलग। पन्द्रह बीघे में गन्नों की खेती करेंगे। इससे हर वर्ष जो आय होगी उससे कर्ज़ चुकाया जाएगा।’
‘सब ज़मीन का मूल्य कितना है ?’
‘तीन हजार रुपये।’

‘पहला भुगतान कितना होगा ?’
‘तीन सौ रुपये।’
 ‘तीन सौ !’ धनपत ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा। ‘ इतना पैसा तो हमारे पास नहीं है।’
 ‘मेरे पास डेढ़ सौ रुपये हैं, ’ यशवन्त ने कहा।
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1.एक दिन के लिए निर्धारित काम।

 ‘बाकी रुपये कहाँ से आएँगे ?’
‘यशोदा के कुछ गहने हैं उन्हें बेच देंगे।’
‘ना, भला ऐसा कहीं होता है ? वह क्या कहेगी कि गहने देकर फिर वापस ले लिये।’
‘मैंने उसे समझा दिया है। वह मान गई है। वह तो मैके से लाए गहने भी देने को तैयार है।’
‘वह चाहे कुछ न कहे, परन्तु यह उचित नहीं कि बहू के गहने बेंच दिए जाएँ।’ इसी समय यशोदा आ गई। उसने धनपत की बात सुन ली। उसने कहा, ‘नहीं पिताजी, मैं कुछ नहीं कहूँगी। मेरे लिए यह खुशी की बात होगी कि मेरी वस्तु घर की उन्नति के लिए काम आ रही है।’

‘बेटी, यदि यही बात है तो तुम्हारी सास के कुछ गहने हैं उन्हें बेंच डालो।’ धनपत ने कहा।
‘नहीं पिताजी,’ यशोदा बोली, ‘माता जी के गहने हम नहीं बेंच सकते। ये उनके स्मृतिचिन्ह हैं। मेरे तो बाद में भी गहने बन सकते हैं।
‘देखो तुम लोगों को जो उचित जँचे वही करो। मैं तो अब बूढा़ हो गया हूँ। शक्तिहीन हो गया हूँ। आज हूँ कल नहीं।’
यशवन्त ने तीन सौ रुपयों का भुगतान करके पच्चीस बीघा ज़मीन ले ली।

3

बलवन्त जब पाँच साल का हुआ तो उसे पाठशाला में दाखिल किया गया। उस समय साल के किसी भी महीने में बच्चे को भर्ती किया जा सकता था। बलवन्त पाठशाला नहीं जाना चाहता था। पाठशाला का नाम सुनते ही वह रोने-चिल्लाने लगता था। जब यशोदा उसका हाथ पकड़कर ले जाने लगी तो वह ज़मीन पर पसर गया और आसमान सर पर उठा लिया। परन्तु यशोदा उसे गोद में उठाकर, दुलार, पुचकार कर पाठशाला ले गई। बहुत दिनों तक यही हाल रहा। यशोदा पहले बलवन्त को पाठशाला पहुँचाकर तब काम पर जाती थी।

पाठशाला बलवन्त के लिए एक नईं दुनिया थी। अब तक उसका संसार घर में और घर के आसपास ही केन्द्रित था। घर के दो-तीन व्यक्तियों और आसपास के चार-पाँच बच्चों से ही उसका परिचय था। अब घर के बाहर के लोगों से उसका परिचय हुआ। पाठशाला में उसे बहुत-से साथी मिले। अपने साथियों से वह खेलने कूदने और दौड़ने-उछलने लगा था।
उन दिनों पाठाशाला एक खुले दालान के समान होती थी। लकड़ी के खम्भे और फूस का छाजन होता था। शहरों में टीन का छाजन होता था। हर एक कक्षा के लिए अलग-अलग कमरा नहीं होता था। अध्यापक अपनी कक्षा के बच्चों को एक स्थान पर एकत्र करके पढ़ाते थे।। अध्यापक प्रशिक्षित नहीं होते थे। उन्हें अध्यापन-कला और शिक्षिण-विधि ज्ञात नहीं थी। तोतारटन्त ही एक मात्र विधि थी। वे बच्चों से ऊँचे स्वर में सामूहिक पटन कराते थे। सम्पूर्ण पाठशाला में बहुत शोर मचता था।

बच्चों के बैठने के लिए अलग-अलग कुर्सी नहीं थी; न लिखने के लिए अलग-अलग मेज। लम्बी-सी बेंच होती थी और उसी के साथ जुड़ा हुआ डेस्क होता था। एक बेंच पर नौ-दस बच्चे बैठते थे, एक-दूसरे से बिलकुल सटकर।
अध्यापक बच्चों के मस्तिष्क पर जोर देकर पाठ रटवाते थे। बच्चे अर्थ चाहे न समझें पर पाठ को कंठस्त कर लेते थे और अध्यापक को हू-ब-बू सुना देते थे। अध्यापक संतुष्ट होकर प्रशंसा करते थे जो बच्चे पाठ को रटकर नहीं सुना सकते थे, अध्यापक उनकी भर्त्सना करते थे और पीटते भी थे।
 
अधिकांश बच्चे कमज़ोर दिखते थे। वे दुबले-पतले थे। हाथ-पाँव पतले-पतले, पेट निकले हुए, आँखें धँसी हुईं और गाल चूसे हुए आम की तरह चिपके हुए थे। स्पष्ट था कि उन्हें भर पेट भोजन नहीं मिलता था और जो कुछ खाते थे उनमें पोषक तत्त्व का अभाव होता था। ऐसी दशा में पाठ को रटने में उन्हें कठिनाईं होती थी। बहुत कम बच्चे पाठ का अभ्यास कर पाते थे। बलवन्त अब भीत और दब्बू न रहा। वह अह शरारती हो गया था। निर्बल बच्चों को सताया करता था। उनकी कलम, पाटी आदि वस्तुएँ तोड़ दिया करता था। अन्य बच्चों की तरह वह कमपोषण का शिकार नहीं था। यशोदा उसे अच्छा-अच्छा खाना खिलाती थी। वह हट्टा-कट्टा और बलिष्ठ था।

वह उसे रोज नहलाती थी तथा साफ-सुथरा कपड़ा पहनाती थी। उसे किसी वस्तु की कमी नहीं होने देती थी। प्रकृति ने अब तक उसे माँ के पद पर विभूषित नहीं किया था, परन्तु वात्सल्य प्रेम और माँ की ममता उसके हृदय में उछाल मारती थी। बलवन्त उसका देवर था, परन्तु यशोदा उसे माँ का प्यार देती थी और एक माँ के समान ही उसकी परवरिश करती थी।

पाठशाला में पहली कक्षा में दाखिल तो बहुत बच्चे होते थे, परन्तु  छठी कक्षा तक आते-आते बहुत कम बच्चे रह जाते थे। अधिकांश बच्चे बीच में ही पाठशाला छोड़ देते थे; क्योंकि या तो वे पाठ-अभ्यास न कर सकने के कारण अध्यापक द्वारा दिए जानेवाले दण्ड सह नहीं सकते थे या घर के स्वल्प बजट में कुछ जोड़ने के लिए वे कोमल वय में ही खेतों में काम करने को विवश हो जाते थे। बलवन्त उन बच्चों के समान नहीं था। उसे दण्ड नहीं मिलता था क्योंकि वह पाठ-अभ्यास कर लेता था। घर के खर्चे के लिए भी उसे अन्य बच्चों की तरह कमाने की जरूरत नहीं थी, क्योंकि यशवन्त और यशोदा के कठोर परिश्रम ने उसे कभी दूसरों की तरह दाने-दाने के लिए मुँहताज होने का अवसर ही नहीं दिया था।

बलवन्त छठी कक्षा में पहुँचा। साल के अन्त में जब परीक्षा हुई तो केवल वह उत्तीर्ण करने वालों में से अकेला ही हिन्दू था। दूसरे बच्चे गैर हिन्दू-क्रिओल या अधगोरे-थे। उन दिनों छठी उत्तीर्ण करना आसान नहीं था। बलवन्त जैसे भाग्यशाली ही उत्तीर्ण कर सकते थे।
धनपत के घर में खुशी की लहर दौड़ गई। लोग उसे बधाइयाँ देने आए। धनपत कहता कि यह यशोदा की कृपा है कि वह इतनी कठिन परीक्षा उत्तीर्ण कर सका। यशोदा उसे इतना प्यार न देती और इतनी देख-रेख नहीं करती तो शायद उसे ऐसा भाग्यशाली होने का गौरव प्राप्त नहीं होता।

यशोदा की खुशी तो समा नहीं पाती थी कि उसके अपने ही बेटे ने परीक्षा उत्तीर्ण की है।
पेरेबेर के शक्कर कारखाने के नजदीक एक विशाल वटवृक्ष था जिसके नीचे काली माँ की स्थापना की गई थी। लोग इसे काली स्थान कहते थे। अपनी आध्यात्मिक पिसासा तृप्त करने के लिए या काली माँ के प्रति अपनी भक्ति प्रकट करने के लिए यहाँ आते थे।

उस विशाल वटवृक्ष के नीचे सात गोलाकार पत्थर रखकर उन्हें काली माँ का प्रतीक मानते थे और यहाँ पूजा करते थे। उन्हें सिन्दूर से टीकते थे और प्रसाद चढ़ाते थे। लोग यहाँ आकर मनौतियाँ मनाते थे और मनोकामना पूरी होने पर प्रसाद चढ़ाते थे। यह काली स्थान गाँव का भक्ति-स्थल था। लोग यहाँ अपना दुख-दर्द और सुख और खुशी माँ के समक्ष प्रकट करते थे और कोई कार्य सिद्ध होने पर माँ को धन्यवाद देते थे। यशोदा की गोद अब तक सूनी थी परन्तु आज लगा कि उसकी गोद भर गई है। बलवन्त के रहते उसे सन्तान का अभाव नहीं खलता था। आज यशोदा निहाल हो गयी थी। उसके हृदय में माँ की ममता पूरे जोर से उमड़ पड़ी थी।

4


यशवन्त एस्टेट के खेत में काम करने के लिए तड़के निकल पड़ता था। जब वह अपने लताश का आधा काम कर चुकता तब उसके साथी काम पर आते थे। यशोदा भी बड़ी स्फूर्ति से अपना काम करती थी। दोनों अपने साथियों से पहले अपनी लताश पूरा करके गाय के लिए चारा लेते हुए घर आते थे। भोजन करके वे अपने खेतों में पहुँच जाते थे। वहाँ  वे सूर्यास्त तक काम करते थे। उन्होंने समुद्र तट की ज़मीन में सब्जियाँ बोईं। टमाटर, बैंगन, भिन्डी, मिर्च, प्याज और लहसुन उस बलुई ज़मीन में खूब हुए। वे अपने खेतों की उपज कुछ तो लोगों में फुटकर बेंचते थे और शेष बड़ी मात्रा में पोर्ट-लुई के सदर बाजार में नीलामी बिक्री के लिए भेजते थे। उस काल में आजकल की तरह ट्रक या वान नहीं था। बैलगाड़ी में सब्जियाँ ले जाई जाती थीं। बैलगाड़ी शाम को ही निकल पड़ती थी और रातभर चलती रहती थी। दूसरे दिन सवेरे बाज़ार पहुँचती थी। बाज़ार विशाल था। सवेरा होते ही चहल पहल शुरू हो जाती थी। बाजार दो भागों में बटा हुआ था। एक भाग में फुटकर सब्जियाँ बेची जाती थीं और दूसरे भाग में  थोक सब्जियों की नीलामी होती थी। उसी भाग में मसाले बेचने वालों की दुकानें भी थीं।

जब यशवन्त की सब्जियों की नीलामी का समय आता था तो वहाँ स्टाल में बेचने वालों और दूर-दूर से आए हुए ठेलों में बेचने वालों का जमघट लग जाता था। चूँकि यशवन्त की सब्जियाँ पहले दर्जे की होती थीं, इसलिए उनके ऊँचे दाम लगते थे। सब्जियों की बिक्री से हर सप्ताह यशवन्त को अच्छी आय हो जाती थी। उधर वह स्वयं जो फुटकर बेचता था, उससे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ आय हो जाती थी। सब्जियों की बिक्री से प्राप्त पैसे से वह मज़दूरों से अपने खेतों में काम काराता था। पहले साल उसने दो बीघे में गन्ने बो दिए। उस साल की कटनी में उसने चालीस टन गन्ने काटे। उसे गन्ने की बिक्री में चार सौ रुपये मिले। तीन सौ रुपये उसने कर्ज की अदायगी में दिए और शेष सौ रुपये से और दो बीघे में गन्ने बो दिए।
अगले साल उसने अस्सी टन गन्ने काटे जिससे उसे करीब हजार रुपये की आय हुई। इस बार उसने सात सौ रुपये कर्ज़ की अदायगी में चुकाए।

गन्नों को तौलघर तक पहुँचानें में काफी खर्च होता था। गाड़ीवानों को बहुत पैसे देने पड़ते थे। इसलिए यशवन्त ने एक बैलगाड़ी खरीदी। कटनी के समय वह बैलगाड़ी में गन्ने तौलघर तक ले जाता था और गैर कटनी के दिनों में वह उसमें सब्जियाँ पोर्ट-लुई के सदर बाज़ार ले जाता था। रात-भर वह बैलगाड़ी में पोर्ट-लुई के लिए यात्रा करता था। नींद आती थी तो गाड़ी में ही सो लेता था। बाज़ार से लौटकर आता तो खेतों में काम करता था।
अपने खेतों से अच्छी आय होने लगी थी। उसने देखा कि यह आवश्यक है कि वह अपना सारा समय अपने खेतों में दे। इसलिए उसने एस्टेट का काम करना छोड़ दिया। यशोदा ने भी एस्टेट के काम से छुट्टी ले ली। परन्तु गो-पालन वह बराबर करती रही। इससे ताजा दूध मिलता था। दही, मक्खन और घी की कमी नहीं होती थी।

इस साल यशवन्त ने दो बीघे ज़मीन में और गन्ने बो दिए। इधर उसने पूरे पाँच बीघे में टमाटर बो दिए एक ओर टमाटर के पौधे फल-फूल लिए खड़े थे और दूसरी ओर गन्ने लहलहा रहे थे। टमाटर और गन्ने देखकर यशवन्त और यशोदा के मन बाँसों उछल जाते थे। लहलहाते पौधों को देखकर उनके हृदय गौरवान्वित होते थे। यह उनकी कड़ी मेहनत का फल था। उन्हें अपना भविष्य उज्ज्वल दिखता था। ऐसा लगता था कि वे इस साल सब कर्ज़ चुका देंगे और सब ज़मीन साहब के हाथ से छु़ड़ा लेंगे। अब तक सब ज़मीन साहब के ही नाम थी। गन्ने तौलघर उन्हीं के नाम पर जाते थे और चीनी उन्हीं के नाम से बिकती थी। पैसा उन्हीं को मिलता था। साहब अपना कमीशन और कागज़ाती खर्च, जो अतिरंजित होता था काटकर शेष पैसा यशवन्त को दे देते थे। यशवन्त उसमें से कुछ पैसे अगली रोपाई लिए रखकर शेष पुनः साहब को कर्ज़ की अदायगी में दे देता था।

मार्च का महीना था और गर्मी के दिन थे। एक सप्ताह से बहुत कड़ी धूप थी। गर्मी असह्य थी। धूप और गर्मी के कारण लोग भरपूर काम नहीं कर पाते थे। वे अधिकांश समय पेड़ों की छाया में बैठकर बिता देते थे। रात को भी काफ़ी देर तक घर से बाहर ही बैठकर वायु सेवन करते थे। चारों तरफ उमस छाई हुई थी। एक दिन दोपहर के बाद मौसम एकाएक बदल गया। पूर्वी हवा तेज़ चलने लगी। रह-रहकर मोटी-मोटी बूँदों में पानी बरस रहा था। चार बजते-बजते चारों तरफ काली घटा छा गई। ऐसा लगता था कि रात हो गई। हवा उत्तरोत्तर होती गई और जोरों से वर्षा होने लगी। समुद्र की तरंगें उछल-उछलकर मानो आकाश को छूने की कोशिश करने लगीं। उसका गर्जन वन में शेर की दहाड़ के समान दिल दहला देने वाला था। लोग भावी अनिष्ट की आशंका से भयभीत होकर घर के कोनों में दुबक गए थे।
रात आ गई। चारों तरफ घना अन्धकार छा गया। हवा ने दरारों से घुसकर घर में मिट्टी के तेल से जल रहे टिमटिमाते टीन के दीयों को बड़ी क्रूरतापूर्वक बुझा दिया। उस घने अँधेरे में कोई किसी को देख नहीं पाता था। घर की कोई वस्तु भी नहीं दिखती थी।

 

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