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कारगिल का सच

रंजीत कुमार

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :226
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4080
आईएसबीएन :81-7043-423-6

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कारगिल के युद्ध पर आधारित पुस्तक...

Kargil ka Such

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कारगिल सेक्टर में 140 किमी. लम्बी नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कर पाकिस्तानी सेना ने 1500 वर्ग किलोमीटर भारतीय भूभाग पर कब्जा कर लिया। भारत के खिलाफ छेड़े गये इस युद्ध के बावजूद भारत ने अभूतपूर्व संयम बरतते हुए अपनी सेना को निर्देश दिया कि नियंत्रण रेखा को लक्ष्मण रेखा मानकर पार नहीं करे। भारत के इस संयम की अन्तरर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई लेकिन नियंत्रण रेखा के अपने ही इलाके में कार्रवाई सीमित रखने से भारतीय थलसेना ने अपना एक हाथ बँधा हुआ महसूस किया फिर भी भारतीय सैनिकों ने वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर पाकिस्तानी षणयंत्र और झूठ का पर्दा फाश किया।

कारगिल में पाकिस्तानी सैन्य घुसपैठ ने भारतीय रक्षा कर्मधारों को झकझोरा है। आखिर यह घुसपैठ कैसे मुमकिन हो सकी ? सरहदों की रक्षा में कोई खामी रह गई थी ? क्या पाकिस्तान में भारत के विश्वास को तोड़ा ? इस घुसपैठ के बहाने पाकिस्तान ने क्या हासिल करना चाहा ? घुसपैठ के बाद पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा पर सवाल क्यों उठाया ? नियंत्रण रेखा का सच क्या है ? जम्मू कश्मीर क्यों गत पाँच दशकों से विवाद का विषय बना हुआ है ? घुसपैठ समाप्त करने के लिए भारतीय सेना ने शौर्य और साहस की अद्वितीय मिसाल पेश की।

इन सभी पहलुओं से कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के पीछे सच का उजागर कर रही है यह पुस्तक।

प्रस्तावना


कारगिल में घुसपैठ करने का पाकिस्तानी दुस्साहस और इससे सफलतापूर्वक निबटने में भारतीय रण बांकुरों की शौर्यगाथाएँ भारत-पाकिस्तान रिश्तों और युद्ध के इतिहास में एक और उल्लेखनीय अध्याय है। कारगिल में पाकिस्तानी सैन्य घुसपैठ के षड्यन्त्र और झूठ का पर्दाफाश कर भारतीय सैनिकों ने एक बार फिर पाकिस्तानी सेना को पछाड़कर भारतीय इलाका खाली करने को मजबूर किया। दो परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के बीच इस ‘सीमित युद्ध’ ने दुनिया का ध्यान आकर्षित किया और व्यापक चिन्ताएँ व्यक्त की जाने लगीं कि कहीं परमाणु युद्ध न छिड़ जाए। हालाँकि कारगिल का यह युद्ध पाकिस्तान ने शुरू किया लेकिन उस उकसावापूर्ण कार्रवाई के बावजूद भारत ने इस युद्ध को भड़कने से रोका और एक ‘सीमित युद्ध’ को खुले व्यापक युद्ध में बदलने से रोकने में असाधारण संयम का परिचय देते हुए एक जिम्मेदार व समझदार राष्ट्र की छवि पेश की। लेकिन इसके साथ ही वह मुद्दा भी देश में व्यापक चर्चा और विवाद का विषय रहा कि आखिर पाकिस्तानी सैनिक कारगिल में घुसपैठ कैसे कर सके ? हमारी सैन्य चौकसी में कहीं कोई गम्भीर खामी रह गई ? या लम्बे अर्से बाद पाकिस्तान ने भारत से विवादों को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय बातचीत की जो प्रक्रिया शुरू की और लाहौर में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी का जिस गर्मजोशी से स्वागत किया उससे भारतीय राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व इस गलतफहमी में आ गया कि पाकिस्तान कारगिल घुसपैठ जैसी कोई वारदात नहीं कर सकता ? निश्चय ही पाकिस्तान ने भारत के विश्वास को तोड़ा। लेकिन सवाल यह भी है कि जिस पाकिस्तान ने गत पाँच दशकों से भारत के साथ तनावपूर्ण रिश्ता रखा है और तीन युद्ध लड़ चुका है, उस पर इतना विश्वास किया जाना चाहिए कि सीमाओं पर चौकसी कम कर दें ? कारगिल की नियन्त्रण रेखा पर चौकसी में कमी की गई थी या चौकसी का स्तर पहले की तरह बरकरार था ?

इन सारे विवादास्पद पहलुओं पर इस पुस्तक में विस्तार से तटस्थ विश्लेषण करते हुए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में मुद्दों की व्याख्या करने की कोशिश की गई है।
1947-48, 1965 और 1971 के बाद पाकिस्तान ने 1999 में पुन: भारतीय सैनिकों को ललकारा और पहले की तरह इस बार भी अद्भुत शौर्य और साहस का प्रदर्शन करते हुए भारतीय सैनिकों ने अपनी जान की परवाह किए बिना भारतीय भू-भाग की एक-एक इंच जमीन वापस ली। 1947-48 में पाकिस्तान द्वारा भारत पर थोपे गए पहले युद्ध में भी भारतीय सेना सम्पूर्ण जम्मू कश्मीर पर अपना अधिकार जमा लेती लेकिन अचानक संयुक्त राष्ट्र के बीच-बचाव के कारण एक जनवरी, 1949 को युद्ध विराम लागू हो जाने से भारतीय सेना की बढ़त रुक गई और जम्मू कश्मीर का एक-तिहाई इलाका पाकिस्तान के पास रह गया। 1965 के युद्ध में भी भारतीय सैनिकों ने जम्मू कश्मीर में जो इलाका अपने अधिकार में किया उसका बड़ा हिस्सा ताशकंद में ‘वार्ता की मेज’ पर हार गए। पहली बार 1971 के युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को चारों खाने चित्त किया लेकिन उस बार भी भारतीय नेतृत्व ने जो सदाशयता दिखाई उसका पाकिस्तान आज तक नाजायज लाभ उठा रहा है। भारत चाहता तो 1971 में ही कश्मीर समस्या के स्थाई हल के लिए पाकिस्तान को समझौता करने पर मजबूर करता लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो की घरेलू दयनीय राजनीतिक स्थिति पर तरस खाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने जम्मू कश्मीर में युद्ध विराम रेखा को अन्तरराष्ट्रीय सीमा में नहीं बदला। 740 किलोमीटर लम्बी नियंत्रण रेखा यदि भारत पाकिस्तान के भू-भाग के स्थाई विभाजन की रेखा बना दी जाती तो जम्मू कश्मीर के हालात आज जैसे अशान्त नहीं रहते और भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों का माहौल ही आज से अत्यधिक उलटा होता। स्पष्ट है कि तब भारतीय राजनीतिक नेतृत्व पाकिस्तानी राजनीतिक नेतृत्व के मीठे बहकावे में आ गया और नियन्त्रण रेखा को अन्तरराष्ट्रीय रेखा में बदलने की दूरदर्शिता दिखाने से वंचित रह गया हालाँकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ऐसा ही चाह रही थीं।

सम्भवत: 20-21 फरवरी, 1999 को लाहौर में कुछ ऐसा ही हुआ जब प्रधानमंत्री नवाजशरीफ ने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली-लाहौर बस की उद्धाटन सेवा से लाहौर आने को निमन्त्रित किया। लाहौर में दोनों नेताओं ने दोस्ती को आगे बढ़ाने के वायदे किए और शिमला समझौता की भावना के अनुसार एक बार फिर द्विपक्षीय बाचचीत से आपसी विवादों के हल की बात की। शिमला समझौता पर प्रतिबद्धता दिखाते हुए एक बार फिर लाहौर घोषणापत्र जारी किया गया। कौन सोच सकता था कि एक तरफ मैत्री और भाईचारे की भावनाओं से ओतप्रोत कर देने वाले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के उद्गार आ रहे हों और दूसरी ओर शिमला समझौते का उल्लंघन करते हुए पाकिस्तानी सेना नियन्त्रण रेखा की पवित्रता भंग कर रही होगी और कारगिल की पहाड़ियों में अपनी घुसपैठ जमा रही होगी ?

भारतीय नेतृत्व की हमेशा से ही यही ‘कमजोरी’ देखने में आयी है। 1947-48 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं संयुक्त राष्ट्र की शरण में चले गए और स्वयं ही जम्मू कश्मीर में जनमत-संग्रह की पेशकश की, हालाँकि पाकिस्तान द्वारा इसकी शर्ते नहीं मानने से यह फैसला लागू नहीं हो सका। 1965 में पाकिस्तान ने ही 1947-48 की तरह कबाइलियों के रूप में अपने नियमित सैनिकों को भेजकर आपरेशन गिब्राल्टर चलाया लेकिन ताशकंद जाकर लाल बहादुर शास्त्री कश्मीर में जीता हुआ इलाका राष्ट्रपति अयूब खान को दे आए। 1971 में भी भारत इतनी मजबूत स्थिति में था कि अपनी शर्तें पाकिस्तान पर थोप सकता था। लेकिन भारत ने हर बार सदाशयता दिखाई। 1999 में भी ऐसा ही हुआ। पाकिस्तान ने मुजाहिदों के रूप में अपने सैनिकों से कारगिल में घुसपैठ करवाई लेकिन फिर भी भारत ने धैर्य और संयम से काम लेते हुए पाकिस्तान के इस दुस्साहस के लिए उसे समुचित सबक नहीं सिखाया।

पाकिस्तान से भारत ने हमेशा धोखा खाया है और आजादी के बाद से ही भारतीय नेतृत्व की यह सद्भावना या यूँ कहें कि भूल रही है कि पाकिस्तान पर हमेशा विश्वास करता गया। लाहौर की ऐतिहासिक बस यात्रा के बाद भी ऐसा ही हुआ। भारतीय रक्षा कर्णधार अपनी सरहदों की रक्षा के प्रति सजग नहीं रहे। लेकिन कारगिल ने भारतीय रक्षा नियोजन को झकझोर कर रख दिया। वास्तव में 28 सालों तक प्रत्यक्ष युद्ध नहीं होने के कारण भारतीय सैन्य तैयारियों में आलसीपन की स्थिति आ गई थी। उम्मीद है कि इससे भारतीय रक्षा नियोजक अब उबरेंगे। असल में मई, 1998 में परमाणु परीक्षण कर लेने के बाद यह मानसिकता भी बनने लगी थी कि पाकिस्तान हालाँकि परीक्षण कम तीव्रता वाला युद्ध तो चलता रहेगा लेकिन खुला पारम्परिक युद्ध नहीं लड़ सकता। लेकिन बात उलटी निकली। पाकिस्तान ने अपने परमाणु बम के बल पर भारत के खिलाफ एक सीमित पारम्परिक युद्ध कारगिल में लड़ने की हिम्मत  इसलिए की कि भारत सीमित कारगिल युद्ध को खुला व्यापक युद्ध में बदलने की हिम्मत नहीं कर सकता था क्योंकि तब परमाणु युद्ध भड़कने का अन्देशा था।
परमाणु बम के बल पर ही पाकिस्तान ने कारगिल में एक ‘सीमित युद्ध’ लड़ने की हिमाकत की और इस तरह 1971 के बाद भारतीय सुरक्षा को सबसे बड़ी चुनौती पेश की लेकिन भारतीय सैनिकों ने इस चुनौती का डटकर मुकाबला किया। दो महीने से अधिक समय तक विश्व के सर्वाधिक ऊँचाई वाले और अत्यधिक बर्फीले इस इलाके में भारतीय सैनिकों ने शौर्य और वीरता की अद्वितीय मिसाल पेश करते हुए पाकिस्तानी सेना के दाँत खट्टे कर दिए।

लेकिन पाकिस्तान ने भी कभी यह अधिकारिक तौर पर स्वीकार नहीं किया कि उसकी सेना ने कारगिल में घुसपैठ की। पाकिस्तानी राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व से विरोधाभासी बयान आते रहे। कभी यह कि घुसपैठ करने वाले मुजाहिदों पर उसका कोई उनका वश नहीं है, कभी अमेरिकी दबाव में यह कहना कि मुजाहिदों से वह आग्रह करेगा कि नियन्त्रण रेखा तक लौट आएं, कभी यह कि नियन्त्रण रेखा का जमीन पर निश्चित निर्धारण नहीं हुआ था इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि नियन्त्रण रेखा की सटीक स्थिति क्या है। पाकिस्तान कभी यह भी कहता कि घुसपैठिये जिस इलाके में कब्जा जमाए हैं वही वास्तविक नियन्त्रण रेखा है।

इस तरह पाकिस्तान झूठ ही झूठ बोल कर अन्तरराष्ट्रीय समुदाय में भ्रम पैदा करने की कोशिश करता रहा। लेकिन विश्व समुदाय ने पहली बार पाकिस्तान के इस झूठ को झूठ ही माना और पाकिस्तान से कहा कि नियन्त्रण रेखा तट लौट जाए।
षड्यन्त्र और झूठ की यह पाकिस्तानी रणनीति कामयाब नहीं हो पाई लेकिन इस दौरान भारतीय सेना को अपने 483 सैनिकों की कुर्बानी देनी पड़ी। कारगिल में घुसपैठ की पृष्ठभूमि और पाकिस्तान की भविष्य की रणनीति क्या थी, इसका खुलासा इस पुस्तक में करने की कोशिश की है। पाकिस्तान ने नियन्त्रण रेखा की सच्चाई स्वीकारने से इनकार किया लेकिन सच क्या है, इसका विस्तार से विवरण दिया गया है। पाकिस्तान ने 1972 के शिमला समझौते की भावना का उल्लंघन किया। इसकी विस्तृत समीक्षा की गई है। पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर विवाद का हल जनमत-संग्रह से करवाने की बात की लेकिन जनमत-संग्रह का सच क्या है, इसका ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया गया है। जम्मू कश्मीर का भारत में किन हालात में विलय हुआ, दस्तावेजों के साथ इसका विवरण पेश किया गया है। आपरेशन टोपक के माध्यम से पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर में उपद्रव अशान्ति और अलगवाद की आग फैलाने की असफल कोशिश की और इसी से हताश होकर पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ कर जम्मू कश्मीर मसले का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करने की कोशिश की लेकिन विश्व समुदाय ने उसका ‘द्विपक्षीकरण’ ही करवा दिया।

कारगिल का सच यही है। पाकिस्तानी सैनिकों को कारगिल से निकाल बाहर करने में सैनिकों ने अभूतपूर्व कुर्बानी दी। कारगिल में पाकिस्तानी सैनिकों की घुसपैठ इसलिए हो सकी कि कारगिल की नियन्त्रण रेखा का इलाका पूर्णत: अरक्षित छोड़ दिया था। भारतीय सैन्य अधिकारियों ने। कारगिल में घुसपैठ पाकिस्तानी सेना ने ही की। पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा का उल्लंघन कर शिमला समझौते की भावना से खिलावड़ किया।
इस सारे पहलुओं को ऐतिहासिक सन्दर्भों के सच के आईने से देखने की कोशिश की गई है। आशा है पाठकों को यह प्रयास पसन्द आएगा।
अगस्त, 1999
नई दिल्ली

-रंजीत कुमार


षड्यन्त्र और झूठ का पर्दाफाश


कारगिल के 15 सौ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाकिस्तानी सैन्य घुसपैठ के पीछे पाकिस्तान की मुख्य रणनीति यह थी कि लद्दाख को शेष जम्मू कश्मीर से काट दिया जाएगा और घुसपैठ के कारण कश्मीर विवाद का इतना तीव्र अन्तरराष्ट्रीयकरण होगा कि परमाणु युद्ध की आशंका से घबराकर अमेरिका व अन्य बड़ी ताकतें बीच-बचाव को कूद पड़ेंगी। हालाँकि पाकिस्तान इन दोनों मोर्चों पर बुरी तरह विफल रहा लेकिन कारगिल में घुसपैठ के लिए पाकिस्तान ने जो षड्यन्त्र रचा था, उसका खुलासा किया जाना जरूरी है।

लद्दाख को कश्मीर से अलग करने की योजना तीन चरणों में तैयार की गई थी। पहले चरण में कश्मीर घाटी को लद्दाख से अलग करने के साथ-साथ उसका प्रयास था कि कारगिल के उत्तर पूर्व में चोरबटला और तुरतुक के मुहाने पर अपनी स्थिति मजबूत कर ले। दूसरे चरण में पाकिस्तान ने सोचा था कि अपने सैनिकों को सिन्धु नदी के उत्तर पूर्व में चोरबटला दर्रा से होकर भेजेगा और यहाँ से श्योक नदी के किनारे तरतुक के ‘मुँह’ से होकर खालसर तक सैन्य दबाव बढ़ाएगा। यहां श्योक नदी नुब्रा नदी से मिलती है। इस तरह दूसरे चरण के तहत सियाचिन पर भारत की पकड़ काफी कमजोर करने की योजना की। तीसरे और अन्तिम चरण में पाकिस्तान विभिन्न स्थानों पर अपनी सैन्य स्थिति मजबूत कर लद्दाख को शेष भारत से पूर्णत: अलग-धलग करने की कोशिश करता।

हालाँकि पाकिस्तान की तीन चरणों वाली यह योजना पहले चरण में ही विफल कर दी गई लेकिन पाकिस्तान ने पहले चरण में भारतीय सैनिकों को जबर्दस्त चुनौती पेश की। यद्यपि भारत ने पाकिस्तान की अपेक्षाओं के विपरीत पहले चरण को विफल करने के लिए वायुसैनिक कार्रवाई का सहारा लिया लेकिन यदि वायुसैनिक हमलों से पाकिस्तान की समाघात क्षमता कम नहीं की जाती जब पाकिस्तान कारगिल में भारतीय सैनिकों को कुछ और महीनों तक उलझाए रहता तो कोई आश्चर्य नहीं और तब शायद कश्मीर विवाद के अन्तरराष्ट्रीयकरण के उसके उद्देश्य भी पूरे हो जाते। पाकिस्तान ने सोचा था कि जिस तरह 1984 में भारत में अचानक सियाचिन हिमनद पर कब्जा जमा लिया और फिर सियाचिन भारत का ही हो गया उसी तरह पाकिस्तान कारगिल पर अपना कब्जा जमा कर सियाचिन पर भारतीय कब्जे की तरह कारगिल पर अपना आधिपत्य बनाए रखता। एक बार जब पाकिस्तान का कब्जा कारगिल पर बन जाता तो वह लद्दाख के आपूर्ति मार्गों को जोजिला दर्रा पर अवरुद्ध कर देता तथा लेह श्रीनगर राजमार्ग को यातायात के लिए पूर्णत: बेअसर कर भारत के लिए सैन्य आपूर्ति की भारी मुश्किलें पैदा कर देता। जोजिला दर्रा लद्दाख के लिए कश्मीर घाटी का प्रवेश मार्ग है।

कारगिल का रणनीतिक महत्व


चूँकि कारगिल के पश्चिम में ऊँची पहाड़ियाँ जोजिला से कारगिल तक राष्ट्रीय राजमार्ग एक-ए पर सीधी नजर रख सकती हैं इसलिए कारगिल सेक्टर का काफी अधिक रणनीतिक और सामरिक महत्व है। यह राजमार्ग लद्दाख और शेष जम्मू-कश्मीर के बीच कभी एकमात्र सड़क संपर्क था। कारगिल की चोटियों पर यदि दुश्मन के सैनिक कब्जा जमा लें तो श्रीनगर से सैनिक साज-सामान की लद्दाख में सैन्य छावनियों को आपूर्ति रोकी जा सकती थी इसलिए भारत ने इसका वैकल्पिक मार्ग भी बना लिया।  फलस्वरूप लेह या सियाचिन के लिए ‘राष्ट्रीय राजमार्ग’ एक-ए ही एकमात्र सड़क सम्पर्क नहीं बचा। विकल्प के रूप में पठानकोट-मनाली से होकर लेह के लिए काफी अच्छी सड़क बना दी गई है। हालांकि यह सड़क भारी बर्फबारी के कारण जोजिला मार्ग की तुलना में एक महीना बाद ही खुल पाती हैं लेकिन हिमाचल और पूर्वी लद्दाख में सेना के सुरक्षित अग्रिम अड्डे मौजूद हैं। इसके अलावा यदि श्रीनगर-लेह राजमार्ग काट भी दिया जाता तो भारत की हवाई परिवहन क्षमता इतनी अधिक हो गई है कि आवश्यक सैनिक साज समान की आपूर्ति जारी रखना सम्भव होता क्योंकि वायुसेना के विशालकाय ‘आईएल-76’ विमान तथा ए.एन.-32 परिवहन विमान और हेलीकाप्टरों की मदद से आपूर्ति का दायित्व आपात स्थिति में सुनिश्चित किया जा सकता है।

लेह की सैन्य छावनी में जाडे़ के छह महीनों के लिए पूरा सैनिक साज-सामान और रसद का भण्डार जमा कर लिया जाता है। इसके अलावा कई अन्य सड़क सम्पर्क और बाइपास भी निर्माणधीन हैं। इसलिए पाकिस्तान ने यह गलत अनुमान लगाया कि जेजिला-लेह सड़क पर ही लेह और सियाचिन की सैन्य और रसद आपूर्ति निर्भर है। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तानी घुसपैठियों ने जोजिला दर्रा के दरवाजे पर द्रास की पहाड़ियों पर अत्यधिक मजबूत सैन्य तैनाती की। तोलोलिंग, टाइगर हिल इलाका और मश्कोह घाटी की चोटियों पर से ही श्रीनगर-लेह राजमार्ग पर यातायात को अवरुद्ध करने के लिए सीधा प्रहार किया जा सकता था। अत: जम्मू कश्मीर की समग्र सुरक्षा के मद्देनजर द्रास के व्यापक सामरिक महत्व को देखते हुए थलसेना और वायुसेना ने इस इलाके से घुसपैठियों को निकाल-बाहर करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। पहले चरण के तहत पाकिस्तानी सेना ने कारगिल के उत्तर पूर्व में बटालिक पर भी तीव्र सैन्य दबाव डाला। पाकिस्तान की दृष्टि से बटालिक की चोटियों पर प्रभुत्व जमाने से लद्दाख पर कब्जा जमाने के इरादे से एक प्रमुख सामरिक उद्देश्य पूरा किया जा सकता था। बटालिक पर कब्जा कर पाकिस्तान ने सिन्धु नदी के उत्तर और पश्चिम में भारी दरार पैदा करने की रणनीति अपनाई थी। इस तरह पाकिस्तान, कारगिल की सुरक्षा करने वाली कारगिल-ब्रिगेड का सिन्धु नदी के उत्तर में तैनात दो अन्य ब्रिगेडों से सम्पर्क तोड़ने में कामयाब हो जाता।

इस तरह चोरबटला और तुरतुक इलाके को, जो सिन्धु नदी के उत्तर और उत्तर-पूर्व में स्थित हैं, अलग-थलग किया जा सकता था। उल्लेखनीय है कि चोरबटला नियन्त्रण रेखा के काफी निकट है और यह इलाका पाकिस्तानी नारदर्न लाइट इनफैन्ट्री के मुख्यालय स्कार्दु से जुड़ा है इसलिए वह चोरबटला को अवरुद्ध कर अपने षड्यन्त्र को कामयाब बनाना चाहता था। इस तरह बटालिक से चोरबटला-तुरतुक इलाके को काटकर पाकिस्तान श्योक नदी पर स्थित भारतीय सैन्य ब्रिगेड पर दबाव डालना चाहता था। चूँकि इस सेक्टर में पाकिस्तान की आपूर्ति व्यवस्था काफी अच्छी है इसलिए वह इस इलाके में भारतीय सेना पर तीव्र दबाव बना सकता था। चोरबटला दर्रा से होकर पाकिस्तान एक ब्रिगेड सेना भेज सकता था और फिर वहाँ से वह तुरतुक और उसके पूर्वी इलाके की ओर आगे बढ़ सकता था। चोरबटला-तुरतुक सेक्टर में पाकिस्तानी सेना का यदि प्रभुत्व बढ़ जाता तो सियाचिन हिमनद की सुरक्षा व्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ता। इस तरह सियाचिन पर बाद में वह चढ़ाई करने की रणनीति को अन्जाम दे सकता था।

दूसरा चरण


चोरबटला-तुरतुक इलाके में पाकिस्तानी फौज का जमाव बढ़ जाने के बाद पाकिस्तान अपने षड्यन्त्र के दूसरे चरण को लागू करना शुरू करता। पाकिस्तानी सेना श्योक घाटी के नीचे घुसपैठ बढ़ाकर सियाचिन का बेसकैम्प थोइस पर कब्जा जमाती और इस तरह एक महत्वपूर्ण रणनीतिक बढ़त हासिल कर सियाचिन पर तैनात भारतीय सैनिकों की सम्पूर्ण आपूर्ति बंद हो सकती थी। फिर पाकिस्तान सेना नुब्रा और श्योक नदियों के संगम पर खालसर पर कब्जा जमा सकती थी। खालसर पर पाकिस्तानी कब्जे से पड़ोस में लेह पर दबाव बढ़ जाता। लद्दाख को जम्मू कश्मीर से काट देने के पाकिस्तानी षड्यन्त्र के इस तीसरे चरण के अभियान के तहत लद्दाख पर कब्जा जमाना आसान हो जाता। पाकिस्तान ने विशेष तौर पर तुरतुक इलाके पर कब्जे के लिए चार चरणों की एक योजना बनाई थी। इस इलाके से गिरफ्तार उग्रवादियों से पूछताछ के बाद पता चला कि पाकिस्तान ने तुरतुक के इलाके पर कब्जा जमाकर उसे अपने ‘नारदर्न एरियाज’ में मिलाने का भी षड्यन्त्र रचा था। यह षड्यन्त्र चार चरणों में इस तरह लागू किया जाना था। पहले चरण में तुरतुक में उग्रवादियों की घुसपैठ कराकर स्थानीय आबादी को भड़काया जाए और उग्रवादी तथा अलगाववादी गतिविधियां शुरू की जाएं। दूसरे चरण में तुरतुक के आसपास संवेदनशील क्षेत्रों पर कब्जा जमाने के लिए सैन्य कार्रवाई का इरादा था। तीसरे चरण में तुरतुक इलाके पर पाकिस्तानी सैनिकों को उतारने के लिए हेलीकाप्टर और विमानों से कार्रवाई शुरू करनी थी। और चौथे चरण में तुरतुक और आसपास के इलाकों को नारदर्न एरियाज में मिला लेने की घोषणा कर दी जाती।

पाकिस्तान ने इस षड्यन्त्र को अन्जाम देने के लिए पाक-अधिकृत कश्मीर के नारदर्न एरियाज (उत्तरी इलाकों) को अपनी सैन्य गतिविधियों का केन्द्र बनाया था। इसलिए इस इलाके को पूर्णत: सैन्य शासन के तहत कर दिया गया। ताकि नारदर्न-एरियाज (गिलगिट, स्कार्दु बालतिस्तान आदि) को शेष पाक-अधिकृत कश्मीर से पूर्णत: अलग-थलग कर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय समाचार प्रतिनिधियों को वहाँ प्रवेश से रोका जा सके।





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