बाल एवं युवा साहित्य >> मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से मुल्ला नसरुद्दीन के किस्सेमुकेश नादान
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प्रस्तुत है मुल्ला नसरुद्दीन के रोचक किस्से....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
किस्सा मुल्ला नसुरुद्दीन
सूरज का गोला पश्चिम की पहाड़ियों के पीछे छिप गया था। सूरज छिपने के बाद
मशरिक, मगरिब, सुमाल और जुनूब में फैली सुर्खी भी धीरे-धीरे सिमटने लगी
थी। फिजां में ऊँटों के गले में बँधी घँटी की घनघनाटह गूँज रही थी। एक
काफिला बड़ी तेजी के साथ बुखारा शहर की तरफ बढ़ा जा रहा था। काफिले में
सबसे पीछे एक गधे पर सवार जो शख्स था, वह गर्दों-गुबार में इस तरह लथपथ हो
चुका था कि उसके तमाम बदन पर गर्द की एक मोटी तह जम चुकी थी जिससे उसका
चेहरा पहचान में न आता था।
दीन-हीन हालत में काफिले के पीछे गधे पर सवार चला आ रहा यह शख्स और कोई नहीं, मुल्ला नसरुद्दीन था।
मुल्ला नसरुद्दीन !
बुखारा का मनमौजी-फक्कड़ इंसान, यतीमों और गरीबों का सहारा, सूदखोरों और जबरन टैक्स वसूल करने वालों का कट्टर दुश्मन और बुखारा के अमीर की आँखों में चुभने वाला काँटा था मुल्ला नसरुद्दीन ! अपने वफादार गधे के साथ शरह-दर-शहर की खाक छानते हुए वह दस बरस से अपने मादरे-वतन बुखारा से दूर रहा था, लेकिन उसकी आँखों में हमेशा अपने वतन के मजलूम लोगों की चीखों-पुकार, अमीर-उमरावों के जुल्म कौंधते रहते थे।
इन दस वर्षों में वह बगदाद, इस्तामबूल, बख्शी सराय, तेहरान, तिफलिस, अखमेज और दमिश्क जैसे सभी मुल्कों में घूम आया था। वह जहाँ भी जाता, गरीबों का मुहाफिज और जुल्म करने लाले अमीर-उमरावों का दुश्मन बन जाता। वह गरीबों और यतीमों के दिलों में कभी न भुलाई जाने वाली यादें और जुल्म के पैरोकारों के दिलों में खौफ के साए छोड़ जाता।
अब वह अपने वतन बुखारा लौट रहा था, ताकि बरसों से भटकती अपनी जिंदगी को वह कुछ चैन सुकून से बिता सके।
काफिले के पीछे चल रहा मुल्ला नसरुद्दीन हालांकि गर्दे-गुबार में पूरी तरह लथपथ हो चुका था मगर फिर भी वह खुश था। इस धूल-मिट्टी से उसे सोंधी-सोंधी खूशबू आती महसूस हो रही थी, आखिर यह मिट्टी उसके अपने प्यारे वतन बुखारा की जो थी।
काफिला जिस वक्त शहर की चारदीवारी के करीब पहुँचा, फाटक पर तैनात पहरेदार फाटक बन्द कर रहे थे। काफिले के सरदार ने दूर से ही मोहरों से भरी थैली ऊपर उठाते हुए चिल्लाकर पहरेदारों से कहा—खुदा के वास्ते रुको, हमारा इंतजार करो।
हवा की साँय-साँय और घाटियों की घटनघनाहट में पहरेदार उनकी आवाज न सुन सके और फासला होने के कारण उन्हें मोहरों से भरी थैली भी दिखाई न दी। फाटक बंद कर दिए गए, अंदर से मोटी-मोटी साकलें लगा दी गईं और पहरेदार बुर्जियों पर चढ़कर तोपों पर तैनात हो गए। अल्लाह का शुक्रिया।
धीरे-धीरे अँधेरा फैलना शुरू हो गया था। हवा में तेजी के साथ-साथ कुछ ठंडक भी बढ़ने लगी थी। आसमान पर सितारों की टिमटिमाहट के बीच दूज का चाँद चमकने लगा था।
सरदार ने काफिले को वहीं चारदीवारी के पास ही डेरा डालने का हुक्म दे दिया।
बुखारा शहर की मस्जिदों की ऊँची-ऊँची मीनारों से झुटपुटे की उस खामोशी में अजान की तेज-तेज आवाजें आने लगीं।
अजान की आवाज सुनकर काफिले के सभी लोग नमाज के लिए इकट्ठा होने लगे मगर मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर को खिसक लिया।
वह अपने गधे के साथ चलते हुए कहने लगा—ऐ मेरे प्यारे गधे काफिले के इन लोगों को तो खुदा ने सबकुछ अदा किया है जिसके लिए ये व्यापारी नमाज पढ़कर खुदा का शुक्रिया अदा करें। ये लोग शाम का खाना खा चुके हैं और अभी थोड़ी देर बाद रात का खाना खाएँगे। मेरे वफादार गधे ! मैं और तू तो अभी भूखे हैं। हमें न तो शाम का खाना मिला है और न ही अब रात को मिलेगा। हम किस चीज के लिए खुदा का शुक्रिया अदा करें। मगर अल्लाह हमारा शुक्रिया चाहता है तो मेरे लिए पुलाव की तश्तरी और तेरे लिए एक गठ्ठर घास भिजवा दे।
दीन-हीन हालत में काफिले के पीछे गधे पर सवार चला आ रहा यह शख्स और कोई नहीं, मुल्ला नसरुद्दीन था।
मुल्ला नसरुद्दीन !
बुखारा का मनमौजी-फक्कड़ इंसान, यतीमों और गरीबों का सहारा, सूदखोरों और जबरन टैक्स वसूल करने वालों का कट्टर दुश्मन और बुखारा के अमीर की आँखों में चुभने वाला काँटा था मुल्ला नसरुद्दीन ! अपने वफादार गधे के साथ शरह-दर-शहर की खाक छानते हुए वह दस बरस से अपने मादरे-वतन बुखारा से दूर रहा था, लेकिन उसकी आँखों में हमेशा अपने वतन के मजलूम लोगों की चीखों-पुकार, अमीर-उमरावों के जुल्म कौंधते रहते थे।
इन दस वर्षों में वह बगदाद, इस्तामबूल, बख्शी सराय, तेहरान, तिफलिस, अखमेज और दमिश्क जैसे सभी मुल्कों में घूम आया था। वह जहाँ भी जाता, गरीबों का मुहाफिज और जुल्म करने लाले अमीर-उमरावों का दुश्मन बन जाता। वह गरीबों और यतीमों के दिलों में कभी न भुलाई जाने वाली यादें और जुल्म के पैरोकारों के दिलों में खौफ के साए छोड़ जाता।
अब वह अपने वतन बुखारा लौट रहा था, ताकि बरसों से भटकती अपनी जिंदगी को वह कुछ चैन सुकून से बिता सके।
काफिले के पीछे चल रहा मुल्ला नसरुद्दीन हालांकि गर्दे-गुबार में पूरी तरह लथपथ हो चुका था मगर फिर भी वह खुश था। इस धूल-मिट्टी से उसे सोंधी-सोंधी खूशबू आती महसूस हो रही थी, आखिर यह मिट्टी उसके अपने प्यारे वतन बुखारा की जो थी।
काफिला जिस वक्त शहर की चारदीवारी के करीब पहुँचा, फाटक पर तैनात पहरेदार फाटक बन्द कर रहे थे। काफिले के सरदार ने दूर से ही मोहरों से भरी थैली ऊपर उठाते हुए चिल्लाकर पहरेदारों से कहा—खुदा के वास्ते रुको, हमारा इंतजार करो।
हवा की साँय-साँय और घाटियों की घटनघनाहट में पहरेदार उनकी आवाज न सुन सके और फासला होने के कारण उन्हें मोहरों से भरी थैली भी दिखाई न दी। फाटक बंद कर दिए गए, अंदर से मोटी-मोटी साकलें लगा दी गईं और पहरेदार बुर्जियों पर चढ़कर तोपों पर तैनात हो गए। अल्लाह का शुक्रिया।
धीरे-धीरे अँधेरा फैलना शुरू हो गया था। हवा में तेजी के साथ-साथ कुछ ठंडक भी बढ़ने लगी थी। आसमान पर सितारों की टिमटिमाहट के बीच दूज का चाँद चमकने लगा था।
सरदार ने काफिले को वहीं चारदीवारी के पास ही डेरा डालने का हुक्म दे दिया।
बुखारा शहर की मस्जिदों की ऊँची-ऊँची मीनारों से झुटपुटे की उस खामोशी में अजान की तेज-तेज आवाजें आने लगीं।
अजान की आवाज सुनकर काफिले के सभी लोग नमाज के लिए इकट्ठा होने लगे मगर मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर को खिसक लिया।
वह अपने गधे के साथ चलते हुए कहने लगा—ऐ मेरे प्यारे गधे काफिले के इन लोगों को तो खुदा ने सबकुछ अदा किया है जिसके लिए ये व्यापारी नमाज पढ़कर खुदा का शुक्रिया अदा करें। ये लोग शाम का खाना खा चुके हैं और अभी थोड़ी देर बाद रात का खाना खाएँगे। मेरे वफादार गधे ! मैं और तू तो अभी भूखे हैं। हमें न तो शाम का खाना मिला है और न ही अब रात को मिलेगा। हम किस चीज के लिए खुदा का शुक्रिया अदा करें। मगर अल्लाह हमारा शुक्रिया चाहता है तो मेरे लिए पुलाव की तश्तरी और तेरे लिए एक गठ्ठर घास भिजवा दे।
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