श्रंगार - प्रेम >> डॉ. शेफाली डॉ. शेफालीउदय शंकर भट्ट
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प्रस्तुत है एक रोचक उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
लेडी डॉक्टर शेफाली ने बाहर घण्टी की आवाज सुनते ही नौकर को पुकारकर कहा,
‘‘देखो तो बाहर कौन है ! मालूम होता है कोई रोगी
है।’’
नौकर दरवाजे से लौटकर बोला, ‘‘एक आदमी बहुत जरूरी काम से आपसे मिलना चाहता है। मैंने कहा, ‘इस समय नहीं मिल सकतीं डाक्टर साहब, सबेरे आना।’ ’’
‘‘हाँ-हाँ, बुलाओ न , कौन है ?’’ शेफाली ने खाने की मेज पर बैठे-बैठे प्रतीक्षा करते हुए कहा। इस समय शेफाली भोजन के लिए बैठ रही थी। इसी बीच में यह पुकार हुई। नौकर के साथ ही आदमी बरामदे में आकर खड़ा हो गया और बेचैनी से ऐसे खड़ा हो गया जैसे उसका सारा शरीर विवशता का रूप धारण किए हो, या कि वह अपने सर्वांग से लेडी डाक्टर को एकबारगी बिना रुके देख लेना चाहता हो। रात के नौ बजे का समय था। दिन-भर रोगियों को देखने व दवा-दारू के बाद स्नान करके भोजन के लिए बैठते ही उस व्यक्ति ने आकर दस्तक दी। शेफाली के लिए यह कोई नई बात तो थी नहीं, रोज ही ऐसा होता था। वह परोसी हुई थाली छोड़कर बाहर बरामदे में आ गई और उसकी तरफ ऐसे देखने लगी मानो उसकी घबराहट को वाणी दे रही हो।
आगन्तुक ने लेडी डाक्टर को देखते ही घिघियाते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सेठ राममोहन के घर बहुत तकलीफ है। उनकी स्त्री मृत्यु-शय्या पर पड़ी है। जल्दी चलिए। बाहर मोटर खड़ी है।’’
‘‘क्या बात है ?’’
‘‘ठीक-ठीक प्रसव नहीं हो रहा। मालूम होता है कष्ट के मारे उनके प्राण निकल जाएँगे। आपको तकलीफ तो..’’ आगन्तुक चुप हो गया।
शेफाली चुपचाप भीतर कमरे में गई जरूरी दवाओं का बक्स लेकर मोटर में आ बैठी। मोटर अबाध गति से चल पड़ी।
राममोहन की पत्नी को सचमुच बहुत कष्ट था। वह दर्द के मारे बेहोश हो गई थी। एक नर्स और कई डाक्टर वहाँ थे। नए-नए इंजेक्शन दिए जा रहे थे, परन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा था। कभी-कभी-कभी चेतना हो जाती, उस समय उसकी दर्द भरी चिल्लाहट सुनकर वहाँ बैठे हुए लोगों के प्राण विचलित हो उठते थे। राममोहन, जो कभी साधना के कमरे और कभी बाहर बरामदे में टहल रहा था, शेफाली को देखते ही दोनों हाथ मसलता हुआ निहोरे के स्वर में कहने लगा-‘‘मेरी पत्नी को बचाइए डाक्टर ! उसके प्राण निकल रहे हैं !’’ इतना कहते हुए वह शेफाली को रोगिणी के कमरे तक छोड़ आया। वह धड़धड़ाती भीतर चली गई और उपचार करने लगी। उसने नर्स को छोड़कर बाकी सबको कमरे से बाहर कर दिया।
थोड़ी देर के बाद कमरे से बाहर आकर उसने राममोहन से पूछा, ‘‘दोनों में से एक बच सकता है; बच्चा या उसकी माँ।’’
‘‘क्या दोनों नहीं ?’’
‘‘नहीं, जल्दी बोलो।’’
राममोहन कुछ देर रुका। अन्तर में उसके मुँह से निकल गया, ‘‘उसकी माँ को, डाक्टर साहब !’’
शेफाली भीतर चली गई। सब लोग बाहर बेचैनी से टहल रहे थे। बेचैन राममोहन उस समय भी बीच बीच में टेलीफोन पर कभी बाजार-भाव की आलोचना करता, कभी खरीदे या बचे हुए माल की खबरें अपने साथी व्यापारियों को दे रहा था। इसी बीच कभी-कभी बात करते करते हँस भी पड़ता था, जैसे पत्नी का कष्ट और घर का वातावरण व्यापार में कहीं खो गया है। जिस समय शेफाली साधना के कमरे से लौटी तब तक और लोग चले गए थे। केवल राममोहन टेलीफोन पर हँस-हँसकर उस दिन के व्यापार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था। साधना की चीख पुकार कम हो रही थी। कभी-कभी वह चिल्ला उठती, फिर शान्त हो जाती। इसी बीच में शेफाली ने आकर सूचना दी-‘‘तुम्हारी पत्नी बच गई है, बच्चे को काटकर निकाला गया है।’’ इतना कहकर वह भीतर चली गई।
राममोहन की उम्र अट्ठाईस और उसकी पत्नी की बाईस साल; दोनों का विवाह हुए पाँच-साल हो चुके थे। यह पहला प्रसव-काल था। विवाह के बाद राममोहन के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। गृहस्थी का सारा भार उन दोनों पर आ पड़ा। पत्नी साधना जीवन के स्वप्नों की तरह राममोहन को प्रिय थी, इसीलिए बच्चे का मोह छोड़कर उसने साधना को बचाने का आग्रह शेफाली से किया। वैसे भी राममोहन उन लोगों में अपने को नहीं गिनता था जो मूल की अपेक्षा सूद की परवाह करते हैं। वह मानता था, बल्कि उसने सोचा कि फूल की रक्षा के लिए पेड़ की डाल काटना न केवल अदूरदर्शिता ही है, मूर्खता भी है। साधना राममोहन के जीवन की साधना थी। साधना के साथ उसके माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध ब्याह किया था।
राममोहन जब बी.ए. के आखिरी साल में था तभी साधना फर्स्ट ईयर में दाखिल हुई। साधना के रूप-सौन्दर्य पर भौंरों की तरह कॉलेज के लड़के मंडराने लगे। राममोहन में कोई विशेषता नहीं थी-न तो वह पढ़ाई में तेज था, न अच्छा खिलाड़ी और न डिबेटर। वह उनमें भी नहीं था जिन्हें लड़कियों को अपनी ओर खींचने की कला आती है; जो जबान में चूरन का-सा चटपटापन भरकर, आँखों से शराब पीकर, हाथों से जमीन और आसमान दोनों के छोर मिलाते हैं; जो प्रोफेसर के सामने किताबों में आँखें गड़ाए रहते हैं, कानों से देखते हैं और सौन्दर्य का मोहन मन्त्र पढ़ते रहते हैं। वह एक बीच का लड़का था। साधारण ज्ञान, साधारण रूप, एक तरह से साधारण मध्यवित्त का प्राणी, जो संसार में केवल मनुष्य-संख्या बढ़ाने आते हैं। फिर भी साधना ने राममोहन को ही पसन्द किया। वह हर नए काम के लिए भरपूर चन्दा देता, रुपया ऐसे लुटाता जैसे जवानी में दिल लुटाया जाता है। बस, इसी से एक दिन मेनका ने विश्वामित्र को पसन्द कर लिया।
राममोहन का भाग्य हँसा और साधना का रूप। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया और एक दिन दोनों स्त्री-पुरुष के अनादि बन्धन में जकड़ गए। उस दिन राममोहन ने देखा कि उसके भाग्य की पुरानी गाँठों में से एक ने खुलकर उसकी सोती हुई प्यासी आशा को तृप्ति और विश्वास के रूप में बदल दिया है। उस समय उसने न तो उत्सुकता, जिज्ञासा और तर्क के मर्म तक पहुँचने की चेष्टा की और न वे पुराने परिच्छेद ही दुहराए। वह सौंदर्य की मादक साँसों के तारों से अपने जीवन की रागिनी मिलाकर गाने लगा। इधर साधना, जो गरीब लड़की थी, जिसके कुल से लहर की तरह चंचल लक्ष्मी बहुत दिनों से रूठ गई थी, इस अभिनव किन्तु नई सहेली लक्ष्मी को पाकर फूली न समाई। उसने साधारण राममोहन को असाधारण आदमी का कृपा-पात्र मानकर आत्म-समर्पण करने में जरा भी झिझक का अनुभव नहीं किया।
यही बात एक बार उसने कॉलेज की एक सहेली से कही थी, ‘‘मेरे पास न तो विद्या की चमक है न बुद्धि की तेजी, मेरे पास तो रूप है। फिर क्यों न मैं अपने रूप को ही सोने का मुलम्मा चढ़ाकर चमका दूँ, और यह काम राममोहन जैसे व्यक्ति से शादी करके ही हो सकता है। क्यों न मैं उसके धन से अपने को गर्वित करूँ।’’
सहेली ने जवाब दिया, ‘‘ठीक है, सभी मनुष्य तेज नहीं होते, परन्तु धन की चमक से जो भीतर नहीं होता वह भी चमकने लगता है। धन में और कुछ चाहे न हो, वह अपने गर्व से, अपने प्रसाधन से मनुष्य को राम से लेकर रहीम तक का पार्ट अदा करने में बाहरी सहायता तो कर ही सकता है।’’
साधना ने उत्तर दिया, ‘‘हाँ, यही बात है।’’
जिस समय दूसरी बार शेफाली साधना के कमरे से आई तो चम्पा के फूल की हल्की मुस्कुराहट के समान उसने राममोहन को साधना के बच जाने की बधाई दी।
राममोहन ने जड़ता से भरी कृतज्ञता के साथ शेफाली के शुभ्र मुख पर लहराते यौवन की झीनी छाया में एक मुस्कुराहट देखी और आभार स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आपकी कृपा से मेरी पत्नी को जीवन-दान मिला है।’
कहने को यह कहा जा सकता है कि शेफाली राममोहन को देखकर एक बार भीतर-ही-भीतर चौंक सी उठी, परन्तु उसके प्रत्येक बीमार के उपचार को दिखाने वाली आशावादिता और स्वभाव की गम्भीरता से अपने हृदय के बवंडर को दबा लिया और उसी मुस्कराहट के साथ वह रात को फीस के डबल रुपये लेकर मोटर में आ बैठी। राममोहन ने मोटर स्वयं ड्राइव करने के लिए शेफाली का दवा का बक्स अपने-आप उठा लिया। दोनों बाहर आकर आगे की सीट पर बैठ गए। रास्ते में कोई बात नहीं हुई। राममोहन सड़क के दोनों ओर बिजली के प्रकाश की तरह साधना और शेफाली का प्रकाश पाकर मोटर की अबाध गति के साथ-साथ स्वयं भी दौड़ने लगा। केवल उतरते समय शेफाली की तरफ का दरवाजा खोलते हुए राममोहन ने अपना हृदय कृतज्ञता से भिगोकर पूछा, ‘‘क्या आप साधना को प्रतिदिन दो बार देखने का कष्ट उठा सकेंगी ?’’’
‘‘क्यों नहीं, जब तक वह ठीक नहीं हो जाती तब तक मैं सुबह शाम दोनों समय आकर देख लिया करूँगी।’’
‘‘मेरी मोटर, आपको ले आया, ले जाया करेगी।’’
शेफाली बक्स उठाकर धड़-धड़ करती सीढ़ियों पर चढ़ गई। रोममोहन खाली मोटर लेकर लौट आया, जैसे नए बिजली के प्रकाश में दीये की रोशनी मद्धम पड़ गई हो।
साधना अपने कमरे में लेटी थी। मुँह खुला हुआ और सारा शरीर दूध-सी धुली हुई सफेद चादर से ढका था। मालूम होता था जैसे पीली कनेर का एक गुच्छा चाँदनी में खिला पड़ा हो। इस समय उसे अपेक्षाकृत कम कष्ट था, इसीलिए उसे नींद आ गई थी। नर्स उसकी खाट के पास आरामकुर्सी पर ढुलक गई थी। राममोहन साधना को देखकर अपने कमरे में लौट आया और अपने व्यापार के काम में लग गया। परन्तु इतना निश्चित है कि उसका मन काम में नहीं लग रहा था और न उसे नींद ही आ रही थी। प्रत्येक नए कागज पर दस्तखत करते हुए साधना की कष्ट भरी कराह और शेफाली की छाया-मूर्ति उन अक्षरों में उलझ जाती, जैसे वह प्रत्येक बार बक्स में से नई दवा की शीशी निकाल रही हो, या थर्मामीटर का पारा झाड़ रही हो, या इंजेक्शन की सुई, साधना के शरीर में चुभोकर जिन्दगी की बूंदें उसके शरीर में डाल रही हो। और इसी बीच उग्र गर्जन की तरह साधना की विकृत स्वर-भरी पुकार अक्षरों के सीधे टेढ़े रेखा-केन्द्रों पर आकर रुक जाती हो। यह पहला ही अवसर था जब उसने जिन्दगी और मौत की लड़ाई देखी और इतने निकट से कि साधना की चीख के साथ-साथ जैसे उसके शरीर से भी कोई चीज खिंची जा रही हो। अन्त में सब काम जैसे का तैसा छोड़कर वह अपने पलंग पर जा लेटा। उसे कब नींद आ गई, वह उसे भी याद न रहा।
शेफाली दूसरे दिन प्रात:काल हिमावृत कमलिनी की तरह वही बक्स लिये साधना को देखने आ गई। साधना निश्चल प्रतिमा की तरह पड़ी हुई थी, जैसे जिन्दगी मौत की गोद से छीनकर लाई गई हो। उसने आँखों से ही शेफाली को प्रणाम किया और होंठ हिलाकर उसके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित की। शेफाली ने थर्मामीटर लगाकर, नब्ज देखकर उसके धन्यवाद को स्वीकार किया और चुपचाप नर्स से दवा-दारू की व्यवस्था करके पाँच-सात मिनट बाद ही लौट गई।
राममोहन अभी खाट पर पड़ा अपनी रात की नींद का उत्तरार्द्ध, आलस्य उतार रहा था। उसे यह ध्यान भी न था कि लेडी डाक्टर समय की इतनी पाबन्द होगी। वह जो मोटर भेजने का वचन दे आया था, उसकी तो अभी भूमिका भी तैयार न थी। उसने अपने आलस्य को आज पहली बार धिक्कारा और चटपट शेफाली से मिलने के लिए तैयार होने से पहले ही देखा कि शेफाली साधना को देखकर चली भी गई है। शाम को शेफाली को स्वयं लाने की प्रतिज्ञा सी करके वह अपने काम में लग गया। दिन-भर उसका मन दुकान के काम में नहीं लगा। राममोहन को दुकान पर काम भी क्या था ! वह बैठा-बैठा बाजार के भाव-ताव टेलीफोन पर पूछता या आए-गए वैसे ही लोगों से गप्प मारता।
मुनीम लोग अपना काम करते। धन के बंटवारे में चौदह आने भाग उसी का होता, क्योंकि उसने मनुष्य का मस्तिष्क खरीद लिया था। जैसे नमक की खान में हर चीज नमक बन जाती है, इसी तरह राममोहन की दुकान पर काम करने वाले व्यक्तियों का परिश्रम धन की राशि बढ़ाने में केवल राममोहन का साथ देता। इसी बीच में दो बार वह साधना को भी देख आया। वह मुरझाए हुए बासी फूल की तरह नर्स की देख-रेख में उसी तरह पड़ी हुई थी। नींद उसे जब तब घेर लेती और आँख खोलकर देखती कि इस कष्ट के बदले में मिला उसे कुछ भी नहीं है। केवल कटे हुए मांस पिंड की स्मृति दर्द में लिपटी हुई रह गई है। नर्स ने जब शेफाली की कार्यकुशलता की प्रशंसा में अतिरेक-विवेक का ध्यान न रखकर स्तोत्र पढ़ना आरम्भ किया तो राममोहन के हृदय का जैसे द्वार खुल गया, जिसमें प्रेम-सा चिपचिपा रस बहने लगा, ऐसा उसे भासित हुआ। शेफाली की रात की मूर्ति उसके ध्यान में आ गई और उसी समय उसे लिवा लाने की प्रतिज्ञा को दुहराकर वह दुकान पर चला गया।
यथासमय राममोहन मोटर लेकर शेफाली को लेने गया। उस समय डिस्पेन्सरी में बैठे हुए एक बूढ़े-से कम्पाउण्डर ने उसे बताया कि डाक्टर दो बजे दोपहर से जो गई हैं तो अभी तक उन्होंने लौटने का नाम नहीं लिया है और कोई ठीक भी नहीं है। राममोहन चुपचाप एक कुरसी पर जा बैठा। शेफाली के रोगियों को देखने के कमरे में एक कलेण्डर और महात्मा बुद्ध की तस्वीर के अतिरिक्त और कुछ न था। मूविंग शेल्फ में डाक्टरी की कुछ किताबें, मेज पर कार्ड-बोर्ड जिल्द का एक बड़ा सा पैड उसमें स्याही चूस एक तिथिवार कलेण्डर दवात-कलम और एक ‘प्रिस्क्रिप्शन’ पैड के सिवा और कुछ नहीं था। रोगियों के बैठने के लिए दो बैंच, एक तरफ एक कोने में वाश-बेसिन और कमरे के पीछे रोगियों के देखने का विशेष स्थान था। राममोहन बैठा रहा।
लगभग एक-डेढ़ घण्टा बैठने के बाद भी जब शेफाली नहीं आई तब उसने कम्पाउण्डर से एक बार फिर पूछा। वृद्ध ने अपना पहला उत्तर दुहरा दिया और आने वाले लोगों की दवा बनाने लगा। इसी समय एक दवा लेने वाले से मालूम हुआ कि डाक्टर साहब सब मरीजों को देखकर ही लौटेंगी। राममोहन, जो अब सब तरह से ऊब चुका था, हारकर अपने घर पहुँचा तो नौकर ने बताया कि लेडी डाक्टर दूसरी बार फिर साधना को देखकर चली गई हैं और दवा भी उन्होंने लिखकर दी थी, वह आ गई है। साधना की अवस्था में धीरे-धीरे अन्तर आ रहा था। वह सबेरे से अब कुछ अच्छी थी; धीरे-धीरे बोल भी रही थी। राममोहन वहीं जाकर बैठ गया। उसे लगा जैसे वह बहुत थक गया है।
‘‘क्या दुकान से आ रहे हो ?’’ साधना ने होंठों के साथ आँखों के संकेत से पूछा।
‘‘लेडी डाक्टर को बुलाने गया था, पर उसका कुछ भी पता न लगा। यहाँ आने पर मालूम हुआ कि वह तुम्हें देख भी गई है।’’
‘हाँ, बड़ी अच्छी है बेचारी। मुझे तो उसने बचा लिया।’’
‘‘फीस की उसे बिल्कुल परवाह नहीं है। इसीलिए शहर में सबसे अधिक उसी की पूछ है।’’ नर्स ने कहा।
‘‘कोई नई आई है। पहले तो इसका नाम नहीं सुना।’’
‘‘कोई साल हुआ। जो कोई कुछ दे देता है वही ले लेती है। लोभ तो छू तक नहीं गया और स्त्रियों के रोगों में तो इसकी कोई बराबरी ही नहीं कर सकता।’’ नर्स ने साधना के शरीर की चादर को ठीक करते हुए कहा।
‘‘मेरा तो हर काम उसने किया है। इन्हें—नर्स को तो—हाथ ही नहीं लगाना पड़ा। नहीं तो भला लेडी डाक्टर क्या इतना करती हैं ? दूर से देखती रहती हैं, हाथ भी नहीं लगातीं।’’ साधना ने कहा।
‘‘निरभिमान, डाक्टर हो तो ऐसी हो ! इसी से बहुत सी लेडी डाक्टर इससे ईर्ष्या करती हैं। कहती हैं, ‘इसने हमारा काम चौपट कर दिया।’ कोई कोई तो इसे डाक्टर ही नहीं मानती। कहती हैं जाली डिग्री है, कोई नर्स है, लेडी डाक्टर बन गई है।’’ नर्स बोली।
इसके साथ ही घड़ी देखकर नर्स ने दवा पिलाई। साधना का शरीर छूकर बोली, ‘‘अरे, टेम्प्रेचर हो गया है क्या ?’’ उसी समय उसने थर्मामीटर लगाया और नाड़ी की गति देखने लगी। फिर राममोहन की तरफ देखकर बोली-‘‘घबराने की बात नहीं है, ज्वर होना जरूर है। कष्ट क्या कम उठया है ?’’
नर्स के इतना समझाने पर भी राममोहन का चेहरा गम्भीर हो गया। तो क्या डाक्टर को बुलाऊँ ? एक बार वह देख जाएगी। बुखार होना तो किसी तरह भी ठीक नहीं है।’’ इतना कहकर वह शेफाली की तरफ स्वयं दौड़ गया।
शेफाली उस समय स्नानागार में थी। बीस-पचीस मिनट बाद जब वह बाहर निकली तो उसने भीतर से ही कहला दिया कि ज्वर से डरने की कोई बात नहीं है, यह स्वाभाविक है।
राममोहन कुछ भी न कह सका, कुछ देर बैठकर वापस लौट आया। शेफाली सामने नहीं आई। राममोहन ने एक बार उससे मिल लेने का प्रयत्न भी किया, किन्तु अनावश्यक समझकर शेफाली ने टाल दिया।
दूसरे दिन प्रात:काल ही राममोहन उठकर डाक्टर की ओर चल पड़ा, किन्तु वह तो रोगियों को देखने निकल चुकी थी। राममोहन फिर लौट आया। आठ बजे के लगभग शेफाली साधना के घर पहुँची। शेफाली साधना की परीक्षा करके दवा के सम्बन्ध में नर्स से पूछताछ करके जैसे ही लौटी वैसे ही राममोहन सामने आ गया। उसने राममोहन की ओर निरीह दृष्टि से देखकर कहा, ‘‘चिन्ता की कोई बात नहीं है। आज ज्वर नहीं होगा। दुर्बलता तथा कष्ट की अधिकता से ऐसा हो गया है। अच्छा, नमस्ते !’’
शेफाली चली गई। राममोहन उससे साधना के सम्बन्ध में और कुछ भी न पूछ सका। फीस के सम्बन्ध में भी उसने कुछ न कहा। फीस की उसने प्रतीक्षा भी नहीं की। तीन बार देखने पर भी डाक्टर का फीस की चर्चा न करना राममोहन के लिए आश्चर्य की बात थी। उसे मालूम है कि ये डाक्टर लोग रोगी के प्राण निकलने पर भी फीस नहीं छोड़ते। किन्तु इस स्त्री का ढंग बिलकुल और ही है। सुन्दरता में वह साधना से किसी तरह भी कम न थी। उस समय सफेद खादी की साड़ी में नख से शिख तक उसका गाम्भीर्य और रूप छलता-सा पड़ता था। दृष्टि में निरीहता, स्वच्छता, पैनापन उसका गुण था; उसी से वह अपने पेशे की रक्षा करती थी। राममोहन को लगा कि जैसे वह उसके सामने तुच्छ है- न उसके धन का कोई मूल्य है न वैभव का। शेफाली आकर सीधे साधना के कमरे में जाती और बिना इधर-उधर देखे बाहर निकल जाती। जैसे एकमात्र उसका उद्देश्य रोगी को देखना ही हो, बस। शेफाली की निरीह प्रकृति ने राममोहन को उसके सम्बन्ध में विचारने के लिए बाध्य कर दिया। इतनी सुन्दर स्त्री और इतनी निरभिमान और कर्तव्यशील, यही आश्चर्य का विषय है।
साधना के प्रसव-पीड़ा प्रारम्भ होने के पूर्व ही कुछ मित्रों ने उससे शेफाली को बुलाने का आग्रह किया था। फिर भी उसने अपने पुराने डाक्टर तथा एक पहचानी हुई नर्स को बुलाकर ही काम चलाना उचित समझा। जब उनके किए कुछ न हो सका और साधना की अवस्था दुखद से दुखदतर होती गई तब उसने अपनी दुकान के मुनीम को शेफाली को लाने भेजा। दूसरे दिन दुकान पर बैठे मुनीम ने प्रसंग उठने पर राममोहन को जब भोजन की थाली छोड़कर उसके घर दौड़े आने का समाचार सुनाया तब उसका हृदय श्रद्धा तथा सम्मान के अतिरेक से भर उठा। इस पर एक आश्चर्य की बात यह हो रही थी कि शेफाली अपनी विजिट की फीस भी नहीं माँगती। एक बार उसकी इच्छा हुई कि घर जाकर उसकी फीस दे आए। वह जितना ही शेफाली के सम्बन्ध में सोचता उतनी ही उसकी उत्सुकता बढ़ती जाती। वह इसी उधेड़ बुन में पड़ा था कि प्राणनाथ ने कमरे में प्रवेश किया। प्राणनाथ को देखते ही राममोहन खिल उठा।
‘‘साधना की कैसी अवस्था है, ठीक तो है न ? मैंने तो अभी सुना है।’’ प्राणनाथ ने आरामकुर्सी पर बैठते-बैठते पूछा।
‘‘उसके जीने की तो कोई आशा थी नहीं, परन्तु एक नई लेडी डाक्टर शेफाली ने उसे बचा लिया।’’
‘‘शेफाली ?’’ प्राणनाथ ने आश्चर्य, उत्सुकता तथा कौतूहल की दृष्टि से प्रश्न-भरे स्वर में पूछा, ‘‘यह शेफाली कौन है ? कोई नई लेडी डाक्टर है शायद ? नाम तो बिलकुल नया है। हम बैरिस्टरों को शहर के सभी लोगों का ज्ञान रहता है। आज बार रूम में भी उसका जिक्र चल रहा था। हमारे वह बृजेन्द्रनाथ हैं न, उनकी लड़की को उसने बचा लिया। बीमारी तो न जाने क्या थी ! चलो, यह अच्छा ही हुआ। मतलब की बात कहूँ। बात यह है, प्रैक्टिस की हालत तो तुम जानते ही हो। छह मास होने को आए, अभी तक मामूली खर्च भी नहीं निकलता। पापा से भी कहाँ तक रुपया मँगाऊँ ! विलायत में ही मेरा खर्च सँभालने में उन्हें कठिनाई पड़ती थी। इसके अलावा तुम जानते हो हम विलायत से लौटे हैं, हर चीज चाहिए। आखिर जवानी है तो उसे जवान भी तो बनाकर रखना पड़ेगा। मुँह पर पट्टी तो बाँधने से रहा ! मैं चाहता हूँ तुम्हारे सब केस मैं किया करूँ।’’
‘‘अच्छी बात है, मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ! वैसे मेरे वकील तो वही बृजेन्द्रनाथ हैं।’’ राममोहन बोला।
प्राणनाथ ने तिरस्कार भरे स्वर में उत्तर दिया, ‘‘छि: वह बुड्ढा क्या खाकर वकालत करेगा, जो कल तक मुख्तारगिरी करता-करता जैसे-तैसे वकील बना है ? जरा मेरे करिश्मे भी तो देखो। वैसे तुम मेरे पुराने साथी हो, तुम्हें तो पहले ही मुझे अपना वकील बना लेना चाहिए था; किन्तु जो अब तक नहीं हो सका उसकी याद दिलाना तो जरूरी है ही, इतना तो तुम मानोगे।
राममोहन ने उसी ढंग से उत्तर दिया, ‘‘बृजेन्द्रनाथ को छोड़ तो मैं नहीं सकता पर कुछ केस मैं तुम्हें दूँगा।’’
‘‘भाई, बात यह है कि तुम्हें अपने केस तो देने ही होंगे, और अपने दोस्तों के केसेज भी दिलाने होंगे। तुम थोड़े दिनों बाद देखोगे कि प्राणनाथ शहर का लीडिंग वकील होगा। उस दिन हाईकोर्ट में बहस करते हुए मैंने सरकारी प्लीडर के दाँत खट्टे कर दिए। जज भी मान गया। और जज कौन हम लोगों से दूर है ? आखिर हमीं में से तो जज बनते हैं। मैं खुद जज होना चाहूँ तो हो सकता हूँ।’’
‘‘इसमें क्या शक है।’’
‘‘असल बात यह है कि मुझे इस समय पाँच सौ रुपयों की सख्त जरूरत है। काम तो मैं तुम्हारा करूँगा ही, उसी में से काट लेना। और क्या हाल-चाल है ? हाँ, यह तो तुमने बताया ही नहीं कि बच्चा क्या हुआ-लड़का या लड़की ? मेरा खयाल है कि लड़का ही हुआ होगा। तुम्हारे जैसे जवाँमर्द से लड़की की उम्मीद तो की नहीं जा सकती। यदि रुपया न हो तो चैक दे दो।’’
राममोहन ने दराज में से पाँच सौ एक क्रास चैक काटकर दे दिया।
‘‘मेरे योग्य कोई काम हो तो बताना। परन्तु यह क्या तुमने मनहूसियत फैला रखी है कि न शरबत, न चाय। शराब तो भला पिलाओगे ही क्या ?’’
राममोहन इस समय बातें करने के मूड में नहीं था, फिर भी उसने प्राणनाथ के लिए चाय मँगाई। अपने-आप भी एक प्याला पी लिया। चाय पीते-पीते प्राणनाथ बोला-‘‘तुम्हें मालूम है कि मैंने अभी तक शादी नहीं की है। विलायत में एक से दोस्ती हो गई थी, लेकिन वह बड़ी खर्चीली थी और पापा सुनते तो मेरा रहना हराम कर देते, हालाँकि मैं किसी की परवाह नहीं करता। खैर, जाने दो इन बातों को; हाँ, कोई अच्छी लड़की हो तो मैं शादी करना चाहूँगा। वैसे कभी-कभी सोचता हूँ शादी, एक कॉट्रेक्ट है, न भी की जाए तो भी कोई बुराई नहीं है। क्या विचार है तुम्हारा ? तुम मेरे पुराने दोस्त हो, इसलिए जरा बेतकल्लुफ होकर पूछ रहा हूँ रात क्लब में एक औरत से जान पहचान हो गई ! खूब पीती है भई, मैं तो मान गया। सच कहता हूँ, नशे में उसकी आँखों के डोरे लाल हो उठे थे। अच्छा चलूँ। कभी उधर भी आया करो न। तुम तो पूरे बनिए होते जा रहे हो। अरे, रुपया, माना कि बड़ी चीज है, लेकिन है तो साला फूँकने के लिए ही न ? किसी ने क्या ठीक कहा है, ‘जवानी के सागर में गोता लगाने के लिए तू रुपये की नाव पर चढ़कर चल, तुझे जीवन का वास्तविक रत्न मिलेगा।’ कहो, कैसा है ? तुम आज गुमसुम क्यों हो ? कोई चिन्ता है क्या ? चिन्ता जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता है लेकिन लोग प्राय: यह मूर्खता करने से बाज नहीं आते।’’
राममोहन बोला, ‘‘तुम्हारी बात समाप्त हो तो बोलूँ। और बोलूँ भी क्या, जब तुम्हीं सब कुछ कहे डाल रहे हो तो मेरे लिए बाकी ही क्या रहा ! हाँ, एक काम तो करो, जरा शेफाली का पता तो लगाओ, यह है कौन, कहाँ से आई है ?’’
प्राणनाथ एकदम बोल उठा, ‘‘दोस्त, उड़ो मत, उसने तुम्हारी बीवी को ही अच्छा नहीं किया, तुम्हें भी घायल कर दिया है। खैर, मैं एक बार देखूँगा। प्राणनाथ बेरिस्टर की चार आँखें हैं। उसके कान भी देखते हैं और आँखें भी सुनती हैं। अच्छा चलूँ। आज एक को दावत दी है। तुम्हारा चैक तो कल ही भुनेगा पर ढाढ़स तो है ही।’’ इसके साथ ही वह मुँह से सीटी बजाता चला गया। नीचे उतरते-उतरते फिर लौटकर बोला, ‘‘राममोहन दोस्त, इतना काम और करो कि मुझे अपनी कार में इम्पीरियल तक पहुँचा दो, नहीं तो देर हो जाएगी। गेटिंग टू लेट।’’
नौकर दरवाजे से लौटकर बोला, ‘‘एक आदमी बहुत जरूरी काम से आपसे मिलना चाहता है। मैंने कहा, ‘इस समय नहीं मिल सकतीं डाक्टर साहब, सबेरे आना।’ ’’
‘‘हाँ-हाँ, बुलाओ न , कौन है ?’’ शेफाली ने खाने की मेज पर बैठे-बैठे प्रतीक्षा करते हुए कहा। इस समय शेफाली भोजन के लिए बैठ रही थी। इसी बीच में यह पुकार हुई। नौकर के साथ ही आदमी बरामदे में आकर खड़ा हो गया और बेचैनी से ऐसे खड़ा हो गया जैसे उसका सारा शरीर विवशता का रूप धारण किए हो, या कि वह अपने सर्वांग से लेडी डाक्टर को एकबारगी बिना रुके देख लेना चाहता हो। रात के नौ बजे का समय था। दिन-भर रोगियों को देखने व दवा-दारू के बाद स्नान करके भोजन के लिए बैठते ही उस व्यक्ति ने आकर दस्तक दी। शेफाली के लिए यह कोई नई बात तो थी नहीं, रोज ही ऐसा होता था। वह परोसी हुई थाली छोड़कर बाहर बरामदे में आ गई और उसकी तरफ ऐसे देखने लगी मानो उसकी घबराहट को वाणी दे रही हो।
आगन्तुक ने लेडी डाक्टर को देखते ही घिघियाते हुए कहा, ‘‘डाक्टर साहब, सेठ राममोहन के घर बहुत तकलीफ है। उनकी स्त्री मृत्यु-शय्या पर पड़ी है। जल्दी चलिए। बाहर मोटर खड़ी है।’’
‘‘क्या बात है ?’’
‘‘ठीक-ठीक प्रसव नहीं हो रहा। मालूम होता है कष्ट के मारे उनके प्राण निकल जाएँगे। आपको तकलीफ तो..’’ आगन्तुक चुप हो गया।
शेफाली चुपचाप भीतर कमरे में गई जरूरी दवाओं का बक्स लेकर मोटर में आ बैठी। मोटर अबाध गति से चल पड़ी।
राममोहन की पत्नी को सचमुच बहुत कष्ट था। वह दर्द के मारे बेहोश हो गई थी। एक नर्स और कई डाक्टर वहाँ थे। नए-नए इंजेक्शन दिए जा रहे थे, परन्तु कोई लाभ नहीं हो रहा था। कभी-कभी-कभी चेतना हो जाती, उस समय उसकी दर्द भरी चिल्लाहट सुनकर वहाँ बैठे हुए लोगों के प्राण विचलित हो उठते थे। राममोहन, जो कभी साधना के कमरे और कभी बाहर बरामदे में टहल रहा था, शेफाली को देखते ही दोनों हाथ मसलता हुआ निहोरे के स्वर में कहने लगा-‘‘मेरी पत्नी को बचाइए डाक्टर ! उसके प्राण निकल रहे हैं !’’ इतना कहते हुए वह शेफाली को रोगिणी के कमरे तक छोड़ आया। वह धड़धड़ाती भीतर चली गई और उपचार करने लगी। उसने नर्स को छोड़कर बाकी सबको कमरे से बाहर कर दिया।
थोड़ी देर के बाद कमरे से बाहर आकर उसने राममोहन से पूछा, ‘‘दोनों में से एक बच सकता है; बच्चा या उसकी माँ।’’
‘‘क्या दोनों नहीं ?’’
‘‘नहीं, जल्दी बोलो।’’
राममोहन कुछ देर रुका। अन्तर में उसके मुँह से निकल गया, ‘‘उसकी माँ को, डाक्टर साहब !’’
शेफाली भीतर चली गई। सब लोग बाहर बेचैनी से टहल रहे थे। बेचैन राममोहन उस समय भी बीच बीच में टेलीफोन पर कभी बाजार-भाव की आलोचना करता, कभी खरीदे या बचे हुए माल की खबरें अपने साथी व्यापारियों को दे रहा था। इसी बीच कभी-कभी बात करते करते हँस भी पड़ता था, जैसे पत्नी का कष्ट और घर का वातावरण व्यापार में कहीं खो गया है। जिस समय शेफाली साधना के कमरे से लौटी तब तक और लोग चले गए थे। केवल राममोहन टेलीफोन पर हँस-हँसकर उस दिन के व्यापार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था। साधना की चीख पुकार कम हो रही थी। कभी-कभी वह चिल्ला उठती, फिर शान्त हो जाती। इसी बीच में शेफाली ने आकर सूचना दी-‘‘तुम्हारी पत्नी बच गई है, बच्चे को काटकर निकाला गया है।’’ इतना कहकर वह भीतर चली गई।
राममोहन की उम्र अट्ठाईस और उसकी पत्नी की बाईस साल; दोनों का विवाह हुए पाँच-साल हो चुके थे। यह पहला प्रसव-काल था। विवाह के बाद राममोहन के माता-पिता का देहान्त हो चुका था। गृहस्थी का सारा भार उन दोनों पर आ पड़ा। पत्नी साधना जीवन के स्वप्नों की तरह राममोहन को प्रिय थी, इसीलिए बच्चे का मोह छोड़कर उसने साधना को बचाने का आग्रह शेफाली से किया। वैसे भी राममोहन उन लोगों में अपने को नहीं गिनता था जो मूल की अपेक्षा सूद की परवाह करते हैं। वह मानता था, बल्कि उसने सोचा कि फूल की रक्षा के लिए पेड़ की डाल काटना न केवल अदूरदर्शिता ही है, मूर्खता भी है। साधना राममोहन के जीवन की साधना थी। साधना के साथ उसके माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध ब्याह किया था।
राममोहन जब बी.ए. के आखिरी साल में था तभी साधना फर्स्ट ईयर में दाखिल हुई। साधना के रूप-सौन्दर्य पर भौंरों की तरह कॉलेज के लड़के मंडराने लगे। राममोहन में कोई विशेषता नहीं थी-न तो वह पढ़ाई में तेज था, न अच्छा खिलाड़ी और न डिबेटर। वह उनमें भी नहीं था जिन्हें लड़कियों को अपनी ओर खींचने की कला आती है; जो जबान में चूरन का-सा चटपटापन भरकर, आँखों से शराब पीकर, हाथों से जमीन और आसमान दोनों के छोर मिलाते हैं; जो प्रोफेसर के सामने किताबों में आँखें गड़ाए रहते हैं, कानों से देखते हैं और सौन्दर्य का मोहन मन्त्र पढ़ते रहते हैं। वह एक बीच का लड़का था। साधारण ज्ञान, साधारण रूप, एक तरह से साधारण मध्यवित्त का प्राणी, जो संसार में केवल मनुष्य-संख्या बढ़ाने आते हैं। फिर भी साधना ने राममोहन को ही पसन्द किया। वह हर नए काम के लिए भरपूर चन्दा देता, रुपया ऐसे लुटाता जैसे जवानी में दिल लुटाया जाता है। बस, इसी से एक दिन मेनका ने विश्वामित्र को पसन्द कर लिया।
राममोहन का भाग्य हँसा और साधना का रूप। दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया और एक दिन दोनों स्त्री-पुरुष के अनादि बन्धन में जकड़ गए। उस दिन राममोहन ने देखा कि उसके भाग्य की पुरानी गाँठों में से एक ने खुलकर उसकी सोती हुई प्यासी आशा को तृप्ति और विश्वास के रूप में बदल दिया है। उस समय उसने न तो उत्सुकता, जिज्ञासा और तर्क के मर्म तक पहुँचने की चेष्टा की और न वे पुराने परिच्छेद ही दुहराए। वह सौंदर्य की मादक साँसों के तारों से अपने जीवन की रागिनी मिलाकर गाने लगा। इधर साधना, जो गरीब लड़की थी, जिसके कुल से लहर की तरह चंचल लक्ष्मी बहुत दिनों से रूठ गई थी, इस अभिनव किन्तु नई सहेली लक्ष्मी को पाकर फूली न समाई। उसने साधारण राममोहन को असाधारण आदमी का कृपा-पात्र मानकर आत्म-समर्पण करने में जरा भी झिझक का अनुभव नहीं किया।
यही बात एक बार उसने कॉलेज की एक सहेली से कही थी, ‘‘मेरे पास न तो विद्या की चमक है न बुद्धि की तेजी, मेरे पास तो रूप है। फिर क्यों न मैं अपने रूप को ही सोने का मुलम्मा चढ़ाकर चमका दूँ, और यह काम राममोहन जैसे व्यक्ति से शादी करके ही हो सकता है। क्यों न मैं उसके धन से अपने को गर्वित करूँ।’’
सहेली ने जवाब दिया, ‘‘ठीक है, सभी मनुष्य तेज नहीं होते, परन्तु धन की चमक से जो भीतर नहीं होता वह भी चमकने लगता है। धन में और कुछ चाहे न हो, वह अपने गर्व से, अपने प्रसाधन से मनुष्य को राम से लेकर रहीम तक का पार्ट अदा करने में बाहरी सहायता तो कर ही सकता है।’’
साधना ने उत्तर दिया, ‘‘हाँ, यही बात है।’’
जिस समय दूसरी बार शेफाली साधना के कमरे से आई तो चम्पा के फूल की हल्की मुस्कुराहट के समान उसने राममोहन को साधना के बच जाने की बधाई दी।
राममोहन ने जड़ता से भरी कृतज्ञता के साथ शेफाली के शुभ्र मुख पर लहराते यौवन की झीनी छाया में एक मुस्कुराहट देखी और आभार स्वीकार करते हुए कहा, ‘‘धन्यवाद, आपकी कृपा से मेरी पत्नी को जीवन-दान मिला है।’
कहने को यह कहा जा सकता है कि शेफाली राममोहन को देखकर एक बार भीतर-ही-भीतर चौंक सी उठी, परन्तु उसके प्रत्येक बीमार के उपचार को दिखाने वाली आशावादिता और स्वभाव की गम्भीरता से अपने हृदय के बवंडर को दबा लिया और उसी मुस्कराहट के साथ वह रात को फीस के डबल रुपये लेकर मोटर में आ बैठी। राममोहन ने मोटर स्वयं ड्राइव करने के लिए शेफाली का दवा का बक्स अपने-आप उठा लिया। दोनों बाहर आकर आगे की सीट पर बैठ गए। रास्ते में कोई बात नहीं हुई। राममोहन सड़क के दोनों ओर बिजली के प्रकाश की तरह साधना और शेफाली का प्रकाश पाकर मोटर की अबाध गति के साथ-साथ स्वयं भी दौड़ने लगा। केवल उतरते समय शेफाली की तरफ का दरवाजा खोलते हुए राममोहन ने अपना हृदय कृतज्ञता से भिगोकर पूछा, ‘‘क्या आप साधना को प्रतिदिन दो बार देखने का कष्ट उठा सकेंगी ?’’’
‘‘क्यों नहीं, जब तक वह ठीक नहीं हो जाती तब तक मैं सुबह शाम दोनों समय आकर देख लिया करूँगी।’’
‘‘मेरी मोटर, आपको ले आया, ले जाया करेगी।’’
शेफाली बक्स उठाकर धड़-धड़ करती सीढ़ियों पर चढ़ गई। रोममोहन खाली मोटर लेकर लौट आया, जैसे नए बिजली के प्रकाश में दीये की रोशनी मद्धम पड़ गई हो।
साधना अपने कमरे में लेटी थी। मुँह खुला हुआ और सारा शरीर दूध-सी धुली हुई सफेद चादर से ढका था। मालूम होता था जैसे पीली कनेर का एक गुच्छा चाँदनी में खिला पड़ा हो। इस समय उसे अपेक्षाकृत कम कष्ट था, इसीलिए उसे नींद आ गई थी। नर्स उसकी खाट के पास आरामकुर्सी पर ढुलक गई थी। राममोहन साधना को देखकर अपने कमरे में लौट आया और अपने व्यापार के काम में लग गया। परन्तु इतना निश्चित है कि उसका मन काम में नहीं लग रहा था और न उसे नींद ही आ रही थी। प्रत्येक नए कागज पर दस्तखत करते हुए साधना की कष्ट भरी कराह और शेफाली की छाया-मूर्ति उन अक्षरों में उलझ जाती, जैसे वह प्रत्येक बार बक्स में से नई दवा की शीशी निकाल रही हो, या थर्मामीटर का पारा झाड़ रही हो, या इंजेक्शन की सुई, साधना के शरीर में चुभोकर जिन्दगी की बूंदें उसके शरीर में डाल रही हो। और इसी बीच उग्र गर्जन की तरह साधना की विकृत स्वर-भरी पुकार अक्षरों के सीधे टेढ़े रेखा-केन्द्रों पर आकर रुक जाती हो। यह पहला ही अवसर था जब उसने जिन्दगी और मौत की लड़ाई देखी और इतने निकट से कि साधना की चीख के साथ-साथ जैसे उसके शरीर से भी कोई चीज खिंची जा रही हो। अन्त में सब काम जैसे का तैसा छोड़कर वह अपने पलंग पर जा लेटा। उसे कब नींद आ गई, वह उसे भी याद न रहा।
शेफाली दूसरे दिन प्रात:काल हिमावृत कमलिनी की तरह वही बक्स लिये साधना को देखने आ गई। साधना निश्चल प्रतिमा की तरह पड़ी हुई थी, जैसे जिन्दगी मौत की गोद से छीनकर लाई गई हो। उसने आँखों से ही शेफाली को प्रणाम किया और होंठ हिलाकर उसके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित की। शेफाली ने थर्मामीटर लगाकर, नब्ज देखकर उसके धन्यवाद को स्वीकार किया और चुपचाप नर्स से दवा-दारू की व्यवस्था करके पाँच-सात मिनट बाद ही लौट गई।
राममोहन अभी खाट पर पड़ा अपनी रात की नींद का उत्तरार्द्ध, आलस्य उतार रहा था। उसे यह ध्यान भी न था कि लेडी डाक्टर समय की इतनी पाबन्द होगी। वह जो मोटर भेजने का वचन दे आया था, उसकी तो अभी भूमिका भी तैयार न थी। उसने अपने आलस्य को आज पहली बार धिक्कारा और चटपट शेफाली से मिलने के लिए तैयार होने से पहले ही देखा कि शेफाली साधना को देखकर चली भी गई है। शाम को शेफाली को स्वयं लाने की प्रतिज्ञा सी करके वह अपने काम में लग गया। दिन-भर उसका मन दुकान के काम में नहीं लगा। राममोहन को दुकान पर काम भी क्या था ! वह बैठा-बैठा बाजार के भाव-ताव टेलीफोन पर पूछता या आए-गए वैसे ही लोगों से गप्प मारता।
मुनीम लोग अपना काम करते। धन के बंटवारे में चौदह आने भाग उसी का होता, क्योंकि उसने मनुष्य का मस्तिष्क खरीद लिया था। जैसे नमक की खान में हर चीज नमक बन जाती है, इसी तरह राममोहन की दुकान पर काम करने वाले व्यक्तियों का परिश्रम धन की राशि बढ़ाने में केवल राममोहन का साथ देता। इसी बीच में दो बार वह साधना को भी देख आया। वह मुरझाए हुए बासी फूल की तरह नर्स की देख-रेख में उसी तरह पड़ी हुई थी। नींद उसे जब तब घेर लेती और आँख खोलकर देखती कि इस कष्ट के बदले में मिला उसे कुछ भी नहीं है। केवल कटे हुए मांस पिंड की स्मृति दर्द में लिपटी हुई रह गई है। नर्स ने जब शेफाली की कार्यकुशलता की प्रशंसा में अतिरेक-विवेक का ध्यान न रखकर स्तोत्र पढ़ना आरम्भ किया तो राममोहन के हृदय का जैसे द्वार खुल गया, जिसमें प्रेम-सा चिपचिपा रस बहने लगा, ऐसा उसे भासित हुआ। शेफाली की रात की मूर्ति उसके ध्यान में आ गई और उसी समय उसे लिवा लाने की प्रतिज्ञा को दुहराकर वह दुकान पर चला गया।
यथासमय राममोहन मोटर लेकर शेफाली को लेने गया। उस समय डिस्पेन्सरी में बैठे हुए एक बूढ़े-से कम्पाउण्डर ने उसे बताया कि डाक्टर दो बजे दोपहर से जो गई हैं तो अभी तक उन्होंने लौटने का नाम नहीं लिया है और कोई ठीक भी नहीं है। राममोहन चुपचाप एक कुरसी पर जा बैठा। शेफाली के रोगियों को देखने के कमरे में एक कलेण्डर और महात्मा बुद्ध की तस्वीर के अतिरिक्त और कुछ न था। मूविंग शेल्फ में डाक्टरी की कुछ किताबें, मेज पर कार्ड-बोर्ड जिल्द का एक बड़ा सा पैड उसमें स्याही चूस एक तिथिवार कलेण्डर दवात-कलम और एक ‘प्रिस्क्रिप्शन’ पैड के सिवा और कुछ नहीं था। रोगियों के बैठने के लिए दो बैंच, एक तरफ एक कोने में वाश-बेसिन और कमरे के पीछे रोगियों के देखने का विशेष स्थान था। राममोहन बैठा रहा।
लगभग एक-डेढ़ घण्टा बैठने के बाद भी जब शेफाली नहीं आई तब उसने कम्पाउण्डर से एक बार फिर पूछा। वृद्ध ने अपना पहला उत्तर दुहरा दिया और आने वाले लोगों की दवा बनाने लगा। इसी समय एक दवा लेने वाले से मालूम हुआ कि डाक्टर साहब सब मरीजों को देखकर ही लौटेंगी। राममोहन, जो अब सब तरह से ऊब चुका था, हारकर अपने घर पहुँचा तो नौकर ने बताया कि लेडी डाक्टर दूसरी बार फिर साधना को देखकर चली गई हैं और दवा भी उन्होंने लिखकर दी थी, वह आ गई है। साधना की अवस्था में धीरे-धीरे अन्तर आ रहा था। वह सबेरे से अब कुछ अच्छी थी; धीरे-धीरे बोल भी रही थी। राममोहन वहीं जाकर बैठ गया। उसे लगा जैसे वह बहुत थक गया है।
‘‘क्या दुकान से आ रहे हो ?’’ साधना ने होंठों के साथ आँखों के संकेत से पूछा।
‘‘लेडी डाक्टर को बुलाने गया था, पर उसका कुछ भी पता न लगा। यहाँ आने पर मालूम हुआ कि वह तुम्हें देख भी गई है।’’
‘हाँ, बड़ी अच्छी है बेचारी। मुझे तो उसने बचा लिया।’’
‘‘फीस की उसे बिल्कुल परवाह नहीं है। इसीलिए शहर में सबसे अधिक उसी की पूछ है।’’ नर्स ने कहा।
‘‘कोई नई आई है। पहले तो इसका नाम नहीं सुना।’’
‘‘कोई साल हुआ। जो कोई कुछ दे देता है वही ले लेती है। लोभ तो छू तक नहीं गया और स्त्रियों के रोगों में तो इसकी कोई बराबरी ही नहीं कर सकता।’’ नर्स ने साधना के शरीर की चादर को ठीक करते हुए कहा।
‘‘मेरा तो हर काम उसने किया है। इन्हें—नर्स को तो—हाथ ही नहीं लगाना पड़ा। नहीं तो भला लेडी डाक्टर क्या इतना करती हैं ? दूर से देखती रहती हैं, हाथ भी नहीं लगातीं।’’ साधना ने कहा।
‘‘निरभिमान, डाक्टर हो तो ऐसी हो ! इसी से बहुत सी लेडी डाक्टर इससे ईर्ष्या करती हैं। कहती हैं, ‘इसने हमारा काम चौपट कर दिया।’ कोई कोई तो इसे डाक्टर ही नहीं मानती। कहती हैं जाली डिग्री है, कोई नर्स है, लेडी डाक्टर बन गई है।’’ नर्स बोली।
इसके साथ ही घड़ी देखकर नर्स ने दवा पिलाई। साधना का शरीर छूकर बोली, ‘‘अरे, टेम्प्रेचर हो गया है क्या ?’’ उसी समय उसने थर्मामीटर लगाया और नाड़ी की गति देखने लगी। फिर राममोहन की तरफ देखकर बोली-‘‘घबराने की बात नहीं है, ज्वर होना जरूर है। कष्ट क्या कम उठया है ?’’
नर्स के इतना समझाने पर भी राममोहन का चेहरा गम्भीर हो गया। तो क्या डाक्टर को बुलाऊँ ? एक बार वह देख जाएगी। बुखार होना तो किसी तरह भी ठीक नहीं है।’’ इतना कहकर वह शेफाली की तरफ स्वयं दौड़ गया।
शेफाली उस समय स्नानागार में थी। बीस-पचीस मिनट बाद जब वह बाहर निकली तो उसने भीतर से ही कहला दिया कि ज्वर से डरने की कोई बात नहीं है, यह स्वाभाविक है।
राममोहन कुछ भी न कह सका, कुछ देर बैठकर वापस लौट आया। शेफाली सामने नहीं आई। राममोहन ने एक बार उससे मिल लेने का प्रयत्न भी किया, किन्तु अनावश्यक समझकर शेफाली ने टाल दिया।
दूसरे दिन प्रात:काल ही राममोहन उठकर डाक्टर की ओर चल पड़ा, किन्तु वह तो रोगियों को देखने निकल चुकी थी। राममोहन फिर लौट आया। आठ बजे के लगभग शेफाली साधना के घर पहुँची। शेफाली साधना की परीक्षा करके दवा के सम्बन्ध में नर्स से पूछताछ करके जैसे ही लौटी वैसे ही राममोहन सामने आ गया। उसने राममोहन की ओर निरीह दृष्टि से देखकर कहा, ‘‘चिन्ता की कोई बात नहीं है। आज ज्वर नहीं होगा। दुर्बलता तथा कष्ट की अधिकता से ऐसा हो गया है। अच्छा, नमस्ते !’’
शेफाली चली गई। राममोहन उससे साधना के सम्बन्ध में और कुछ भी न पूछ सका। फीस के सम्बन्ध में भी उसने कुछ न कहा। फीस की उसने प्रतीक्षा भी नहीं की। तीन बार देखने पर भी डाक्टर का फीस की चर्चा न करना राममोहन के लिए आश्चर्य की बात थी। उसे मालूम है कि ये डाक्टर लोग रोगी के प्राण निकलने पर भी फीस नहीं छोड़ते। किन्तु इस स्त्री का ढंग बिलकुल और ही है। सुन्दरता में वह साधना से किसी तरह भी कम न थी। उस समय सफेद खादी की साड़ी में नख से शिख तक उसका गाम्भीर्य और रूप छलता-सा पड़ता था। दृष्टि में निरीहता, स्वच्छता, पैनापन उसका गुण था; उसी से वह अपने पेशे की रक्षा करती थी। राममोहन को लगा कि जैसे वह उसके सामने तुच्छ है- न उसके धन का कोई मूल्य है न वैभव का। शेफाली आकर सीधे साधना के कमरे में जाती और बिना इधर-उधर देखे बाहर निकल जाती। जैसे एकमात्र उसका उद्देश्य रोगी को देखना ही हो, बस। शेफाली की निरीह प्रकृति ने राममोहन को उसके सम्बन्ध में विचारने के लिए बाध्य कर दिया। इतनी सुन्दर स्त्री और इतनी निरभिमान और कर्तव्यशील, यही आश्चर्य का विषय है।
साधना के प्रसव-पीड़ा प्रारम्भ होने के पूर्व ही कुछ मित्रों ने उससे शेफाली को बुलाने का आग्रह किया था। फिर भी उसने अपने पुराने डाक्टर तथा एक पहचानी हुई नर्स को बुलाकर ही काम चलाना उचित समझा। जब उनके किए कुछ न हो सका और साधना की अवस्था दुखद से दुखदतर होती गई तब उसने अपनी दुकान के मुनीम को शेफाली को लाने भेजा। दूसरे दिन दुकान पर बैठे मुनीम ने प्रसंग उठने पर राममोहन को जब भोजन की थाली छोड़कर उसके घर दौड़े आने का समाचार सुनाया तब उसका हृदय श्रद्धा तथा सम्मान के अतिरेक से भर उठा। इस पर एक आश्चर्य की बात यह हो रही थी कि शेफाली अपनी विजिट की फीस भी नहीं माँगती। एक बार उसकी इच्छा हुई कि घर जाकर उसकी फीस दे आए। वह जितना ही शेफाली के सम्बन्ध में सोचता उतनी ही उसकी उत्सुकता बढ़ती जाती। वह इसी उधेड़ बुन में पड़ा था कि प्राणनाथ ने कमरे में प्रवेश किया। प्राणनाथ को देखते ही राममोहन खिल उठा।
‘‘साधना की कैसी अवस्था है, ठीक तो है न ? मैंने तो अभी सुना है।’’ प्राणनाथ ने आरामकुर्सी पर बैठते-बैठते पूछा।
‘‘उसके जीने की तो कोई आशा थी नहीं, परन्तु एक नई लेडी डाक्टर शेफाली ने उसे बचा लिया।’’
‘‘शेफाली ?’’ प्राणनाथ ने आश्चर्य, उत्सुकता तथा कौतूहल की दृष्टि से प्रश्न-भरे स्वर में पूछा, ‘‘यह शेफाली कौन है ? कोई नई लेडी डाक्टर है शायद ? नाम तो बिलकुल नया है। हम बैरिस्टरों को शहर के सभी लोगों का ज्ञान रहता है। आज बार रूम में भी उसका जिक्र चल रहा था। हमारे वह बृजेन्द्रनाथ हैं न, उनकी लड़की को उसने बचा लिया। बीमारी तो न जाने क्या थी ! चलो, यह अच्छा ही हुआ। मतलब की बात कहूँ। बात यह है, प्रैक्टिस की हालत तो तुम जानते ही हो। छह मास होने को आए, अभी तक मामूली खर्च भी नहीं निकलता। पापा से भी कहाँ तक रुपया मँगाऊँ ! विलायत में ही मेरा खर्च सँभालने में उन्हें कठिनाई पड़ती थी। इसके अलावा तुम जानते हो हम विलायत से लौटे हैं, हर चीज चाहिए। आखिर जवानी है तो उसे जवान भी तो बनाकर रखना पड़ेगा। मुँह पर पट्टी तो बाँधने से रहा ! मैं चाहता हूँ तुम्हारे सब केस मैं किया करूँ।’’
‘‘अच्छी बात है, मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ! वैसे मेरे वकील तो वही बृजेन्द्रनाथ हैं।’’ राममोहन बोला।
प्राणनाथ ने तिरस्कार भरे स्वर में उत्तर दिया, ‘‘छि: वह बुड्ढा क्या खाकर वकालत करेगा, जो कल तक मुख्तारगिरी करता-करता जैसे-तैसे वकील बना है ? जरा मेरे करिश्मे भी तो देखो। वैसे तुम मेरे पुराने साथी हो, तुम्हें तो पहले ही मुझे अपना वकील बना लेना चाहिए था; किन्तु जो अब तक नहीं हो सका उसकी याद दिलाना तो जरूरी है ही, इतना तो तुम मानोगे।
राममोहन ने उसी ढंग से उत्तर दिया, ‘‘बृजेन्द्रनाथ को छोड़ तो मैं नहीं सकता पर कुछ केस मैं तुम्हें दूँगा।’’
‘‘भाई, बात यह है कि तुम्हें अपने केस तो देने ही होंगे, और अपने दोस्तों के केसेज भी दिलाने होंगे। तुम थोड़े दिनों बाद देखोगे कि प्राणनाथ शहर का लीडिंग वकील होगा। उस दिन हाईकोर्ट में बहस करते हुए मैंने सरकारी प्लीडर के दाँत खट्टे कर दिए। जज भी मान गया। और जज कौन हम लोगों से दूर है ? आखिर हमीं में से तो जज बनते हैं। मैं खुद जज होना चाहूँ तो हो सकता हूँ।’’
‘‘इसमें क्या शक है।’’
‘‘असल बात यह है कि मुझे इस समय पाँच सौ रुपयों की सख्त जरूरत है। काम तो मैं तुम्हारा करूँगा ही, उसी में से काट लेना। और क्या हाल-चाल है ? हाँ, यह तो तुमने बताया ही नहीं कि बच्चा क्या हुआ-लड़का या लड़की ? मेरा खयाल है कि लड़का ही हुआ होगा। तुम्हारे जैसे जवाँमर्द से लड़की की उम्मीद तो की नहीं जा सकती। यदि रुपया न हो तो चैक दे दो।’’
राममोहन ने दराज में से पाँच सौ एक क्रास चैक काटकर दे दिया।
‘‘मेरे योग्य कोई काम हो तो बताना। परन्तु यह क्या तुमने मनहूसियत फैला रखी है कि न शरबत, न चाय। शराब तो भला पिलाओगे ही क्या ?’’
राममोहन इस समय बातें करने के मूड में नहीं था, फिर भी उसने प्राणनाथ के लिए चाय मँगाई। अपने-आप भी एक प्याला पी लिया। चाय पीते-पीते प्राणनाथ बोला-‘‘तुम्हें मालूम है कि मैंने अभी तक शादी नहीं की है। विलायत में एक से दोस्ती हो गई थी, लेकिन वह बड़ी खर्चीली थी और पापा सुनते तो मेरा रहना हराम कर देते, हालाँकि मैं किसी की परवाह नहीं करता। खैर, जाने दो इन बातों को; हाँ, कोई अच्छी लड़की हो तो मैं शादी करना चाहूँगा। वैसे कभी-कभी सोचता हूँ शादी, एक कॉट्रेक्ट है, न भी की जाए तो भी कोई बुराई नहीं है। क्या विचार है तुम्हारा ? तुम मेरे पुराने दोस्त हो, इसलिए जरा बेतकल्लुफ होकर पूछ रहा हूँ रात क्लब में एक औरत से जान पहचान हो गई ! खूब पीती है भई, मैं तो मान गया। सच कहता हूँ, नशे में उसकी आँखों के डोरे लाल हो उठे थे। अच्छा चलूँ। कभी उधर भी आया करो न। तुम तो पूरे बनिए होते जा रहे हो। अरे, रुपया, माना कि बड़ी चीज है, लेकिन है तो साला फूँकने के लिए ही न ? किसी ने क्या ठीक कहा है, ‘जवानी के सागर में गोता लगाने के लिए तू रुपये की नाव पर चढ़कर चल, तुझे जीवन का वास्तविक रत्न मिलेगा।’ कहो, कैसा है ? तुम आज गुमसुम क्यों हो ? कोई चिन्ता है क्या ? चिन्ता जीवन की सबसे बड़ी मूर्खता है लेकिन लोग प्राय: यह मूर्खता करने से बाज नहीं आते।’’
राममोहन बोला, ‘‘तुम्हारी बात समाप्त हो तो बोलूँ। और बोलूँ भी क्या, जब तुम्हीं सब कुछ कहे डाल रहे हो तो मेरे लिए बाकी ही क्या रहा ! हाँ, एक काम तो करो, जरा शेफाली का पता तो लगाओ, यह है कौन, कहाँ से आई है ?’’
प्राणनाथ एकदम बोल उठा, ‘‘दोस्त, उड़ो मत, उसने तुम्हारी बीवी को ही अच्छा नहीं किया, तुम्हें भी घायल कर दिया है। खैर, मैं एक बार देखूँगा। प्राणनाथ बेरिस्टर की चार आँखें हैं। उसके कान भी देखते हैं और आँखें भी सुनती हैं। अच्छा चलूँ। आज एक को दावत दी है। तुम्हारा चैक तो कल ही भुनेगा पर ढाढ़स तो है ही।’’ इसके साथ ही वह मुँह से सीटी बजाता चला गया। नीचे उतरते-उतरते फिर लौटकर बोला, ‘‘राममोहन दोस्त, इतना काम और करो कि मुझे अपनी कार में इम्पीरियल तक पहुँचा दो, नहीं तो देर हो जाएगी। गेटिंग टू लेट।’’
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